नागरिक शास्त्र के प्राध्यापक
स्कूल के कमरे की छत से लटका बिजली का पंखा मई महीने की भीषण गर्मी में रह-रह कर हाँफ रहा था। दूसरों को राहत पहुँचाने की अपेक्षा शायद उसे स्वयं की तीमारदारी की अधिक आवश्यकता थी। यूँ तो पिछले एक महीने से उसकी यह हरकत छात्रों के लिये परिहास का सबब बन कर रह गई थी। ऐसा होना स्वाभाविक भी था। शिक्षक की अनुपस्थिति में जब भी वह आराम फरमाने के लिये अपनी लचर गति को पूर्ण विराम लगाने के समीप होता तो बूढ़े बैल को हाँकने की भाँति छात्रा डंडे के प्रहार से उसे चलने के लिये विवश करने लगते। आज तो बेचारा सुबह से ही रूठ कर बैठा था। अपने हम साये में बैठे छात्रों पर आज उसे तनिक भी दया नहीं आ रही थी। आती भी क्यों? उन्होंने भी तो आज उसे हाँकने की कोशिश नहीं की थी। वे तो आज स्वयं ही उसकी तरह उदास और गमगीन हुए बैठे थे। उनकी इस बेरूखी का सबब उसकी समझ में नहीं आ रहा था। हाँ इतना जरूर नज़र आ रहा था कि वे बेचारे किसी नव आगंतुक की प्रतीक्षा में बार-बार दरवाजे की ओर टकटकी लगाये बैठे थे।
इंतजार के पल खत्म हुए। नागरिक शास्त्रा के नये प्राध्यापक ने ज्योंही कमरे में प्रवेश किया, छात्रों के दिल की धड़कन असामान्य होने लगी थी। अभिवादन स्वरूप उन्होंने खड़े होकर, यद्यपि दबी आवाज में, उनका अभिनन्दन किया। परिणाम आशा के अनुरूप ही निकला। प्राध्यापक महोदय के चेहरे से सहज और स्वाभाविक भाव एकदम नदारद था। कुर्सी को पीछे की ओर से अपने दोनों हाथों से थामकर उन्होंने सामने खड़े छात्रों की ओर अपनी शुष्क नज़रों से देखा। सभी चेहरा लटकाये खड़े थे।
‘ 'सामने क्यों नहीं देखते, मुझ से डर लगता है क्या? कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। कक्षा में शान्ति बनाये रखने में आज पंखा भी जो उनका पूरा साथ दे रहा था। प्राध्यापक महोदय को उनका यों चुप रहना खला नहीं। थोड़ी ऊँची आवाज़ में बोलेः
‘ 'गूँगों की तरह चुप क्यों हो? मेरी बात का उत्तर क्यों नहीं देते? देखो! मेरे पास सभी मर्ज की दवाई है। तुमतो क्या हो? मेरे आगे तो भूत भी नाचते हैं। बैठ जाओ और मेरी बात सुनो।'
कुछ छात्रों ने हिम्मत जुटाकर तिरछी आँख से उनकी ओर देखा। शुष्क चेहरे की भाँति पहनावा भी एकदम नीरस था। खड़िया मिट्टी रंग की आधे बाजू की सूती कमीज़ और मटमैले लाल रंग की पतलून। पैरों में काले रंग के चैड़ी पट्टी के सैन्डिल। खुष्क बालों के बीचों बीच चीर, जो उभरी नाक के सरपट रास्ता बना रही थी। प्राध्यापक महोदय ने छात्रों की चोर निगाहों को भाँप लिया था। अतः रूआब कायम करने की कला का प्रदर्शन करते हुए उन्होंने अपने कुशल व्यवहार की पृष्ठ भूमि पर एक लेक्चर झाड़ा और फिर कुर्सी के ऊपर बैठने की अपेक्षा मेज के किनारे का सहारा लेकर तिरछे खड़े हो गये। कक्षा में पहला दिन था सो पहले हुए अध्ययन की कारगुजारी का लेखा जोखा लेकर अगले दिन की तैयारी की हिदायत देकर वहाँ से निकल गए।
