Badi Maa - 2 in Hindi Fiction Stories by Kishore Sharma Saraswat books and stories PDF | बड़ी माँ - भाग 2

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बड़ी माँ - भाग 2

2

शाम को देर से सोने के कारण अगली सुबह साहब जरा थोड़ी देर से उठे, इसलिए उन्होंने चाय के लिए रामू काका को नहीं बोला। नहाने-धोने से निवृत हुए तो आठ बज चुके थे। रामू काका सुबह से आदेश की प्रतीक्षा में बैठा था। आखिर उसने दरवाजे पर दस्तक दे ही दी। इससे पहले की वह कुछ आगे बोलता साहब ने उसकी नमस्ते का जवाब दिया और साथ ही उसे नाश्ता जल्दी लाने के लिए कह दिया। नाश्ता लेने के पश्चात् पति-पत्नी, दोनों रामू काका को कुछ कहकर नदी किनारे खड़े उन खंडहरों की ओर चल पडे़। मकानों के बाएं ओर बच्चों के खेलने के लिए एक छोटा सा मैदान बना हुआ था। जिसके किनारे पर सीमेंट की स्लैबज डालकर बैठने और आराम करने के लिए बैंच बनाए गए थे। मैदान का अधिकतर हिस्सा और बैंच बाढ़ की बलि चढ़ चुके थे। केवल दो ही बैंच बचे थे, जिन में से अब एक बैठने लायक नहीं रहा था। आहिस्ता-आहिस्ता चलते हुए और टूटे हुए खँडहरों को देखते हुए वे मैदान की ओर बढ़े। सूर्य देव भी अब सामने आ चुका था। सर्दी से निजात पाने के लिए अब मैडम का मन कर रहा था कहीं धूप में बैठकर एकांत का आनंद लिया जाए। वह धीरे-धीरे सीमेंट की स्लैब की ओर चलने लगी। साहब भी साथ-साथ चल रहे थे। अन्य बातों को विराम देते हुए वह पूछने लगीः

                ‘इन टूटे हुए खंडहरों में आप क्या ढूँढना चाहते हो?’

                ‘कुछ ढूँढने से पहले तो मैं इस बस्ती की पृष्ठभूमि में जाना चाहता हूँ कि इस जंगल में इसे क्यों बसाया गया था? और अगर यहाँ किसी मकसद से लोगों को रखा गया था तो फिर अब वो इसे छोड़कर कहाँ चले गए? छोड़ने का कारण तो शायद सामने नज़र आ रहा है।’ वह बात की गुत्थी सुलझाने की अपेक्षा उलझाते हुए बोले।

                ‘ठीक है, अब समझ में आया कि इतनी रात गए तक रामू काका के साथ क्या गुफ्तगु हो रही थी? बस्ती की पृष्ठभूमि के बारे में हमें भी तो कुछ बताओ। शायद आपके थीसीज लिखने में मैं भी कुछ मदद कर सकूँ।’ वह बैठने के लिए स्लैब की ओर देखते हुए बोली।

                स्लैब पर कुछ कंकड़ और मिट्टी पड़ी थी। साहब कुछ पत्तेदार टहनियाँ तोड़कर लाए और उनसे कंकड़ तथा मिट्टी को साफ करने के बाद मैडम को बैठने के लिए कहा। धूप का आनंद लेने के लिए दोनों उस पर बैठ गए। बैठने के बाद मैडम ने मजाक भरे शब्दों में फिर प्रश्न कियाः

                ‘हाँ सर, तो बताइए रामू काका से क्या बात हो रही थी? मैं भी आपकी अर्धांगिनी हूँ, इसलिए कम से कम आधी बात को जानने का मुझे भी पूरा हक है।’

                ‘बिल्कुल हक है। कौन कहता है कि तुम्हें जानने का हक नहीं है? आधा क्या तुम्हें तो पूरा हक है माई डीयर। तुम्हारा ओहदा  जो ठहरा होम-मिनिस्टर का।’ वह भी शरारती लहजे में बोले।

                ‘आप जरूरत से ज्यादा स्मार्ट बन रहे हैं। मुझे यूँ ही बातों- बातों में उलझाए रखना चाहते हो। बताइये न, क्या ये बस्ती बाढ़ में बह गई थी?’ वह कुछ रूठती हुई सी बोली।

                ‘निराश मत होइये माई डीयर, थोड़ा सब्र कीजिए। सब्र का फल मीठा होता ह़ै़। म़ैं तुम्हें यही बातें बताने के लिए ही तो यहाँ पर लेकर आया हूँ।’ वह कुछ गंभीर मुद्रा में बोले।

