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दीनानाथ सोचने लगे कि जब इतने लंबे अरसे बाद भी वे अपनी माँ की छुटपुट घटनाओं को याद करके भी परेशान हो जाते हैं तो आशी का अपनी माँ को खो देना और उसके लिए तड़पते रहना कुछ अजीब तो नहीं था| बचपन में माँ को खो देना कोई छोटा हादसा तो होता नहीं है | न जाने क्यों अचानक उन्हें आशी से हमदर्दी होने लगी | कुछ भी कहो आशी उनकी बिटिया थी|
आज न जाने कैसे अचानक आशी के मन में अपने पिता के प्रति भी कुछ हमदर्दी सी जागी| क्या ये कोई को-इन्सीडेंट था कि वह पिता के कमरे में आई थी | पिता थोड़ा सा चलने से कितने खुश दिखाई दे रहे थे| कुछ देर बाद जब वह वापिस अपने कमरे में आई उनके चेहरे की चमक अभी भी उसकी आँखों में भरी हुई थी| कितना समय हो गया था पापा से ढंग से बात किए हुए ! लेकिन---वह करे भी क्यों? आखिर क्यों? क्या इसीलिए उनसे बात करना जरूरी थी कि वे उसके पिता थे ? यह तो ‘प्रारब्ध’की बात है कि वे उसके पिता हैं! ’इट्स मीयरली ए चांस’एक बार उसने सहगल अंकल से कहा भी था|
“इट्स ऑलसो ए चांस एंड लक दैट यू हैव लॉस्ट युअर मदर” डॉ.सहगल ने उसकी बात का उत्तर दिया था|
“बोलो, क्या यह लक नहीं है कि तुम्हारी माँ नहीं रहीं----? ”डॉ.सहगल ने उसे समझाने के लिए कहा |
“पर---आप इस बात को झुठला सकते हैं क्या कि इसका कारण पापा हैं, सिर्फ़ पापा---? ”
“बिलकुल गलत है यह बेटा, दीनानाथ आखिर तक यह नहीं चाहता था कि तुम्हारी मम्मी दूसरे बच्चे को जन्म दें | मैं इसका साक्षी हूँ---| ”
“अंकल ! आपको गलतफहमी है ---आज भी हम वहाँ के वहीं खड़े हैं –क्या विचार थे ! बेटी ! ओ.के ---ठीक है –पर बेटे के बिना तो नैया पार नहीं लगती न! चाहे उसमें फिर किसी की बेटी कुर्बान ही क्यों न हो जाए? ”
“आशी, बेटा! मैं तुम्हारे माता-पिता के बीच की एक-एक बात का गवाह हूँ | तुम्हारे पापा कभी भी सोनी भाभी को दूसरी बार माँ नहीं बनने देना चाहते थे | वह जानते थे कि उनके लिए दूसरी बार माँ बनना बहुत बड़ा रिस्क था| ”
“उनके लिए तो कुछ रिस्क नहीं था न ! जो भुगतना था, मेरी माँ को भुगतना था, पापा को क्या--? हूँ केयर्स-और उन दोनों को भी क्या? एक चली गईं, दूसरे ने चुप्पी ओढ़ ली| किसी ने सोचा था कि छोटी बच्ची का क्या होगा? ”
वह बिफरी ----
“और तुम ? तुम बहुत केयर करती हो अपने बीमार पिता की ? तुम जब विदेश में कॉलेज कर रही थीं तब तुम्हें पता नहीं चल गया था कि तुम्हारे पिता को पेरेलेसिस हो गया है, तब भी तुम लौटकर आईं ? तुमने अपने पिता से बात की? और जब पढ़ाई पूरी करके आई हो क्या उसके बाद से भी तुम अपने क्या उसके लिए और घर के लिए घर में हो? ”डॉ.सहगल ने कड़वी लेकिन सच्ची बात कह दी थी|
“हाँ---नहीं हूँ क्योंकि मैं हेट करती हूँ उनसे! आई हेट हिम –”उसने दोहराया|
“प्लीज़ बेटा, ध्यान से मेरी बात सुनो---”मिसेज़ सहगल ने भी उसे समझाने की कोशिश की |
