42. तुम्हीं बताओ
मेरी आत्मा थी मनस्वी
केवल बिटिया नहीं थी।
आत्मा बिना क्या कोई
जीवित रह पाता है?
तुम कहते हो मैंने
तिल-तिल आत्मघात किया
मुझे जीना चाहिए था अपने लिए, पति के लिए, समाज के लिए
यही सदा होता है
एक औसत प्राणी को
मिल ही जाता है पाथेय
कहते हो तुम कि मैं
बनाए न रख सकी
अपनी जिजीविषा को।
औसत का दर्शन
तुम्हारा यह
लुभा न सका मुझे।
शरीर का जीना क्या संभव है
किसी दर्शन के सहारे
बिना आत्मा के?
तुम कहते हो
जीने के रास्ते बहुत थे
पर ये सारे रास्ते
संभव हैं
आत्मा का प्रकाश रहने पर ही।
क्या वनवास से निकल सीता
राम की चौखट लाँघ सकीं?
क्या गोपियों को
श्याम का विकल्प भाया?
किसी औसत सोच से
क्या समाज चल पाया ?
तुम्हीं बताओ
मनुष्य औसत कहाँ होता है?
औसत तो एक गणितीय परिकल्पना है।
आदमी हमेशा उससे दाएँ-बाएँ
खिसक कर चलता है।
फिर मुझे ही औसत से
क्यों बाँधते हो
आत्मा बिना शरीर
क्यों चाहते हो?
43. तूने बनाया है माँ
माँ न होना चिन्तित तू
मेरे लिए, मेरे भविष्य के लिए
अब मैं वह बदली नहीं
जो उड़ जाती है हवा के झोंकों से।
न हूँ छुई-मुई
कि छू जाने से मुरझा जाऊँगी
न हूँ एक पत्ती सूखी
सुलग उठूॅंगी
एक चिनगी लगने से।
एक जीती-जागती लड़की
तूने बनाया है माँ।
देश-दुनिया की जानकारी लेते
बढ़ाऊँगी अपने पग
वर्तमान को जीते
और भविष्य का
सपना गढ़ते हुए।
मेरी कसी हुई मुट्ठियों से
चिन्तित न होना माँ
ये मुट्ठियाँ लिजलिजे इतिहास को
मरोड़ कर पीछे करने के लिए हैं।
न हूँ अज्ञात यौवना मुग्धा मैं
समझती हूँ जीवन का अर्थ
जीवन की भाषा
आती है सपनों को
साकार करने की कला।
भयभीत नहीं हूँ माँ
झंझावतों से
रोज मिलती हूँ
तुतलाते अंधड़ों से।
बार-बार सिंकती हूँ
कुम्हार के आँवें में
पर निकल आती हूँ
पके लाल बर्तनों की तरह
खिली-खिली, खन्न-खन्न
आवाज़ करती हुई।
ज़िन्दगी को बेरहम बनाना
नहीं रहेगा कभी मेरा ध्येय।
बँधी मुट्ठियाँ प्रतीक भर हैं
सजगता एवं साहस की।
मुस्कराते हुए
अंधड़ों का सामना करना
सीखा है मैंने तुम्हीं से
नहीं करनी मुझे
रो-रोकर ज़िन्दगी दूभर ।
एक अँधेरी कोठरी में
ज़िन्दगी काट देना
अब संभव नहीं रहा
यह सच है माँ
पर घर को अघर में बदलना
कभी नहीं चाहूँगी मैं
यह जानते हुए कि
सब कुछ बन्द नहीं होगा
मेरी ही मुट्ठी में।
चाहती हूँ माँ
दुनिया मुझे भी समझे
मेरी क्षमता और कुशलता को
जगह दे थोड़ी सी।
शामिल नहीं हूँ मैं
सर्वोत्तम की पागल दौड़ में
पर घर-समाज में
बेहिचक पग बढ़ा सकूँ
इसे तुम भी चाहोगी माँ।
केवल मीठे ही नहीं
खट्टे-कसैले तिक्त अनुभव भी
भरते हैं ज़िन्दगी में रंग।
स्निग्ध, धवल, स्नेह से लथपथ
तेरी छवि आ जाती है रोज़ ही सामने
चढ़ती हूँ जैसे
छात्रावास की सीढ़ियाँ ।
तू कहती है एक लम्बा समय