                नदी में थोड़ा-थोड़ा पानी बह रहा था। मैंडम को अचानक ऐसा लगा मानो किसी चीज ने जंगल की ओर से नदी में छलाँग लगाई हो। गर्दन घुमाकर उस ओर देखा तो चार-पाँच चीतल नज़र आए जो नदी में पानी पीने के लिए आए थे। पानी पीने की बजाय वह डर के मारे उन की ओर देख रहे थे। साहब चुपचाप अपने विचारों में खोए हुए थे। मैडम ने भी बोलना उचित नहीं समझा, क्योंकि उसे भय था कि आवाज सुनकर वे जंगली जानवर प्यासे ही न भाग जाएं। चीतलों ने जब देखा कि वातावरण भयमुक्त है तो उन्होंने पानी पीया और छलांगें लगाते हुए नदी के दूसरी ओर भाग गए। नदी के पत्थरों पर उनके दौड़ने की आवाज सुनकर साहब की एकाग्रता भंग हुई तो पत्नी की और देखकर मुस्कुराए।

‘क्यों जनाब, कहाँ खोये हुए थे?’ मैडम ने प्रश्न किया।

                ‘बस यूँ ही रामू काका की बातें दिमाग में आ गई थीं। सोच रहा था कि इस वीरान जगह पर कभी खूब चहल-पहल हुआ करती होगी। सच आदमी और प्रकृति एक-दूसरे के पूरक है। आदमी के बिना प्रकृति सूनी है और प्रकृति के बिना आदमी का कोई अस्तित्व ही नहीं है। इस परमेश्वर की लीला भी अजीब और निराली है।’ वह एक गहरा साँस छोड़ते हुए बोले।

                ‘ठीक है, आपकी बातों से मुझे आज एक ज्ञान तो प्राप्त हुआ कि साधु घर-गृहस्थी छोड़कर जंगलों में क्यों रहते हैं?’

‘मैं समझा नहीं।’ वह बोले।

                ‘शाम तक यहाँ बैठोगे तो पूरा समझ में आ जाएगा। आपको अपनी बातों से नहीं पता चलता कि इनमें कितना बदलाव आ गया है। मुझे तो ऐसा लग रहा है कि आप जिंदगी की दौड़ को छोड़कर प्रकृति और परमेश्वर की ओर भाग रहे हैं।’ वह मुस्कुराती हुई बोली।

                ‘तुम बिल्कुल सच कहती हो। मैंने प्रकृति और परमेश्वर दोनों को इनके अलग-अलग रूप में देखा है। मुझे उनकी शक्ति का आभास है। इसलिए कई बार सोचता हूँ कि इंसान में इतना अहंकार क्यों है? उसका अस्तित्व, उसकी शक्ति, उसका रंग-रूप कुछ भी तो उसका अपना नहीं है। फिर उसकी सोच अलग क्यों है? वह तो यह मान बैठा है कि जो भी उसके पास है वह सब उसका अपना है। शायद सृष्टि को चलाने के लिए ऐसा सोचना भगवान ने उसकी मजबूरी बनाया हो।’ वह अभी आगे कुछ बोलने वाले ही थे कि मैडम ने अपने दाएं हाथ की उँगलियाँ उनके होंठों पर रख दी और बोलीः

                ‘नहीं, अब और नहीं। मैं तो स्वयं अपने आप से ही घबराने लगी हूँ। आप कहीं आज सचमुच मुझे छोड़कर सन्यासी न बन जाओ। मैं तो एक मिनट भी आपको अपनी नज़रों से दूर देखना नहीं चाहती। प्लीज, ये बातें छोड़कर मुझे इस बस्ती के बारे में बताइए। जब तक नहीं बताओगे मेरे मन में एक उत्कंठा सी बनी रहेगी।’ वह बडे़ मार्मिक और दिल को छू लेने वाले लहजे में बोली।

                ‘मेघा, रामू काका ने जो मुझे बताया उसे सुनकर दिल कांप उठता है और बोलने की शक्ति भी साथ छोड़ देती है। शायद कुछ लोगों के मन में इस अनलिखित त्रासदी के घाव अभी भी हरे हों और  उसे याद करके वह सिहर उठते हों। उस विनाश लीला का ताँडव आज भी तुम्हारी आँखों के सामने है। कहते हैं कि जब नदी में उफान आया तो उस समय कुछ बच्चे नदी के किनारे पर खेल रहे थे। एक छोटा बच्चा, जो अपने माँ-बाप की अकेली संतान था, एक तितली के पीछे भागता हुआ नदी में कुछ दूर निकल गया था। पानी आता देखकर बडे़ बच्चे तो सुरक्षित स्थान की ओर भाग गए, परन्तु वह छोटा सा बच्चा उस उफनते पानी में बह गया। शाम का समय था, इसलिए रात के अंधेरे में उसे ढूँढ पाना भी मुश्किल था। रात भर टार्च की रोशनी में नदी के किनारे-किनारे उसे ढूँढने की कोशिश की गई परन्तु उसका कोई अता-पता नहीं चला।’

                अभी वह यह बात बता ही रहे थे कि मैडम की आँखें भर् आईं। उसने अपना रूमाल उठाया और आँसू पोंछने लगी। उसे देखकर साहब बोलेः

‘बस! इतना सुनकर ही घबरा गई हो। आगे की बात कैसे सुन पाओगी?’ 

