भाग 2
लंच के दौरान चर्चा का मुख्य विषय था कि बाबा-साहब ने उससे क्या-क्या कहा। वह उन्हें सारी बातें बता रही थी, जो नमक-मिर्च कोटेड थीं।
उसने कहा कि, “मैं तो उनकी आँखें ही देखकर सहम गई थी। हमने तो सोचा ही नहीं था कि कोई इस तरह से मिठाई खाने से मना कर देगा। उससे ज़्यादा यह कि इतनी बड़ी-बड़ी नसीहत दे डालेगा। यह तो अच्छा हुआ कि आप लोगों ने उनकी सारी हिस्ट्री पहले ही बता दी थी। नहीं तो मैं उल्टे पाँव ही भाग आती।”
ऑफ़िस में उसके इस पहले लंच के दौरान ही, दो दिन बाद पड़ने वाले रविवार को नौकरी ज्वॉइन करने की ख़ुशी में जश्न मनाना तय हो गया।
पहली बार शौहर के बिना ही नुसरत ने घर में महफ़िल सजाई थी। महफ़िल के मिज़ाज से कहीं एक बार को भी यह नहीं लगा कि, किसी ने फ़ॉर्मेलिटी के लिए भी नज़्मुद्दीन को क्षण-भर को भी याद किया हो।
हाँ, महफ़िल के जोश-ख़रोश ने पिछली सारी महफ़िलों को पीछे छोड़ दिया था। सारी रात चली इस महफ़िल का जोश कुछ ऐसा था कि, अगले दिन मंडली लंच के बाद ही ऑफ़िस पहुँची।
सबके चेहरे, आँखें चीख-चीख कर बीती-रात की महफ़िल का पूरा अफ़साना बता रही थीं। नुसरत ने जिस दूसरी मंडली को ठुकरा दिया था, उसने अपनी ख़ुन्नस अपने तरीक़े से महफ़िल की सारी रिपोर्ट बाबा-साहब तक पहुँचा कर निकाली थी।
लेकिन लहसुन प्याज़ तक ना खाने वाले, नित्य प्रातः, संध्या, पूजा-पाठ करने वाले, पौराणिक आख्यानों के अध्येता, वेद पाठी ब्राह्मणों पर भी भारी पड़ने वाले यदुवंशी बाबा-साहब को विश्वास नहीं हो रहा था कि, नुसरत शौहर के न रहने पर ऐसी महफ़िल न सिर्फ़ अपने घर में ही सजाएगी, उसमें शामिल होगी, बल्कि स्वयं ही उसकी केंद्र बिंदु भी बनेगी।
सारी बातें जानने के बाद ही वो एक काम के बहाने नुसरत को अर्दली भेजकर बुला चुके थे। तभी अर्दली ने उन्हें सूचना दे दी थी कि पूरी मंडली बिना किसी सूचना के ग़ायब है। सभी के फ़ोन स्विच ऑफ़ मिल रहे हैं।
यह सब जान-सुन कर बाबा-साहब बहुत ग़ुस्से, तनाव में आ गए। ज़रा सी बात को भी लेकर फुल तनाव में आ जाना उनकी सबसे बड़ी कमज़ोरी है।
इस समय भी उनके लिए कोई बात नहीं थी, लेकिन वह इतने तनाव, उलझन में आ गए कि एक गिलास पानी पी कर उठे और मंडली के सेक्शन में जाकर, अकाउंटेंट साहब को अपने साथ, अपने चैंबर में ले आए। उन्हें बुलाने के लिए अर्दली को नहीं भेजा। उनकी एक ख़ास बात यह है कि जब वह किसी उलझन में उलझ जाते हैं, तो उससे निकलने के लिए अकाउंटेंट श्रीवास्तव जी का सहारा लेते हैं।
उनको बुलाने स्वयं जाते हैं। और हर बार चैंबर में, उन्हें बैठने को कहकर, अपनी सीट पर बैठते हुए पूछते हैं, “श्रीवास्तव जी जानते हैं, मेरे जीवन में एक बड़ी ख़ास बात क्या है?”
