भाग -1
प्रदीप श्रीवास्तव
उसने अचानक ही उस पर घूँसे-लात बरसा कर, उसे बेड से नीचे धकेल दिया। टाइल्स लगे फ़र्श पर अकस्मात् गिरने से उसके सिर में गहरी चोट आ गई है। ख़ून के धब्बे पड़ने लगे हैं। उसने पेट पर लात इतनी तेज़ मारी है कि वह दर्द से दोहरी हो गई है, दोनों घुटने पेट से जा लगे हैं, जिन्हें दोनों हाथों से जकड़े हुए वह कराहने लगी है।
अभी तो क्या, बीते कई दिनों से कोई झगड़ा भी नहीं हुआ है, फिर उसने अचानक ही इस बुरी तरह क्यों पीटा, वह अचरज में पड़ गई है। उसकी समझ में नहीं आ रहा है कि अभी तक तो इतने प्यार से प्यार कर रहा था, प्यार पूरा होते ही अचानक इस पर कौन सा जिन्नात सवार हो गया। इस तरह मारा-पीटा तो बार-बार है, मगर बिस्तर पर प्यार ख़त्म होते ही, पहली बार ऐसा किया है।
भद्दी-भद्दी गालियाँ देते हुए कह रहा है, “लोगों को अपना शजरा तो पता नहीं होता और तू मुझे रोज़-रोज़ पूरी क़ौम का शजरा बताती रहती है। यह सुनते-सुनते कान पक गए हैं, कि ख़ान मुस्लिमों का सरनेम नहीं है।
“मंगोलिया के चंगेज ख़ान और उसके पोते कुबलई ख़ान, हलाकू ख़ान मुसलमान नहीं, तेंग्रे धर्म को मानने वाले थे। जो कि सनातन धर्म या उसी परिवार का हिस्सा है, हलाकू की बेगम ईसाई थी, उसने ता-उम्र कोशिश की, कि वह भी ईसाई बन जाए लेकिन वह मरते दम-तक नहीं बदला।
“ये इतने शक्तिशाली थे कि दुनिया के तीस फीसद से ज़्यादा हिस्से पर हुकूमत करते थे, इन्होंने तब के इस्लामी ताक़त के सेंटर ईरान, ईराक़ को देखते-देखते इस क़द्र तबाह कर दिया था कि जिनके पास भी क़ूवत थी वे भाग-भाग कर भारत आ गए। चीन के भी बहुतेरे हिस्से पर क़ब्ज़ा कर लिया था।
“जब देखो, तब एक ही बात कि ये लोग जिस तेंग्रे धर्म को मानते थे, वह तंत्र या तांत्रिक का अपभ्रंश है, इसके भगवान शिव हैं, इन्हें ही सारे तेंग्री अपना भगवान मानते हैं। इसीलिए आज भी इनके मक़बरों, मंदिरों के आगे त्रिशूल और श्रृंगी ज़रूर बना रहता है। चंगेज़ ख़ान के मक़बरे पर भी बना हुआ है।
“तेरी इन वाहियात बातों को सही मानूँ तो तौबा करता हूँ कि इतने बरसों से मैं कहने को तो मुसलमान लेकिन मन से एक क़ाफ़िर के साथ रह रहा हूँ, उसे अपनी बेगम बनाए हुए हूँ, जो हलाकू की ईसाई बेगम की तरह मुझे अपने मज़हब को बदलने के लिए ज़हनी तौर पर तैयार कर रही है। हर समय मेरे दिलो-दिमाग़ में एक ही बात भर-भर कर, मुझे भी अपना ही पानी चढ़ा कर, अपनी तरह क़ाफ़िर बनाने पर तुली हुई है।
“मैं तेरी इन वाहियात बातों को इतने दिन सुनता रहा, यह भी मेरे लिए एक गुनाह है, लेकिन मेरा यह सारा गुनाह मु'आफ़ हो जाएगा, जब बात इस पैमाने पर तौली जाएगी कि मैंने एक क़ाफ़िर को इतने दिनों तक अपनी लौंडी बना कर अपने पैरों तले रखा, जब जैसे चाहा, वैसे रौंदा।”
भयानक दर्द के बावजूद तबरेज़ की बातें वाज़िदा के तन-बदन में बबूल के भयंकर काँटों की तरह चुभती चली गई हैं। आँखों के सामने अँधेरा-सा छा गया है। तबरेज़ उसे लगातार गालियाँ देने, गंदी-गंदी बातें कहने के बाद दाँत पीसते हुए कह रहा है, “मैं तेरी जैसी क़ाफ़िर को अब और अपने साथ नहीं रख सकता, क्योंकि तेरा शैतानी दिमाग़ मुझे मज़हब से भटका सकता है, इसलिए मैं अभी इसी वक़्त तुझे तलाक़ देता हूँ, ‘तलाक़ तलाक़ तलाक़’।”
