14. दिनकर उगाना है
गह्वर के भीतर का घना अंधियारा
और जंगल की हूक
किसने उगाई यहाँ?
तुमने कहा था-
हम दिनकर उगा रहे
वंचक हो कह दूँ क्या?
तुम्हारे इन तंत्रों के एक एक तार
जो बिखरे पड़े हैं
कैसे सह पाएँगे
आग, एक युग की
जीवन की?
किसी देश की सम्पूर्ण पीढ़ी को
तीन बन्दर समझना भ्रम है
उन्होंने अभी तक तुम्हें ललकारा नहीं
यही क्या कम है?
यह जानकर कि मेरे ओंठ सिले हैं
तुम्हें सुकून मिल सकता है
किन्तु सिले हुए ओंठों की आग को
दिनकर उगाना है।
तुम्हारे द्वारा प्रसारित अँधियारे को
हज़म कर जाना है।
15. जनपथ की हुंकार
जनपथ पर एक हुंकार उभरी
राजपथ कुनमुनाया गुर्राया
कौन है जो बादशाह सलामत
की नींद में खलल डालता है?
यह देश बादशाह का है
वे जैसा चाहें इसे हाँकें
इसके मस्तक की रेखाओं को
उलटा या सीधा बाँचें
तुम्हें क्या हक है
चीखने का बुदबुदाने का?
तुम क्यों नहीं समझते कायदा-कानून?
यही सब बादशाह के कवच हैं
तुम बिना कवच के पैदा होकर
सिसकियाँ भर लेते हो
यही क्या कम है?
दुबारा जैसे ही चीखा जनपथ
उसे सबक मिला
लहूलुहान करती गर्जना हुई
ठहरो, यदि फिर चीखें
तो कोई भी आदमी इस देश में
साबुत नहीं बचेगा।
यह देश गूँगे बहरे
विकलांगों का होगा
और जानते हो
तब इस देश की अच्छी कीमत मिलेगी
कोई धोखाधड़ी नहीं
बाकायदा तुम सबके सामने
बोलियाँ होंगी।
यदि तुम्हारी आँखें बची रहीं
तो भर आँख देखोगे
जो सबसे बड़ी बोली बोलेगा
देश उसी के हाथ बिकेगा।
वे मन बना रहे हैं
देश बेचने का।
जनपथ से थरथराती चीख़
फिर उठी, उठते ही उसे
रुई की तरह धुन दिया गया
धुन्ध, कुहासा, धुआँ
छरछराते रक्त के बीच
लहराया बादशाह का फ़र्मान
'बातें कम, काम ज्यादा
जो जहाँ है लेट कर कोरनिश करे
बिना नाक-भौं सिकोड़े
स्वीकारे बादशाह का हुक्म ।
कानून की पोथियाँ यही कहती हैं
यह देश उनकी जागीर है
बेचारे देशवासी उनकी प्रजा हैं।'
जनपथ ने पता नहीं सुना या नहीं
किन्तु उसके ओंठ फड़फड़ाए
चीख़ हुंकार में बदली
और राजपथ को रौंद गई।
16. सीढ़ियाँ
सीढ़ियाँ खुद नहीं बनतीं
बनानी पड़ती हैं।
इसीलिए उठो,
कान न करो
पहाड़ों का अट्टहास
उठाओ औज़ार
पहाड़ों को काट चलो
साँसें रुकने तक।
तुम्हारे बाद भी
कोई न कोई
आएगा ही
पत्थर काटकर
दो कदम आगे
बढ़ने के लिए।
17. युद्ध
वे चाहते हैं जीतना युद्ध
तुम्हारे कंधे पर रखकर पैर
जाँचो, परखो कई बार
युद्ध की नियति को
कन्धा देने से पहले।
पहचानो
युद्ध लड़ा जा रहा है
किसके विरुद्ध ?
जनहित के लिए युद्ध
दूसरों के कन्धों पर नहीं
अपने कन्धों पर लड़ा जाता है।
18. कब ?
अंधेरा काटते-काटते आदमी
अँधेरे में ही गुम क्यों हो रहा ?
संस्कृति की डोर पकड़ चलते हुए
असंस्कृत क्यों होता रहा?
जकड़ते हैं यदि संस्कार
तो विमुक्ति का मार्ग
कौन खोलेगा ?
मिथकों के पार
आदमी दीपक बन
कब डोलेगा?
19. साथ आओ
यह चिरैंधा घाम
सभी लथपथ
खोजते छाया कहीं?