घूँघट काढ़ कर बिताया है
पर अब घूँघट में
फूल जाएँगी मेरी साँसें
शील और सम्मान को बचाते
जीना सीख लिया है मैंने
माँ तू चिन्तित न हो।
हाँ किसी लखटकिया जामाता
की खोज में भटकना नहीं माँ
सोचती हूँ
नारी-नर भी सहज रहें
जैसे हरेरी दूब संग जीती है।
मत सोचना किसी प्रवासी
ठीहे के बारे में भी।
जो नदिया के पानी में
छप-छप नहा सके
सुस्ता सके पेड़ की छाँव में
धरती से लगा सके
आकाश में छलांग
विहँस कर हालचाल पूछे
घर का, गाँव का, तेरा भी
रंग दे मन शर्बती अनुभवों से
जिसके मिलने से पिंहकता फिरे मन
ऐसा कोई दिखेगा
तो बताऊँगी माँ तुझे ।
माँ, तूने क्या-क्या नहीं सहा
मेरे भविष्य के लिए
ऊपरवाले ने बाबा को उठाकर
कर दिया था तुझे निरुपाय
फिर बाबा बन तूने ही
पाला जगाया मुझे।
मेरे ही लिए बेच दी चूड़ियाँ
सब गहने बेच दिए
बेच दिया पोखर का खेत
मुझे पहुँचाया यहाँ।
जानती हूँ माँ
अनुभव बार-बार कुरेदता है
चिन्तित न होना माँ
अपने पैरों पर खड़े होने का
निर्मम समय आ गया है
अभी तक तू थी हारिल की लकड़ी
अब मुझे लेना है दायित्व
इतना तो जानती हूँ माँ।
बनाकर दी थी तूने जो मठरियाँ
महीने भर के लिए
उसे चटकर गईं सहेलियाँ
एक ही दिन में।
तू चिन्तित न होना माँ
व्यक्ति के अहं को
घिस-घिस कर
सर्व में बदला जाता यहाँ।
व्यष्टि को समष्टि में
समष्टि को व्यष्टि में
घोल दिया जाता है
वैसे ही जैसे
घूँघट खुलेपन में
घुलता गया है माँ।
हर क्षण झाँकता रहता है
आँखों में तेरी झील सी
आँखों का, अनकहा बिम्ब
सहेलियाँ झकझोरती हैं
'क्यों हर दम माँ में ही
रँगी रहती है तू?'
उन्हें क्या पता माँ
कैसे बना है
हम दोनों का रसायन ?
माँएँ उनकी भी हैं
स्नेह से पगी समझदार
पर हर माँ गुज़री कहाँ
तेरी जैसी काँटों भरी
राहों से।
कैसा है तेरे हाथ का दर्द
दवा जो भेजी थी
खाते लगाते रहना
अपने को स्वस्थ रखना माँ।
बताना गाँव जवाँर के बच्चों को
मैं यहाँ हूँ
वे भी उत्साहित हो
खेने की सोचेंगे
ज़िन्दगी की नावें।
खुशी होगी मुझे
उन्हें उठते देखकर
पहाड़ी पर चढ़ते बादलों की तरह।
दिन भर दौड़ी हूँ माँ
श्रम से लथपथ हूँ
आँखें निंदिआने लगीं हैं
बन्द करती हूँ पत्र
तेरे चरणों में नमन करते हुए।
44. चिट्ठी
चिट्ठी आई है!
मोबाइल, ई-मेल, ट्विटर और ब्लाग
के इस समय में
गाँव से चिट्ठी!
छात्रावास की सहेलियाँ
झपट पड़ीं
पंचायत बैठी
शायद किसी यक्ष की
आह हो इसमें।
पर माँ की चिट्ठी देख
उठ पड़ीं सब कहते हुए-
'माँ पर पहला हक तो उसी का है
जिसकी चिट्ठी है।
हर एक को व्यक्तिगत जगह
मिलनी ही चाहिए।'
45. सोचना था
झील को सोख्ता बनाने से पहले
सोचना था मित्र,
अब-जब संकट गहरा गया है
जल के लिए मचा है हाहाकार
तुम निकले हो अपनी मटकी लेकर
जल की तलाश में।
ज़रूरी था कितना
झील को शुद्ध रखना ?
