GULKAND - 8 in Hindi Moral Stories by श्रुत कीर्ति अग्रवाल books and stories PDF | गुलकंद - पार्ट 8

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गुलकंद - पार्ट 8

गुलकंद

पार्ट - 8

बैंकिंग आवर अपने पीक पर था और कस्टमर खचाखच भरे हुए थे। उधर अपनी कुर्सी पर बैठे वीरेश को लग रहा था मानों शरीर जवाब दिये जा रहा हो, हाथ-पैर ठंढे हो रहे हों। किसी भी काम के लिये मन एकाग्र हो ही नहीं पा रहा था तो 'डू नाॅट डिस्टर्ब' की तख्ती लगा खिड़की से सटे सोफे पर आ बैठा। कई-कई उनींदी रातों के बाद अब उसने यह तय किया था कि अम्मा उसकी पहली जिम्मेदारी हैं और उनको खुश रखने के लिये वह सबकुछ करेगा। सही-गलत का निर्णय समय पर छोड़ना होगा। अम्मा और अन्नी के बीच सुलह होने के इंतजार में बिताई गई इस अवधि में उनके मध्य दूरियाँ और बढ़ ही गई थीं, घटी तो बिल्कुल ही नहीं थीं। कल को अम्मा बहुत बीमार हो जाएँ और अन्नी अपनी परवाह छोड़कर उनकी सेवा करे... और फिर अम्मा का दिल बदल जाय... खूबसूरत भले हो पर यह ख्याल अब दिवास्वप्न ही था। ऐसा समर्पण शुरुआत में पता नहीं मिला होता या नहीं पर अब तो अन्नी की ओर से नहीं ही आएगा। प्रांशु के साथ नीचे जाकर अम्मा ने सिर्फ वॉचमैन और कामवालियों से दोस्ती की है। उनको अपने दुःख सुना-सुनाकर इतने दिनों में वह अन्नी की एक पढ़ी-लिखी समझदार महिला वाली छवि को काफी नुकसान पँहुचा चुकी हैं। एक-दूसरे से कोई मतलब न रखने वाले पड़ोसियों के यहाँ भी अन्नी के स्वभाव की मीन-मेख निकाली जाने लगी है, अम्मा के कष्टों का वर्णन होने लगा है। इस आग की लपटें अलग-अलग माध्यमों से अन्नी तक भी पँहुच रही थीं और यह सब बर्दाश्त करना उसके लिये आसान नहीं होने वाला! अब वह किसी भी दिन फट पड़ेगी, उसे पता था। उस स्थिति में वह क्या करने वाला है? पर उसे दूसरी तरह से सोचना होगा.. अम्मा नासमझ हैं, उसके ऊपर आश्रित हैं जबकि अन्नी अपने पैरों पर खड़ी है और जरूरत पड़ने पर अपने रास्ते स्वयं बनाने में सक्षम है। तो क्या अब उसे अन्नी के बिना जीने की आदत डालनी होगी? और प्रांशु? उसका बचपन तो वीरेश से भी ज्यादा शापित हो जाएगा अगर माँ-बाप में से किसी एक को चुनना पड़ा...सर में तेज दर्द शुरू हो गया था.. दम घुटा जा रहा था... अपना स्वयं दोषी जैसा लग रहा था और किसी को चेहरा दिखाने तक की हिम्मत नहीं महसूस हो रही थी। बेवजह तेज उबकाई सी आने लगी तो वह उठ कर कमरे से बाहर निकल आया और निरूद्देश्य बैंक की बिल्डिंग के पीछे की तरफ टहलने लगा।

क्यारियों में खिले लाल-लाल देसी गुलाब महमहा रहे थे और हवा के झोंकों के साथ उनकी खुशबू नथुनों तक पँहुच रही थी। उसी ने तो लगवाए थे यहाँ पर ये पेड़... अन्यथा बड़े शहरों में आजकल देसी गुलाब को पूछता ही कौन है? यहाँ मिलते हैं बड़े-बड़े अँग्रेजी गुलाब जो देखने में खूबसूरत भले ही हों, खुशबू से तो उनका दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं होता। उनको लगाने पर देख-रेख भी बहुत करनी पड़ती है जबकि ये देसी गुलाब, एक बार लगा दो तो अपने-आप ही बढ़ते हैं, सीजन आने पर फूलों से लद जाते हैं। उसके गाँव वाले घर में इनके दर्जनों पेड़ थे और वह रोज डलिया भर फूल तोड़कर अम्मा को दिया करता था। ऐसी ही फूलों भरी जिंदगी चाहता था न वह, क्या पता था कि एक दिन उसके दामन में सिर्फ काँटे ही बच रहेंगें? हवा के साथ मद्धिम-मद्धिम झूमते गुलाब अब ताना मारते से प्रतीत हो रहे थे। एक छोटा सा परिवार नहीं सँभाल पा रहा, हार गया है वह! अपना मजाक बनाते उन फूलों को उसने उसी बचपन वाले अभ्यास से तोड़कर पेड़ से अलग कर दिया तब होश आया कि यह क्या कर रहा है वह! कोई देख तो नहीं रहा है? माली आकर क्या कहेगा? अब कहाँ फेंकेगा वह इतने फूलों को? कुछ नहीं समझ में आया तो उन्हें एक पैकेट में भरकर अपने बैग में ही छिपा लिया.. बाहर कहीं फेकना होगा।

"ये गुलाब के फूल कहाँ से ले आये हो?" उसके बैग से टिफिन बॉक्स निकालती अन्नी ने पुकार कर पूछा तो उसे कोई जवाब ही न सूझा।

"कितनी अच्छी खुशबू है इनकी... पर इस तरह से क्यों तोड़ा इन्हें? डंठल वाले होते तो फूलदान में ही सजा देती। अब ये किस काम के?" अन्नी ने कहा। तबतक शायद उन गुलाबों की खुशबू अम्मा तक भी पँहुच चुकी थी। वह तमककर बाहर आईं और पैकेट को अन्नी के हाथ से छीन लिया... "अच्छी चीजों को पहचानने का शऊर होना चाहिए!"