बाग़ में कच्चे हरे
कुछ आम, बच्चे सूँघते
'कोइली' कहीं।
बड़े लम्बे पेड़ जो
छतनार थे, कटते गए
लग रहे हैं बोनसाई
अब कहीं छाया नहीं?
अब समर्थों के लिए
वातानुकूलन, पेड़ क्यों?
क्या ज़रूरत छाँव की?
कौन छाया के लिए
पौधा लगाए
छवि बदलती गांव की।
ओषजन आयात कर लेंगे
कहीं से जो सुखी हैं
जेब में जिनके न कौड़ी-दाम
ले सकेंगे सांस कैसे ?
वही अब बेहद दुखी हैं।
सुखीजन कहते रहे हैं
दुखी को ही राम मिलते
इसलिए दुख में सुखी हो
खूब गाओ, राम पाओ
मत बिछाओ राह में
कांटे सुखी के
जो सुखी उनको बचाओ
ले रहे आनन्द जो
बाधा न डालो।
क्यों दुखी हो?
स्वर्ग आरक्षित
तुम्हारे ही लिए है
स्वर्ग जाओ
देश दुनिया
सुखीजन के ही लिए
अब छोड़ जाओ।'
'बहुत दिन तक
यही सब कह
छला तुमने
दुःख में ईश्वर कहाँ है?
हम्हीं-तुम हैं
हम न चाहें स्वर्ग मरकर
हमें जीना इसी जग में
इसे ही हमको बनाना
एक समरस और
समतायुक्त जनगण ।
छद्म सारे
भूल जाओ
साथ आओ
साथ रह
जनगण बनाओ।'
20. ओ शब्द के संगी
ओ शब्द के संगी सुनो
शब्द की गहराई, सीमाएँ गुनो
खाली शब्दों में अर्थ भरो
भावों में शब्द गढ़ो
कौन जाने तुम्हारे ये शब्द
घहरा कर कहाँ बरस जाएँ
नींद से माते लोगों को
जगा दें, समय से भिड़ जाएँ।
21. शब्द
शब्दों को संभाल कर रखो
ये तीर हैं घुस कर वार करते हैं।
इसीलिए संगी आज के लोग
शब्दों का भी मोलभाव करते हैं।
शब्दों को व्यर्थ करने की साज़िश में
न बनो उनके हथियार तुम।
शब्दों की गरिमा पहचानो
बेचने का अर्थ अनुमानो ।
22. कौन ?
बासी आवेगों
और बासी छन्दों में
क्रान्ति की इबारत
कौन लिख पाया है?
नए कदमों से ही
नए शब्द बनते हैं
आह्वन चलते हैं।
पाँव तो फिसलेंगे ही
मटियार माटी में
लीक-लीक चल कौन
क्रान्ति कर पाया है?
23. केवल शब्द
बौने शब्दों से
लिखे जा रहे इतिहास को
पढ़ लेना-
लिखना बहुत समझना कम ।
आज के इस कठिन समय
में ही नहीं, हर काल में
अनुभव और कर्म बिना
शब्दों को बौना होना पड़ा है
शब्द केवल शब्द
औंधा घड़ा है।
24. दहके हैं गुलाब
दहके हैं विविध वर्णी गुलाब
बिलकुल गन्धहीन
केवल कीटनाशी गमक।
रंगो का सागर
पर पूरे उद्यान में
पसरा सन्नाटा
हवा भी सांस लेते
डरती है।
एक लँगड़ा आदमी
नाक पर पट्टी बाँध
छितरा देता कीटनाशी भुरभुरा।
न फर-फर उड़ती तितलियाँ
न गुनगुनाते भंवरे
न कोई महक
न जीवन न प्यार
ज़िन्दगी कैसे बचेगी यार!