यह पूछ कर वह सामने बैठे श्रीवास्तव जी को प्रश्न-वाचक दृष्टि से तब-तक देखते रहते हैं, जब-तक श्रीवास्तव जी यह पूछ नहीं लेते हैं, “क्या सर?”
तब वह बड़े अंदाज़ से अपनी बड़ी सी रिवॉल्विंग चेयर पर आराम से बैठ कर कहते हैं कि, “बताता हूँ।”
फिर घंटी बजा कर अर्दली को बुलाते हैं, और दो चाय लाने के लिए कह कर आगे बोलते हैं, “क्या है कि द्वापर युग में यदुवंशी, कौरव, पाण्डव का पारिवारिक मामला सुलझाते-सुलझाते अब-तक के सबसे बड़े महायुद्ध का हिस्सा बन गए थे। और मात्र यही नहीं हुआ था, कौरव, पाण्डव के बँटने से पहले ख़ुद ही बँट गए थे। भगवान कृष्ण पाण्डव की तरफ़़ होकर अर्जुन के सारथी बन गए। और उनकी नारायणी सेना कौरवों की तरफ़ से लड़ने चली गई। और युद्ध में लड़कर अस्त-व्यस्त हो गई।
“मैं कहता हूँ कि, भाई दूसरे के मामले में पड़ कर स्वयं को समाप्त कर लेने का क्या औचित्य था। आख़िर ऐसा कौन सा रणनीतिक, दैविक कारण था। जानते हैं ऐसा क्यों हुआ?”
श्रीवास्तव जी हर बार बड़ी मासूमियत से पूछते हैं, “क्यों हुआ सर?”
तब वह बड़ी गंभीरता से कहते, “देखिए जितना मैं जानता हूँ उस उस हिसाब से उनके साथ कोई चित्रगुप्तवंशी नहीं था। जो उन्हें सही-सटीक सलाह देता। साफ़-साफ़ कहता, कि यह करिए, यह न करिए।
“भगवान कृष्ण अवतार रूप में कौरव, पांडव को सलाह देते रहे। मामले में गहरे उतरते चले गए। लेकिन कोई उन्हें सलाह देने वाला नहीं था कि, आप मध्यस्थता करिए अच्छी बात है। आप सर्व-शक्तिशाली हैं। लेकिन अपनी ही नारायणी सेना को किसी और के लिए लड़ने हेतु भेज कर, उसका समूल नाश कराने की क्या आवश्यकता है।
“हाँ यह सब यदि विधि का रचा था, यह होना ही था तो बात किसी भी तर्क़ से परे है। इसलिए अब मैं सिर्फ़ अपनी बात करूँगा।
“जानते हैं, बचपन से ही ऐसा संयोग रहा है कि, मेरे साथ कोई न कोई चित्रगुप्तवंशी या चित्रांशी अवश्य ही जुड़ा रहा। स्कूल, कॉलेज के बाद अब नौकरी में आप हैं। इससे क्या होता है कि, मुझे किसी भी टॉपिक पर डिसक्स करने के लिए सोचना नहीं पड़ता। आवश्यकता ही नहीं पड़ती।”
बाबा-साहब ऐसी ही कुछ और बातें करने के बाद सीधे मंडली प्रकरण पर उतर आए। वह पूरी मंडली को कड़ी चेतावनी देना चाहते थे कि महफ़िल, जश्न के कारण सभी एक साथ ग़ायब हैं। अब-तक चाय आ गई थी।
श्रीवास्तव जी समझ गए थे कि अब घंटे-भर से पहले फ़ुर्सत मिलने वाली नहीं। वह यह भी जानते थे कि इनकी क्रोधाग्नि अगर शांत ना की गई तो नियम-क़ानून ऐसे हैं, विभाग का माहौल ऐसा है कि यह इस अग्नि में स्वयं को ही झुलसा लेंगे।
