Shuny se Shuny tak - 12 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | शून्य से शून्य तक - भाग 12

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शून्य से शून्य तक - भाग 12

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दीनानाथ के सामने जब बीते हुए कल की परछाइयाँ घूमने लगती हैं तब वह अपने आप भी उन परछाइयों का एक टुकड़ा बन जाते हैं| टुकड़ों में बँटा हुआ जीवन, मजबूरी की साँसों को भरता हुआ उनका मन और शरीर मानो बिखरने लगता है| टूटने और बिखरने के क्रम में उनकी इच्छाशक्ति भी कमजोर होती जाती है| इतनी कमजोर कि उन्हें महसूस होता है कि उनकी साँस किसी कमज़ोर धागे से बँधी नहीं बल्कि अटकी हुई है--ज़रा सा छुआ भर नहीं कि छिटककर विलीन हो जाएगी और पहुँच जाएंगे अपनी सोनी के पास! पर कर्तव्य के मार्ग से हटकर सोनी के पास पहुंचना इतना सरल तो नहीं है | 

मरना कितना आसान हो जाता है और जीवन में बिखरे हुए काँटे समेटते हुए उन पर चलना कितना कठिन ! सोनी ने मृत्यु को गले लगा लिया लेकिन उनके लिए जीवन एक कठिन परीक्षा बन गया| कैसे उस परीक्षा से मुँह छिपा सकते हैं वे ! अनर्गल बातें सोचने की आदत सी पड़ गई है दीना को ! क्या सोनी मृत्यु को गले लगाना चाहती थी? नहीं न ? वह तो अपने उस संसार में कितनी प्रसन्न थी ! कहाँ और किस बात से तृप्ति नहीं थी उसे फिर भी उसे जाना पड़ा और उसके पति के लिए जीवन एक कारावास बन गया| यहाँ पर कोई कुछ भी कर ले, मिलता उसे वही है जो उसके प्रारब्ध में होता है | फिर उनके जैसा मनुष्य इस वास्तविकता को क्यों नहीं समझ पाता ? क्यों वह अपनी लड़ाई लड़ने में स्वयं को कमज़ोर महसूस करता है? इच्छाशक्ति के कमजोर होने से पूरे शरीर की नसें कमज़ोर होती चली जाती हैं जिस प्रकार से कमज़ोर हुआ मन इच्छाशक्ति का भार ढोने में असमर्थ हो जाता है और मन में जीने की भावना समाप्त प्राय:होती चली जाती है| कितनी सच्चाइयों को समझते हुए भी वे जैसे एक नादान बच्चे की भाँति रूआँसे होते चले जाते हैं| 

जब कभी डॉक्टर सहगल और माधो के सहारे से उनकी इच्छाशक्ति या मन किसी रोशनी की ओर बढ़ने लगता है कि राह में कोई न कोई बहाना आकर खड़ा हो जाता है| उनके शरीर के गुब्बारे की हवा फुस्स से निकलकर, शरीर को मानो अपंग बना जाती है | कभी-कभी उन्हें लगता कि डॉक्टर सहगल सही कहते हैं कि कमज़ोरी से लड़ना तो मनुष्य का कर्तव्य होता है दीना! ईश्वर के आशीर्वाद यानि उनके दिए हुए अवयवों का प्रयोग करके देखो तो सही ---सही कहते हैं डॉक्टर, उनका मन स्वीकारता तो था पर ----| 

पर आज जब वे सैर करने का प्रयास कर रहे थे और माधो डॉक्टर का फ़ोन अटेंड करने गया था –उस समय उनके मन में मानो रोशनी का झौंका सा आया और उन्हें समझा गया कि वास्तव में यदि वह चाहें तो अपनी लड़ाई लड़ सकते हैं| आखिर क्यों नहीं? कितना कुछ तो है उनके पास जीने को अभी| घुटने टेक देना वे स्वीकार नहीं कर सकते और क्यों करें ? आशी के बारे में सोचने से, केवल चिंता करने से कुछ नहीं हो पाएगा लेकिन दुविधा में रहे---बेटी के लिए बिना कुछ करे वे यदि मरना भी चाहें तो भी संभवत:उनकी आत्मा इधर-उधर भटकेगी| 

इतने वर्षों में आज पहला दिन था जब वे आशी के नाम से कुछ कमज़ोर नहीं पड़े थे बल्कि उन्होंने रेलिंग को और भी कसकर पकड़ लिया था जो उनके विचारों और शरीर की सुदृढ़ होती हुई स्थिति का परिचायक था| नहीं, वे इतने कमज़ोर नहीं हो सकते---उनके हाथ रेलिंग पर कसते चले गए थे पर माधो को फिर अपने पास देखते ही वे कमज़ोर पड़ने लगे थे| उन्हें लगा –‘अरे! वे इतनी देर तक कैसे खड़े रह सकते हैं? ’फिर भी उनका शरीर काँपा था आज, मन नहीं | 

“मालिक ! वो कहते नहीं हैं, जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी---”| 

“कहना क्या चाहता है माधो ? ”दीनानाथ ने हँसकर माधो से पूछा| 

“अरे वही सरकार, जो डॉक्टर साहब कहकर गए थे न कि अगर मन में इच्छा हो तो सब कुछ हो सकता है | ”

“अरे! यह तो देख लिया कर कि कोई बात कहाँ फ़िट होती है| उनका कहना था कि ‘जहाँ चाह होती है, वहाँ रास्ता निकाल ही आता है ‘where there is a will, there is a way’दीनानाथ ने भी हँसकर समझाने का प्रयास किया माधो को| 

“ये ही तो कह रहा था मैं भी---”माधो भुनभुन करता हुआ बोला | 

“ये ही तो मेरा मतलब भी था----”

“पर तू भावना वाली बात कर रहा था, वो यहाँ पर कहाँ लागू होगी? ”

“अब साहब, मैं तो भावना ही समझता हूँ| भाव नहीं है तो कुछ भी नहीं है | जीवन भी तो भावों के साथ ही है| भावना के मर जाने से आदमी का मन मर जाता है और मन मर जाने से आदमी बिखर जाता है----मैं तो यही कहना चाहता था सरकार---”माधो धीरे से बोला| 

“अरे ! वाह रे तू तो दार्शनिक हो गया माधो---| ”दीनानाथ ने हँसकर कहा | चाय पीते हुए वह सोचने लगे कि माधो ने कहाँ का प्रसंग कहाँ और कैसे अपनी भावना, अपनी बात के सहारे फ़िट कर दिया था | सच तो यह है कि हर आदमी कहीं न कहीं अपने भीतर दार्शनिक होता है| कितनी बड़ी बात कह गया था माधो ! हम एक दूसरे के मन के भावों को समझ नहीं पाते लेकिन कहीं न कहीं हरेक के मन में कुछ सोच होती है, उसके दायरे होते हैं | अपने मन की ग्रंथियां होती हैं, अपनी सोच के दायरे होते हैं और अपनी ग्रंथियों को सुलझाने के सबके अपने तरीके होते हैं|