25. जंगल
पेड़ और जंगल
कटते रहे धरती पर
और उग आया
एक घना जंगल
आदमी के भीतर ।
बाघ भी कहाँ जाता
वह भी भीतर के जंगल में
आ गया कुलाँचे भरते हुए
इसीलिए शायद
इसीलिए
आदमी दूसरों का रक्त पी
मोटा होना चाहता है।
26. आज़ादी
भूख केवल पेट की ही नहीं
आज़ादी की भी होती है।
पिंजरे में बंदी पंछी
सामने रखे भोजन की ओर
देखता तक नहीं।
तुम उसे मजबूर करते हो
कि वह कुछ खा-पी
अपने को ज़िन्दा रखे
क्योंकि तुम्हारे मुन्ने
उससे खेलने को बेताब हैं
ज़रा उसे पिंजरे से बाहर कर देखो।
पंछी हो या मनुष्य
सभी को आज़ादी प्रिय है।
आज़ादी छीनकर
रोटियाँ देने की कोशिश
रेत में नाव चलाना है
विकासशील संस्कृति को
रट्टू तोता बनाना है।
27. उजाले के लिए
अँधेरे से लड़ते हुए
चील और बाज के
झपट्टों से बचते हुए
प्रभात का सपना
देखते हुए लोग
सीना तान कर निकले हैं।
अँधेरा किसी को बरजता नहीं
लड़ना ही पड़ता है
आदमी को उजाले के लिए
निरन्तर लगातार
बारम्बार ।
28. जीने का अधिकार
बाजों की बन आई है
उन्हें मिल गया है
वैश्विक भ्रमण का अधिकार
हर गली कूचे में
शिकार का पट्टा लिए
घूमते निर्विघ्न वे
आपस में संधि किए
खोजते आहार।
पंछी भागे फिरेंगे
आखिर कब तक?
उन्हें भी उठाना ही होगा
हथियार कोई धारदार
क्योंकि बचाना है उन्हें भी
जीने का अधिकार ।
29. सेमल पर तोता
हजारों वर्ष से
सेमल पर ठोर
मारता रहा तोता
हर बार होता है उदास
पर दूसरी बार
फिर वही प्रयास ।
मुखौटों ने हमेशा ठगा है
यह कहकर कि वही
उनका सगा है।
दूसरों से ठगे जाने पर
आदमी लड़ता है
अपनों से ठगे जाने पर
मन मसोस कर
छोड़ता उच्छ् वास
थके हारे पथिक सा
उदास ।
30. सन्देश
द्वार पर नीम का पेड़
फूलों से लदा
खिलखिलाता है।
रात में रातरानी की
मादक गंध
बौरा देती है घर
किलक उठते हैं बच्चे।
एक दिन
निज़ाम का संदेश आया
चुनाव आ रहा है
सत्तासीन होना है
पुनः हुजूर को।
वे चाहते हैं नीम
सत्ता की हँसी हँसे
अभी उसकी खिलखिलाहट में
प्रतिपक्ष की गन्ध आती है।
रात रानी सत्ता की खुशबू फैलाए
लोगों को बौरा दे।
बौराए बिना गद्दी बचाना मुश्किल है
हर हाल में बचनी ही चाहिए गद्दी।
रात में पपीहा आया
दोनों से फुसफुसाया
हमें भी मिला है सन्देश
दरबारी राग गाने का
क्या कहते हो?
देर तक तीनों बतियाए
सुख-दुख कहा सुना
एक निष्कर्ष पर आए।
पपीहा 'पी कहा' कहते उड़ा
रात रानी ने बिखेरी अपनी सहज गंध
प्रातः नीम भी उसी तरह खिला ।
दरबारी अवाक् थे
क्या कहते ?
करते रहे हुजूर से गिला।
31. वह तंत्र कौन है?
'सोने की थाली में ज्योंना परोस्यों'
नारियों को गाते हुए
बहुत बार सुना है।
पर आज सुनकर आया
तो मन कचोट उठा।
क्या सचमुच आम-जन
सोने की थाली में, ज्योंनार करते थे?
सोने की थालियाँ
बनी होंगी ज़रूर
पर बहुत थोड़ी
कुछ लोगों के लिए
कुछ लोग सोने की थाली में खाते रहे
और बहुत से लोग सोने की थाली में खाने का
सपना देखते रहे, और घर की औरतें
'सोने की थाली में ज्योनां परोस्यों'
उत्सवों में गाती रहीं।
जो सपना देखते वही
थाली बनाते, माँजते, चमकाते रहे।
कुछ का सोने की थाली में खाना
और बहुतों का खाने का
सपना देखना, यही तो हुआ है
जो खाता है वह सपना नहीं देखता
जो सपने देखता वह खाता नहीं
मैं पूछता हूँ, सपने देखने वाले
कब सोने की थाली में खाएँगे?
प्रश्न सुनकर सारा तंत्र मौन है
तुम्हीं बताओ
जिसमें दोनों खिलखिलाकर खा सकें
वह तंत्र कौन है?
