भाग 3
“दूसरा आप यह चाहते हैं कि, विभाग में जो कुछ भी, जैसा भी चल रहा है, वह सब यथावत चलता रहे। आप क्या चाहते हैं कि, जैसे नज़्मुद्दीन शराब पी-पी कर मर गया सात-आठ वर्षों में, क्या उसी तरह उसकी पत्नी, मंडलियों के बाक़ी सदस्यों को भी मरने के लिए छोड़ दिया जाए।
“नज़्मुद्दीन की पत्नी के भी शराब की भेंट चढ़ जाने के बाद, अनाथ हुए उसके बच्चों को कौन देखेगा? एक सभ्य समाज के सभ्य, ज़िम्मेदार नागरिक होने के नाते क्या हमें उसे ग़लत रास्ते पर जाने से नहीं रोकना चाहिए?
“क्या बाक़ी बचे पियक्कड़ों को यह नहीं समझाना चाहिए कि नज़्मुद्दीन का क्या हाल हुआ। क्या तुम लोगों को यह सब नहीं दिखता। तुम्हारे बाद तुम्हारे परिवार का क्या होगा, तुम लोग यह क्यों नहीं सोचते।”
उन्हें ध्यान से सुन रहे श्रीवास्तव जी ने चाय का एक और घूँट पीने के बाद कहा, “सर, मैं आपकी मानवतावादी बातों, सारी सदाशयता के बावजूद यही कहूँगा कि, आपको मंडलियों की तरफ़ से मुँह मोड़ लेना चाहिए। ऐसा नहीं है कि मैं मानवतावादी नहीं हूँ, या मुझ में अपने साथियों के प्रति कोई भावनात्मक लगाव नहीं है।
“जिस दिन नज़्मुद्दीन की डेथ हुई, क़ब्रिस्तान में उसके अंतिम संस्कार के बाद घर जाकर चाय के अलावा मैं कुछ भी खा-पी नहीं सका था। मैंने खाना नहीं खाया तो पत्नी ने भी नहीं खाया। क्योंकि मेरे खाए बिना वो खाती नहीं।
“आपकी बातों से स्थितियाँ मुझे ऐसी बनती दिख रही हैं कि, विवशतः मुझे यह कहना पड़ रहा है, इस निवेदन के साथ कि, मेरी इस बात को कहीं शेयर नहीं कीजिएगा। नज़्मुद्दीन की डेथ के बाद मैं जानता था कि परिवार निश्चित ही गंभीर आर्थिक संकट में होगा। एक तो पीने-खाने वाला आदमी, ऊपर से जिस घर में औरत पीने-खाने वाली ही नहीं, बल्कि मर्दों के साथ महफ़िल में भी भाग लेने लगे, वहाँ सैलरी बचती ही कहाँ होगी।
“यह सोचकर मैं चुपचाप उनके घर जाकर तीन महीने तक इतना पैसा देता रहा कि कम से कम खाना-पीना चल सके। यह सारा पैसा मैंने कभी वापस पाने की भावना के साथ नहीं दिया। सर देखिए आप जानते हैं कि, मैं बहुत यथार्थवादी और स्पष्ट बोल देने वाला आदमी हूँ।
“आप से इसलिए इस मंडली की तरफ़ से आँखें मूँद लेने के लिए कह रहा हूँ, क्योंकि मैं मानता हूँ कि हमें वहीं कुछ कहना-सुनना, करना चाहिए, जहाँ लोग हमारे काम के मूल्य को समझें, उसे गंभीरता से लें, ना कि जहाँ-तहाँ जाकर उसकी खिल्ली उड़ाएँ।”
श्रीवास्तव जी की बहुत ज़ोर देकर कही गई इस बात से बाबा-साहब बहुत गंभीर हो उठे। उन्होंने पूछा, “आख़िर आप कहना क्या चाहते हैं?”
“सर, मैं कहना यह चाहता हूँ कि, आपने एक शुभ-चिंतक की तरह, मानवता के नाते ही नुसरत के भले के लिए उसको सलाह दी कि, वह इन मंडलियों से दूर रहे। लेकिन उसके इस चैंबर से निकलते ही, आपकी सलाह की खिल्ली उड़नी शुरू हो गई थी।
“आपने उससे जिन लोगों से बचने के लिए कहा था, उसने उन्हीं लोगों से सबसे पहले आपकी बात शेयर की। उन्हीं लोगों के साथ लंच किया। और उसी समय आपकी बातों की उन्हीं लोगों के साथ खिल्ली उड़ाई। ठहाके लगाए।
“सर आप किन लोगों को सही रास्ते पर लाने, बात समझाने का प्रयास कर रहे हैं? क्या आप भूल गए? ज़्यादा नहीं यही कोई ढाई साल पहले की बात है, जब आपने इन सबके ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई करने की कोशिश की थी, कि सब बिना सूचना के बैठ जाते हैं।
“कोई काम नहीं करते हैं। सीनियर्स के साथ मिस-बिहेव करते हैं। ड्रिंक करके ऑफ़िस भी आ जाते हैं। तो इन सब ने खिल्ली उड़ाते हुए सुना-सुना कर कहा था, ’लगता है बबवा का इलाज करना ही पड़ेगा।
’साला हम लोगों का उत्पीड़न करता रहता है। थाने में सीधे रिपोर्ट लिखवाऊँगा कि अल्पसंख्यक हूँ, मुसलमान हूँ तो यह कम्युनल तिलकधारी हमसे नफ़रत करता है। हमारे मज़हब का अपमान करता है।
