Shuny se Shuny tak - 32 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | शून्य से शून्य तक - भाग 32

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शून्य से शून्य तक - भाग 32

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आज भी आशी अभी तक ‘लेज़ी मूड’ में थी | कभी-कभी उसे अचानक ही रोना आने लगता था और रोते-रोते उसकी आँखें भी बंद हो जातीं रोते-रोते आशी को एक झटका सा आया | माँ उसके आँसू पोंछ रही थी | 

“मेरी इतनी प्यारी बेटी---!”

“प्यारी---!”आशी बिफरी | 

“प्यारी होती तो यूँ छोड़कर जातीं मुझे --? ”

“जाना न जाना कहाँ अपने हाथ में होता है बेटा----”आशी के कानों में माँ की थकी, शिथिल सी आवाज़ न जाने कहाँ से आ रही थी !

आशी रोते-रोते इधर-उधर देखने लगी, शायद स्वप्न की सी स्थिति थी | 

“जाना न जाना कहाँ अपने हाथ में होता है बेटा---”सोनी की थकी हुई आवाज़ फिर से उसके कानों में पड़ी | 

“पर---जो तुमने किया, वो तो तुम रोक सकती थीं न? वो तो तुम्हारे अपने हाथ में ही था न? तुमने मेरे साथ इंजस्टिस किया है, अन्याय---!मैं तुम्हें और पापा को कभी भी माफ़ नहीं करूँगी---कभी भी नहीं---”हमेशा की तरह वह बिफर गई थी | 

इस समय आशी की मानसिक स्थिति अजीब से पशोपेश में हो रही थी | वह स्वयं एक त्रिशंकु की भाँति इधर-उधर या कहें कि ‘हाँ’, ’न’, ’अच्छे-बुरे’ में लटक रही थी | वह कनखियों से पापा को देखती तो लगता कि पापा की कोई भूल हो ही नहीं सकती | उनका शांत, सौम्य चेहरा मानो उससे कहता कि क्या वह नहीं जानती है कि उसके पापा उसको कितना प्यार करते हैं! अरे! उनका व्यक्तित्व ही ऐसा है कि घर के सेवक तक भी उनको इतना सम्मान देते हैं, बस उनकी अपनी बेटी ही उनसे दूर चली गई है | 

सच में ही क्या उसने अपने पिता के साथ अन्याय किया है? कभी-कभी जब माँ सोनी उसके सपने में आकर उसे झँझोड़ती तो वह हड़बड़ाकर उठकर बैठ जाती और फिर उसे सूझता ही नहीं कि वह क्या करे? रातों में जागकर या तो लॉबी में इधर से उधर चहलकदमी करती रहती, या पिछले पन्ने पलटती रहती या फिर बिस्तर में ही सिकुड़ी हुई पड़ी रहती | 

यह बड़े आश्चर्य की बात थी कि आशी अपनी माँ की मृत्यु के दिन जो रोई थी उसके बाद वह कभी रोई ही नहीं | उसकी आँखों से चिंगारियाँ निकलती थीं जिसमें उसके पापा की तस्वीर सुलगती थी | वह अपने पिता के साथ सीधे मुँह से बात कहाँ करती थी, घर के सेवक उसे फूटी आँखों नहीं सुहाते थे और घर मानो उसे काट खाने को दौड़ता था | अब न जाने क्यों कुछ दिनों से उसकी आँखों में आँसु आने लगे थे | उसे लगने लगा था कि वह किसी एक को क्यों और कैसे दोषी ठहरा सकती थी? कोई एक नहीं, माता-पिता दोनों ही तो उसके दोषी थे | इसी भावना के तहत अब वह मन ही मन माँ से बहुत लड़ने लगी थी | कैसे पाएगी वह अपना बीता हुआ बचपन? एक भावनात्मक गुप-चुप लड़ाई उसके सीने से लेकर आपदमस्तक उसे घेरे रहती और जब कभी वह अपने पिता के प्रति विनम्र होती तो माँ के प्रति कठोर हो जाती | माँ इसकी जिम्मेदार हैं---उसकी बंद आँखों ने आज फिर ज़ार-ज़ार पतनाला बनकर बहना शुरू कर दिया था | 

एक दिन न जाने कौन उसे भीतर से झँझोड़ने लगा, उसके भीतर कोई चिल्ला रहा था;

‘आशी ! क्या तुम किसी भी परिस्थिति के लिए ज़िम्मेदार नहीं हो? माना मम्मी-पापा के प्रति तुम बहुत पॉज़िटिव नहीं हो पाईं उनके प्रति तुम्हारा क्रोध चरम सीमा को पार कर गया है पर तुम कैसे ऐसा कर सकीं? क्या केवल तुम्हें ही हक है उनको जिम्मेदार ठहराने का? क्या तुमने किसी परिस्थिति में भी उनका साथ दिया? अपने पापा का साथ दे पाईं तुम? आखिर इतना तो क्या बड़ा कसूर था उनका जितना तुमने उनको कष्ट दिया है? क्या उनकी अपनी ज़िंदगी नहीं थी? उन्हें अपने जीवन के फ़ैसले लेने का कोई अधिकार नहीं था? केवल तुम्हारे ही कारण पिता का यह हाल हुआ कि नहीं? ’कभी-कभी ज़मीर झँझोड़ने लगता है और हम उसको अनदेखा करते हैं लेकिन यह चुप नहीं बैठ पाता, कुरेदता ही तो रहता है | 