32. हाज़मा
जनतंत्र के हाज़में के लिए
ज़रूरी है रेचन
कभी-कभी नहीं निरन्तर
क्योंकि
आज़ादी, हिस्सेदारी, गरिमा
मुफ़्त नहीं मिलती
चुकाना ही पड़ता है
उसका मूल्य
निरन्तर सजग रहकर ही।
33. तलाश
वे जनतंत्र को कंधे पर उठाए
घूम रहे हैं यहाँ-वहाँ
पटक दें कहाँ उसे ।
जहाँ भी पसीना और रक्त गिरेगा
जनतंत्र की माँग उठेगी।
सत्ताधारी इसीलिए
किसी दुर्गा की तलाश में हैं।
34. ज़रूर निकलेंगी कोंपलें
देश, धर्म, नस्ल, भाषा को
अफीम की तरह घोट, खिला वे खुश थे।
पीढ़ियाँ गुज़रीं
'जी हुजूर, जी सरकार सुनते'
पर झुकी कमर, डंडे के सहारे
टेकते, बुदबुदाते लोगों का भी
कभी उतरता ही है नशा
और खड़े हो वे हाथ झटका
माँगने लगते हैं आज़ादी
रोज़गार, धवल तंत्र और जाने क्या क्या?
शहंशाह के पास अकूत सोना है
ठोस और तरल भी
सेना खड़ीकर वे जन आक्रोश को
कुचलने पर कटिबद्ध हैं।
जनता भी रोटी-पानी भूलकर
चौराहे पर खड़ी
अपनी माँगों पर अड़ी है।
गोलियाँ बरर्सी
पतझर के पत्तों की तरह गिरे लोग
पर भगे नहीं
डटे है लाने को बदलाव की बयार
चिड़ियाँ भी स्वागत गान
गुनगुनाने लगीं हैं।
आज नहीं कल
कल नहीं परसों
ज़रूर निकलेंगी कोंपलें
उनके सपनों में।
35. देश छोड़ो या ज़हर पियो
सुकरात को सज़ा मिली
देश छोड़ो या ज़हर पियो
उन्होंने ज़हर पीना अंगीकार किया
उनके शिष्य अफलातूं
लगे रहे जीवनभर
एक व्यवस्था गढ़ने में
जिससे भविष्य में किसी को
पीना न पड़े ज़हर ।
पर कैसा इतिहास क्रम ?
अफलातूं के शिष्य अरस्तू को
फिर वही सज़ा-
देश छोड़ो या ज़हर पियो
और अरस्तू ने पसन्द किया देश छोड़ना।
अब भी हर देश में हर दिन
कोई न कोई सुकरात ज़हर पीता है
और अरस्तू देश छोड़कर
यहाँ वहाँ जीता है।
अब भी तलाश है उस तंत्र की
जिसमें यह सब न हो सके
पंछी पंख खोलकर उड़ सके।
36. वे उलझा रहे हैं
वे उलझा रहे हैं।
रात-दिन बहका रहे हैं।
जब राहें गढ़ने का समय है
सर्जक छितराए हुए हैं।
झूठ-फरेब और मुखौटों के बीच
सच कहना कितना ज़रूरी है?
वे इस अंधेरी रात को
सरे आम दिन कह रहे हैं।
बार-बार कहते हैं वे
कोई विकल्प नहीं इस व्यवस्था का
इसलिए आँखें मूँद कर चलो
राहे गढ़ने का स्वप्न न पालो।
पर इस फैलाए धुएँ से निकलना होगा
सपने गढ़ते हुए पर्वत पर चढ़ना होगा।
37. सार्थक विकल्प की तलाश में
चोरियों में डूबते-उतराते समाज को
देखकर लोगों ने सोचा
चलो राजा को बता दें
वे समुचित व्यवस्था कर
रोक ही देंगे चोरियाँ ।
चोरियाँ शायद संक्रामक होती हैं
होती हैं तो फिर
होती ही चली जाती हैं
तंग थी जनता भी
आ गई लोगों के समर्थन में।
राजा के कारिन्दे कसमसाए
लोगों से बतियाए-
'हम तो हर चंद कोशिश में हैं।'
लोग भी खुश हुए
राजा और कारिन्दे अब
लग जाएँगे चोरियाँ रोकने में।
शाम हुई, दरबार लगा
कारिन्दों ने राजा को समझाया
यह सत्ता की इज़्ज़त का सवाल है
लोग कर रहे हैं नादानी
इन्हें सबक सिखाने का
यही अवसर है।
लोगों की बात रखने में
प्रशासन हो जाएगा पंगु
समाप्त हो जाएगा
सत्ता का भय
और भयमुक्त समाज की रचना को
लग जाएगा चूना ।
बात राजा की समझ में आई
बलों की पीठ थपथपाई
और हुआ वही जो
हर काल में होता आया है।
लाठी-डंडे, धुआँ-पानी से
खदेड़ दिया गया सोते लोगों को
आधी रात हूलते हुए।
इस घमासान में बहुतों को चोट लगी
कुछ को ऊपर जाने का पर्वाना
और लोगों के लिए आ गया फर्मान-
ओंठ सिलो रोटियाँ जो भी मिलें
खूब चबाकर, धीरे-धीरे निगलो।
राज को पलटने की
कोशिश अपराध है।
सबक लो।
लोग भौचक थे
उन्हें शायद पता नहीं
कि सत्य के लिए
लड़ना पड़ता है हर दिन
अस्त्र और नीति की पहचान कर ।
हर बादशाह, करता रहा है मुँह बन्द
विकल्प की गलियों का
और जन को सदा ही
चलना पड़ता है
पगडंडियाँ बनाते हुए
सार्थक विकल्प की तलाश में।
38. जीत का हिस्सा है क्या?