‘ 'बाप रे बाप! ये टीचर हैं या कोई जल्लादI जैसा शुष्क विषय, उससे भी बढ़कर पढ़ाने वाला। सच ही कहते हैं कि पाठ्य पुस्तकों का आदमी की मानसिकता से गहरा रिश्ता है। तभी तो देखो पुरी सर गणित का विषय पढ़ाते-पढ़ाते सूत्रों की तरह पेचीदा होकर रह गये हैं। चेहरे के ऊपर सदैव जमा-घटाव और गुणा-भाग के लक्षण ही दिखाई देते हैं। बातों से मिठास ऐसे गायब हो गई है जैसे गंजे के सिर से बाल। और अपने पांडेय सर, संत कबीर का भक्ति रस और सुभद्रा कुमारी चैहान की वीर रस की कविताएँ पढ़ाते-पढ़ाते मिश्री से भी ज्यादा मीठा हो गये हैं। पढ़ाते समय ऐसे भाव-विभोर हो जाते हैं कि कक्षा को भूलकर स्वयं की कल्पना लोक में खो जाते हैं।'
तारा चन्द के मुख से निकले यह प्रवचन सुनने के लिये सहपाठियों का समूह उसकी ओर उमड़ पड़ा। इस से पहले कि वह अपनी बात आगे कह पाता, सतीश अपने संस्मरण सुनाने के लिये उसकी बगल में आकर फुसफुसायाः
‘ 'मेरे चाचा जी कह रहे थे, ये महाशय पहले भी इस स्कूल में पढ़ा चुके हैं। इनके हाथ की पिटाई तो उन्हें आज भी याद है। अपनी तर्जनी और मध्यमा के बीच में से अंगूठा निकालकर कमर की बगल में ऐसा घूंसा रसीद करते थे कि दिन में ही तारे नज़र आने लगते थे।'
तर्क-वितर्क का दौर अभी चल ही रहा था कि अर्थशास्त्र के प्राध्यापक महोदय कमरे में प्रवेश कर गये। पैंतालीस मिनट बीत गयेI तत्पश्चात पांडेय सर दाएँ हाथ की तर्जनी को अपनी चोटी के चारों ओर घुमाते हुए कक्षा में आए तो पूरा माहौल ही बदल गया। अब तक नये प्राध्यापक महोदय का खौफ दिल और दिमाग से पूर्णतया लुप्त हो चुका था। परन्तु बकरे की माँ कब तक खैर मनाती। दूसरे ही दिन प्राध्यापक महोदय ने अपना रौद्र रूप दिखाना आरम्भ कर दिया। कुर्सी के ऊपर बैठते ही उन्होंने चारों ओर अपनी नज़र घुमाई। सामने की दीवार के साथ सटे आखिरी बैंच पर बैठा गोकुलदास गलती से उनकी ओर देखने की भूल कर बैठा। नज़र मिलते ही प्राध्यापक महोदय ने प्रश्न कर डाला। भय से मनुष्य प्रायः बुद्धिहीन हो जाता है। यही कुछ गोकुलदास के साथ भी घटित हुआ। जो स्मरण था वो भी भूल गया। अतः प्रताड़ना का श्री गणेश उसी से आरम्भ हुआ। छात्र को पहचानना, फिर उससे प्रश्न पूछना, उपयुक्त उत्तर न पाकर उसे दंड देना, यह सिलसिला बिना किसी अवरोध के निरंतर चलने लगा। उनकी पकड़ में दो ही प्रकार के छात्र आते थे। पीछे की पंक्तियों में बैठने वाले व उनसे गाहे-बगाहे नज़रें मिलाने की जुर्रत करने वाले।
सतीश, कृष्ण, राजू, ताराचन्द व जगदीश, जिसे सभी जग्गू के नाम से पुकारते थे, आपस में घनिष्ठ मित्रा थे। प्रत्येक क्रिया में एक-दूसरे के भागीदार। यूँ तो ये पाँचों मध्यम पंक्ति के दूसरे और तीसरे नम्बर के बैंच पर बैठते थे, परन्तु दुर्भाग्यवश एक दिन जग्गू कक्षा में देरी से पहुँचा। सामने की बैन्च पर एक भी स्थान खाली नहीं था। अतः बुझे मन से पीछे की कतार में जा बैठा। प्राध्यापक महोदय नया चेहरा पाकर उत्सुक हुए। प्रथम दृष्टि में ही न्यायपालिका और कार्यपालिका के आपसी सम्बन्धों पर प्रकाश डालने का हुक्म दे डाला। जग्गू डील-डौल से जितना हृष्ट-पुष्ट था, दिमाग से उतना ही कमजोर। कुछ कहने से पहले ही हकला गया। प्राध्यापक महोदय गुर्रायेः