"पर इसका होगा क्या? भगवान पर तो दो-चार फूल ही चढ़ेंगे न? कमरे में रखे देती हूँ जबतक ताजे हैं..." अम्मा की बात पर अन्नी हमेशा की तरह परेशान दिख रही थी।

"इसका गुलकंद बनता है... मीठा और खुशबूदार! अब किसी को माँ-बाप ने कुछ सिखाया हो तब न जानेगा?" अम्मा ने आदतन ताना मारते हुए कहा तो अचानक वीरेश के होंठों पर एक मुस्कान सी आ पसरी। उसने बाहर आकर पूछा, "अम्मा तुम बनाओगी? जाने कितना युग बीत गया गुलकंद नहीं मिला है खाने को!"

"और कौन बनाएगा? और किसको आता है?" आवाज में अपनी अहमियत खनक रही थी। आक्रोश के घूँट पीती, पराजित सी खड़ी अन्नी पर विजयी दृष्टि डाल, वह गुलाबों की पंखुड़ियों को निकालने, चुनने और धोने में व्यस्त हो गई थीं।

एक नया रास्ता निकलता दिख रहा था। वीरेश को लगा, बात अभी उतनी नहीं बिगड़ी है... थोड़ा दिमाग से काम ले तो सँभाली भी जा सकती है। शायद अन्नी की दिनचर्या से हीनभाव महसूस कर इनके अवचेतन ने उसे अपना दुश्मन मान लिया है। कुछ अलग से अहमियत देकर.. कभी-कभार अन्नी से बेहतर साबित कर.. उनको खुश रखा जा सकता है या नहीं, प्रयोग करके देखना पड़ेगा। दो-तीन दिन बाद उसने बाजार से दस लीटर दूध खरीदा। एक नई बाल्टी में दूध के पैकेट खाली कर लिये। घर लौटकर तेज आवाज में पुकारा, "अन्नी इधर आओ, देखो मैं क्या लाया हूँ!" उसके पास आने पर कहा, "बैंक की तरफ से किसी को डेयरी प्रोजेक्ट लगाने के लिए लोन दिया था। वह आज मुझे ये दस लीटर दूध गिफ्ट में दे गया है।"
भौंचक्की सी अन्नी बाल्टी देखकर आश्चर्य से बोली, "इतना दूध? अब मैं क्या करूँगी इसका? यह तो फ्रिज में भी नहीं आएगा।"
"अरे!" वीरेश घमंड से बोला, "इससे कहीं ज्यादा दूध तो रोज हमारी गईया देती थी। अम्मा ने तो कभी नहीं कहा कि फ्रिज में नहीं अमाएगा?"

अन्नी का परेशान चेहरा देखते ही अम्मा कमरे से बाहर निकल आईं। "इसे कहते हैं खांटी दूध!" उनकी आँखें चमकती देख वीरेश ने परेशान होकर कहा, "पर अब क्या करना है इसका? पड़ोसियों में बँटवा दूँ?"
अम्मा तैश में आ गईं। "ऐसे कैसे बँटवा देगा? इतने महीनों में पहली बार तो कोई कायदे की चीज आई है 'तेरे' घर में!"
अनीता का चेहरा सफेद पड़ चुका था... एक ही इतवार मिलता है उसे जब कितने ही काम निबटाने होते हैं। प्रांशु को कैमिस्ट्री में काफी समस्या है, सोचा था दो-चार दिन बैठाकर स्वयं पढ़ाएगी, तीन-तीन कक्षाओं की कापियाँ रखी हैं जाँचने को और अब इस दूध को सधाने के लिये उसे पता नहीं क्या-क्या करना पड़ेगा! वीरेश ने देखा उसकी इस मनःस्थिति को अम्मा बखूबी पढ़ रही थीं और मजा ले रही थीं। फिर उस ओर उपेक्षा भरी नजर उछालते हुए अधिकार से बोलीं, "थोड़ा मावा बना लेते हैं.. अनरसा खाओगे? कल तक थक्का दही भी तैयार हो जाएगा।"
वीरेश ने भी अन्नी की तरफ ध्यान देने के बजाय अम्मा को ही महत्व दिया, "पर अम्मा, यहाँ तो गैस का चूल्हा है। तुम उसपर काम कैसे करोगी?"
"तू है न, सिखाएगा मुझे! थोड़ी देर के लिये चूल्हा उठाकर नीचे जमीन पर रख देना।"

कमजोर नस पकड़ में आ गई थी क्या? अम्मा को अन्नी से थोड़ा ज्यादा महत्व चाहिये। उनका मनोविज्ञान समझ में आने लगा था.. उसे अब अन्नी के कामों की आलोचना करनी पड़ेगी। पर यह कुछ वह अन्नी को समझा नहीं सकता... समझाने के प्रयत्न में कहीं वह अम्मा को अपनी नजर से और गिरा ही न दे! और एकतरफा पक्षपात से अम्मा ने भी कहीं यही आदत बना ली तो?

क्रमशः

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