मैडम थोडा सम्भली और फिर बोलीः

                ‘उन माता-पिता पर क्या गुजरी होगी? कैसे जी पाएं होंगे वो अभागे? पता नहीं बेचारे अब हैं या नहीं? भगवान भी कैसा अन्याय करता है। यदि बच्चे को वापस ले ही जाना था तो दिया क्यों था? उनके बारे में क्या बताया रामू काका ने?’

                ‘कहते हैं यहाँ से जाने के बाद उस लड़के के पिता जी ने, जिनका नाम लाला दीवान चन्द जी था, अपनी पत्नी के दुःख को भुलाने के लिए फारेस्ट विभाग की नौकरी छोड़ दी थी और दूर किसी अन्य शहर में जाकर रहने लगे थे।’

                ‘अच्छा ही किया था उन्होंने। यहाँ पर रहकर तो माँ बेचारी को अपने बच्चे की याद ताजा बनी रहती और फिर ऐसी हालत में वह कैसे रह पाती? क्या उस बच्चे का कुछ भी पता नहीं चला?’ उसने आगे पूछा।

                ‘सुना है कि जब वह बच्चा पानी में बहा तो पानी में साथ बहते हुए एक वृक्ष की मोटी शाखाओं में फंस गया, जिससे वह पानी में डूबने से बच गया। परन्तु पानी के बार-बार के थपेड़ों से बेहोश हो गया था। लगभग दस किलोमीटर की दूरी पर जाकर उस पेड़ की जडे़ं किनारे पर लगी कुछ झाड़ियों में फंस गई और वह बच्चा सारी रात उस पेड़ की शाखाओं में फंसा रहा।’

‘फिर उसके बाद क्या हुआ?’ मैडम ने पुनः प्रश्न किया।

                ‘सुना है कि उस नदी के किनारे रेत-बजरी निकालने वाले कुछ मजदूरों की बस्तियाँ थी। नदी में बाढ़ आने पर वह अक्सर नदी में बहकर आई लकड़ियों को निकालने के लिए आते थे और इस प्रकार इकट्ठी की हुई लकड़ियाँ उनके कईं महिनों तक जलाने के काम आती थी। उस दिन अचानक आए पानी का किसी को पता नहीं चला। वहीं एक बस्ती में मुरली और उसकी पत्नी राम आसरी भी  रहते थे। रात को अचानक राम आसरी के पेट में बहुत तेज दर्द शुरू हो गया। अंधेरे में दवा दारू लाने के लिए कहीं बाहर जाने की हिम्मत मुरली में नहीं थी। पीने के लिए थोड़ी बहुत अगर मिल जाती तो उसकी सूखी काया में मानो जान आ जाती थी, वरना हर काम के लिए राम आसरी को ही आगे करता था। उस रात भी जब दर्द के मारे राम आसरी हाय......हाय.......कर रही थी तो यह बिस्तर पर लेटा ही बुड़बुड़ा रहा थाः

                ‘साली! क्यों चिल्ला रही है? सोने भी नहीं देती। बीस बार कहा है, कम खाया कर। पर कहाँ सुनती है मेरी। अब भुगत। साली....बोतल के लिए बीस रुपये माँगो तो तेरी अंटी खाली होती है। भैंस की तरह खाने के लिए तेरे पास पैसे आ जाते हैं। अनाज की दुश्मन।’

उसकी जली-भुनी सुनकर बेचारी राम आसरी दर्द में कराहती हुई कहने लगीः

                ‘हाय! कर्मजले, भगवान का खौफ कर। आज खाने के लिए घर में अनाज का एक दाना भी नहीं था, कहाँ से खा लिया मैंने? उलटे भूखे पेट में हवा घुस गई है, उसी से दर्द हो रहा है। आप तो बाहर पेट भरकर आ जाता है, कभी सोचा है कि घर पर भी कोई होगा। और अब जब मेरी दर्द के मारे जान निकली जा रही है, तो ऊपर से जली-कटी सुना रहा है। एक बार यह भी नहीं पूछा कि कोई दवा-दारू लाकर दूँ।’

                ‘तू साली! मेरा उल्लू बनाती है। बहुत नाटक देख लिए हैं मैंने तेरे। उठकर अजवाइन की फक्की ले ले। अब रात हो गई है। सुबह वैद्य़ जी के पास ले चलूँगा। तब पता चलेगा कि तू झूठ बोल रही है या सच। अब मुझे आराम करने दे।’