‘ 'नालायक! शरीर हाथी जैसा और दिमाग चूहे जितना भी नहीं। ठहर, तेरी बुद्धि का विकास मैं करता हूँ।' और फिर वही हुआ जो होना था। कमर की बगल में टिका-टिका कर घूंसों की बौछार। आखिर हर चीज़ की एक हद होती है। जग्गू ने मन ही मन बदला लेने की ठान ली थी। रविवार का दिन होने की वजह से आने वाला कल छुट्टी का दिन था। शहर से पूर्व दिशा की ओर लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर एक छोटा सा गाँव था। उसी गाँव के खेतों में बहुत बड़े आकार का एक पुराना पीपल का पेड़ था। इसी पेड़ के नीचे गाँव में पानी की पूर्ति के लिये एक सामूहिक पानी का नल लगा था। पांचों लड़के छुट्टी के दिन इस पीपल के पेड़ की छाया में गांव के हम उम्र लड़कों के साथ कबड्डी का आनंद लिया करते थे। उस रोज भी कबड्डी खेलते हुए शाम का समय हो चला था। तभी उन्हें कुछ दूरी पर खेत की पगडंडी के ऊपर नागरिक शास्त्र के प्राध्यापक महोदय भ्रमण करते हुए नज़र आए। शेर के आगमन पर हिरणों के झुण्ड के बिखराव की भाँति सभी लड़के वहाँ से भाग गये। खेल में विघ्न पड़ने से जहाँ अन्य लड़के काफी खिन्न थे, वहीं पर जग्गू अपने मन ही मन अति प्रसन्न था। आज उसे अपने अपमान का बदला लेने का मूल मंत्र मिल चुका था। झाड़ियों की ओट में रूक कर उसने अपने आगे चलते हुए साथियों को आवाज़ लगा कर अपने पास बुलाया और बोलाः
‘ 'बंधुओं! आज तुम्हारी परीक्षा का समय आ गया है। क्या तुम मेरा साथ देने को तैयार हो? सोचलो, कहीं बीच में दगा मत दे जानाI कभी मेरी नैया मझदार में ही डूब जाये।'
‘ 'ओए! बड़े डायलाग मार रहा है आज तो। कहीं किसी ड्रामा कम्पनी में शामिल तो नहीं हो गया। सच-सच बता यह रिहर्सल किस नाटक की हो रही है? सतीश ने मुस्कुराते हुए उससे प्रश्न किया।
‘ 'नाटक नहीं प्यारे! असली खेल होने को जा रहा है, जिसका शीर्षक है, तौहीन का बदला।' वह शायराना अंदाज में बोला।
‘ 'यार, क्यों पहेलियाँ बुझा रहा हैI साफ-साफ क्यों नहीं बताता!' राजू थोड़ा खुश्क आवाज में बोला।
'बतलाता हूँ....... बतलाता हूँ पहले थोड़ा धीरज रखो और कसम खाओ कि इस नेक काम में मेरा पूरा-पूरा साथ निभाओगे।' जग्गू अपने दाएँ हाथ को उनकी ओर बढ़ाते हुए बोला।
‘ 'क्यों शहीद भगत सिंह बनने की तमन्ना है क्या?' राजू उसकी बात को बीच में ही काटता हुआ बोला।
‘ 'नहीं, भगत सिंह तो नायक था। मैं तो खलनायक बनने जा रहा हूँ।' वह बोला।
‘ 'क्यों, किस लिये?' राजू ने प्रश्न किया।
‘ 'ये जो प्राध्यापक महोदय अभी-अभी आए थे, इन्हें सदाचरण का पाठ पढ़ाने के लिये।'
‘ 'वो कैसे?' सभी लड़के विस्मित नज़रों से उसके चेहने की ओर झांकने लगे।
‘ 'मेरे पास गुलेल है। कल शाम जब महाशय घूमने के लिए आएंगे तब देखना। झाड़ियों की ओट से कनपटी पर ऐसा जमाकर पत्थर मारूंगा कि महाशय को दिन में ही तारे नज़र आने लगेंगे। मालूम तो तभी पड़ेगा कि दूसरों की पिटाई करने पर उन्हें कितनी पीड़ा होती है।' बोलते हुए जग्गू के चेहरे पर गुस्सा छलकने लगा था।
