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पर्वतों की शृंखला से सूर्य की ओजस्वी लालिमा आशी के गोरे मुखड़े पर पड़ रही थी और वह गुमसुम सी लॉबी में खड़ी एक महक का अनुभव कर रही थी| उसने देखा, पवन के झौंके के साथ रंग-बिरंगे पुष्प मुस्कुरा रहे हैं जैसे उससे बात कर रहे हैं| वह सोच ही रही थी कि सुहास हाथ में ट्रे लेकर उसके पीछे आ खड़ी हुई|
“शुभ प्रभात आशी दीदी---”उसके चेहरे पर भी सूर्य की किरणों से भरी एक सजग मुस्कान पसरी हुई थी|
“हाय, गुड मॉर्निंग, तुम कॉफ़ी क्यों ले आईं? रानी लाती है न रोज़----”आशी ने मुस्काकर सुहास से पूछा|
“अरे ! आज मैं ही रानी---सोचा, पूछती हूँ आपका लेखन शुरू हुआ? ”
“तुम मुझ बिगड़ी हुई को और मत बिगाड़ो। मैं खुद आ जाती किचन में अगर रानी बिज़ी थी तो---”आशी ने सहज रूप से कहा|
“नहीं, रानी कोई इतनी बिज़ी भी नहीं है लेकिन मेरा मन था| मैं नहीं ला सकती क्या? ” उसने बड़ी मासूमियत से पूछा और दोनों मुस्कुरा दीं| शायद यह सहज जीवन की शुरुआत है? आशी के मन में आया|
दोनों ने अपने कॉफ़ी के मग्स बॉलकनी की चौड़ी मुंडेर पर रख दिए और बातचीत का सिलसिला शुरू होने लगा|
“जितना लिखती जाएंगी, मुझे दिखाएंगी? ” सुहास ने पूछा|
“नहीं, न तुम्हें पढ़ने में मज़ा आएगा, ही मुझे लिखने में| ज़रा इस वातावरण को अपने मन में पिरोने दो, एक कोशिश करने दो खुद से मिलने की, तभी तो बात बनेगी---”
“ठीक है, मौन में तो आएंगी न ? मैं तैयारी देखती हूँ | ”
“हाँ, बिलकुल। उसी से जो भी मानसिक शक्ति मिल रही है, उसी के सहारे शायद कुछ यादों को पकड़ सकूँगी और अपनी बात कहने की हिम्मत आएगी | ”आशी दूर कहीं खो रही थी|
कॉफ़ी के मग्स खाली हो चुके थे, सुहासिनी ने पीछे रखी मेज़ पर से ट्रे उठाकर मग्स उसमें रखे और वहाँ से चली गई|
नौ बजे मौन का समय था, जल्दी से फ़्रेश होकर, एक सादे सफ़ेद कुर्ते से उसने शरीर को ढका और जाकर हॉल में बिछी श्वेत धवल चादर पर आँखें मूंदकर सबके साथ बैठ गई| आज रविवार था इसलिए पूरा हॉल भरा हुआ था| मौन की प्रक्रिया के बाद उसने उन कुछ लोगों से बात की जिनसे उसका खासा परिचय हो गया था और अपने कमरे की ओर निकल आई |
आशी मन की खिड़की खोलकर उड़ते हुए पृष्ठों को पकड़ने में लगी थी | उसे अपने पिता के पिता यानि दादा जी की कहानी याद आने लगी और कलम हाथ में अनायास ही आ गई|
कहानी उस समय से शुरू होती है जब भारत अँग्रेज़ों के प्रभाव में था और स्वतंत्रता के अभियान में जुटा हुआ था| अमीरों की आन, बान, शान अँग्रेज़ों के दम पर थी | दीनानाथ के पिता यानि आशी के दादा एक बहुत बड़े होटल के मालिक थे| होटल के अलावा उनके कई फ़िल्म टॉकीज़ ‘पिक्चर हाल्स’, आरा मशीन और दिल्ली में ही सत्रह बंगले थे| अँग्रेज़ों का समय होने के कारण वहाँ पर जो कुछ भी था, अँग्रेज़ों के ठाठ-बाट के अनुसार ही था| दीनानाथ उसी वातावरण में पलकर बड़े हुए थे | पिता अमरनाथ के अंग्रेज़ मित्रों ने उनको अपनी गोदी में खिलाया था, कारों में, घोड़ागाड़ियों में सैर करवाई थी| दीनानाथ अकेले सुपुत्र होने के कारण बड़े लाड़-प्यार में पले थे| वैभव की वहाँ कोई कमी नहीं थी| उनकी माँ एक मध्यम वर्गीय सभ्य, सुसंस्कृत परिवार की गरिमामयी स्त्री थीं | अमरनाथ जी पर चाहे कितना भी प्रभाव अंग्रेज़ी सभ्यता का पड़ा हो, सुमित्रा देवी अपना जीवन सादगी से ही व्यतीत करती थीं | अमरनाथ जी अपनी पत्नी सुमित्रा को बहुत प्यार व सम्मान देते थे | घर में अनेक सेवक होने के बावज़ूद जब सुमित्रा देवी खाना बनाना न छोड़तीं तो अमरनाथ पेट दर्द का बहाना बना देते | कड़ाके की सर्दी में वे अपनी पत्नी को भला कैसे उठाते ? तौबा ! पसंद तो दरअसल वे पत्नी के हाथ का बना खाना ही करते थे किन्तु उन्हें सर्दियों में उठाने में वे बहुत परेशान हो जाते और कोई न कोई बहाना कर देते, अधिकतर पेट दर्द का| सुमित्रा देवी बड़ी दुखी हो उठतीं | यह क्या बात हुई भला कि वह पति को खाना भी न खिला पाएं।भारतीय पत्नी पति को घर से बिना कुछ खाए जाने देने में अपनी कितनी तौहीन समझती है !
