Jehadan - 5 - Last part in Hindi Fiction Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | जेहादन - भाग 5 (अंतिम भाग)

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जेहादन - भाग 5 (अंतिम भाग)

भाग -5

इस उद्देश्य के लिए धर्मान्तरण के साथ-साथ लैंड-जिहाद को भी चलाने में जी-जान से जुटे हुए हैं। इसके लिए देश को मज़ारों, मस्ज़िदों, मदरसों, क़ब्रिस्तानों से पाट देने का अभियान प्रचंड गति से चला रखा है। काफ़ी हद तक सफल भी हो चुके हैं, क्योंकि जिधर भी निकलो लगता है मस्ज़िदों, मज़ारों के क़बीले में आ गए हैं। 

सोने पे सुहागा यह कि उनके इस अभियान को गति, ऊर्जा देने के लिए कांग्रेस ने उनको उन्नीस सौ पचानवे में वक़्फ़ बोर्ड क़ानून बना कर एक ऐसा अमोघ हथियार दे दिया है, जिसके ज़रिए मात्र दस-बारह साल में ही उनके क़ब्ज़े की ज़मीन, सम्पत्ति ढाई गुने से ज़्यादा हो गई। आज देश में सेना, रेलवे के बाद सबसे ज़्यादा ज़मीन वक़्फ़ के पास है। 

इस क़ानून के सहारे वो देश में कहीं भी, किसी भी ज़मीन सम्पति को अपनी कह दें तो वह उनकी हो जाएगी, उसके दावे को सुप्रीम कोर्ट भी नहीं सुन सकता। वक़्फ़ क़ानून देश के सारे क़ानूनों से ऊपर है। इनकी अंधेरगर्दी तो इतनी बढ़ गई है कि तमिलनाडु राज्य के हिंदू बाहुल्य एक पूरे गाँव को ही वक़्फ़ सम्पत्ति कह दिया, जिसमें इस्लाम से भी पहले का पंद्रह सौ साल पुराना मंदिर भी सम्मिलित है। 

उसने सोचा कि वह कितना ग़लत कर रही थी इन सारी बातों पर अविश्वास करके। पापा सही ही कहते थे कि कांग्रेस ने सत्ता की लालच में देश के टुकड़े ही नहीं किये, बल्कि नेहरू ख़ानदान का शासन पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहे इसके लिए षड्यंत्रपूर्वक इसे हिन्दू राष्ट्र घोषित न करके एक धर्मशाला बना कर रख दिया। देश की जड़ ही खोद डाली है, उसके अस्तित्व पर ही प्रश्न-चिन्ह लगा दिया है। इतने पर भी उसे संतोष नहीं हुआ तो एक के बाद एक देश की जड़ में मट्ठा डालने वाले क़ानून बना-बना कर सनातनियों, सनातन संस्कृति, सनातन देश को नष्ट करने पर तुली हुई है। 

आज मैं इस हाल में हूँ तो सिर्फ़ इसी कांग्रेस के कारण, न इसने देश को धर्मशाला बनाया होता, न विधर्मियों को रहने, पलने, बढ़ने का अवसर मिलता, न आज देश की यह हालत होती। दोषी हम सनातनी भी कम नहीं हैं। ऐसी कुकर्मीं पार्टी को वोट दे-दे कर आज भी ढो रहे हैं। मैंने भी अपने पैरों पर ही कुल्हाड़ी मारी थी पार्षदी के चुनाव में इसे अपना पहला वोट देकर। वो कांग्रेसी पार्षद भी एक वोट से ही जीता था। 

उसे यातना देने का दौर चलता रहा। जल्दी बच्चे पैदा करने का प्रयास होता रहा, लेकिन संयोग से जिहादियों का यह सपना पूरा नहीं हो पा रहा था। कई महीने बीत गए तो खीझकर कई जिहादी उसके साथ हैवानियत करने लगे। एक दिन वह नशे में धुत्त एक जिहादी का शोषण झेल रही थी, तभी उसे अवसर मिला और वह भाग निकली। सीधे पुलिस थाने पहुँची, रिपोर्ट लिखवाई और पुलिस को लेकर सीधे जिहादियों के अड्डे पर पहुँच गई। 

वह जिहादी निकल भागने के लिए गेट के बाहर आ चुका था, लेकिन समय रहते पुलिस ने उसे धर दबोचा। क़ानूनी कार्रवाई के बाद अगले दिन जब वह अपनी मौसी के घर पहुँची तो उन लोगों ने उससे बात भी करने से मना कर दिया। घर में घुसने तक नहीं दिया। यह देख कर उसने मन ही मन सोचा, मुझसे इतनी घृणा करने से पहले इन्हें मेरी बातें सुननी चाहिए थीं। 