‘ 'पागल मत बन I वे हमारे गुरू जी हैं। वो अगर मारते हैं तो हमारी भलाई के लिये।' कृष्ण ने तर्क दिया।
‘ 'बस, सुनते ही फिस हो गई तेरीI दिखा गया न पीठ। हाँ! तुम बोलो, तुम्हारा क्या फैसला है। दोस्ती का हाथ बढ़ाना है या इसकी तरह पीठ दिखानी है।' वह दूसरे लड़कों की ओर आँख उठाकर देखता हुआ बोला। चारों लड़कों ने एक-दूसरे की ओर प्रश्नात्मक दष्टि से देखा और इशारों ही इशारों में एक-दूसरे के मन को भांपने की कोशिश की। उन की खामोशी को देखकर जग्गू अपनी तो राम-राम, कहता हुआ बगल से आगे निकल गया। उसका यूँ नाराज़ होना उन्हें खुशगवार न लगा। राजू उम्र में सब से बड़ा था, इसलिये अंतिम निर्णय की बारी उसकी थी। अतः सब की निगाहें भाँप कर वह ऊँची आवाज में बोलाः
‘ 'जग्गू नाराज मत हो, हम तेरे साथ हैं।'
दूसरे दिन गोधूली से पूर्व पांचों लड़के खेत की बगल में झाड़ियों की ओट लेकर घात लगाकर बैठ गये। जग्गू ने पहले ही मुट्ठी भर कंकड़ों से अपनी जेब भर रखी थी। एक कंकड़ को गुलेल की पट्टी में डालकर वह किसी नामी शिकारी की तरह अपने लक्ष्य के स्थान की ओर निशाना साध कर प्रतीक्षा करने लगा। समय का आभास उन्हें पहले से ही था। अतः शीघ्र ही प्राध्यापक महोदय प्रतिदिन की भाँति अपने निश्चित समय पर उस पगडंडी से गुजरने लगे। उन्हें देखते ही जग्गू ने अपने होंठों पर अपनी तर्जनी रखते हुए सभी को चुप रहने का इशारा किया। ज्योंही प्राध्यापक महोदय लक्ष्य लगाने के स्थान पर पहुँचे, जग्गू का शरीर भय से कांपने लगा। कांपते हाथों से निशाना चूक गया और कंकड़ प्राध्यापक महोदय की बगल से आगे निकल गया। इससे पहले कि प्राध्यापक महोदय पलटकर देखते, लड़के झाड़ियों की ओट लेकर एक-दूसरे से आगे निकलते हुए भाग गए।
दूसरे दिन प्राध्यापक महोदय जब स्कूल में आए तो कल की घटना का क्षोभ उनके चेहरे पर साफ झलक रहा था। वह छात्रों के साथ पहले से ज्यादा सख्ती से पेश आने लगे थे। उनके मन में कहीं न कहीं छात्रों के प्रति एक संदेह की भावना व्याप्त होने लगी थी। दुर्भाग्यवश उनके रोष की परिणति आज जग्गू की पिटाई के रूप में हुई। बदले की भावना से जग्गू अपने भीतर ही भीतर एक आक्रोश लिए था। वह अब किसी भी अवस्था में अपने अपमान का बदला लेना चाहता था। अपराह्न स्कूल से छुट्टी हुई तो वह अपनी आँखें झुकाये चुपचाप स्कूल प्रांगण से बाहर निकल गया। उसके भीतर की ग्लानि आज उसे चुप रहने पर विवश कर रही थी। भारी मन और थकी हुई टाँगों से वह घर पहुँचा और कमरे में जाकर उसने अपनी किताबों का बैग बिना किसी आस्था के मेज के ऊपर पटक दिया। माँ ने खाना खाने के लिए पुकारा तो कह दिया कि तबियत ठीक नहीं है और न ही उसे भूख है। माँ के लाख मनाने पर भी वह आज अपनी ज़िद्द पर कायम रहा। सोने का प्रयत्न करने लगा तो नींद ने उसका साथ नहीं दिया। देर रात तक करवटें बदलता रहा। आखिर उसे एक तरकीब सूझ ही गई। सुबह माँ से बोला कि आज उसे स्कूल जल्दी जाना है। अंगे्रजी विषय के प्राध्यापक महोदय ने सभी को बुलाया है।