“नहीं आँटी, प्लीज़ कुछ मत कहिए –मैं नहीं चाहती कि आपकी इंसल्ट करूँ---प्लीज़ डोंट फोर्स मी---आप जाइए यहाँ से---प्लीज़| ”
अजीब सी हिस्टेरिक सी हो उठी थी आशी ! डॉ. सहगल और उनकी पत्नी को लगा कि अब समझाने से कोई लाभ नहीं है अत:वे दोनों उठकर उसके पास से चले गए| हाँ---उन्हें उसकी बात इतनी एबनॉर्मल तो नहीं लग रही थी | जो व्यक्ति यह सोच सकता है कि उसके इस प्रकार से बोलने से दूसरे की बेज़्जती हो सकती है वह ‘एबनॉर्मल’तो नहीं ही है |
आशी के साथ बहुत बार इस प्रकार की छुटपुट बातें होती रहीं | कभी डॉ.सहगल, कभी उनकी पत्नी, कभी उनकी बेटियाँ आशिमा, रेशमा कभी उनका बेटा मनु ! कभी केलकर अंकल और तो और अपनी औकात को पार करके समझाने वाला माधो भी तो---सब ही तो लेक्चर झाड़ने के मूड में रहते–वे ही सब बातें करते जिनसे वह पीछा छुड़ाने के लिए भागती रहती| इसी सबसे बचने के लिए तो वह विदेश में जा छिपी थी–पर---कब तक? पिता ने अब अपने आपको ही अपंग बनाकर रख लिया था| अब स्थिति यह हो गई थी वह न यहाँ चैन पा रही थी न ही वहाँ---! दीनानाथ की बेचैनी, उनकी लाचारी से भरी हुई दृष्टि को सहन कर पाना उसके बसका नहीं था| वह उसमें क्या कर सकती थी? उसके पिता अपने किए की सज़ा भुगत रहे थे, सो कॉल्ड ‘लक’भाग्य था उनका ! अब वह ही क्या करती उसमें ? ?
पर क्या उसका इतना भी फ़र्ज़ नहीं था कि बीमार पिता के पास घड़ी भर के लिए जाकर बैठे ? कोई गैर भी यदि घर में रहता है तो वह बीमार की हालत तो पूछ ही लेता है| न करे तामीरदारी फिर भी पर---माधो तो गैर ही था और वषों से उसके पिता की तीमारदारी कर रहा था | डॉ.सहगल भी गैर ही थे और उसकी माँ के जाने के बाद से मानो दीनानाथ के अकेलेपन को बाँटने के लिए उसके साथ बँधकर रह गए थे|
“अच्छा चलो, आपको अपने पिता जी से तकलीफ़ है | आपके हिसाब से उन्होंने आपके प्रति अपना कर्तव्य पूरा नहीं किया है ---| ”माधो एक बार आशी से बात करने के लिए उसके कमरे में आकर बैठ गया |
“मैंने कब कहा कि उन्होंने मेरे लिए अपना कर्तव्य पूरा नहीं किया ---? देखो माधो, जब तुम किसी बात को समझ नहीं सकते तो मुझे डिस्टर्ब करने मेरे कमरे में मत घुस आया करो---जाओ---तुम अपने मालिक के पास जाओ---| ”
“पर ---”माधो ढीठ बनकर बैठा ही रहा|
“अच्छा बीबी, पर इतना हक तो मेरा भी है, मैं आपसे पूछ सकूँ कि क्या आप अपना कर्तव्य पूरा कर रही हैं? क्या आपको अपने बीमार पिता के पास बैठना---”
“बस माधो---औकात में रहो तो ठीक रहेगा---आउट---आउट—और कभी मुझसे इस प्रकार की बातें मत करना वरना---| ”
इस वरना के बाद आशी के मुँह से क्या फूल खिले होंगे, उन्हें सुने बिना ही माधो भरी हुई आँखों से उसके कमरे से बाहर निकल आया था| उसके बाद उसने कभी भी आशी के कमरे में जाकर बात करने का साहस नहीं किया| वह दीनानाथ जी की परछाईं बनकर घूमता रहता था|
विदेश से आने के बाद आशी का मन ही नहीं लग रहा था, वह भटकती रहती | भटकने में भी तो साथी की ज़रूरत होती है| अकेले भटकना तो भूतिया भटकन सा ही होता है| पर साथी कौन? कहाँ?