' कहीं बीवी से भी लिखवा दिया कि, उसे धोखे से फँसा कर, उसका यौन शोषण किया तो साले की नौकरी तो जाएगी ही, जेल अलग जाएगा। हमें सुधारने चला है। जानता नहीं है हमें, कि हम चीज़ क्या हैं।’
"ज़रा सोचिए सर, इस हद तक गिर चुके लोगों को आप या कोई भी समझा-बुझा सकता है क्या? यह समझाने-बुझाने की सीमा से परे जा चुके लोग हैं।”
यह सुनते ही बाबा-साहब एकदम उत्तेजित हो उठे। उन्होंने श्रीवास्तव जी को ध्यान से देखते हुए कहा, “यह बातें आपने पहले कभी क्यों नहीं बताईं। मैं तो आप पर पूरा विश्वास करता हूँ।”
“क्योंकि सर उस समय आप बहुत ग़ुस्से में थे। तब यह बातें आग में घी की तरह काम करतीं। आप और भी ज़्यादा सख़्त क़दम उठाते। और उस स्थिति में यह सब किसी भी हद तक चले जाते। आप विकट मुश्किल में पड़ जाते। मंडली ने अपनी पुख़्ता तैयारी कर रखी थी।
“आप ऐसी किसी भी समस्या में न पड़ें, यही विचार करके मैंने उस समय आपसे रिक्वेस्ट करके कोई भी कार्रवाई करने से मना किया था। और आपने मेरी बात का सम्मान करते हुए कार्यवाही के लिए बढ़े अपने क़दम वापस खींच लिए थे।
“वो सब कितने ढीठ और मनबढ़ हैं, इसका अनुमान आप इसी एक बात से लगा लीजिए कि वो महीनों तक मज़ाक उड़ाते रहे कि, ’ये इंतज़ार कब तक चलेगा? बबवा कार्यवाई कब करेगा भाई?’
“वर्तमान स्थिति यह है कि, नज़्मुद्दीन की मृत्यु के बाद नुसरत के आने से उत्साहित इस मंडली ने आप के ख़िलाफ़ एक नया चैप्टर खोल दिया है। नुसरत के रूप में उनके हाथ आप के ख़िलाफ़ एक अचूक हथियार लग गया है।
“जिसका वह आप पर घातक प्रयोग करेंगे ही करेंगे। क्योंकि उनके दिमाग़ में यह भरा हुआ है कि, आप उन सब को प्रमोशन नहीं दे रहे हैं। इंक्रीमेंट भी न्यूनतम ही देते हैं। इस मंडली के कहने पर नुसरत किस हद जा सकती है इसका विश्लेषण इन बातों से करिए . . .”
यह कहते हुए श्रीवास्तव जी ने अपनी चाय का आख़िरी घूँट पिया। बाबा-साहब उन्हें ध्यान से सुन रहे थे। वह आश्चर्य में थे कि, उनके ऑफ़िस में यह सब होता चला आ रहा है। और उन्हें पूरी जानकारी ही नहीं।
श्रीवास्तव जी ने उनकी मनोदशा को समझते हुए आगे बताना शुरू किया, “सर बात जब शराब, कबाब से आगे शबाब तक पहुँच जाती है, तो स्थिति कितनी गंभीर हो सकती है, इसकी कोई सीमा तय नहीं की जा सकती।”
श्रीवास्तव जी की यह बात सुनते ही बाबा-साहब आश्चर्य से बोले, “शबाब!”
“जी हाँ, शबाब। उसके यहाँ जो महफ़िल सजी संडे को उसे आप आज की भाषा में रेव पार्टी कह सकते हैं।”
बाबा साहब फिर चौंके, “क्या, रेव पार्टी!”
“जी सर, इस रेव पार्टी में मंडली के तीन पुरुष सदस्यों के अलावा एक ही महिला सदस्य थी, ख़ुद नुसरत।”
“नुसरत!” बाबा-साहब की आँखें आश्चर्य से फैली की फैली ही रह गईं। कुछ पल चुप रहने के बाद वह बोले, “ये क्या हो रहा है? क्या हो गया है उसे? नज़्मुद्दीन के मरते ही इस स्तर पर आ गई है। उसको मरे हुए अभी एक वर्ष भी नहीं बीता है।”
यह सुनते ही श्रीवास्तव जी बोले, “सर उसके मरते ही नहीं, उसके रहते ही यह रेव पार्टी होती थी। इसके सूत्र-धार कोई एक नहीं, सभी संयुक्त रूप से हैं।”
बाबा-साहब एक बार फिर आश्चर्य व्यक्त करते हुए बोले, “ये क्या कह रहे हैं, उसके रहते ही यह सब हो रहा था।”
“हाँ सर, कई साल से यह सब चल रहा है।”
“मुझे विश्वास नहीं हो रहा है कि यह सब इस हद तक गिर सकते हैं। लेकिन आप तो इन सब से दूर रहते हैं, फिर आपको यह सारी बातें कैसे मालूम हैं?”
“जी उन्हीं मंडलियों से। यह तीनों मंडलियाँ एक-दूसरे को डैमेज करने के लिए, दूसरे के, घर के, किचन के बर्तन तक की, गिनती किए रहती हैं। और यह गिनती सबको सर्कुलेट करती रहती हैं।
“मैंने जब पहली बार सुना था तो स्वयं मुझे भी यक़ीन नहीं हुआ था। सोचा यह भी इन सबका एक-दूसरे के चरित्र-हनन का ही एक हथकंडा, षड्यंत्र मात्र है। लेकिन जब अकाट्य प्रमाण सामने हों तो विश्वास करने के सिवा कोई और रास्ता नहीं बचता।