कूड़े का अम्बार झील में ठेलकर
खुश थे तुम ।
झील अचानक नहीं मरी
तुमने तिल-तिल उसे मरने दिया
पर अब जीना है
तो जीवित करना है झील
जिससे उसके जल में
फिर नील और शुभ्र कमल खिलें
बत्तखें तैर सकें
और आपको भी मिल सके
जीने के लिए जल ।
46. तुम्हारी जाति क्या है?
जब भी जनता जगी
एक साथ उठकर
उसने आवाज़ लगाई
भयभीत हो उठे तुम
तीर छोड़ दिया-
तुम्हारी जाति क्या है?
हम सुनते हैं आवाज़
केवल अपने जाति की
जाति पर मुख खोलो
और अपनी आवाज़ का अर्थ तोलो।
हमारे शब्द-कोश में
जाति और धर्म की कुंडली बाँचे बिना
नहीं खुलते कोई अर्थ ।
हमें मिलती है ऊर्जा
धर्म से, जाति से।
वही देते हैं हमें पट्टा
अनियमित लूट का
सब कुछ बटोर लेने का।
वे हमारे जन हैं
भूखे रहकर भी
हमें सत्ता में बने देखना चाहते हैं।
इसीलिए हाथ उठा
बार-बार कहता हूँ
जाति और धर्म की जय हो।
तुम अपना सूर्य ले जाओ
हमारे पास जाति और धर्म की लालटेनें
काफी हैं प्रकाश के लिए
हमें नहीं चाहिए दिन का उजियारा ।
लालटेनों के प्रकाश में
चीज़ों को इधर-उधर करना
कितना आसान होता है?
यदि नहीं जानते तुम
हम सब के इस अभीष्ट को
तो जानो
रहबरी का पंथ पहचानो।
47. बीज घृणा के
बीज घृणा के
रक्त चूसते
रक्तबीज हैं
इन्हें न बोना।
सांस ज़रा सी
भी पा जाते
उग आते ये
इन्हें न बोना।
ब्रह्म राक्षस
ये धरती के
पिण्ड न छूटे
इन्हें न बोना।
मन के भीतर
कहीं बैठकर
आग लगाते
इन्हें न बोना।
ठग जीवन के
परछाईं बन
चिपक सिहाते
इन्हें न बोना।
लड़ो समर सत
द्वेष न बाँटो
विष पुटिका ये
इन्हें न बोना।
48. हिन्दुस्तान देखा है
क्या तुमने हिन्दुस्तान देखा है?
या तुमने सिर्फ लगान देखा है?
तनिक अन्दर जा देखा है हमने,
बिखरा-सा हिन्दुस्तान देखा है।
गाँव से गुजरा वहीं बरगद तले
सोया-सा हिन्दुस्तान देखा है।
अन्न-वस्त्र भरे हैं कोठार किन्तु
भूखा-सा हिन्दुस्तान देखा है।
नाखून उगाते पंजों से नुचे
घायल-सा हिन्दुस्तान देखा है।
49. कमल की पँखुरी
हरित नवल पँखुरी
विश्वास भरी
तर्क-छल से परे
आस्था परी।
पंक-जल में पली
धवल मृदु हरी
खोल रही अँजुरी
नव सुरभि भरी
कमल की पँखुरी।
50. सपने उगाता हूँ
जिन घरों के तार टूटे हैं
तमस पसरा छंद रूठे हैं
उन घरों दीपक जलाता मैं,
चेतना के गीत गाता हूँ।
जिस नयन के अश्रु सूखे हैं
कामना के कलश छूछे हैं
उस हृदय के द्वार बैठा मैं
गुन गुना सपने उगाता हूँ।
पंक कंटक से कसी घरती
हैं पाँव सहमे बाँह दुखती
कारवाँ में जोश भरता मैं
गीत गा राहें बनाता हूँ।
धुएँ से बोझिल हवाएँ भी
सांस बढ़ती और रुकती सी
प्राण की लौ को जगाने मैं,
सांस भरकर गुनगुनाता हूँ।
51. कैसा युग है?
शहर मौन है
डरा-डरा है।
बम नित फटते
मानव के तन
रक्त उगलते
जलते घर वन
पस्त धरा है।
कहीं दबे स्वर
कहीं उसांसें
सिसकी लेती
दीवारें भी
कैसा युग है?