उसकी कुछ समझ में नहीं आ रहा था, वह उल्टी लेटी हुई अपना सिर तकिए पर पटक रही थी | क्या करे वह? आखिर क्या? एक ओर मन वास्तविकता की ओर झुकने के लिए तैयार होता तो दूसरी ओर क्रोध मानो उसके मन की लगाम को खींचकर पकड़े हुए था, बार बार उसकी लगाम कस जाती | उसने किसी के साथ दोस्ती भी तो नहीं संभाली थी जो दोस्तों के साथ अपने मन के बोझ को साझा कर सके! मनु उसका अंतरंग हो सकता था, बचपन में उसके साथ कैसे खेलती थी वह लेकिन माँ के बाद सब कुछ उलट-पलट हो गया | देखा जाए तो मनु या सहगल परिवार ने उसके साथ क्या गलत किया था और घर के सेवकों ने? लेकिन उसने सबको अपने से दूर जाने के लिए विवश कर दिया था | 

आज इतने वर्षों के बाद अचानक ही उसे अकेलापन क्यों काटने आ रहा था? पापा भी तो उसके साथ बात करने में अब रुचि नहीं ले रहे थे!लें भी तो आखिर कैसे ? उसने रोते हुए सोचा कि उसने पापा को कहाँ इस लायक छोड़ा था कि वे उससे खुलकर बात करने का साहस कर सकें | उसका मन इसी पशोपेश में घुलता रहा, रोता रहा, बिलखता रहा, सोचता रहा---

और आज वह पापा के साथ बिलकुल गुमसुम सी नाश्ते की मेज़ पर बैठी थी | 

“क्या बात है बेटा? ” दीना आखिर पिता थे उसके !माता-पिता कहीं झुकें या न झुकें अपने बच्चों के सामने झुक ही जाते हैं | 

आशी ने ‘कुछ नहीं’में सिर हिला दिया | 

उन्होंने कहाँ कभी उसे पहले कुरेदा था जो अब कुरेदते!

“मैं---” वह शायद कुछ कहना चाहती थी लेकिन उसने अपने मुँह की बात भीतर ही धकेल दी | नहीं, मिक्स-अप नहीं होगी | 

“कुछ कह रही थी बेटा” पिता के मन में एक आशा का दीप जल जाता था कभी-कभी | 

“नहीं, कुछ खास नहीं—”

“बिना खास ही सही, कह डालो—“”उन्होंने सहजता से बात करने की कोशिश की | 

“मैं--शायद--सोच रही थी, ऑफ़िस आने की---”उसके मुख से धीरे से जैसे शब्द फिसले | 

“दैट्स वैरी गुड़ ----”उनकी बाँछें खिल गईं, उन्होंने अपनी खुशी जाहिर नहीं की, कई बार वे अपनी खुशी को दुख में बदलते महसूस कर चुके थे | क्या मालूम उनकी इस बेटी का----

“देखती हूँ---”टोस्ट कुतरते हुए वह काफ़ी धीरे से बोली जैसे शब्द किसी छोटी सी दरार में से धीरे-धीरे फिसलने की कोशिश कर रहे हों | 

“ठीक है, जैसे तुम्हें ठीक लगे---”उन्होंने उठते हुए पूछा;

“मैं चलूँ--? ”

“हाँ, हैव ए नाइस टाइम---”आशी ने धीरे से कहकर ज्यूस का ग्लास होंठों से लगा लिया | 

“थैंक यू----”वे आशी के इतना कहने से ही भीग उठे थे | 

वे उठे तो माधो रोज़ की भाँति उसी प्रकार उनके पीछे-पीछे आया और गाड़ी सबको अपने भीतर समाकर ऑफ़िस जाने के लिए आगे बढ़ गई | 

आशी अभी भी नाश्ते की मेज़ पर बैठी कुछ सोचती बैठी रही थी कि आखिर किस तरह करे वह बिलकुल नॉर्मल बिहेवियर? उसका उमड़ता हुआ क्रोध, टूटता-जुड़ता हुआ अहं। जीवन को एक नए नजरिए का साहस और धुंधलके को चीरकर एक नई सुबह की रोशनी पा जाने की दृष्टि और फिर से वापिस गुफ़ा के अंधकार में सिमटना!सब कुछ उसके सामने प्रश्नों की लंबी कतार से खड़े थे जिनके हल उसे स्वयं तलाशने थे | उसने आँखें फिराकर अपने चारों ओर देखा और फिर से भूत तथा भविष्य के हिंडोले में झूलने लगी |