Rubika ke Daayre - 4 - Last part in Hindi Fiction Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | रुबिका के दायरे - भाग 4 (अंतिम भाग)

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रुबिका के दायरे - भाग 4 (अंतिम भाग)

भाग -4

“भ्रम फैला भी लेकिन लाचित ने अपनी बुद्धिमत्ता, रण-कौशल से ब्रह्मपुत्र नदी युद्ध में भी मुग़ल सेना को कुचल कर रख दिया। मुग़लों ने हार मानते हुए लिखा ‘महाराज की जय हो! केवल एक ही व्यक्ति सभी शक्तियों का नेतृत्व करता है! यहाँ तक कि मैं राम सिंह, व्यक्तिगत रूप से युद्ध-स्थल पर उपस्थित होते हुए भी, कोई कमी या कोई अवसर नहीं ढूँढ़ सका!’ ऐसे लोगों के बारे में इतिहास में कितना पढ़ाया जाता है? दक्षिण में भी मुग़ल असफल रहे। सच छिपा कर हर वह झूठ स्थापित किया गया जो इस देश को अपमानित महसूस कराए, बर्बाद करे।” 

महबूबा, रूबिका की बातों से खीझती, परेशान होती हुई बोली, “रूबिका इतिहास में क्या हुआ, क्या नहीं, किसने मक्कारी की, किसने कितना झूठ लिखा, हमें इन सब चक्करों में नहीं पड़ना है। हमें तो आज देखना है। हल्द्वानी में अपनी क़ौम के साथ खड़े होना है बस।”

रूबिका ने कुछ सोचते हुए कहा, “महबूबा, मैं तुम्हारी तरह इतिहास से किसी भी तरह से मुँह नहीं मोड़ सकती। मैं तुम्हें पहले भी कई बार बता चुकी हूँ कि जब से मैंने यह जाना है कि मेरा ख़ानदान छह पीढ़ी पहले एक क्षत्रिय बड़ा ज़मींदार हुआ करता था, तब से मैं अपनी जड़ों को तफ़सील से जानने कि कोशिश में लगी हुई हूँ। 

“तुमसे भी कई बार कहा कि अपनी जड़ों को खोजो, कौन हो तुम यह जानो। लेकिन तुम इस बात को सुनती ही नहीं। मगर मेरा पूरा यक़ीन अब इस बात पर है कि अपने इतिहास को जाने-समझे बिना न हम आज को ठीक से समझ पाएँगे और न ही कल के बारे में कुछ तय कर पाएँगे।”

यह सुन कर महबूबा के चेहरे पर ग़ुस्सा खीझ दिखने लगी थी। उसने उस पर नियंत्रण रखने की कोशिश करते हुए कहा, “रूबिका मैं तुमसे इतिहास पर बहस करने नहीं आई हूँ। प्रोफ़ेसर सईद ने जो कहा था, वह बताने के साथ ही यह गुज़ारिश करने आई हूँ कि आज फिर से क़ौम को तुम्हारी, हमारी, सबकी ज़रूरत है। हम-सब को फिर से बिना किसी आनाकानी के पुराने जज़्बे यानी की शाहीन-बाग़ वाले जज़्बे के साथ हल्द्वानी पहुँचना है बस।”

महबूबा ने बहुत ज़ोर देकर, क़रीब-क़रीब आदेशात्मक लहजे में अपनी बात कही तो रूबिका को ग़ुस्सा आ गई। उसने महबूबा की आँखों में देखते हुए कहा, “महबूबा मैं बोलना तो नहीं चाहती थी, लेकिन तुमने मुझे मजबूर कर दिया है बोलने के लिए तो सुनो प्रोफ़ेसर सईद के असली चेहरे के बारे में। 

“क़ौम के लिए उनकी इतनी हमदर्दी तब कहाँ चली गई थी, जब मैं अपनी बड़ी बहन का जीवन तबाह होने से बचाने के लिए उनसे मदद माँगने गई थी। तब उन्होंने बजाए मदद करने के अपने जाल में फँसाने की कोशिश की। 

“मुझे कई दिन तक दौड़ाया और फिर एक पुरानी बात का हवाला देकर ब्लैक-मेल किया, बहुत दिन तक मेरी इज़्ज़त लूटते रहे, मेरे इसी बदन को शराब पी-पी कर जानवरों की तरह नोचते रहे। बदन पर से वो निशान अब भी मिटे नहीं हैं। तुम्हें यक़ीन नहीं होगा इसलिए ये . . . ये देखो सुबूत . . .” 