नेह-खेत सब
चरा-चरा है।
जंगल कोई
मन में उगता
पागल मानव
रक्त उफनता
नदी तीर पर
प्यासा मन है
पीर भरा यह
आहत तन है?
कैसा युग है?
रंग ज़िदगी
का बिखरा सा
शापित विधवा
का अँचरा है।
52. लोग
टेसू जैसे चहके लोग।
थोड़े थोड़े बहके लोग।
गलियाँ उलझातीं हर मोड़,
उनमें ही हैं भटके लोग।
करना जिन्हें नदी को पार
इसी पार हैं अटके लोग।
दुनिया भाग रही क्या दौर?
पकड़ें कैसे छिटके लोग?
विज्ञापन लूटेंगे हाट
अब त्रिशंकु से लटके लोग।
53. अंधेरा है
अँधेरा है, हर तरफ पहरा है।
न दिखती ज़मीन खड्ड गहरा है।
जलाना मुश्किल चिराग़ हवा में
गहरी घाटी है जल ठहरा है।
महोख भी मुआ मुआ कहता है
सभी चुप हैं दबाव गहरा है।
सत्ता ऊँचा सुने यह सुना था
न सुना कोई समाज बहरा है
कहीं से आवाज़ आ रही सुनो,
गा रहा कोई नया 'कहरा"1 है।
1. कहरा-उषा काल में गाया जाने वाला लोकगीत।
54. मुंबई जाते बाबू से
जल्दी-जल्दी आना बाबू।
नीक खिलौना लाना बाबू ।
रोटी बहुत दूर क्यों मिलती,
हमको तनिक बताना बाबू ।
माई बहुत प्यार करती है,
ढाढस उसे बँधाना बाबू।
रेलों पर मारा मारी है
बचते - बचते जाना बाबू।
बाज़ारी खाने से बचना
अपने हाथ बनाना बाबू।
सालन'1 बहुत महँग मिलता है
सोच समझ कर लाना बाबू।
भैस बियाएगी अगहन में
इंझड़ी खाने आना बाबू।
बारिश में मड़ई चूती है
आगे जुगुत लगाना बाबू।
अगले साल छठी में पढ़ना
पैसा कुछ गठियाना बाबू।
गाँव - गाँव नेता दौड़ेंगे
वोट किधर को जाना बाबू?
‘मनसे’2 वालों से बच रहना
अपनी देह बचाना बाबू।
हम भी भारतवासी हैं माँ
मुंबा से बतलाना बाबू।
1. सालन- सब्जी, दाल आदि।
2. मनसे-महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना।
55. धुएँ
अब धुएँ कुछ लाल होने लगे हैं।
आग जलने के लिए
कुछ सुगबुगाती है।
और धरती भी मगन
मन गुनगुनाती है।
था जिन्हें विश्वास
दुनिया हड़प लेंगे
अब वही बेहाल होने लगे हैं।
अंधवन भी अब कहीं
कुछ थरथराते हैं।
रंग जगती आग के
वे पढ़ न पाते हैं।
थे बहुत ज़ालिम
अरे ये अंधवन भी
अब तनिक बेढाल होने लगे हैं।
धुएँ की लाली हवा
का रंग बदल देती।
सुर बदलता, रमकली
भी उठ खड़ी होती ।
वे जिन्होंने गाँव को
बेभाव बेचा
अब स्वयं बैताल होने लगे हैं।
56. माझी
माझी तनिक संभलकर खेना
दिखता नहीं किनारा।
मन का पंछी उड़ा-उड़ा सा
खोज रहा ध्रुवतारा ।
तेज हवाओं के झोंके हैं
लहर-लहर जल थारा।
तुम तो तैर निकल जाओगे
मैं डूबूँ मझधारा।
रख विश्वास धैर्यधर देखो
माझी धर्म हमारा।
खेते - खेते निकल चलेंगे
निश्चित मिले किनारा।
57. वीणावादिनि
वीणावादिनि इस धरती के
सिले हुए ओंठों को स्वर दो।
तेरी आँखें देख रहीं सब
उनमें साहस के स्वर भर दो।
कितने लोग कलम के कारण
देश-देश के धक्के खाते।
गर्दन पर तलवारें लटकीं
काल कोठरी उनके खाते।
वाणी साधक की गरिमा में
हाथ लगाओ तेजस भर दो।
काल न उनको डरा सके माँ
वर देना हो, इतना वर दो।
58. लौट घर आना प्रिये तुम
स्नेह संबल मिल न पाए
आस्था दरके सताए
घुँघरुओं से मन थके तो
लौट घर आना प्रिये तुम।
गेह का घेरा न कम है
उड़ सको इतना गगन है
पाँव जब ढीले पड़ें तो
लौट घर आना प्रिये तुम।
देहरी से डर न कोई
राह में कंटक न कोई
सहजता में रस जगे तो
लौट घर आना प्रिये तुम।
धूप आँगन उतर आई
गुनगुनी दूधो नहाई
खिलखिलाकर हँस सको तो
लौट घर आना प्रिये तुम।
59. हम खोजते रहे
1
किसी कूचे से निकलना आसान कहाँ?
