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‘कभी-कभी किसी छोटी सी बात को कहने में भी कितना सोचना पड़ता है, उसमें भी जब आशी जैसी बेटी हो | ’एक ज़माना वो होता था जिसमें हम अपने पिता से बात करते हुए कतराते थे और एक यह समय है कि आज पिता को बेटी से बात करने में संकोच हो रहा है, घबराहट हो रही है | ’वे मन ही मन उद्विग्न हो रहे थे, कैसे बात करें, उनका मुँह सूखा जा रहा था |
दीनानाथ ने सूखे हुए गले को एक बार मेज़ पर रखे हुए ग्लास का कोस्टर उठाकर उसमें भरे पानी से गला तर किया | आखिरी घूँट लेने के बाद वे जल्दी से बोले;
“तुमने अपनी शादी के बारे में क्या सोचा है? ”
अप्रत्याशित प्रश्न से आशी चौंक उठी -----“शादी? ”अचानक उसकी दृष्टि माँ की तस्वीर पर पड़ी जो मेज़ के ऊपर टँगी हुई थी |
“ये अचानक आपको शादी की क्या सूझी---? ”उसने माँ की तस्वीर को घूरते हुए पूछा | माँ की तस्वीर पर उसकी दृष्टि चिपक गई थी |
“नहीं, अचानक क्या----? और पहले मैं ठीक भी कहाँ था, कहाँ था कुछ सोचने की स्थिति में ? अब जब ठीक हो रहा हूँ तो अपने सामने अपने कर्तव्य को निभा तो लूँ---वैसे हम सभी जानते तो हैं ही कि तुम और मनु एक-दूसरे के अच्छे दोस्त हो | ” वे जल्दी से बोल गए जैसे अभी नहीं कह पाएंगे तो कभी नहीं कह पाएंगे |
“कर्तव्य---? हाँ, आपने और मेरी माँ दोनों ने अपना कर्तव्य बखूबी निभाया है | आप अपने हिसाब से अपने काम करें, मैं अच्छी तरह से समझ चुकी हूँ कि न केवल आप, मेरी माँ भी मुझे सज़ा देने में आपके बराबर नहीं, आपसे भी ज़्यादा दोषी थीं | वह माँ की तस्वीर को घूरती रही | दीनानाथ इसी स्थिति से बचने का रास्ता ढूंढते रहते थे लेकिन कभी न कभी ऐसी परिस्थिति तो आनी ही थी |
“आशी!बेटा, मैं चाहता था कि मनु मेरी कंपनी जॉइन कर ले----तुम---”
“ओफ़ तो आप मम्मी का वायदा पूरा करना चाहते हैं---? आई एम सॉरी पापा—आई एम नॉट मेंटली रेडी | रही बात आपकी कंपनी जॉयन करने की---मैं जानती हूँ और उसे पसंद भी करती हूँ | वह होशियार है, स्मार्ट है—आपके बिजनेस के लिए बहुत सूटेबल भी है | आपकी इच्छा है, आप उसे इन्वाइट कर लें या जैसा भी आप चाहें----डिपेंडन्ड्स अपौन यू---जैसी भी आपकी इच्छा हो | बस!आई थिंक, एवरी थिंग इज़ क्लीयर----? ”आशी ने कह तो दिया लेकिन न जाने क्यों उसका दिल धड़कने लगा | मनु उसको अच्छा लगता है, पूरा परिवार उसको बहुत प्यार करता है लेकिन हैं तो सब पापा के दोस्त ही, मेरे मन की बात किसी ने कहाँ समझने की कोशिश की है?
आशी कितनी नकारात्मक होती जा रही थी बल्कि हो गई थी यह वह कहाँ समझ पा रही थी? और सबके लिए तो बाद में, उसके अपने लिए भी तो पीड़ादायक ही था यह सब ! पिता के लिए तो होना ही था, उसे समझाने का साहस कोई नहीं कर पाता था | न जाने किस बात का क्या मतलब हो जाए?
उनके मुख से और कोई बात निकल ही नहीं सकी, वे सोचने लगे, इस मुँहफट लड़की से किस प्रकार निबट सकेंगे? सोनी ने उन्हें जो अकेलापन दिया, वो तो दिया ही लेकिन उन्हें किस मुसीबत में डाल गई है | हाँ, अब उन्हें कुछ तसल्ली सी हो रही थी कि आशी कम से कम उनसे थोड़ी बहुत बात तो करने लगी थी | शायद किसी दिन वह उनसे ‘बेटी’बनकर बात करने लगे |
कैसे इस समस्या का हल हो? जीवन का कोई भरोसा तो है नहीं, बच्ची अपनी है, उसे समझाया कैसे जाए भला? आजकल थोड़ी सहज हुई है अपने पिता से लेकिन जब तक कोई निर्णय न लिया जा सके तब तक कैसे उन्हें चैन पड़े? सब कुछ इतना अच्छा होते हुए भी आशी कहाँ उसमें स्वयं के लिए अच्छाई देख पा रही थी?
“चलिए, डिनर का टाइम हो गया पापा---”आशी उनसे कह रही थी, उन्हें महसूस हुआ मानो उनके कानों में कोई शहद सी मीठी आवाज़ घुल रही है |
‘क्या यह लड़की इसी तरह से नॉर्मल बिहेवीयर नहीं कर सकती? हर बात में चूँ-पटाँग करना ज़रूरी है? ’बेटी के बारे में सोचते-सोचते उनके मन के भाव, धड़कनें और दिल में अजीब प्रकार का उहापोह होने लगता | सोनी होती तो आशी का लालन-पालन और ही तरह से होता | कुछ भी कहो, माँ तो माँ होती है | उसके आँचल से लिपटा बच्चा बिना सिखाए ही उसकी सुगंध में सराबोर कितनी ही बातें अपने दिल में उतार लेता है |
दीवार घड़ी ने टन-टन घंटे बजाए और उनकी तंद्रा भंग हो गई | उनके बिखरे हुए विचारों में ब्रेक लग गई और वे आशी के साथ डाइनिंग की ओर चल दिए |
टेबल पर खाना खाते हुए पिता-पुत्री में किसी प्रकार की कोई बात नहीं हुई | विचारों से जूझते हुए दोनों चुपचाप बैठे खाना खाते रहे | दोनों का अपना मंथन था, अपनी लड़ाई थी, अपने हिस्से के सुख दुख थे और थीं अपनी-अपनी विवशताएँ !!
उस दिन बाहर के मौसम के साथ मन का मौसम कुछ अधिक ही उदास था शायद लेकिन दीनानाथ जी ने मन को एक ओर छोड़कर मस्तिष्क से काम करना शुरू कर दिया था | जिस बात को दिल न स्वीकार करे उसे दिल से सलाह-मशवरा करने भेज देना चाहिए शायद वह कुछ सही मशवरा दे सके, दिल तो अपनी ही उधेड़बुन में घिरा रहता है | आशी से विवाह के बारे में बात करते हुए उन्हें दो/चार दिन ही हुए थे | काम करते करते अचानक उनकी दृष्टि काँच के दरवाज़े को बेधती हुई मुख्य द्वार की ओर गई और उनकी मुख-मुद्रा में परिवर्तन हो आया | उनके चेहरे पर जैसे संतोष की मुस्कान उभर आई | बेटी के आगमन की प्रतीक्षा करते हुए वे काम में व्यस्त होने का नाटक सा करने लगे, उनके दिल की धड़कन तेज़ होने लगीं---अचानक उनकी तंद्रा भंग हुई, उनकी ऑपरेटर का फ़ोन था–