                यह कहकर मुरली ने मुँह मोड़ लिया और सो गया। बेचारी राम आसरी ने उठकर मिट्टी की एक हाँडी टटोली। संयोग से उसे एक पूड़िया में लिपटी थोडी सी अजवाइन मिल गई। उसने अजवाइन अपनी हथेली पर डाली और फिर उसमें थोड़ा सा नमक मिलाया। मुंह  में डालकर फिर उसे पानी की घूँट के साथ निगल लिया। दर्द थोड़ी कम हुई तो उसने उपनी फटी धोती को लपेट कर गोला बनाया और उसे अपने पेट के नीचे रखकर उलटी लेट गई। यह बात नहीं थी कि बस्ती के लोग एक दूसरे के दुःख-सुख में शामिल नहीं होते थे। परन्तु मुरली के रोज-रोज के झगड़ों से सभी तंग आ चुके थे। वह कई बार नशे की हालत में उनकी बेइज्जती भी कर चुका था। इसलिए इनके झगडे़ में आना-जाना लोगों ने बंद ही कर दिया था। किसी तरह राम आसरी ने रात बिताई। सुबह के चार बजे मुरली को कुछ होश आई। उसका नशे का खुमार कुछ हलका पड़ गया था। राम आसरी अभी भी दबी आवाज में हाय.....हाय कर रही थी। आवाज सुनकर मुरली अपनी ढीली-ढाली खाट पर उठकर बैठ गया। आँखें कुछ साथ नहीं दे पा रही थीं। उसने दो-तीन बार पलकें झपकी, परन्तु फिर भी उसे कुछ साफ दिखाई नहीं दे रहा था। दोनों टाँगें खाट से नीचे लटकाकर दाएं हाथ से दोनों आँखों को मसला। फिर राम आसरी की ओर देखकर बोलाः

                ‘उठ, चल तेरे को वैद्य़ जी के पास ले चलता हूँ। वैद्य़ जी से कहकर आज तेरा पक्का इलाज करवा कर लाऊँगा। मैं तंग आ गया हूँ तेरी रोज-रोज की बीमारी से।’

फिर वह लड़खड़ाता हुआ उठा और अपने पैरों में घिसी हुई चप्पलें डालने लगा। बेचारी राम आसरी भी बड़ी मुश्किल से उठकर खड़ी हुई और फिर उसने धोती से बनाए गोले को खोलकर, उससे अपनी कमर बांधी और एक हाथ में लाठी पकड़कर मुरली के पीछे-पीछे चलने लगी। वैद्य जी का दवाखाना कोई दो मील के फांसले पर नदी के दूसरी ओर था। आहिस्ता-आहिस्ता जब नदी के किनारे पर पहुँचे तो अचानक आए पानी को देखकर घबरा गए। थोड़ा उजाला हो चला था। किनारे पर खड़े होकर नदी में बहते पानी की ओर देखने लगे। राम आसरी की नज़र अचानक पेड़ में फंसे उस छोटे बच्चे पर पड़ी जो कीचड़ में लथपथ हुआ पहचानना भी मुश्किल हो रहा था कि वह आदमी का बच्चा है या छोटा जानवर। पानी का जोर खत्म हो चुका था तथा किनारों पर पानी की बजाय घुटनों तक कीचड़ ही कीचड़ था। राम आसरी ने अपनी धोती को बाएं हाथ से थोड़ा ऊपर उठाया और दाएं हाथ से लाठी को कीचड़ में टिकाते हुए बच्चे के नजदीक पहुँची। बच्चे को उस हालत में देखकर एकदम घबरा गई। उसके मुँह से जोर की चींख निकल गई। मुरली ने उसकी ओर देखा और फिर धीरे-धीरे वह भी उसके पास पहुँच गया। बच्चे की हलकी-हलकी साँस चल रही थी। दोनों ने मिलकर उस बच्चे को  उस पेड़ की टहनियों से बाहर निकाला। बच्चा पूरी तरह बेहोशी की हालत में था। बच्चे को किनारे लाकर राम आसरी ने उसके कीचड़ से सने कपडे़ उतारे और फिर उसे मुरली की गोद में रख कर अपनी कमर में बंधी धोती को खोलने लगी। धोती खोलकर उसने उसका एक पल्लू फाड़ा और उसके साथ बच्चे का चेहरा और शरीर पोंछने लगी। फिर उसने बाकी बची हुई धोती की चौपत बनाई और उससे बच्चे को लपेट कर उसे अपने सीने से चिपका लिया। बच्चे के दुःख को देखकर वह अपना दर्द भूल गई। इसे ईश्वर की कृपा ही समझें कि मुरली जैसा मूढ़ और कठोर दिल आदमी भी आज राम आसरी के इशारों पर नाच रहा था। वह मूक रहते हुए भी एक-दूसरे के मन की जुबान पूरी तरह समझ रहे थे। राम आसरी बच्चे को भगवान की अमानत समझ रही थी। वह किसी भी सूरत में उसे खोना नहीं चाहती थी। उसे भय था कि अगर किसी ने बच्चे को देख लिया तो फिर वह उसके पास नहीं रहेगा। इसलिए बच्चे के बारे में किसी को भी पता न चले वह बस्ती की ओर सीधे रास्ते से न चलकर काफी दूर से चक्कर काटकर पीछे से सीधे अपनी झोंपड़ी पर पहुँची। मुरली भी एक आज्ञाकारी पति की तरह उसके पीछे-पीछे चल रहा था। बस्ती में चहल-पहल न के बराबर थी, क्योंकि नदी में आए पानी का पता लगने के कारण छोटे-बडे़ सभी बाढ़ के साथ आई लकड़ियाँ बीनने के लिए उस ओर चले गए थे।