चौराहे जब खूँ के प्यासे हुए यहाँ।
हम खोजते रहे कहीं आदमी तो हो
दरबों में ही बन्द कबूतर मिले यहाँ।
ऋचाओं उपनिषदों पगे स्वर मिले यहाँ
कुरआन की किताब सजे घर मिले यहाँ
हम खोजते रहे कहीं आदमी तो हो
हर गली पंडित मिले मुल्ला मिले यहाँ।
2
गूँगा और बहरा बना रहे हैं लोग
पताकाएँ निजी लहरा रहे हैं लोग
हम खोजते रहे कहीं आदमी तो हो,
चेहरों में चेहरा छिपा रहे हैं लोग।
फूलों को कांटों से सिल रहे हैं लोग।
अहं की ही आग में जल रहे हैं लोग।
हम खोजते रहे कहीं आदमी तो हो,
पाँव की ही बेड़ियाँ गढ़ रहे हैं लोग।
60. क्या कभी?
क्या कभी ये तंत्र बदले जायँगे?
या सदा पैबन्द लगते जायँगे?
दीप जलना था यहाँ घर-अघर में,
किन्तु जुगनू ही चमकते डगर में,
हर तरफ तो है अँधेरे की चुभन,
और कब तक शब्द छलते जायँगे?
खून से सींचा गया पौधा यहीं
किन्तु दिनकर छिन गया उसका कहीं
नए पौधे झाँकते पीले पड़े
और कब तक छद्म पलते जायँगे?
क्षितिज के उस पार झलकी रोशनी
किंशुकों की नींद उचकाती चली
खुल रही प्रत्यूष में ये मुट्ठियाँ
क्या नए सूरज उगाए जायँगे?
दायरों के बीच उठता यह धुआँ
आग का संदेश तो देता हुआ
बाँधनी हैं बिल्लियों के घंटियाँ
क्या हमारे हाथ यह कर पायेंगे?
61. देखा है
सुघर शिखरिणी के आँचल में
दिनकर को छिपते देखा है।
पुनः सबेरे दाएँ- बाएँ
लुक छिपकर उगते देखा है,
तपी घाटियों के आँगन को
रंगों से भरते देखा है।
प्रात रश्मियाँ मेघ चूमतीं
नेह कथा लिखते देखा है।
पति सीमा पर अनमन पत्नी
मन अंधड़ उठते देखा है।
यक्ष सहेजे श्यामल मेघों
से नभ को घिरते देखा है।
दुबके बादल यक्ष पीर ले
उन्हें शिखर चढ़ते देखा है।
यक्षिणि के कपोत मेघों को
राह बता उड़ते देखा है।
कालिदास के स्वप्न यक्षिणी
के पाँवों गिरते देखा है।
जो भवभूति करुण रस डूबे
उन्हें ठठा हँसते देखा है
वाल्मीकि क्रौंची को अब भी
आहें ही भरते देखा है।
रहबर के अनुयायी को भी
उल्टा ही करते देखा है।
जिनके लिए तड़पती कविता
बादल सा छँटते देखा है।
62. शरद की शाम
शरद की यह धवल धोई शाम।
फूल की थाली सदृश
खिलता हुआ यह चाँद
भरे नभ तारे सजे
ज्यों निकल आए मांद
नील सागर में नहाई शाम।
हवा भी बहकी, हुई
देने लगी सन्देश
आ रहा हेमन्त अब
धरकर नया ही वेश
पांव तक दूधो नहाई शाम।
बालिकाएँ अर्चना
की थालियाँ कर लिए
पूजती गृह देवियाँ
आरती वंदन किए
महमहायी गुनगुनाई शाम ।
अब न लौटे दिन ढले
कोई कहीं झलफले
नेह के बादल उठे
बरसे नहीं उड़ चले
नेह रीती अचकचाई शाम।
रात जब होने लगी
रंगीन थिरकन भरी
कौन खोजे शाम की
यह सहज श्यामल परी
अनमनी सी कसमसाई शाम ।
शरद की यह शाम
है अनमोल संजीवनी
मग्न हो मुँह ताकती
ज्यों मुग्धा बनी-ठनी
आस्था दीया धराई शाम ।
63. तेरी छुअन !
