माँ वीणापाणि को नमन जो साँसों की भाँति मन में विचारों की गंगा प्रवाहित करती हैं|
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समर्पित
उन सभी क्षणों को जो न जाने कब
एक-एक कर मेरे साथ जुडते चले गए ! !
स्नेही पाठक मित्रों से ! !
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हम कितना ही अपने आपको समझदार कह लें लेकिन कुछ बातें तभी समझ में आती हैँ जब ठोकर खाकर आगे बढ़ना होता है या उनको आना होता है यानि जीवन की गति ऐसी कि कब छलांगें लगाकर ऊपर पहुँच जाएं और कब जैसे पर्वत से नीचे छलांग लगा बैठें |
माँ ने एक बार लिखा था –
पतझड़ होकर फिर बसंत में,
नाव-पल्लव आ जाते क्यों ?
नदिया-नाले सूख-सूखकर,
फिर जल से भर जाते क्यों ?
सुख पाकर के इसी जहाँ में,
फिर मानव दुख पाते क्यों ?
(स्व.श्रीमती दयावती शास्त्री)
उनकी पंक्तियाँ मानो पूरी की पूरी ‘मैं’और मेरे साथ पूरी सृष्टि ही इस ‘क्यों’के इर्द-गिर्द घूमती रहती है | यह पूरा जगत ही एक ‘क्यों’के इर्द गिर्द घूमता रहता है| एक क्यों का समाधान हो पाता नहीं कि दूसरा आकर कतार में खड़ा हो जाता है | एक मैं ही क्या इस विश्व का प्रत्येक मानव इस क्यों की ही कतार में खड़ा-खड़ा अपने ‘क्यों’ का समाधान पाने की प्रतीक्षा में बेचैन रहता है |
संभवत:मेरे विद्वान मित्रों को मेरा उपरोक्त कथन बचकाना लगे परंतु सच तो यह है कि मनुष्य के भीतर कुछ चीज़ें इस प्रकार समाई रहती हैं कि वह उन्हें कभी भी निकालकर फेंक नहीं सकता | क्या कभी कोई अपने अहसास, अपनी संवेदनाएँ निकालकर फेंक सकता है ? यदि नहीं तो क्यों ?
जीवन के सत्य से जुड़ी नंगी सच्चाई आदमी के भीतर ही दफ़न रहती है | यदि वह उस सच्चाई को, उस कचोट को किसी न किसी प्रकार बाहर लेकर नहीं आता तो वह स्वाभाविक जीवन नहीं जी पाता | इस बात से हम सब भली-भांति परिचित हैं परंतु स्वीकार नहीं कर पाते ? खैर, यह एक लंबा विषय है |
जीवन की इस छोटी सी यात्रा में हम ‘शून्य से शून्य के वृत्त में’घूमते रहते हैं | यह वह सच्चाई है जिसे स्वीकार किए बिना किसी के पास कोई चारा ही नहीं है |
अधिक न लिखकर मैं इस बात को अपने सुधी पाठक-वर्ग पर छोड़ना चाहती हूँ |
मैं सारे सुधी पाठक वर्ग का स्वागत करती हूँ और उनका व विद्वान आलोचकों का अपने उपन्यास पर प्रतिक्रिया देने का आमंत्रण देती हूँ | आपके विचार मुझे अवश्य ही कुछ नए प्रश्न उनका समाधान तथा मार्ग-दर्शन दे सकेंगे, इसका मुझे विश्वास है |
अंत में मातृभारती व उन सबका आभार जो प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से सदा मेरे लेखन से जुड़े रहते हैं| यही इस उम्र में ऊर्जा का स्रोत है|
सस्नेह
डॉ.प्रणव भारती
pranavabharti@gmail.com
शून्य से शून्य तक
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माउंट आबू के उस अंतिम छोर पर स्थित एक छोटे से आश्रम में अपने कमरे के बाहर लॉबी में एक कुर्सी पर बैठी आशी दूर अरावली के पर्वतों की शृंखला को न जाने कब से टकटकी लगाकर देख रही थी| शीतल वायु के वेग से नाचते नीचे के बड़े से बागीचे में रंग-बिरंगे फूलों का झूमना उसे किसी और ही दुनिया में खींचकर ले गया था| यह अक्सर होता ही रहता है उसके साथ ! बीते कल और आज में झूलता मन उसे कहाँ कभी चैन से रहने देता है|
आशी माउंट आबू कैसे पहुंची होगी यह उसके जानने वालों के लिए एक आश्चर्यजनक गंभीर प्रश्न है| वैसे तो उससे कोई अधिक कुछ पूछ ही नहीं सकता लेकिन जो कोई भी पूछने का प्रयास करता भी है, उसे दो आँखें शून्य में न जाने कहाँ विचरती दिखाई देती हैं, पूछने वाले का साहस टूट जाता है और वह अपने प्रश्न का उत्तर बिना पाए ही वहाँ से हट जाता है|
पूरी ज़िंदगी एक चाक में चक्कर काटती रही जैसे---क्या सबकी ज़िंदगी ऐसी ही होती है? इस क्या और क्यों के चक्कर में इंसान ताउम्र घूमता रहता है और फिर एक समय चुप्पी ओढ़कर बैठ जाता है| क्यों समय पर हम एलर्ट नहीं हो पाते? क्यों जीवन को विवेक से नहीं समझ पाते? जी पाते? जबकि सब बखूबी जानते, समझते हैं कि इस दुनिया के मेले में सब चार दिनों के मेहमान हैं लेकिन तीन दिन तो अविवेकी, क्रोधी, असंयमित, ईर्षालु रहने में ही गुज़र जाते हैं और जब चौथा दिन आता है तब समय ही कहाँ बचता है जो वह जीवन की परिभाषा अपने अनुसार तैयार कर सके !