स्कूल के पिछवाड़े किसानों के खेत थे। उस ओर स्कूल की चारदीवारी में एक छोटा फाटक बना हुआ था, जिसके नजदीक ही एक बेर के झाड़ पर कौंच की बेल लिपटी हुई थी। जग्गू स्कूल की अपेक्षा खेत की पगडंडी से वहाँ पर पहुँचा और फिर झाड़ के पास जाकर उसने चारों ओर देखकर यह सुनिश्चित किया कि कहीं कोई उसे देख तो नहीं रहा है। जब आश्वस्त हो गया तो उसने एक लम्बी लकड़ी से कौंच की कुछ फलियाँ तोड़ी और उन्हें लकड़ी से उठाकर एक अखबार के कागज में लपेट लिया। फाटक में लगे पाइप से कूदकर उसने स्कूल के प्रांगण में प्रवेश किया। पूरा मैदान सुनसान था। चुपके से अपनी कक्षा के कमरे में घुसकर उसने पीछे की खिड़की का शीशा खोला और उस पोटली को छुपा दिया। फिर वह अपना बैग उठाकर स्कूल प्रांगण से बाहर निकल गया। स्कूल खुलने की घंटी बजी तो वह अपने सहपाठियों के पीछे-पीछे चलता हुआ कक्षा में पहुँचा। उसकी बेरूखी को लेकर उसके चारों साथी काफी चिंतित थे। परन्तु जग्गू ने अपनी तबीयत ठीक न होने का बहाना बनाकर बात को टाल दिया। विश्रान्ति के पश्चात प्रथम पीरियड नागरिक शास्त्र के विषय का था, इसलिये अपनी योजना का कार्यान्वन करना अब जग्गू के लिए उस से पूर्व आवश्यक था। सभी छात्र कक्षा के कमरे से बाहर निकल चुके थे। जग्गू दवाई लेने का बहाना करके कमरे में आया और फिर उसने अखबार में लपेटी हुई कौंच की फलियाँ प्राध्यापक के बैठने की कुर्सी पर रगड़ दी। फिर अखबार को गेंदनुमा बनाकर खिड़की से दूर फेंक दिया और कमरे से बाहर निकल गया।
प्रतिदिन की भाँति प्राध्यापक महोदय ने कमरे में प्रवेश करने के पश्चात अपनी शुष्क नज़रों से छात्रों की ओर देखा और फिर उन्हें बैठने का इशारा किया। जब सभी छात्र बैठ गये तो प्राध्यापक महोदय ने मेज के ऊपर रखा रजिस्टर उठाया और फिर कुर्सी पर बैठकर उपस्थिति लगाने लगे। अब तक कौंच के रोवां बाजूओं पर दस्तक दे चुके थे। प्राध्यापक महोदय ने पेन को धीरे से मेज़ के ऊपर टिकाया और फिर दाएँ हाथ से बाजू पर खुजली करने लगे। तब तक कौंच का प्रकोप शरीर के दूसरे अंगों तक फैल चुका था। बैठना असहाय हो चला था। प्राध्यापक महोदय ने रजिस्टर को एक ओर पटक दिया और फिर खड़े होकर पूरे शरीर को खुजलाने लगे। शरीर पर जहाँ-जहाँ तक हाथ पहुँचे वहाँ-वहाँ तक कौंच के रोवां भी पहुँच गये। जुबान से बात करना तो दूर की बात, खड़े रहना भी कठिन हो चला था। उन्होंने अपने नीचे के होंठ को दांतों के बीच में दबाकर एक बार पूरी कक्षा की ओर घूरकर देखा और फिर खुजलाते हुए कमरे से बाहर निकल गए।
पाँच मिनट के अंतराल के पश्चात प्राचार्य महोदय अपने हाथ में बेंत पकड़े हुए प्राध्यापक महोदय के साथ कमरे में आए और अपने बाएँ हाथ से कुर्सी को पकड़ कर एक-एक करके छात्रों को निहारने लगे। तत्पश्चात उन्होंने बैंत को जोर से मेज पर पटकना शुरू किया और गुस्से में गरज कर बोलेः
‘ 'बदमाशों! किस की खुराफात है यह?'