तूने छू क्या दिया
कि थिरक उठा तन
धरती गहगहा उठी
महमहाया मन ।
रोम-रोम पुलक उठे
हो कंचन वर्ण।
तेरी ही सुधियों में
खिलाखिला मन
कितनी विश्वास भरी
वह तेरी छुअन !
64. समय कसौटी
समय कसौटी पर कस पाऊँ।
कहो तुम्हें सच बात बताऊँ।
बस्ती में अजनबी बसे हैं
सिमटे हुए सभी कछुए हैं
सब आँखें मूंदे चलते हैं
कानों में उँगलियाँ किए हैं
इनको भी एहसास करा दूँ
इतनी पीर कहाँ से लाऊँ?
घर-घर है जल की दुश्वारी
तपता नभ धरती तप सारी
सूखे खेत नदी नद नाले
कैसे भरे किसान उधारी?
सब का पानी बचा सकूँ मैं
इतना नीर कहाँ से लाऊँ?
चीर हरण हारी द्रुपदा का
देख रहे सब रोज यहाँ का
फटे वस्त्र में ढरते आसूँ
डरते डरते पोछें काका
सब की इज़्ज़त को ढक पाऊँ
इतने चीर कहाँ से लाऊँ?
समय कठिन है पर बढ़ना है
पैर सधाते ही चलना है
अपना हित ही साथ रहे सब
बाना जनहित का पहना है
जो जनहित का लक्ष्य भेद दे
ऐसे तीर कहाँ से लाऊँ?
'कैसे लाऊँ' कह कर जग में
चल पाना है कैसे मग में?
शिक्षित करना होगा जन को
विद्युत-सी हो त्वरा सभी में
शायद कहना पड़े न तब यह
इतने वीर कहाँ से लाऊँ?
65. कैसी छुअन ?
एक छुअन से
रक्त उफन
मथ देता तन
स्मृति में खो जाता
बार-बार मन
कैसी छुअन ?
66. बँटी तुलसी
खिंच गई दीवार आँगन में
बँटी तुलसी, बँटा चूल्हा
बँट गई है हवा
बँटे मन के बोध
चुप हुई है पीर की संवेदना ।
भूल कर बच्चे कभी
इस पार से उस पार होते
संस्कारों में बँधे से
नई नज़रों से गुज़रते
कौन समझे देहरी की वेदना?
काँच सा मन टूट करके
क्या पता किसको सताए
फिर नया घर बन सके
या बना जो टूट जाए
अर्घ्य देते हाथ में उत्तेजना।
67. ओ सेमल के तोते
वर्षों से
रूप रंग अदा पर
मुग्ध होते रहे
ओ सेमल के तोते!
हर बार चोंच में भुआ
तुम्हारे विवेक को
सचमुच क्या हुआ?
अब बज उठे फिर वही
दुंदुभी नक्कारे
चाहते पहुँचना वे
संसद के गलियारे ।
फिर वही रंग, रोगन, मुखौटे
आश्वस्तिवचन दुआ
क्या तुम्हारे विवेक को
किसी ने छुआ?
जनहित के पर्चे में
स्वार्थभरी गोलियाँ
नाते रिश्ते की
भरी-पुरी टोलियाँ
भार तुम्हें ढोना है
ओ सेमल के तोते
कब तक चल पाओगे
रख कंधे पर जुआ?
68. तुम्हें समझाऊँ भी कैसे ?