एक वह सब हैं जो अपने समुदाय के लोगों का आँख मूँद कर समर्थन करते हैं, मदद करते हैं, सही ग़लत की बात पूछते ही नहीं। उसे समझ में नहीं आ रहा था, वह क्या करे, कहाँ जाए? उसके पास न पैसे थे, न ही मोबाइल था, कि वह घर बात कर पाती। वह फिर से थाने पहुँच गई। पुलिस वालों ने उसकी मदद की। उसके घर फोन किया। पेरेंट्स से बात कराई, लेकिन वह लोग भी सख़्त नाराज़ मिले, बात ही नहीं करना चाहते थे। 

उनकी नाराज़गी यह थी कि नौकरी करने के लिए भेजा था, आवारागर्दी करने के लिए नहीं। इसने कुल ख़ानदान की नाक डुबो दी है। हमारे लिए यह मर गई है। उसे हर तरफ़ अँधेरा ही अँधेरा दिख रहा था। जिहादियों की क़ैद में रहने के चलते ऑफ़िस में कोई सूचना नहीं दे पाई थी, इससे उसकी नौकरी भी जा चुकी थी। बड़ी मुश्किल से ऑफ़िस के दो-तीन लोगों से संपर्क किया, उन्हें सारी बातें बताईं कि कैसे उसे फँसाया गया तो कुछ लोग उसकी मदद के लिए आगे आ गए। उन्हीं लोगों ने हिन्दू संगठनों से भी संपर्क कराया, वह भी भरपूर मदद करने लगे। 

पुलिस केस होते ही निखत और खुदेजा की भी नौकरी जा चुकी थी। जुबेर के साथ उन दोनों को जबरन धर्मांतरण, अपहरण, रेप, जानलेवा हमला करने, देश-विरोधी षड्यंत्र रचने आदि के आरोप में जेल भेज दिया गया। जब क़ैदी वाहन में उन्हें बैठाया जाने लगा तो वह भी अवसर मिलते ही उनकी आँखों में आग्नेय दृष्टि से देखती हुई बोली, “मुझे तो मेरे देवताओं ने बचा लिया, तुम भी बुला लो अपने अल्लाह को . . .” 

पुराने सहयोगियों, हिन्दू संगठनों के प्रयासों से उसकी नौकरी भी बहाल हो गई। स्थितियाँ कुछ बदलीं तो उसने कई बार घर फोन किया, माँ-बाप, भाई-बहनों से बात करने का प्रयास किया, लेकिन किसी की भी नाराज़गी कम नहीं हुई। जब उसने कहा, “आप लोग मेरी बात तो सुन लीजिए, मैं घर आकर आपको सब बताती हूँ तो उसे साफ़ मना किया गया कि तुम्हें यहाँ आने की कोई आवश्यकता नहीं है। तुम्हारा अब इस घर से कोई लेना-देना नहीं है।” 

आख़िर उसने परिस्थितियों से समझौता कर लिया। समय बीतता गया वह गुमसुम सी अपने में सिमटी आगे बढ़ती रही। जब-जब उसे घर की याद आती, तब-तब उसका ख़ून उबल पड़ता। उसका मन अपना जीवन, परिवार को छल-कपट धोखे से बर्बाद करने वाली जिहादिनियों, जिहादियों के झुंड से प्रतिशोध लेने के लिए तड़प उठता। उसने कुछ हिंदूवादी संगठनों की मदद से कोर्ट में अपना केस लड़ने के लिए एक ऐसे वकील को केस सौंपा जिसे जिहादी गल्फ के पेट्रो डॉलर से भी ख़रीद न सकें। 

वकील ने भी अपनी पूरी योग्यता, ताक़त लगाकर चार साल में कोर्ट में केस को ऐसी स्थिति में पहुँचा दिया कि जिहादियों के झुंड को उनके कुकर्म की सज़ा मिलना क़रीब-क़रीब तय हो गया। इस चार साल के समय में वह जिस मानसिक स्थिति से गुज़र रही थी, वह उसे रह-रह कर पूरी तरह तोड़ देने में कोई कोर-कसर बाक़ी नहीं रख रहे थे, लेकिन अपने साथ हुए अन्याय का कठोर प्रतिकार करने की उसकी ज़िद, उसे हर स्थिति से मज़बूती से लड़ने के लिए हमेशा तैयार करती रही। 