सभी लड़के आंखें नीचे किये चुपचाप खड़े रहे।
‘ 'बैठ जाओ, तुम ऐसे नहीं मानोगे। जिस किसी ने भी शरारत की है वह अपने आप खड़ा होकर बता दे। मैं उसे बच्चा समझ कर माफ कर दूँगाI वरना पूरी की पूरी कक्षा का वो हाल करूँगा कि तुम्हारे फरिश्ते भी याद रखेंगे।'
किसी भी लड़के ने आँख ऊपर उठाकर देखने की हिम्मत नहीं की। प्राध्यापक महोदय को खड़ा रहना पल-पल भारी पड़ रहा था। शरीर में खुजली का प्रकोप असहनीय हो चला था। लड़के आँख चुराकर देखते हुए मुस्कुरा रहे थे। अतः शर्मिन्दगी बरदाश्त से बाहर होती देखकर वह प्राधानाचार्य महोदय से इजाज़त लेकर कमरे से बाहर निकल गये। गुस्से का बवाल बुद्धि का हरण कर लेता है। अतः परिस्थिति की गम्भीरता को समझे बिना प्राधानाचार्य महोदय कुर्सी पर बैठ गये। और फिर परिणति वही हुई जिसका आभास सभी छात्रों को था। महोदय विवश होकर छटपटाने लगे। परिस्थिति ने छात्रों के भय को परिहास में बदलने पर विवश कर दिया। पहाड़ से गिरते झरने की मानिंद उनकी हँसी पूरे वेग से स्फुटित होकर दाँतों के बीच से बाहर निकल आई। पीड़ा के साथ-साथ अपनी गलती का बोध होने पर प्रधानाचार्य महोदय आंखें नीची किये कमरे से बाहर निकल गये। परन्तु जब तक स्कूल से छुट्टी नहीं हुई पूरी कक्षा सहमी रही। आगामी सुबह स्कूल की घंटी बजी तो उसकी आवाज़ मानों शरीर में स्पंदन करती दौड़ने लगी। भय की लकीरें पूरी कक्षा के चेहरे पर नज़र आने लगी थी। असमंजस और भय के इस वातावरण में अभी पढ़ाई शुरू भी नहीं हो पाई थी कि स्कूल का चपरासी भागता हुआ आया और बोलाः
‘ 'तुम्हारे में कृष्ण कौन है ? उसे सर ने दफ्तर में बुलाया है।'‘‘
यह आदेश सुनकर जहाँ पूरी कक्षा की साँस नीचे बैठ गई, कृष्ण आवाक सा रह गया। यह वज्रपात उसके लिये मर्यादा का सबब बन गया था। क्योंकि वह भली प्रकार से जानता था कि उसे ही क्यों बुलाया गया है। पढ़ाई-लिखाई में जहाँ वह अव्वल रहता था, सच्चाई के लिये भी उसकी उतनी ही शोहरत थी। अतः प्रधानाचार्य महोदय को अपने प्रश्नों का उत्तर पाने के लिये उससे अच्छा और कोई उत्तरदाता नहीं था। दबे पांवों से ज्योंही कृष्ण कमरे से बाहर निकला जग्गू के दिल की धड़कन तेज होने लगी थी। मन का बोझ चेहरे पर स्पष्ट होने लगा था। सतीश, राजू और ताराचन्द ने तिरछी आँख घुमाकर उसकी ओर देखा तो पूरी बात समझने में देर नहीं लगी। अपने मित्र पर आने वाली विपत्ति ने उन्हें भीतर से झककोर दिया था। पर क्या कर सकते थे I बागडोर तो अब पूरी तरह कृष्ण के हाथ में थी। सो सभी मन मार कर संभावित दण्ड की प्रतीक्षा करने लगे।
कृष्ण ने सहमे मन से प्रधानाचार्य के कक्ष में प्रवेश किया। महोदय पूरे रूआब से उसकी ओर देखने लगे। मेज के दायें ओर नागरिक शास्त्र के प्राध्यापक महोदय और बाएं ओर पी.टी.आई. महोदय बैठे हुए थे। परन्तु प्रधानाचार्य महोदय गुस्से की अपेक्षा नरम लहजे में बोलेः
‘ 'बेटा कृष्ण, तुम्हारे बारे में मैंने बहुत कुछ सुन रखा है। कहीं ऐसा न हो कि जो मैंने सुना है वह झूठ निकले। सच-सच बताओ कल वह घृणि शरारत किसने की थी?'