बहुत आवेश में आ चुकी रूबिका ने बात पूरी करने से पहले ही कुर्ता उतार कर पेट, पीठ कुछ अन्य हिस्सों पर सईद के वहशीपन के निशान दिखाए। लेकिन महबूबा के चेहरे पर कोई आश्चर्य के भाव आने के बजाए ऐसा लगा जैसे कि वह पहले से ही सब-कुछ जानती है। 

मगर आवेश में इस बात से अनजान रूबिका कहे जा रही कि “आज मैं उनका चेहरा बेनक़ाब कर रही हूँ, उन्होंने जो किया वह बताने जा रही हूँ, हालाँकि मैं जानती हूँ कि मालूम तुम्हें भी होगा। लेकिन तुम उनकी इतनी पैरवी कर रही हो इसलिए कह रही हूँ कि . . .”

इसी वक़्त महबूबा बोल पड़ी, “मैं पैरवी नहीं कर रही हूँ, मैं तो . . .” 

“सुनो-सुनो, पहले मेरी बात सुनो, मेरी बहन उज्मा का मामला तो तुम्हें काफी-कुछ मालूम है। उसके जुआरी शौहर ने पहली बार तलाक़ दिया, फिर कुछ दिन बाद ही अपने बड़े भाई से हलाला करा कर दोबारा निकाह कर लिया। इसके कुछ दिन बाद ही घर में प्रॉपर्टी को लेकर झगड़ा हो गया। 

“सारे भाई अपनी-अपनी प्रॉपर्टी लेकर अलग हो गए। इसी बीच उज्मा के शौहर ने जुए के साथ-साथ नशेबाज़ी भी शुरू कर दी। घर का सामान भी बेचने लगा। जिससे रोज़ झगड़ा होने लगा। एक दिन उसने फिर तलाक़ दे दिया। अबकी हलाला की बात घर में नहीं बन पाई, क्योंकि भाइयों में तो प्रॉपर्टी को लेकर पहले ही ख़ूब मार-पीट, लड़ाई-झगड़ा हो चुका था, सब जानी दुश्मन थे, बोलचाल भी बंद थी। 

“उसने एक मौलवी से मसले का हल पूछा, तो वह ख़ुद ही हलाला करने के लिए तैयार हो गया, तो उसने उज्मा को मौलवी के पास हलाला के लिए जाने के लिए मजबूर कर दिया। समस्या तब और बड़ी हो गई जब मौलवी ने बातचीत में तय हुए समय पर उज्मा को तलाक़ देने से आनाकानी करनी शुरू कर दी। 

“वह उसको रोज़ शारीरिक यातना देता रहा। शौहर बार-बार तलाक़ के लिए कहता रहा, मगर मौलवी टालता रहा। शौहर उसके पास बार-बार जाता गालियाँ खाकर लौट आता। उसके तीनों बच्चे लावारिस से होकर रह गए थे। मौलवी ने बच्चों को लाने के लिए सख़्त मना कर दिया था। जुआरी-शराबी बाप के चलते बच्चों को मैं लेते आई। 

“वह मौलवी उज्मा का शारीरिक शोषण इतनी भयानक तरीक़े से करता था, लगता कि जैसे वह उसे तड़पा-तड़पा कर मारना चाहता है। मेरे घरवाले, मैं, उसका शौहर सारी कोशिश करके थक गए, लेकिन मौलवी ने उज्मा को तलाक़ नहीं दिया कि वह फिर से अपने लफ़ंगे शौहर से निकाह कर पाती, अपने बच्चों को सँभाल पाती। 

“हार कर मैं सईद के पास गई कि उनका बड़ा रुतबा है, तमाम महत्त्वपूर्ण संगठनों से जुड़े हुए हैं, वह मौलवी से कहेंगे तो वो उज्मा को तलाक़ दे देगा। मेरी बात सुनते ही सईद ने ऐसी बातें कहीं कि लगा बस अभी मौलवी को फोन करके उज़्मा को मिनट भर में तलाक़ दिलवा देंगे। 