इस बीच वह मौसी को अपनी बात समझाने में सफल होती चली गई। मौसी ने यह ज़िम्मेदारी भी ली कि उसके पेरेंट्स को वह समझाएँगी-बुझाएँगी कि उसकी ग़लती नहीं है। उसे धोखे से फँसाया गया। मौसी की कोशिशें धीरे-धीरे सफल होने लगीं। मौसी के बच्चे भी उसके साथ शुरूआती दिनों की तरह मिक्सप होने लगे। इसी बीच एक सप्ताहांत वह उनके यहाँ पहुँची तो पूरा परिवार वैश्विक स्तर पर बहुचर्चित लव-जिहाद पर केंद्रित पिक्चर ‘केरला स्टोरी’ देखने जा रहा था। 

 

उसकी मौसेरी बहन बोली, “दीदी आप भी हमारे साथ चलिए, मेरी फ़्रेंड कह रही थी इस पिक्चर को हर किसी को देखना चाहिए।” मौसी-मौसा ने भी कहा तो वह चली गई। इस पिक्चर के बारे में वह भी रोज़ सुनती थी। जब-जब सुनती तब-तब उसे अपने साथ हुई हैवानियत याद आती, प्रतिशोध के लिए मन धधक उठता। उसका मन करता उन सबका शिरोच्छेद कर अपनी प्रतिशोधाग्नि शांत करे। 

घर लौटकर सभी पिक्चर में दिखाए गए लव-जिहाद, धर्मान्तरण, राष्ट्रांतरण के भयावह प्रयासों, स्थितियों की चर्चा कर रहे थे कि, अगर अब भी इस भयावह घिनौनी साज़िश के ख़िलाफ़ सभी उठ नहीं खड़े हुए तो निकट भविष्य में सनातन देश, संस्कृति के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लग चुका है। इस प्रश्न-चिन्ह को तथा-कथित सेकुलर राजनीतिक पार्टियों का गैंग तुष्टीकरण की राजनीति के चलते और बड़ा कर रहा है। 

इसी बातचीत के दौरान मौसा-मौसी, उनके बच्चों ने उससे कहा कि तुम एक बार फोन पर बात किए बिना पेरेंट्स के पास सीधे घर जाओ। तुम्हारे साथ हुए छल-कपट के बारे में उन्हें बार-बार बताया गया है। इतने वर्षों बाद अचानक तुम्हें सामने देखकर उनका मन बदल जाएगा, ग़ुस्सा भी ठंडा हो जाएगा, तुम्हें अपना लेंगे। इन्हीं बातों के बाद उसका मन पेरेंट्स के पास जाने का बना। 

लेकिन घर पहुँच कर नाम शिला-पट्टिका पर अपना नाम मिटाया हुआ पाकर उसकी आशा टूट गई और वापसी के लिए स्टेशन पहुँच गई। संयोग से तत्काल की टिकट भी मिल गई। ट्रेन आने का समय हो गया। वह सोचती रही क्या अब इस जीवन में माँ-बाप, भाई-बहन उसे कभी भी स्वीकार नहीं करेंगे। यह लोग कम से कम एक बार तो यह सोचें कि मैं धोखे का शिकार हुई हूँ। 

स्टेशन पर हलचल बढ़ गई थी, ट्रेन के प्लैटफ़ॉर्म पर पहुँचने की अनाउंसमेंट होने लगी। आते ही सभी उसमें बैठे और उन्हें लेकर ट्रेन चली गई, प्लैटफ़ॉर्म पर एक बार फिर से सन्नाटा छोड़ गई। लेकिन उसके दिमाग़ में भयंकर कोलाहल मचा हुआ था, उसकी आँखें अभी भी आँसुओं से भरी हुई थीं। वह एकदम से उठी और स्टेशन से बाहर आ गई। 

फिर से कैब बुक किया अपने माँ-बाप के आँचल की छाँव में शरण पाने के लिए। उसे पूरा विश्वास था कि मौसी की कही बात सही निकलेगी, माँ-बाप उसे देखकर ज़रूर अपना लेंगे। दिन ढलने को था लेकिन आसमान से अंगारे अभी भी बरस रहे थे। उसका गला गाड़ी में एसी चलने के बावजूद बार-बार सूख रहा था। इस बार उसके पास स्टेशन पर लिया गया पानी था। उसे वह पी रही थी, मगर गला था कि वह सूखता ही रहा। जैसे-जैसे गाड़ी घर के क़रीब पहुँच रही थी, उसकी धड़कनें बढ़ती चली जा रही थीं। 

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