कृष्ण निर्णय नहीं कर पा रहा था कि वह क्या उत्तर दे। एक ओर उसकी आदमीयत थी तो दूसरी ओर मित्रात्व का निर्वाह। आत्मोत्सर्ग करे भी तो कैसे? वह सिर झुकाये चुपचाप खड़ा रहा। प्रधानाचार्य महोदय थोड़ा मुस्कुराये और बोलेः
‘ 'बेटा, घबराने की कोई बात नहीं। यह उम्र ही शरारत करने की होती है। सच बतला दो, मैं उसे कुछ नहीं कहूँगा।'
आखिर सच्चाई का पलड़ा भारी पड़ा। वह घबराई और दबी हुई आवाज़ में बोलाः
'सर! मुझे असलियत तो मालूम नहीं, परन्तु शायद यह काम जगदीश का हो सकता है।'
‘ 'वो कैसे और क्यों नहीं?' प्रधानाचार्य महोदय ने उसकी ओर आँख उठाकर प्रश्न किया।
‘ 'वो सर से अपनी पिटाई का बदला लेना चाहता था। कृष्ण प्राध्यापक महोदय की ओर देखता हुआ बोला।
‘ 'बोलिये श्रीमान जी, आप इस बारे में क्या कहना चाहते हो?' प्रधानाचार्य महोदय ने अपनी भौंहें चढ़ाते हुए प्राध्यापक महोदय से पूछा।
‘ 'सर, मैंने जो भी किया है, इनकी भलाई के लिये ही किया है। ऐसा करने में मेरा अपना क्या स्वार्थ है।'
यह सुनकर प्रधानाचार्य महोदय बोलेः
‘ 'ठीक है, मैं मानता हूँ। परन्तु पिटाई हर मर्ज की दवाई नहीं है। कल तुम्हारे व्यवहार को लेकर एक छोटी बुराई की शुरूआत हुई है, आने वाले कल को कोई बड़ी घटना भी घटित हो सकती है। हम गुरु हैं। हमारा कर्तव्य बच्चों को एक अच्छा और सभ्य इंसान बनाना है न कि उन्हें चोर, उचक्का और अपराधी बनाना है। मैंने आज तक कभी भी डंडे का प्रयोग नहीं किया है, फिर भी मेरा परीक्षा परिणाम हमेशा सराहनीय रहा है। देखो! मैं यह नहीं कहता कि लगाम ढीली छोड़ दो। उसे कसने के और भी साधन हैं जैसे कि प्यार और प्रोत्साहन। इनके आगे कठोर से कठोर और बिगड़ैल से बिगड़ैल भी झुक जाते हैं। ठीक है जो हुआ सो हुआ, उसे भूतकाल में दफन कर दो और भविष्य को सुधारने की कोशिश करो। आओ अब उस लड़के की सुध लेते हैं।'
अपना यह अंतिम वाक्य कहते हुए प्रधानाचार्य महोदय अपनी कुर्सी से उठकर कक्ष से बाहर की ओर निकल गये। उनके पीछे-पीछे प्राध्यापक महोदय, पी.टी.आई. और कृष्ण भी कमरे की ओर चलने लगे। जबसे कृष्ण को बुलावा भेजा गया था छात्रों की छिपी निगाहें प्रधानाचार्य महोदय के कार्यालय कक्ष की ओर ही लगी थी। उन्हें अब अपनी ओर आते हुए देखकर सब के दिलों की धड़कनें तेज होने लगी थी। उन्होंने ज्योंही कमरे में प्रवेश किया छात्रों ने खड़े होकर जय हिन्द के उद्घोष के साथ उनका स्वागत किया। छात्रों के साथ-साथ आज बिजली का पंखा भी उनके स्वागत में अपनी लचर गति को विश्राम देकर आराम की मुद्रा में खड़ा था। प्रधानाचार्य महोदय ने एक बार ऊपर की ओर आँख उठाकर पंखे को देखा और फिर कुर्सी की ओरI फिर बोले:
‘ 'क्या यह वही कुर्सी है?'