उन्होंने उनको शांत करने की कोशिश की तो बाबा-साहब थोड़ा और बहकते हुए बोले, “यह बिल्कुल ग़लत है। यह क्या तरीक़ा है कि, आप अपने घर को शराब-खाना बना दें और उसके साइड इफ़ेक्ट के रूप में ऑफ़िस में आपके काम, उत्तरदायित्व मज़ाक बन कर रह जाएँ।
“आप महफ़िलनोशी के चलते जब मन हो ऑफ़िस आएँ, नहीं तो घर बैठ जाएँ। चलिए ये मान लेता हूँ कि मय-नोशी, तन-नोसीशी, महफ़िलनोशी, आदि आपका पर्सनल मैटर है। मुझे उसमें नहीं पड़ना चाहिए, मैं पड़ना भी नहीं चाहता। लेकिन आप ऑफ़िस में अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन ठीक से कर रहे हैं या नहीं, यह सुनिश्चित करना मेरा उत्तरदायित्व है। और अपने उत्तरदायित्व के निर्वहन में मैं पिन-पॉइंट के बराबर भी पीछे रहूँ यह मेरे लिए सम्भव नहीं है।”
बाबा-साहब पूरे फ़ायरी अन्दाज में बोले चले जा रहे थे। श्रीवास्तव जी ने उन्हें पूरी तरह फ़ायर हो जाने देने के उद्देश्य से कहा, “देखिए सर, इसके लिए मैं गवर्नमेंट की पॉलिसी को भी ज़िम्मेदार मानता हूँ। यह हास्यास्पद, कुटिलतापूर्ण, छद्मपूर्ण बात है कि नहीं, कि एक तरफ़ आप मद्य-निषेध विभाग खोलते हैं। बड़े-बड़े विज्ञापन देते हैं कि, पिता जी मेरे भविष्य के लिए न पीजिए, आदि आदि। न जाने कैसे-कैसे स्लोगन की होर्डिंग्स लगाते हैं। दूसरी तरफ़ ज़्यादा राजस्व कमाने का लोभ भी नहीं त्याग पाते।
“आबकारी विभाग भी खोले हुए हैं। ख़रबों रुपए का राजस्व कमा रहे हैं। तो जब शराब बिना न आपका, न जनता का काम चल पा रहा है, तो मद्य-निषेध विभाग बंद करिए न। टैक्स-पेयर के पैसों से सफ़ेद हाथी पाल कर, देश को, टैक्स-पेयर को क्यों धोखा दिया जा रहा है।
“लोग पी-पी कर मर रहे हैं। घर के घर तबाह हो रहे हैं। नशे में एक्सीडेंट हो रहे हैं। क्राइम बढ़ रहा है। रिश्तों की सीमाएँ ध्वस्त हो रही हैं। क्या सही, क्या ग़लत नशे में किसे क्या ख़बर। इन सारी बातों की परवाह कौन कर रहा है।
“अपने यहाँ यह जो मंडलियाँ कर रही हैं, उसके लिए मैं उनको और गवर्नमेंट, दोनों को बराबर का ज़िम्मेदार मानता हूँ। बल्कि गवर्नमेंट को ज़्यादा। क्योंकि उसकी पॉलिसी पूरी तरह से इस बात पर केंद्रित रहती है कि, शराब की खपत कैसे ज़्यादा से ज़्यादा हो। सर यदि मैं ग़लत हूँ, तो आप ही बताइए कि सही क्या है?”
बाबा-साहब चाय की चुस्कियाँ लेते हुए उनकी बातें ध्यान से सुन रहे थे। इस बीच मोबाईल पर दोबारा किसी की कॉल आई, लेकिन उन्होंने फिर पहले की तरह कॉल रिसीव नहीं की। श्रीवास्तव जी की बात पूरी होने के बाद कुछ देर सोचते रहे। फिर उनकी आँखों में आँखें डाल कर बोले, “आपकी बातों से मुझे दो अर्थ मिल रहे हैं। पहला यह कि आप एक लॉयर की तरह इन मंडलियों को डिफ़ेंड कर रहे हैं।