                झोपड़ी में आकर राम आसरी ने बच्चे को पेट के बल लिटा दिया और नीचे कपड़े का एक कुशन बनाकर रख दिया, ताकि उसके पेट में भरा हुआ पानी बाहर निकल जाए। फिर चूल्हे के बगल में रखी काली हाँडी में पानी डाला और उसे गर्म करने के लिए हाँडी को चूल्हे पर, आग जला कर, रख दिया। बच्चे के पेट से कुछ पानी बाहर निकला। पानी थोड़ा गर्म होने पर राम आसरी ने हाँडी को उठाया और उसे खाट की बगल में नीचे रख दिया। इसके पश्चात् उसने रस्सी पर लटकाया हुआ मुरली का परना उतारा और उसे गर्म पानी में डाल दिया। जब परना पूरी तरह से भीग गया तो उसने उसे थोड़ा निचोड़ा और बच्चे को पूरी तरह साफ करने के पश्चात् उसने उसे अपनी एक पुरानी फटी हुई धोती से ढांप दिया, ताकि उसे मक्खी- मच्छर न काटें। बच्चे ने अभी तक आँखें नहीं खोली थी। नदी में पानी आने की वजह से उस दिन रेत-बजरी निकालने का काम बंद था, इसलिए मुरली ने भोर होते ही छुपाकर रखी हुई सत्तू की एक पोटली निकाली और उस में से कुछ सत्तू फांकने लगा। थोड़े सत्तू बाकी बचे तो पोटली राम आसरी को पकड़ाते हुए बोलाः

                ‘ले पकड़ ये सत्तू इस लड़के को खिला दियो।’

फिर उसने अपनी टूटी हुई चप्पलें पाँवों में डाली और बाहर निकल गया। बस्ती में रहने वाले अधिकतर मर्दो की यह आदत थी कि जब काम नहीं होता था तो वे सुबह से शाम तक पूरा दिन पत्ते खेलकर निकाल देते थे। मुरली भी उन्हीं लोगों में से एक था। उस दिन भी वह पत्तों के शौकिनों की तलाश में गया था। राम आसरी को पहले से ही अनुभव के आधार पर पूरा यकीन था कि वह अब शाम तक लौटने वाला नहीं है।

                सुबह के दस बज चुके थे। राम आसरी ने बच्चे के मुँह के ऊपर से धोती उठा कर देखा। वह अभी भी अचेत अवस्था में पड़ा था। राम आसरी ने धोती का पल्लू पहले की तरह बच्चे के मुँह पर  गिरा दिया और फिर मिट्टी खोदने वाला मुड़ा हुआ सरिया उठाकर लाई। उसे झोपड़ी के एक कोने में रख कर दरवाजे के पास आई और इधर-उधर देखने के पश्चात् कनस्तरों की चादर से बना दरवाजे का पल्ला अंदर से बंद कर लिया। फिर कोने में जाकर सरीये से मिट्टी उखाड़ने लगी। लगभग एक फुट गहरी मिट्टी निकालने के पश्चात् गड्ढे में से एक छोटी सी हाँडी बाहर निकाली। हाँडी का ढक्कन उठाकर उसमें रखे चाँदी के कंगन को बाहर निकाला और उसे अपनी कमर पर धोती से दबा लिया। गड्ढे में मिट्टी को भरकर उसे ऊपर से पानी डालकर लीप-पोत दिया और फिर उस पर एक बोरी का टाट बिछा दिया। फिर वह घबराई हुई सी बाहर निकली और दरवाजे की कुंडी लगाकर उस पर एक छोटा सा ताला लगा दिया। मुरली की नज़रों से बचती-बचाती वह लाला की हाट पर पहुँची। कंगन को औने-पौने दाम पर लाला को बेचकर उसने कुछ खाने का सामान लिया और बाकी पैसे उसने अपनी धोती के पल्लू में बाँध कर मुस्तैदी से छुपा लिए। उन पैसों से वह फेरी वाले से बच़्चे के लिए कुछ कपडे़ खरीदना चाहती थी। वह कंगन उसे अपनी जान से भी ज्यादा प्यारा था, क्योंकि वह उसकी शादी की आखिरी निशानी थी। उसने इसे बडे़ जतन से मुरली से छुपाकर रखा हुआ था। बाकी गहने तो वह पहले ही बेच चुका था। परन्तु आज उसका कंगन के प्रति मोह भंग हो चुका था। उसकी नज़रों में वह अब चाँदी का एक टुकड़ा भर रह गया था। बच्चे की सलामती के लिए वह अपनी जान तक दाव पर लगाने के लिए तैयार थी। कंगाली की पीड़ा से त्रस्त उस माँ की ममता जाग उठी थी। भगवान तू धन्य है, जिसने माँ के रूप में स्त्री को इस धरती पर भेजा ह़ै़। जो बदले में कुछ पाने की इच्छा के बिना भी अपना सब कुछ अपनी संतान के लालऩ-पालन ओर खुशी पर न्योछावर कर देती ह़ै़। राम आसरी तेज गति से झोंपड़ी की ओर चलती हुइऱ् इधर-उघर भी झांक रही थी। उसकी साँस भी फूल चुकी थी। कई बार तो उसका मन करता कि नीचे बैठकर अपने दिल की धड़़कन को शांत कर ले। परन्तु बच्चे के मोह में बिना रुके झोंपड़े की ओर खींचे चली जा रही थी। एक तरफ उसकी अपनी बीमारी, दूसरी ओर मुरली का डर, तीसरी ओर बच्चे का अपने से छिन जाने का भय, आज माँ की ममता को चुनौती दे रहे थे। उसकी शक्ति आज इन चुनौतियों को मात देने के लिए पर्याप्त थी। झोपड़ी का दरवाजा खोलकर वह अंदर दाखिल हुई और फिर उसने अंदर से कुंडी लगाली। सामान को चूल्हे की बगल में रखकर उसने बच्चे के मुंह के ऊपर से धोती का पल्लू उठाया, वह अभी भी अचेत पड़ा था। कपड़े को मुँह पर गिराकर वह सरसों के तेल की शीशी उठाकर लाई और उसमें से थोड़ा सा तेल हथेली पर उड़ेल कर बच्चे के पैरों व टाँगों की मालिश करने लगी।