यह शब्द तीनों बार उसके कानों में गर्म सलाख़ों की तरह भीतर तक घुसते चले गए हैं, उनकी भयानक तपिश ने उसके पूरे दिमाग़ को जलाकर ख़ाक कर दिया है। वह बेहोश हो गई है।
अप्रैल महीने का पहला हफ़्ता है, आसमान सितारों से भरा है, फिर भी अँधेरे की ही चादर हर तरफ़ तनी हुई है, टेम्प्रेचर अब भी तीस-बत्तीस डिग्री बना हुआ है, दिन-भर चालीस-बयालीस डिग्री टेम्प्रेचर में तपी कंक्रीट फ़र्श पर वह बिना कपड़ों के ही पड़ी हुई थी। उसके ऊपर, उसके कपड़े ऐसे पड़े थे, जैसे किसी ने उन्हें फेंक कर, उसे मारा हो। गर्म हवा, तपती फ़र्श उसकी नाज़ुक नर्म चमड़ी को बराबर झुलसाए जा रही थी, जिससे आख़िर उसे होश आ गया।
वह बाहर बालकनी में बिना कपड़ों के बेपर्दा ही पड़ी है, यह अहसास होते ही उसने जल्दी-जल्दी बैठे-बैठे ही कपड़े पहनते हुए चारों तरफ़ नज़र डाली कि कहीं से कोई देख तो नहीं रहा है। हर तरफ़ अँधेरा, सन्नाटा देख कर वह इस ओर से थोड़ा मुतमईन हुई कि इस स्याह रात में शायद ही उसे कोई देख पाया होगा।
फिर भी उसके में मन चोर बैठा हुआ है, घबराहट हो रही है कि एक सलवार-कुर्ता तक उसके तन पर नहीं था, आजकल जगह-जगह सीसीटीवी कैमरे लगे रहते हैं, जब इस गंदे इंसान ने मुझे बाहर ऐसे बिना कपड़ों के फेंका, तब किसी ने देख तो नहीं लिया, मैं किसी सीसीटीवी कैमरे में बेपर्दा हालत में रिकॉर्ड तो नहीं हो गई।
उसने कहीं वह विडिओ क्लिप वॉयरल कर दिया तो मैं कहीं मुँह दिखाने के क़ाबिल नहीं रहूँगी। लोग कहेंगे कितनी बेशर्म बे-ग़ैरत औरत है, ऐसे तो हिजाब पहनकर चलती है, गर्मीं की तपिश ज़रा बढ़ी क्या, बेहया खुले में कैसी नंगी पड़ी हुई है, ज़रूर शराब-वराब पी रखी होगी।
गर्मीं के मारे उसका बदन पसीना-पसीना हो रहा है, जहाँ पड़ी थी वहाँ का फ़र्श पर उसके हाथों को नम-सा महसूस हुआ, हलक़ बुरी तरह सूख रहा है।’तलाक़’ शब्द उसके कानों में अब भी किसी देशी बम की तरह विस्फोट पर विस्फोट किए जा रहे हैं, पूरे बदन में काँटों की तरह अब और ज़्यादा चुभ रहे हैं।
इन काँटों ने उसे पहले वाले ख़ाविंद और वहाँ कई-कई बार हुए हलाला, ज़ुल्मो-सितम की याद दिला दी है। और मन में यह ख़ौफ़ धड़कनें बढ़ा रहा है कि अब अगर इसे छोड़ना नहीं चाहा तो इससे मिन्नतें करनी पड़ेंगी, फिर से मुझे दौर-ए-हलाला से गुज़रना होगा, अपनी आबरू किसी ग़ैर मर्द से रौंदवानी होगी। कहने को शर्म-गाह, और शौहर छूट न पाए या वही फिर से अपनाना चाहे, तो इसके लिए इंतज़ाम ऐसा कि उसे कितनों के सामने नुमाया करना पड़े, इसका कुछ पता ही नहीं।
वह कुछ समझ नहीं पा रही है कि अब क्या करे, कहाँ जाए, किसके पास जाए, इस बेगाने शहर में कौन है जो उसका मददगार होगा। सोच यह भी रही है कि कल ऑफ़िस कैसे जाएगी, चेहरे पर भी इतना मारा है, सिर, होंठ फट गए हैं, आँखें सूज गई हैं। कई दिन तो ठीक होने में लग जाएँगे।
इन सबसे पहले तो यह कि रहूँगी कहाँ, अभी तो इस बालकनी में हूँ, सवेरे तो यह जाहिल आदमी यहाँ भी नहीं रुकने देगा। और क्या अभी रात-भर मैं यूँ ही बाहर ही पड़ी रहूँगी, अभी तो तक़रीबन पूरी ही रात बाक़ी है। गर्मीं इतनी बेदर्द हुई जा रही है, इस प्यास, पसीने का क्या करूँ, सवेरे तक बिना पानी के तो डिहाइड्रेशन हो जाएगा, तबियत और बदतरीन हो जाएगी। सबसे अहम मसला तो यह कि सिर्फ़ इन दो कपड़ों में इस तरह बाहर कैसे रह सकती हूँ?