‘ 'नहीं सर, वह बदल दी गई है।' कई लड़कों की आवाज़ एक साथ सुनाई दी।
‘ 'अच्छा ठीक है, बैठ जाओ।'
जब सभी लड़के अपने-अपने स्थान पर बैठ गये तो प्रधानाचार्य महोदय गुस्से में बोलेः
‘ 'किसने की थी कल वो शरारत? अपने आप बतला दो वर्ना पूरी कक्षा को दण्ड भुगतना पड़ेगा।'
कोई नहीं बोला। सभी लड़के अपनी आँखें नीचे किये हुए फर्श की ओर ताकने लगे।
‘ 'देखो! मैं सच कहता हूँ गलती मानना कोई पाप नहीं है, अपितु उसे छुपाना एक पाप ही नहीं बल्कि घोर पाप और कुकत्य है। इसलिये अपनी गलती स्वीकार करके यदि क्षमा मांग ली जाए तो उस से बढ़ कर और कोई दूसरा सद्गुण नहीं है। मैं सब कुछ जानते हुए भी यह बात तुम से जानना चाहता हूँ।' यह कहकर वह लड़कों के चेहरे की ओर ताकने लगे। आपस में फुसफुसाहट होने लगी कि कृष्ण ने पूरी कक्षा के साथ दगा किया है और न जाने किस का नाम बतला दिया है। नज़रें घुमाते हुए ज्योंही महोदय ने जगदीश की ओर देखा वह खड़ा हो गया और भय के मारे कांपने लगा।
‘ 'हूँ.....तो वह खुराफात तुम्हारी थी। तुम क्या सोचते हो कि तुम्हारे नाटक का किसी को कोई पता नहीं चलेगा। तुम जैसे बदमाश, निकम्मे, निखट्टू और दुर्गुण छात्र की इस विद्यालय को कोई आवश्यकता नहीं है। बदमाश मैं तुम्हें सिखाता हूँ कि शिक्षकों के साथ किस अदब से पेश हुआ जाता है।' यह कहते हुए प्रधानाचार्य महोदय बैंत उठाकर ज्योंही कुर्सी से उठे, कृष्ण हाथ जोड़कर उनके सम्मुख खड़ा हो गया और विनती भरे स्वर में बोलाः
‘ 'नहीं सर! आप ऐसा नहीं कर सकते। उसे पीटने से पहले आप मुझे पीटिए। वह मेरा मित्र हैI इसलिये मैं भी बराबर का भागीदार हूँ। आवेश में आकर उसने जो गलती की है वह गलती नहीं अपितु प्रतिशोध है। यह भावना क्यों जागृत हुई उसका निराकरण करना दण्ड देने से कहीं ज्यादा जरूरी है। सर! मैं इस धृष्टता के लिये क्षमा चाहता हूँ।'
प्रधानाचार्य महोदय ने नज़रें घुमाकर प्राध्यापक महोदय की ओर प्रश्नात्मक दृष्टि से देखा।
‘ 'जी सर, ये ठीक ही कहता है, गलती मेरी ही है। इन्हें सुधारने से पहले मुझे स्वयं को सुधारने की आवश्यकता है। इसलिये मैं आज प्रण करता हूँ कि भविष्य में लकड़ी के डण्डे की अपेक्षा प्रेम के डण्डे का ही प्रयोग करूँगा।'
प्राध्यापक महोदय के मुँह से निकले इन मधुर शब्दों को सुनकर पूरी कक्षा के चेहरे पर खुशी के भाव छलक आए। शायद इस खुशी और सद्भाव के सुअवसर पर छत से टँगा पंखा भी अपने आप को रोक न पाया और कड़क-कड़क की आवाज के साथ अचानक घूमने लगा। प्रधानाचार्य महोदय ने सिर उठाकर छत की ओर देखा और मुस्कुराकर बोले:
‘ 'इसे भी सुधारना पड़ेगा।' भला फिर छात्रा क्यों पीछे रहते। हंसी के फौवारे के साथ भय, चिंता और प्रतिशोध की भावना छू-मन्तर हो गई।
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