लड़ाई जीतकर
दुश्मन का किला ढहा
अपने किले को मजबूत करते
देखा था लोगों को
पर अपने किले में
दीवार की खिड़कियों-दरवाजों को
बन्द कर देना
जिससे अन्दर की हवा बाहर
और बाहर की अन्दर न आ सके
सभी रास्तों पर लगा देना बाड़
यह भी जीत का हिस्सा है क्या?
39. ओ बटोही
ओ बटोही
चलकर फिर आना
यह कचनार जब खिलेगा
चम्पा फूलेगी अमलतास लहराएगा
तुम्हारी छुअन के बारे में
पूछेंगे एक-एक फूल
क्या बताऊँगी मैं उन्हें?
तुम कहते हो
मेरा कोई स्थायी पता नहीं
मानती हूँ
तुम बटोही हो
कहीं रुकना, टिकना क्या जानो ?
पर 'चरैवेति' कहने वाले भी
दुनिया में बार-बार मिलते
सहभागी बन जाते हैं।
तभी तो सूर्य रोज निकलकर
जीवन का संचरण करता है।
विभावरी जाते ही
भास्कर की प्रतीक्षा में ऊषा
मग्न-मग्न मुस्कराती है
रोज ताल-पत्र पर ओसकण
मुक्ता बन स्वागत करते हैं
रश्मियों का।
बटोही
रात की शीतल छाया में
चाँद-तारे दिशा देते हैं
दिखती है निरन्तरता
उनके उदय-अस्त होने में भी
वे शाश्वत यात्री हैं
पर बार-बार दिखते हैं।
लोग कहते हैं
यह दुनिया यात्री घर है
पर इसके भी कुछ नियम-उपनियम
बन ही जाते हैं।
तुम्हें भी आना ही होगा बटोही
सूर्य-चाँद की तरह
कभी ताप कभी शीतलता देते
कभी छनछनाते कभी गुनगुनाते हुए
आखिर तुम
सूर्य-चाँद से बड़े यात्री तो नहीं हो।
40. चौलाई बेचती हूँ
हाँ, मैं चौलाई बेचती हूँ बाबा
मुट्ठी भर चौलाई से
बुझेगी न आग पेट की
इतना मैं भी जानती हूँ
आप भी जानते हैं बाबा !
बहाना है आपका पूछना
और घूम-घूम मेरा बेचना भी।
एक ही कोटर में दो जिस्मफरोश
कैसे बिक पाएँगे साथ-साथ
इतनी लज्जा तो अभी बाकी है
इसलिए जब मेरी जिज्जी
धन्धे में होती है, मैं चौलाई बेचती हूँ।
जब मैं कोटर में होती हूँ
जिज्जी को घूम-घूम
बेचना होता है चौलाई।
चौलाई बेचना, शगल नहीं विवशता है
दो कौर रोटी के लिए।
तुम्हीं कहते हो, धन्धा स्वयं खोजो
मन चाहा धन्धा भी
मिलता कहाँ बाबा?
पाया नहीं किसी तरह का
प्रशिक्षण, शिक्षा और हुनर
परिवार से समाज से
ढकेल दी गई हूँ इस धन्धे में
सीमित विकल्प के साथ।
इसीलिए चौलाई बेचती हूँ
देश और समाज का
विष खींचती हूँ।
41. स्मृतियाँ
यह भी अच्छा किया तुमने
कि जेब में रख दिया
हाथ की कढ़ी रूमाल
जब भी उसे निकालता हूँ
सुखकर स्मृतियों का झोंका
ठेल देता है अवसादी क्षणों को
और मन तुम्हारे आस-पास होने का
एहसास कर लेता है।
दिन कट जाएँगे
इन्हीं स्मृतियों की
उपत्यका में घूमते हुए।