घर भी इस वीराने में ले रखा है, एक अपार्टमेंट यहाँ तो दूसरा कहीं और, अस्सी परसेंट से ज़्यादा ख़ाली पड़े हैं। न किसी को कोई जानने वाला न कोई किसी से मिलने वाला कि किसी से मदद माँगूँ। सड़क के नाम पर टूटा-फूटा इंटरलॉकिंग ईंटों का खड़ंजा। मकान लेते समय बार-बार कह रही थी कि ‘जब इतना पैसा लग रहा है तो दूर वीराने में बनी उजाड़ सी सोसाइटी में क्यों ले रहे हो।’
मेरे इतने सारे कपड़े, सारा सामान सब तो अंदर ही बंद हैं। जाहिल ने इतना भी नहीं समझा कि औरतों को भी ऊपरी कपड़ों के अंदर भी कुछ और पहनना ज़रूरी होता है।
वह बालकनी की रेलिंग पकड़ कर खड़ी हुई, किसी आस में नज़रें इधर-उधर दौड़ाईं, लेकिन उसे नीचे सड़क या किसी भी फ़्लैट में कोई हलचल नहीं दिखी।
वह सोच रही है कि उस पर भी न जाने कैसे शैतान सवार हो गया था, जो पहले एक जाहिल मरदूद के चंगुल से निकलने के बाद, फिर वैसे ही इस दूसरे जाहिल के चंगुल में फँस गई। पहले वाले के साथ कैसे-कैसे तजुर्बे होने के बाद भी क्या हो गया था मुझे जो मैं इस रँगे सियार, इसके घर वालों के रँगे चेहरे पहचान नहीं पाई।
सड़कों, फ़्लैटों में भले ही कोई हलचल नहीं है लेकिन उसके दिमाग़ में बवंडर ज़ोर पकड़ता जा रहा है। मन ही मन कह रही है, मगर करती भी तो क्या, पहले वाले को तो पहचान लिया था, अब्बू-अम्मी से मना किया था कि मुझे इसके हवाले मत करो। मगर सब के सब सिर पर सवार हो गए थे कि नहीं, नेक परिवार है, वो नेक बंदा है।
निकाह करते-करते मैंने कहा था, ‘अम्मी न जाने क्यों, मेरा दिल कहता है कि यह आदमी नेक बंदा नहीं है। हमारा निकाह ज़्यादा दिन टिकेगा नहीं, अगर टिकेगा भी तो तब, जब मैं इन सब की लौंडी बनकर रहूँगी और तुम यह भी समझ लो कि यह आदमी मेरी दो-तीन सौतनें भी ले आएगा, मुझसे उनकी भी ग़ुलामी करवाएगा, नहीं करूँगी तो तलाक़ देकर घर से बाहर निकाल देगा।’
मगर अम्मी-अब्बू क्या, सारे भाई-बहनों और निकाह कराने वाले ख़ालू पर जैसे उसी से मेरा निकाह कराने का शैतान सवार था। मेरी सारी बातें तो सही नहीं निकलीं, मेरे रहते तो वह सौतन लेकर नहीं आया, मुझे अड़ंगा समझता रहा, आख़िर सौतन लेकर आ सके, इसके लिए मुझे तीसरी बार तलाक़ देकर हमेशा के लिए रास्ता ख़ूब साफ़ कर लिया।
मैं भी तब उसे हमेशा के लिए थूक कर चल दी कि अब ये रखना भी चाहेगा तो भी नहीं रुकूँगी, अब मैं तीसरी बार हलाला के लिए अपना बदन, अपनी शर्मगाह किसी गैर-मर्द के सामने नहीं उघाड़ूँगी। मुझे यह एकदम सही फ़ैसला घरवालों की ज़िद भी ठुकरा कर पहले तलाक़ पर ही लेना चाहिए था, आबरू अपनी किसी के हवाले करने के लिए किसी भी सूरत में तैयार नहीं होना चाहिए था।
चोटों के कारण वह ज़्यादा देर खड़ी नहीं रह पाई और ज़मीन पर ही बैठ गई है, लेकिन बवंडर जस का तस चल रहा है। वह क़रीब-क़रीब बुदबुदाई, मुझे एक बेगम का दर्जा तो उसने पहली रात को ही नहीं दिया था। कहने को सुहागरात थी, लेकिन शैतान रात-भर ऐसे जानवरों की तरह नोचता-खसोटता रहा, जैसे कोई वहशी दरिंदा किसी का ज़िना कर रहा हो, ज़िना कर-कर के ही उसकी हत्या करना चाहता हो।