Shuny se Shuny tak - 30 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | शून्य से शून्य तक - भाग 30

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शून्य से शून्य तक - भाग 30

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शोफ़र ने गाड़ी के पीछे का दरवाज़ा खोलकर सेठ जी को बैठाकर दरवाज़ा बंद कर दिया| आगे का दरवाज़ा खोलकर माधो ने पहले अपना थैला गाड़ी में संभालकर रख दिया फिर अपने आप गाड़ी में समा गया| दूसरी ओर से ड्राइवर बैठकर गाड़ी बैक करने लगा | घर के नौकर और दरबान गेट पर हाथ बाँधे खड़े थे| लंबे समय के अंतराल के पश्चात् न जाने किस शुभ घड़ी में आज सेठ दीनानाथ जी की शेवरलेट गेट से निकलकर बंबई की सड़कों पर फिसल रही थी| 

सब कुछ वही, वैसा ही उनकी पसंद का, बिलकुल साफ़-सुथरा माहौल| कर्मचारियों के मन उमंग से भरे हुए| हार, बुके, मिठाइयाँ, कार्ड्स, चहल-पहल! दीनानाथ को महसूस हो रहा था कि वे उस सब पर किस प्रकार रिएक्ट करें, क्या सोचें, क्या विचार करें? उन्होंने सोचा भी नहीं था कि उनके इतने लंबे समय की गैरहाज़िरी के बाद भी सब-कुछ इतना व्यवस्थित होगा| घर से गाड़ी में आते हुए वे जिस ऑफ़िस की कल्पना कर रहे थे, वो तो नहीं था यह सब ! उनके मन में जीवन का एक नवीन प्रभात किसी मधुर धुन को लेकर गुनगुनाने लगा | यह सब उनके मैनेजर्स और कर्मचारियों के द्वारा किया गया था| इतना अनुशासित! इतना डिसिप्लिन ! उनका मन अपने ऑफ़िस के कर्मचारियों के प्रति कृतज्ञ हो उठा| उन्हें मन ही मन विश्वास हो गया कि न केवल यही किन्तु उनके व्यापार की सभी शाखाएं इसी प्रकार अनुशासित कार्य कर रही होंगी| 

अचानक उनके विचारों में ब्रेक लगा, सामने से डॉ. सहगल और मनु एक बड़े से बुके के साथ उनके चैंबर में प्रवेश कर रहे थे| 

“दोस्त! तुम्हारा लौटना मुबारक हो ---”सहगल ने चैंबर में प्रवेश करके दीनानाथ को अपने अंक में समेट लिया| 

“कॉन्ग्रेचुलेशन्स अंकल ---”मनु ने हाथ बढ़ाया| दीना ने सहगल के गले लगे हुए ही मनु को अपने करीब करके उसकी पीठ थपथप दी| फिर जो बातों का सिलसिला शुरू हुआ तो दीनानाथ फिर से मानो भूत के गर्भ में सिमट आए| 

“माफ़ करिए अंकल, आप और पापा बैठें, मैं निकलता हूँ ---”मनु बोला| 

“बहुत जल्दी में हो बेटा ? ”दीना अंकल ने पूछा| 

“हाँ, कुछ बिज़ी था पर तुमसे मिलने भी आना चाहता था| इसीलिए मैं अपने साथ ले आया था| ”

मनु प्रणाम करके वहाँ से निकल गया और उसके बाद दोनों मित्रों में जो गप्पों का सिलसिला शुरू हुआ उसका प्रवाह इठलाती हुई नदी की भाँति कभी भूत, कभी वर्तमान तो कभी भविष्य के तटों को चीरता हुआ आगे की ओर बढ़ता रहा| न जाने कब चार बज गए और वहाँ के कर्मचारी वर्ग ने सेठ जी के वापिस ऑफ़िस में आने लौटने की प्रसन्नता में ज़ोरदार ‘पार्टी’की तैयारी कर डाली| 

उस दिन के बाद तो दिन जैसे पंख लगाकर उड़ने लगे थे| दीना जी फिर से चुस्त-दुरुस्त हो सूर्य की गुलाबी आभायुक्त मुद्रा को देखते हुए कुछ टटोलने का प्रयास कर रहे थे| 

“देखो, तुम्हें ढूंढ रहा हूँ उस उगते हुए गुलाबी सूरज में --! ”

“अच्छा! लोग अपनी पत्नियों, प्रेमिकाओं की तुलना चाँद से करते हैं और आप जनाब मुझे सूरज में ढूंढ रहे हैं ! ” सोनी ने पति से इतराकर कहा था| 

“मैंने कहा उगता सूरज, देखो, कैसा गुलाबी रंग है सोनी, बिलकुल तुम्हारे रंग का सा---उगता हुआ सूरज नए जीवन का ‘सिंबल’है| मैंने कहाँ तुम्हारी तुलना दोपहर के कड़क सूरज से की है? ”उन्होंने हँसकर कहा| 

“तो वो भी कर लीजिए न, मन की मन में क्यों रखते हैं? निकाल डालिए जो कुछ भी हो आपके भीतर वर्ना पेट में दर्द हो जाएगा| ”सोनी ने पति के सामने झूठमूठ का मुँह फुलाकर कहा| 

“हाँ, सच कहा, दर्द तो हो रहा है थोड़ा सा---पर तुम पहले दोपहर का सूरज बन तो जाओ ---अभी तो कैसे करूँ तुम्हारी तुलना उस बिगड़ैल सूरज से—”

“ठीक है, कोशिश करती हूँ | ”सोनी ने मुँह बनाकर कहा तो दोनों खिलखिलाकर हँस पड़े| 

दीनानाथ ऐसे ही कभी भी अपनी स्मृतियों में खो जाते थे| इन्हीं स्मृतियों में डूबते-उतरते वे घर पहुँच गए| 

“गुड ईवनिग पापा---” पापा को मुस्कुराते हुए देखकर आशी ने कहा| 

“हाऊ वाज़ द डे आफ्टर ए लॉन्ग पीरियड? 