“लेकिन देखते-देखते तीन महीने बीत गए। मैं सईद और मौलवी के बीच में फुटबॉल बनके रह गई। दोनों मुझे किक मारते और मैं इधर से उधर, उधर से इधर होती रही। उज्मा की हालत देखती तो कलेजा फट जाता। उसका चेहरा, बदन चोटों से भरा रहता था। बड़ी मशक़्क़तों के बाद ही मौलवी कुछ देर को मिलने देता था। 

“बहुत दबाव के बाद उसने अपने एक दलाल के ज़रिए तलाक़ के बदले पाँच लाख रुपये की माँग कर दी, जो बहुत मिन्नतें करने के बाद दो लाख रुपए में तय हुई। तब जाकर उसने तलाक़ दिया। यह पैसा भी मेरे घर वालों ने किसी तरह इंतज़ाम करके दिया। 

“उज्मा के निकम्मे जुआड़ी-शराबी शौहर ने एक पैसा नहीं दिया। हमारी बदक़िस्मती इतनी ही नहीं रही, जब उज्मा घर आ गई तो पता चला कि शौहर ने एक दूसरी औरत से निकाह कर लिया है। इस बात को लेकर भी बड़ा बवाल हुआ। उज़्मा तब से घर पर पड़ी है। 

“इतनी चिड़चिड़ी हो गई है कि बच्चों को अपने पास भी नहीं आने देती, छोटे-छोटे बच्चों को बेवजह पीटती है। बड़ी ऊल-जुलूल बातें करती है। कहती है, ‘जानवरों से भी गई-गुज़री हो गई है ज़िन्दगी। ऐसी बदतरीन ज़िन्दगी से तो बेहतर है मर जाना। सबसे अच्छा जीवन तो हिन्दू औरतों का है। उन्हें वो देवी मानते हैं। हिन्दू ही बन जाऊँ तो अच्छा है।’ उसका, उसके तीनों बच्चों का भविष्य क्या होगा, कुछ समझ में नहीं आ रहा है। घर का पूरा माहौल ऐसा तनावपूर्ण रहता है कि जीना मुश्किल हो गया है। घर जाने का मन नहीं करता।” 

अब-तक रूबिका बहुत भावुक हो गई थी, आँखों से आँसू टपकने लगे थे। महबूबा ने कहा, “तलाक़ ए बिद्दत के ख़िलाफ़ क़ानून है। उसके शौहर, मौलवी के ख़िलाफ़ रिपोर्ट क्यों नहीं लिखवाई।” 

“रिपोर्ट दोनों के ख़िलाफ़ है, मुक़दमा चल रहा है। उज्मा की रिपोर्ट लिखवाते समय मन में आया कि मेरा शोषण जिस तरह से सईद ने किया उसकी रिपोर्ट मैं कर दूँ, लेकिन कुछ सोच कर चुप रही। उन्होंने तुम्हारे साथ क्या-क्या किया, वह भी मुझ से छुपा नहीं है। 

“मैं तो समझ नहीं पा रही हूँ कि तुम इतना सेक्सुअल हैरेसमेंट झेलने के बाद भी, अब भी उनके साथ कैसे इतनी शिद्दत से लगी हुई हो। क्या तुम्हारे मन में ज़रा भी ग़ुस्सा नहीं आता या तुमको भी वह सब अच्छा लगता है। 

“अरे वह और उनके जैसे लोग हमारी-तुम्हारी जैसी औरतों के कंधों पर बंदूक रखकर हल्द्वानी में जो दूसरा शाहीन बाग़ खड़ा करने पर तुले हुए हैं, उसमें हमें तुम्हें सिवाय बर्बादी के और कुछ नहीं मिलेगा, लेकिन यह तय है कि उनकी जेब में अब-तक करोड़ों रुपए आ चुके हैं। 

“जिस संगठन पर अभी प्रतिबंध लगे हैं, देश में तबाही मचाने की साज़िश रचने के आरोप में, यह उस संगठन के ऐसे कर्ता-धर्ताओं में से हैं, जो चेहरे पर नक़ाब लगाएँ बड़े पाक-साफ़ दिखते हुए काम करते हैं। लेकिन झूठ एक दिन सामने आएगा ही, तमाम पकड़ के जेल भेजे गए हैं, कोई ताज्जुब नहीं कि जल्दी ही एक दिन यह भी धरे जाएँ। इसलिए तुमसे भी कहती हूँ कि अपना कैरियर देखो, उनके साथ लगी रही तो किसी दिन तुम भी आरफा की तरह क़ानून के शिकंजे में फँस सकती हो, जेल पहुँच सकती हो।” 

