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उन्हें कभी-कभी डॉ. कुरूप की बात बिलकुल सही लगती | आशी का व्यवहार वे ऐसा ही देख रहे थे जैसा डॉ. कुरूप बताकर गए थे | उनके मन में जीने की इच्छाशक्ति जैसे समाप्त प्राय:होती जा रही थी| यह भी संभव था कि वे कुछ कर बैठते पर डॉ.सहगल और माधो के बार-बार समझाने, उनके घाव पर बार-बार मलहम लगाने और आशी के भविष्य को लेकर सोचने के बाद शायद उन्हें कहीं लगा था कि उन्हें बेटी के व्यवहार का बुरा न मानकर उसके लिए अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए | उन्हें लगा कि वे आशी को इस स्थिति में छोड़कर नहीं जा सकते | उन्हें उसके लिए कुछ करना ही होगा | यदि सोनी होती तो क्या वह आशी को इस स्थिति में याकेली छोड़कर जा सकती थी? उन्हें लगा वे पिता हैं, वे बेटी को इस तरह छोड़कर कैसे जा सकते हैं? इस भावना के तहत उनका मन फिर से आशी के बारे में सोचने लगा कि वे आशी को ऐसी स्थिति में छोड़कर नहीं जा सकते हैं| पलायन करना यानि अपनी प्यारी बेटी को अकेले छोड़ जाना | इसीको सोचते हुए धीरे-धीरे उन्होंने अपने आपको कड़ा किया और फिर से जीने के लिए तत्पर हुए| खून के रिश्ते बहुत पीड़ा दे जाते हैं| उनके लिए मरना भी कठिन हो जाता है और जीना भी!
परिणामस्वरूप आज वे व्हीलचेयर से उठकर अपने पैरों पर खड़े हो सके थे| उनका मन भीतर से चीत्कार करता रहता था| बहुत कष्ट उठा लिया, यदि उनकी बेटी उनको अपनी माँ की मृत्यु का जिम्मेदार भी समझती है तब भी इतने दिनों के बाद पिता की ऐसी हालत देखकर वह अब शायद यह सोच सके कि उसके पिता ने इतने कष्ट उठाकर अपने आपको इतना माँज लिया है कि संभवत:वह उन्हें क्षमा कर सके |
कभी-कभी दीना को समय के, परिस्थितियों के बदलाव पर आश्चर्य होता था | आशी पूरी आठ वर्ष की भी नहीं थी जब वह दुर्घटना हुई थी | इतने बड़े बच्चे को तो अपने खेलने–खाने से ही कहाँ फुर्सत होती है जो वह घर-संसार की इतनी महीन बातों में अपना दिमाग लगा सके ! वे स्वयं जब दस वर्ष के थे तब की उन्हें केवल एक घटना के अतिरिक्त कोई और घटना विशेष रूप से याद नहीं है|
आशी के पिता को अपने बचपन की छुट-पुट और दो-चार घटनाएं याद होंगी अन्यथा तो वे थे, उनकी पुस्तकें थीं, कुछ मित्र थे, नौकर-चाकर थे, पिता अमरनाथ जी के मित्र थे जो बहुधा परिवार सहित आया जाया करते थे| उन मित्रों में अँग्रेज़ परिवार अधिक थे | जब कभी वे लोग अमरनाथ जी के यहाँ आते तब दीनानाथ अंदर अपने कमरे में भाग जाया करते थे |
“मि.नाथ ! आपने अपने बेटे का नाम दीनानाथ क्यों रखा है ? ”अमरनाथ के अँग्रेज़ मित्र पूछते |
“नहीं गार्टन साहब, मैंने नहीं, मेरी पत्नी ने रखा है इसका नाम दीनानाथ यानि ‘दीनों का नाथ’मतलब दीनों, गरीबों के लिए सिंपैथी रखने वाला! ”
“पर---आप तो गरीब नहीं हैं | ”मि.गार्टन पूछते |
“भगवान के सामने तो हम सब गरीब हैं | पैसा ही सब कुछ होता है क्या ? ”सुमित्रा देवी के मुँह से निकल ही जाता|
“कौन सा, वो मंदिर वाला बगवान---! ”गार्टन चिढ़ाते |
“हाँ, वो ही –और आपका गिरजाघर वाला भी –भगवान तो एक ही है गार्टन साहब | हमारा मंदिर में, आपका गिरजाघर में---लेकिन है तो एक ही ---| ”अक्सर उनकी बहस होती रहती |
गार्टन और उनकी पत्नी ज़ोर से हँस पड़ते | दोस्ती बहुत करीबी थी, उन्हें सुमित्रा को चिढ़ाने में बहुत मज़ा आता था| एक बार छोटी सी चिंगारी तो छोड़ दो बस, वे गुस्से से भर उठती थीं | वैसे वे पहले बहुत कम बोलने वाली व शांत स्वभाव की थीं | जब से ये फिरंगी लोग घर आने लगे थे वह पति से भी नाराज़ रहने लगीं थीं|
“ऐसी क्या दोस्ती हो गई –उन्हें घर पर लाने की आखिर ज़रूरत ही क्या है? ”वे पति से पूछतीं |
“क्यों भई क्यों, वो आदमी नहीं हैं ? दोस्त हैं हमारे---| ”अमरनाथ हँसकर उनकी खीज दूर करने का प्रयास करते| पर---वे इतनी आसानी से समझने वाली थोड़ी ही थीं |
“सब आदमी ही होते हैं पर फ़र्क होता है आदमी-आदमी में | हमारे घरों में घुसकर हम पर अपने भगवान का प्रभाव डालने की कोशिश करते रहते हैं | मैंने कोई कम किताबें नहीं पढ़ीं ---किस बहाने हमारे देश में घुस आए थे ये लोग ! ”
“तुम्हारे घर में नहीं घुसेंगे, यह मैं तुमसे वादा करता हूँ | ”
पर कहाँ निभा सके अमरनाथ अपना वायदा ! उनके अँग्रेज़ मित्रों का आना-जाना लगातार बढ़ता ही रहा| अब वे पत्नी को बाध्य करते थे कि वह भी उनके मित्रों और उनकी पत्नियों के साथ घूमने और सिनेमा देखने जाया करें |
आशी जैसे-जैसे आगे लिखती जाती उसे बहुत सी वे बातें याद आने लगतीं जो उसके सामने घटी तो नहीं थीं लेकिन बहुत बार दोहराई गई थीं| सुनने की चेष्टा न करने पर भी उसले कान में तो पड़ती ही थीं बातें| पहले दीना अपनी पत्नी से करते रहते थे, बाद में माधो को अपने पिता-माता की सारी बातें साझा करते रहते थे| जो बात उन्हें याद आ जाती, माधो को सुनाने बैठ जाते| वैसे डॉक्टर ने भी कहा था कि उनसे बातें करते रहना ज़रूरी था|