सुहासिनी इस आश्रम का ध्यान रखती है| आश्रम की भी एक अलग ही कहानी है| सुहासिनी, जिसे सब सुहास बहन कहते हैं उनके चाचा श्री अनुराग जी थे जिनकी सभी सुविधाओं का ध्यान सुहास रखती थी| वे संत अनुराग के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे| उन्हें भक्तों के द्वारा ’भगवन्’कहकर पुकारा जाने लगा था| उनके अनिच्छा के बावज़ूद भी लोग कहाँ सुनते थे! अंत में वह चुप्पी लगाकर मौन में बैठ गए, क्या करते? यह दुनिया भीड़ के पीछे चलती है और बिना कुछ सोचे-समझे भीड़ का ही एक अंग बन जाती है| अपने बारे में अन्य साधु-संतों की भाँति बढ़ा-चढ़ाकर बातें करने में, चरण-स्पर्श कराने में उनकी बिलकुल रुचि नहीं थी | वे नहीं चाहते थे कि लोग उनकी वाहवाही करें| शांत, सौम्य संत श्री का मानना था कि यदि हम जीवन के चक्करों में झूलते रहेंगे तो न जाने कितने जन्मों तक यूँ ही घूमते रहेंगे, मोक्ष कभी भी प्राप्त नहीं कर सकेंगे इसलिए जीवन में जो जैसा भी आए उसके लिए कोई प्रयत्न न करके शांति से उसके साथ बहते चलो| जैन परिवार में जन्मे उन्होंने अपने गुरु से जैन धर्म के सभी बंधनों से छूटने की और मौन ओढ़ने की आज्ञा ले ली थी| वैसे वे लगातार मौन नहीं रखते थे, बीच-बीच में अपने मौन के बंधन को खोलकर बहुत सूक्ष्म बात भी करते थे| लेकिन अपने जीवन के लगभग पैंतीस वर्ष उन्होंने मौन को समर्पित किए थे| कभी डेढ़/दो वर्ष का मौन तो कभी तीन वर्ष का मौन रखते, कभी छह महीने का भी।कुल मिलाकर जीवन का लंबा समय उन्होंने मौन को अर्पित किया था| लोग उनके दर्शन करने आते और उनके अनुभवों के बारे में पूछते| वे सूक्ष्म में अपने अनुभव साझा करते, अधिक कुछ न बोलते और सबको जहाँ तक हो सके मौन में रहने की सलाह देते|
महीनों के अंतराल में मौन रखने वाले संत के बहुत से अनुयायी बनते चले गए जो उनके लंबी अवधी के मौन को खुलने की प्रतीक्षा करते रहते थे| वे चाहते थे कि उनके मौन के अनुभव जान सकें| मज़े की बात यह होती है कि आश्रम बनते हैं विशेष लक्ष्य को लेकर, पवित्र उद्देश्य से और जैसे जैसे उनमें अधिक अनुयायी जुडने लगते हैं वहाँ कुछ न कुछ गड़बड़ी होने ही लगती है| इस आश्रम में भी कुछ ऐसा ही हुआ था| संत की उपस्थिति में फिर भी अनुयायी कुछ संभले रहे किन्तु उनके परलोक गमन के बाद एक–दूसरे से ईर्ष्या, द्वेष का चक्र शुरू हो गया|
इसके पीछे कई कारण थे, आश्रम बनाने में किसने अधिक योगदान दिया, किसने धन व किसने श्रम अधिक लगाया? बस, इसी प्रकार के कई कारण बढ़ने लगे और अनुयाइयों ने सुहास बहन की आफ़त करनी शुरू कर दी| संत अनुराग न तो आश्रम चाहते थे और न ही आश्रम में किसी का पैसा खर्च हो, यह चाहते थे| हम लोग भेड़ चाल के आदि हैं इसीलिए अन्य संतों की भाँति इनके भी अनुयायियों ने संत की आड़ में अपनी वाहवाही करने के लिए एक ट्रस्ट बना लिया और सुहास बहन से हिसाब-किताब करने के बहाने उसे परेशानी में डालने लगे थे|
अमरावली पर्वत की पहाड़ियों से निकलती सूर्य की किरणों में लिपटकर आशी कहीं दूर पहुँच जाती और उसकी कहानी उसकी आँखों में नमी भर लाती| कभी निर्णय लेने में इतनी देर हो जाती है कि मनुष्य हाथ मलता रह जाता है, यही तो हुआ था उसके साथ भी ! ! लेकिन क्यों भला ??