रुबिका की बातों से महबूबा के चेहरे पर ग़ुस्से की रेखाएँ बहुत गाढ़ी हो गईं। उसने कहा, “रुबिका तुम जातीय दुश्मनी के कारण क़ौम पर हो रहे काफ़िरों के हमले के ख़िलाफ़ एक क़दम नहीं बढ़ाना चाहती, तो न बढ़ाओ, तुम यह गुनाह करना चाहती हो, तो करती रहो, मर्ज़ी तुम्हारी, लेकिन ख़ुद को बचाने के लिए आरफा की आड़ मत लो। 

“सईद साहब ने न ही मेरा और न ही तुम्हारा, किसी का कोई बेजा फ़ायदा उठाया है। पढ़ी-लिखी तुम भी हो और मैं भी हूँ। कोई बच्ची नहीं कि सईद साहब या कोई भी बिना हमारी मर्ज़ी के हमें छू ले। इसलिए उन पर कोई तोहमत लगाने की ज़रूरत नहीं है।” 

यह सुनते ही रूबिका भड़क उठी। उसने कहा, “सईद जैसे लोग कैसे हमारी-तुम्हारी जैसी पढ़ी-लिखी शेरनियों का जाल बिछाकर शिकार करते हैं, यह तुम भी बहुत अच्छी तरह जानती हो। मगर जब तुम्हें शिकार होने में ही मज़ा आता है, तो तुम कैसे कह सकती हो कि तुम्हारा शिकार हो रहा है। यह मज़ा तुम्हें मुबारक। 

“मैं किसी सईद के इशारे पर नाचने को अब तैयार नहीं। काफ़िर और क़ौम के नाम पर यूज़ करना बंद करो। इतिहास से तुम लोगों ने कुछ जाना हो या न जाना हो, लेकिन उसमें लिखी बातों को हथियार बनाना बड़ी अच्छी तरह जान लिया है। मगर मैं अब किसी का हथियार बनने के लिए तैयार नहीं, इसलिए मुझे तुम माफ़ करो। 

“अपने सईद साहब से जाकर कह देना कि क़ौम की बड़ी चिंता है तो पहले क़ौम की महिलाओं पर ख़ुद वह और उनके मौलवी जो अत्याचार कर रहे हैं, उसे बंद करें। उन्हें जो दोयम दर्जे का बना कर रखा हुआ है, मस्जिद में नमाज तक पढ़ने नहीं देते, क़ानून बन जाने के बाद भी तीन तलाक़ देकर औरतों को सड़क पर फेंक देते हैं, उनके साथ जो ज़्यादतियाँ हो रही हैं, उनको पहले उनसे नजात दिलाएँ। उसके बाद काफ़िरों का डर दिखाकर रोज़ नए-नए शाहीन बाग़ खड़ा करें और अपनी जेबें भरें।” 

यह सुनते ही महबूबा तैश में आकर खड़ी हो गई। आँखें तरेरते हुए कहा, “तुम रास्ता भटक गई हो रुबिका, तुम किसी काफ़िर के बहकावे में आ गई हो, इसीलिए ऐसी बातें कर रही हो। मैं अल्लाह ता'ला से दुआ करूँगी कि वह तुम्हें सही रास्ते पर जल्दी ले आएँ और तुम जल्दी ही फिर से मेरे साथ आओ, अपनी क़ौम के साथ।” 

यह कहती हुई वह कमरे से बाहर निकल गई। 

रूबिका ने भी उसे सुनाते हुए कहा, “मैं भी अल्लाह ता'ला से दुआ करूँगी कि वह तुम्हें और सईद जैसे लोगों को सही और ग़लत रास्ते का फ़र्क़ जानने की तौफ़ीक़ अता फ़रमाएँ।” 

वह उसे दूर तक जाते देखती रही, उसकी एकदम नई स्कूटर को भी, जिसकी चमकीली टेल लाइट शाम होते ही पड़ने लगे कोहरे में जल्दी ही गुम हो गई।

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