ताप अग्नि सुलगाए ठठरी
फुफकारे ज्यों नाग दुपहरी
पंछी सटे छांव में बैठे
चुप-चुप खेले मगन गिलहरी
निंदियारी यह छोटी सी रात
तुम्हें समझाऊँ भी कैसे ?
पावस आए रार मचाए
तड़पे बिजली बहुत डराए
हूक उठे पल-पल में अन्तर
रिमझिम बरसे मन उकसाए
फरके तन, झमझम की बरसात
तुम्हें समझाऊँ भी कैसे?
धुले शरद नभ बादल छरके
कुमुद सरों में खिले-खिले से
ओसकनी मोती पुरइन पर
बहियाँ कंगना रह-रह खनके
अमिय बरसे चाँदनी की रात
तुम्हें समझाऊँ भी कैसे?
ठंड गुलाबी मन को भाती
फसल रबी की हरी लुभाती
पीले होते जल बिन पौधे
पर जीवन की आस बचाती
पीर मन की जागती दिन-रात
तुम्हें समझाऊँ भी कैसे?
पूस - माघ की बात न पूछो
धूप हुई बीमार न पूछो
खंजन आँखों में बस जाते
मौसम की तकरार न पूछो
सदा थर-थर कांपते हैं गात
तुम्हें समझाऊँ भी कैसे ?
महुए कुचे फगुनहट चहकी
दहके टेसू बगिया गमकी
वन 'पी कहा' चातकी बोले
पछुआ रोज यहाँ मन मथती
उगा चंदा लिए है बारात
तुम्हें समझाऊँ भी कैसे?
अब कंप्यूटर पल-पल तोले
नई - नई नित परतें खोले
नेह भरी पाती भिजवाकर
मन को मथे नेह रस घोले
मौसम पर भारी है ‘नरियात’ 1
तुम्हें समझाऊँ भी कैसे?
1. कटी बात बोलता है।
69. नील सरोवर
नील रंग में
रँगा सरोवर
उषा काल में
नींद मग्न था
एक किनारे
कुछ निंदियाए
सारस जोड़ा
ध्यान मग्न था
बादल का लघु
शावक नभ में
उठा चला ज्यों
खेल खिलाने
फुही मुलायम
गिरा-गिराकर
थपकी दे सर
लगा जगाने।
नर्म थपकियों
की आहट से
सर ने चुप-चुप
आँखें खोली
तट से लगे
पेड़ पर बैठी
कोयल हँसती
करे ठिठोली।
कोमल लहरें
उठीं सरोवर
सहला तट को
छेड़ जगातीं
निकली किरणें
बाल अर्क से
इन्द्र धनुष का
बिम्ब बनातीं।
कुमुद खिले हैं
अधर भिगोकर
फुहियों का मृदु
चुम्बन लेते
रोहू टेंगन
उछल कूदते
शैवालों की
पूँछ दबोचे ।
कुछ मजबूरी
है सारस की
ध्यान लगाए
गली मीन की।
सदा अहेरी
सँग अहेर का
द्वन्द्व जगत में
प्रश्न उकेरे।
उत्तरजीवी
ही जीता है
कहते हैं जो
उसका उत्तर
नया विकल्पक
सँग जीने का
सपना बोए
रंग बिखेरे।
- अगस्त २०११
70. बादल
भूरे - काले टटके बादल।
आसमान में लटके बादल।
कालिदास घर खोज थके वे
महाकाल दर अटके बादल ।
अलका तक जाने की जल्दी
यक्ष संदेशा जपते बादल ।
दूत कर्म में भटक-भटक कर
रह-रह छन्द पकड़ते बादल।
कभी छूटते हैं गोले से
कहीं फुही से झरते बादल ।
बादल नीचे बादल ऊपर
मानव जैसे लड़ते बादल ।
भाँति-भाँति के चित्र बनाते
क्षण-क्षण रंग बदलते बादल ।
गरजें तड़पें बिजली छोड़ें
मुख से आग उगलते बादल ।
किन्तु यक्षिणी के आँगन में
दबे पांव पग रखते बादल ।
यक्ष पीर की परत खोलकर
प्रेयसि का दुख हरते बादल ।
नित्य संक्रमण सुख में हँसते
दुख में आँसू ढरते बादल ।