जब कभी सहगल अंकल, आँटी उसके पास आए हैं, उसने उन्हें झटक दिया है फिर वे लोग क्यों उसके पास आएंगे? डॉ.सहगल की बेटियाँ रेशमा, आशिमा कैसे शुरू-शुरू में दीदी-दीदी करके उसके पास दौड़ी दौड़ी आती थीं पर उसने उन्हें ऐसी डाँट लगाई कि अब जब आशी घर में होती वे उस ओर का रुख भी न करतीं| हाँ, जब कभी उन्हें पता चलता कि आशी घर पर नहीं है, वे कुछ देर के लिए दीना अंकल के पास आकर ज़रूर बैठ जातीं| दीना अंकल हैं भी तो कितने अच्छे ! उतनी ही उनकी बेटी –आशी दीदी –हुँह –बिलकुल बेकार ! पता नहीं क्यों मम्मी-पापा आशी दीदी की तारीफ़ों के इतने पुल बाँधते रहते हैं? आशी जब छोटी थी ऐसी थी, वैसी थी –बेचारी अब कैसी हो गई है ? अब उन्हें बचपन की याद तो नहीं है कि आशी दीदी कैसी थीं ? सवाल यह था कि अब वे कैसी हैं?
दोनों बहनें अपने मस्तिष्क के अनुसार आशी के बारे में बात करतीं फिर निष्कर्ष होता, जाने दो न जैसी भी हैं—हमें क्या मतलब? पर पहली पीढ़ियाँ आज वैसे भी बिना किसी मतलब के, किसी स्वार्थ के बिना मतलब रखती हैं| आज भी एक दूसरे के सुख-दुख, परेशानियाँ सब कुछ सबका होता है | आज भी एक आँख से आँसु और दूसरी आँख से आह निकलती है| आज भी सब कुछ वही है, एक दूसरे से जुड़ा हुआ, सिमटा हुआ पर फैला हुआ| दुखों का बाँध टूटा हुआ पर किसी के सहारे से रुका हुआ| बहुत कुछ जीवन में आज भी ऐसा घटित हो जाता है जो किसी एक के साथ घटता है लेकिन परेशान उससे सभी जुड़े हुए लोग हो जाते हैं | आज भी सब कुछ वही है एक दूसरे से जुड़ा हुआ, सिमटा हुआ पर फैला हुआ | दुखों का बाँध टूटा हुआ लेकिन किसी न किसी के सहारे से रुका हुआ| घटित होता है किसी एक के साथ और परेशान कर जाता है न जाने कितने लोगों को ! फिर दीनानाथ अपनी बेटी के ज़ख्म को न समझते, ये कैसे संभव था ? लेकिन छोटी सी बच्ची आशी—उसके मस्तिष्क में जिस बात ने घर कर लिया सो कर लिया| अब बड़ी होने पर भी वह सोचती आखिर कैसे उन बातों की ओर से अपनी आँखें फेर सकती है? उसकी अपनी पीड़ा थी, उसके अपने गम थे, अपनी तनहाई थी, अपना अकेलापन था| अपनी आहें थीं और थे अपने ही आँसू ! वह कहाँ किसी के भी साथ शेयर कर पाई थी ? और इस सबका जिम्मेदार वह अपने पापा को ही समझती थी | उसकी माँ उसे ऐसे समय में, ऐसी आयु में छोड़कर गईं थीं, जिस समय उसे माँ की सबसे ज़्यादा आवश्यकता थी ! माँ ने उसे बड़ी होती हुई लड़की की परेशानियों के बारे में उसे कुछ भी नहीं बताया, समझाया था|