                उधर सवेरा होते ही जंगलात महकमे के लोग नदी के किनारे  से होते हुए मजदूरों की बस्तियों तक पहुँच चुके थे। काफी लोग नदी किनारे लकड़ियाँ इकट्ठी कर रहे थे, इसलिए बच्चे के बारे में उनसे पूछा गया। परन्तु कोई सुराग न मिलने के कारण वह लोग बस्ती की ओर मुड़ गए। जामुन के पेड़ के नीचे दस-बारह आदमी ताश के पत्ते खेल रहे थे। सरकारी कर्मचारियों को अपने सामने पाकर, उन्होंने खडे़ होकर उन्हें प्रणाम किया और फिर एक आदमी भागकर उनके बैठने के लिए एक खाट उठाकर ले लाया। एक फारेस्ट गार्ड ने खाट पर बैठने से पहले ही उनसे पूछाः

                ‘तुम में से सुबह नदी की ओर कौन-कौन गया था?’ सुनकर सभी मजदूर एक दूसरे की ओर देखने लगे। किसी ने भी कोई जवाब नहीं दिया।

‘क्या बात है? आप लोग बोलते क्यों नहीं? क्या तुम में से कोई गया था नदी की ओर?’

                मजदूरों को भय था कि किसी ने कोई गड़बड़ कर दी है और उसी सन्दर्भ में ये खाखी वर्दीधारी सरकारी मुलाजिम छानबीन कर रहे हैं। प्रश्न का उत्तर न देकर वह आपस में ही एक दूसरे से पूछने लगे कि नदी की ओर कौन गया था? सभी का एक ही जवाब था कि वे आज उस तरफ गए ही नहीं। उनका उत्तर न पाकर आखिर दरोगा गुस्से में बोलाः

                ‘तुम लोगों को क्या सांप सूंघ गया है? बताते क्यों नहीं? तुम्हें कोई सूली पर तो नहीं लटकाया जा रहा है? क्यों डर रहे हो? हम एक बच्चे की तलाश मे आए हैं, जो कल रात इस नदी में बह गया था। किसी को उसके बारे में पता है कि नहीं? बस यही पूछना है तुमसे।’

                इतना सुनते ही मुरली के शरीर में से मानो सर्द हवाओं की एक लहर सी गुजर गई हो। अपने अंदर छुपे पाप को दबाने के लिए उसकी अंतर-आत्मा के भीतर एक द्वंद युद्ध चल रहा था। झूठ को दबाने में भी उसका अपना ही स्वार्थ था। वह हर हालत में सच्चाई को छुपाना चाहता था। इसका मतलब यह नहीं था कि उसके मन में राम आसरी के लिए कोई प्यार या हमदर्दी हो। उसके अंदर तो एक पिशाच बैठा था, जिसकी तृप्ति के लिए वह यह नाटक रच रहा था। वह हाथ जोड़कर कर खड़ा हुआ और कहने लगाः

                ‘माई-बाप, हम तो सुबह से ही इधर बैठे हुए हैं। नदी में आज पानी आया है, इसका पता भी हजूर की बातों से ही चला है। फिर भी अगर बच्चे के बारे में कोई्र सुराग मिला तो हम लोग खुद आकर इतला कर देंगे।’