कैसी विडंबना थी भला, पति अपनी पत्नी के हाथ का बना खाना ही पसंद करते थे, सीधा-सादा, शाकाहारी भोजन ! पर पत्नी को सुबह में उठते हुए नहीं देख पाते थे | कभी पेट दर्द, कभी अनिच्छा का बहाना करके घर से बाहर काम पर निकल जाते थे| सुमित्रा देवी बहुत दुखी हो उठती थीं| पति अपने स्नेह, प्यार से उन्हें बहला-फुसला ही लेते थे |
अँग्रेज़ी राज्य था, अमरनाथ जी के होटल में बड़े-बड़े जागीरदार या फिर बड़ी-बड़ी पदवियों से विभूषित अँग्रेज़ पदाधिकारी ठहरते थे | अमरनाथ अँग्रेज़ों के साथ पढे-लिखे थे | वह उस समय की दसवीं कक्षा पास थे और गिटपिट अँग्रेज़ी बोल सकते थे| सुमित्रा देवी उन्हें देखकर बड़ी प्रसन्न होती थीं | वह स्वयं तो रामायण और हिन्दी के धार्मिक ग्रंथ ही पढ़ पाती थीं पर पति को अँग्रेज़ी बोलते देखकर उनके हर्ष का ठिकाना नहीं रहता था| बेटे दीनू अर्थात दीनानाथ को भी अँग्रेज़ी पढ़ाई जाती थी| पता नहीं क्यों उसका मन अँग्रेज़ी पढ़ने की जगह संस्कृत की ओर अधिक लगता था| उसको घर में भी अलग-अलग विषयों के अध्यापक पढ़ाने आते थे| सुमित्रा देवी को उसका संस्कृत पढ़ना बहुत अच्छा लगता था| आखिर उन्होंने भारत की सुसंस्कृत, सांस्कृतिक गरिमामयी भूमि में जन्म लिया था| वे इस बात पर बहुत गर्व करती थीं और चाहती थीं कि उनका बेटा भी अपने भारतीय होने पर गर्व करे | पर उन्हें अँग्रेज़ी के बिना भी अधूरापन लगता था| वे यह भी सोचती थीं कि अँग्रेज़ी से आदमी की अलग ही ‘शान’ बनती है अत:वे चाहती थीं कि दीनू संस्कृत, हिन्दी के साथ अँग्रेज़ी भी फर्राटे से बोलना, पढ़ना, लिखना सीख ले|
कुल मिलाकर आशी के दादा जी एक ज़बर्दस्त आकर्षक व्यक्तित्व! वे जब कभी अपने हृष्ट-पुष्ट घोड़े की सवारी करते सब उन्हें ‘हिटलर’कहकर पुकारते| दीनू भी पिता पर ही गया था पर स्वभाव का बिलकुल सीधा था, माँ जैसा बल्कि यूँ कहें कि एक बेहद सरल, सहज लड़का ! जब अँग्रेज़ी सीखने लगा था तो उसकी समझ में न जाने कितने दिन यह बात नहीं आई थी कि जब ‘but’ बट होता है तो ‘put‘ पुट क्यों होता है? संकोच के कारण वह अपने अध्यापक से भी नहीं पूछ पाता था| सुमित्रा देवी बेटे के इस संकोच से बहुत परेशान रहती थीं | पिता का व्यक्तित्व इतना विशाल, खुला हुआ और बेटे का व्यक्तित्व इतना संकोची ! उन्हें लगता, वह गलती से लड़का बनकर आ गया है | कहीं न कहीं विधाता से बड़ी भूल हो गई है! जब संस्कृत के अध्यापक पंडित गिरिराज जी संस्कृत पढ़ाने आते, बच्चा बिलकुल ही छुई-मुई बन जाता | संस्कृत में जब पंडित जी उसे ’अभिज्ञानशाकुंतलम्’ पढ़ाते तब तो उसकी आँखेँ ऊपर ही नहीं उठती थीं| उसका नव-पल्लवित पल्लव सा युवा मन धड़कने लगता और वह शृंगार की रचना पढ़ते हुए सोचता, न जाने इस दुनिया में कैसी-कैसी बातें होती हैं| कभी-कभी सुमित्रा देवी पास के कमरे से उसके गुरु जी को पढ़ाते हुए सुनतीं तो दुष्यंत और शकुंतला का प्रेम-प्रसंग सुनकर उनके कान लाल हो जाते| पंडित जी के जाने के बाद दोनों माँ-बेटे एक दूसरे से मुँह छिपाए घूमते रहते| अमरनाथ जी के आने के बाद सब एक कमरे में एक साथ आकर बैठते, खाते-पीते और बातों का सिलसिला शुरू करते|