“गुड बेटा, डे वाज़ वैरी नाइस---वैरी गुड, अच्छा था| यकीन ही नहीं हो रहा था कि मैं फिर से अपने ऑफ़िस में आ गया हूँ---”वे सच में मन से अति प्रसन्न थे इसीलिए वे ऊपर से भी खिले हुए लग रहे थे| दूसरा प्रसन्नता का बड़ा कारण बेटी का आगे बढ़कर पूछना उनको आनंदित कर गया| 

“हूँ---”आशी फिर किसी सोच में डूब गई | बालकनी से बाहर हाथ बढ़ाकर दीनानाथ छज्जे से बाहर लटकते हुए गमलों की कतार को छूने का प्रयत्न कर रहे थे| कितना शौक था सोनी को पेड़-पौधों का ! उनकी दृष्टि गमलों से हटकर नीचे के बड़े से लॉन पर जा टिकी जिसके चारों ओर छोटे-बड़े पौधे बड़े करीने से सजे हुए थे| सोनी ने लॉन के पीछे की ओर क्यारियाँ भी बनवाई हुई थीं जैसे पूरी प्रकृति अपने चारों ओर खड़ी कर रखी थी | सोनी हर साल मौसमी फूल लगवाती और उनकी सार-संभाल खुद करती| माली भी कहता—

“मालकिन की फूलों के बारे में जानकारी का जवाब नहीं है मालिक ---हमें भी जिनके बारे में कुछ पता नहीं है, ऐसे-ऐसे फूल मँगवाती हैं| उनके कहने से हम लगा तो देते हैं पर भीतर से डर लगता है कि मर जाएंगे पर पता नहीं कैसे ठहर जाते हैं---”

“अरे भाई! तुम्हारी मालकिन ढेरों किताबें पढ़ती हैं बागबानी के बारे में—ऐसे ही थोड़े जिंदा रहते हैं ये पेड़-पौधे! ”

“हाँ जी मालिक, काम करने का मज़ा भी मालिक उन्हीं के साथ ही है, नहीं तो हमें तो ध्यान भी न आए कि अब क्या और कैसे करें? यों ही पौधों की काट-छाँट करते रहते हैं—”

इतने वर्षों के बाद दीना को आज सोनी के द्वारा लगाया गया यह बगीचाऔर लॉन वैसा ही ताजगी दे रहा  था जैसी सोनी के समय देता था| आज यह बगीचा कुछ अधिक ही खुशनुमा लग रहा था, शायद आज बहुत दिनों बाद दीनानाथ को सोनी की उपस्थिति महसूस हो रही थी| उसके जाने से उसके लगे हुए बगीचे में भी पसरा हुआ मौन बगीचे में रंग गया था| गुपचुप से पेड़-पौधे धीमे-धीमे सिर हिलाकर कानाफूसी सी कर रहे थे| काश! कहीं से इनमें खिलखिलाहट भर जाए! 

एक बार दीना ने सोनी से पूछा था ;

”क्या बात है ? बड़ी मुस्कुरा रही हो? कुछ खास बात याद आ गई क्या? ”

“अच्छा! तो आप आज देख रहे हैं! अरे सरकार ! हम तो रोज़ ही इनसे प्यार करते हैं, बात करते हैं, इनकी खैर-खबर पूछते हैं तभी तो ये खिलखिलाते रहते हैं| देखो, गुलाब की रंग-बिरंगी क्यारियां कैसे सिर हिलाकर गुनगुना रही हैं| आपको इनका गीत सुनाई नहीं देता? ”

दीनानाथ अपनी अनभिज्ञता पर मानो शर्मिंदा हो उठते पर पत्नी के सामने सिर हिला देते| सोनी हँस पड़ती| गुलाब पर प्यार से हाथ फिराकर कहती—“दोस्ती करनी पड़ती है, पहले जनाब ! ”

आशी अपने हाथ की कलम छोड़कर बॉलकनी में आकर खड़ी हो गई| आज उसे वहाँ से खड़े होकर नीचे झाँककर देखने से वह बगीचा अपनी मम्मी के बगीचे जैसा लग रहा था| क्यों कभी वह अपने घर को घर नहीं समझ पाई? क्या किया उसने इतनी उम्र में? अब पछताने से क्या होगा जब चिड़ियाँ खेत चुग गईं| 

उसने अपनी आँखों के आँसु पोंछे, अभी तो उसे बहुत कुछ कहना था| उसके मन की कहानी जैसे सामने अमरावली पर्वत के टीलों से टकराकर उसे कुछ कहने का प्रयास कर रही थी|