                निराश होकर महकमे के लोग उठकर चले गए। उन्हें वैसे भी संदेह हो गया था कि इतनी दूर तक बच्चे का जिंदा या मुर्दा अवस्था में न मिलना किसी अनहोनी से कम नहीं है। या तो वह कहीं कीचड़ में दब गया है और अगर रात को कहीं किनारे लग गया होगा तो उसे जंगली जानवर खा गए होंगे। निराश होकर उन्होंने अब और तलाश न करने का मन बना लिया और वापस चले गए। महकमे के क्वाटर्स काफी क्षतिग्रस्त हो चुके थे। चारदीवारी भी टूट चुकी थी। वहाँ पर एक रात रहना भी खतरे से खाली नहीं था। इसलिए दूसरे दिन शाम तक सारे कर्मचारियों को, उनके सामान सहित, वहाँ से हटा कर राजगढ़ स्थित मंडल कार्यालय में बदल दिया गया। अब अगर कुछ बाकी था तो वह थी केवल वहाँ की यादें।

                राम आसरी ने सुबह से कुछ नहीं खाया था। वह कल शाम से ही भूखी थी। परन्तु उसे भूख का एहसास बिल्कुल नहीं हो रहा था। जब से लाला की हाट से वापस आई थी, वह बच्चे के पास ही बैठी रही। कभी वह उसके हाथों की और कभी पैरों की मालिश करती। माँ बन नहीं पाई थी, इसलिए मन में माँ बनने की तड़फ थी। बच्चे को यूँ अचानक पाकर उसका मातृत्व जाग उठा था। बच्चे का चुपचाप अचेत अवस्था में लेटे रहना उससे अब सहन नहीं हो पा रहा था। वह कभी उठती और कभी बैठती। बेचैनी की वहज से उसे कुछ सूझ नहीं रहा था कि वह क्या करे और क्या न करे? शाम के चार बजे होंगे, बच्चा थोड़ा हिला और बहुत ही दबी जुबान में बोलाः

‘माँ..................’

माँ का शब्द सुनते ही राम आसरी ने बच्चे को उठाकर गोद में ले लिया और बोलीः

‘हाँ बेटा, क्या बात है? मैं यहीं पर हूँ।’

                बच्चा कुछ नहीं बोला और पहले की तरह फिर अचेत हो गया। राम आसरी को आशा की किरण धूमिल होती नज़र आई। उसकी आँखें भर आई। उसने अपने दाएं हाथ से बच्चे के गाल पर ऊँगलियों से थपथपाते हुए उठाने की कोशिश की और बड़ी बेसब्री से बार-बार बोलने लगीः

‘बोल बेटा, आगे बोल। माँ यहाँ तेरे पास बैठी है। तू चुप क्यों हो गया है? देख, इधर देख मैं यहाँ हूँ।’

                बच्चे ने थोड़ी आँखें खोली और राम आसरी की ओर देखा।  तस्बीर कुछ धुंधली थी, पहचान नहीं पाया। मुँह से फिर वही आवाज निकली।

‘माँ.........तुम कहाँ हो?’

                ‘मैं कह तो रही हूँ बेटा मैं तेरे पास बैठी हूँ।’ राम आसरी की आँखों में कुछ चमक सी आ गई थी। बच्चे ने अपनी पलकें झपकाई और राम आसरी की ओर नज़रें टिकाकर देखने लगा। उसे अपनी ओर इस तरह देखते हुए राम आसरी बोलीः

‘क्या देख रहा है बेटा? मैं माँ हूँ, तुम्हारी माँ।’

‘नहीं, तुम मेरी माँ नहीं हो। कहाँ है मेरी माँ? मुझे मेरी माँ के पास ले चलो। मैं माँ के पास जाऊँगा। मैं तुम्हारे पास नहीं रहूँगा। तुम मेरी माँ नहीं हो।’ बच्चा जिद करता हुआ रोने लगा।

                राम आसरी बेचैन हो उठी। उसे अपना सपनों का महल टूटता हुआ नज़र आने लगा। वह बच्चे को किसी भी सूरत में खोना नहीं चाहती थी। वह तो उसे अपना मान बैठी थी। एक दिन का साथ उसे ऐसा मालूम हो रहा था मानो वह जन्म-जन्म से ही उसके पास है। भय के मारे वह काँप उठी कि कहीं अगर बस्ती में पता चल गया तो सब कुछ उलट हो जाएगा। घबराकर बच्चे से कहने लगीः

                ‘बेटा चुप हो जा नहीं तो मुझे भी रोना आ जाएगा और अगर तू चुप हो गया तो मैं तुझे तेरी माँ के पास ले चलूँगी।’

‘माँ के पास ले चलोगी मुझे?’ वह चुप होता हुआ बोला।

‘हाँ, बिल्कुल ले चलूँगी। तू खाना खाएगा?’ वह बोली।

‘खाना खाने के बाद चलोगी माँ के पास?’ उसने प्रश्न किया।

                ‘बेटा देखो, अब तो रात होने वाली हैं। हम माँ के पास कल चलेंगे। वह बहुत दूर रहती हैं। रात के अंधेरे में कैसे जाएंगे? अब तुम बैठो, मैं तेरे लिए खाना बनाती हूँ।’

                राम आसरी ने उठकर चूल्हे में आग जलाई और फिर हाँडी में चावल और मूँग की खिचड़ी पकने रख दी। जब खिचड़ी पक गई तो उसने ढक्कन में दो करछी भर खिचड़ी डाली और बच्चे के पास आकर बैठ गई। खिचड़ी को देखकर बच्चे ने अपनी नाक सिकोड़ी और बोलाः

‘तुम्हारे घर में प्लेट नहीं है?’

‘नहीं बेटा, तुम प्लेट में खाना खाते हो?’ वह बोली।

‘हाँ, हम दही भी खाते हैं। तुम्हारे घर में तो चम्मच भी नहीं है। फिर तुम खाना कैसे खाती हो?’

‘राम आसरी के पास कोई उत्तर नहीं था। वह बेबस थी। बच्चे को क्या जवाब दे? थोडा़ सोचकर बोलीः

                ‘बेटा, हम तो खाना हाथ से खाते हैं। मैं कल तेरे लिए दही और चम्मच लेकर आऊँगी। आज तू मेरे हाथ से खाना खा ले।’ वह हाथ में खिचड़ी उठा कर बोली।

                ‘मुझे नहीं चाहिए तुम्हारा चम्मच। मैं तो माँ के पास जाऊँगा। तुम कल माँ के पास नहीं ले चलोगी मुझे?’

‘क्यों नहीं ले जाऊँगी? तुझें किसने बोला है ऐसा? हम दोनों साथ-साथ जाएंगे माँ के पास। मेरा अच्छा बेटा बनकर खाना खा ले, शाबाश।’

                वह अपने हाथों से उसे खिचड़ी खिलाने लगी। सूखी खिचड़ी उसे स्वाद तो नहीं लग रही थी, परन्तु भूख की वजह से वह ढक्कन में डाली हुई खिचड़ी खा गया। खाना खिलाने के पश्चात् राम आसरी ने उसका मुँह कपड़े से साफ किया और फिर उसे खाट पर लिटा दिया। उसके बाद उसने ढक्कन में और खिचड़ी डाली और उसे पानी की घूंटों के साथ गले के नीचे उतारने लगी। पेट में भोजन जाने से बच्चे को कुछ आराम मिला और उसे नींद आ गई। शाम के छः बजे के लगभग मुरली झोंपड़ी पर पहूँचा। राम आसरी ने बिना कोई बात बोले हाँडी में से खिचड़ी निकाली और उसे दे दी। खाना खाने के पश्चात् मुरली ने बच्चे की ओर देखा और फिर राम आसरी से बोलाः

‘कैसा है? उठा नहीं अभी तक?’

राम आसरी ने कोई उत्तर नहीं दिया।

‘तू साली बोलती क्यों नहीं? मैं क्या पूछ रहा हूँ तेरे से?’  वह गुस्से में बोला।

                ‘तुझे क्या लेना है इससे? सुबह का निकला अब आया है खाक छान कर। बड़ा आया पूछने वाला। कोई मर भी जाए तुझे क्या? पत्तों और दारू के सिवाय तुझे तो कुछ सूझता ही नहीं ।’ राम आसरी आज उसकी भाषा में ही बोली।

                इतना सुनने के बाद तो मुरली अब तक दो-चार घूँसों को अजमा चुका होता, परन्तु उसके अंदर बैठा स्वार्थ उसे ऐसा करने से रोक रहा था। नशेड़ी होने के साथ-साथ वह एक धूर्त और चालाक किस्म का आदमी भी था। चेहरे पर बनावटी हँसी लाता हुआ बोलाः

                ‘राम आसरी, तू तो गुस्सा मान गई। मैं तो मजाक कर रहा था। यह बच्चा मुझे भी उतना ही प्यारा है जितना तेरे को लगता है। पर इसके चक्कर में कहीं हम फंस न जाएं। आज इसे ढूँढने के लिए सरकारी अफसर आए थें। बड़ी मुश्किल से मैं उन्हें टालने में कामयाब हुआ हूँ। वह बोलकर गए हैं कि अगर बच्चा न मिला तो वह बस्ती में जाकर घर-घर तलाशी लेंगे। अब तू सोच अगर बच्चा हमारे यहाँ से मिल गया तो हवालात की हवा तो खानी ही पड़ेगी, साथ में चक्की भी पीसनी पड़ेगी। इससे बचने का एक ही रास्ता है, अगर तू कहे तो बोलूँ?’

                राम आसरी ने इस बात का कोई जवाब नहीं दिया। वह पथराई आँखों से मुरली की ओर देखने लगी। वह उसकी रग-रग से वाकिफ थी। उसकी धूर्तता के कारनामों से वह पहले ही अपना सब कुछ लुटा चुकी थी। उसका उत्तर न मिलने पर मुरली फिर कहने लगाः

                ‘देख, तेरा भाई शहर में रहता हैं। हम बच्चे को उसके पास छोड़ देते हैं। वक्त गुजर जाएगा और बात आई-गई हो जाएगी। लड़का जब बड़ा हो जाएगा तो हम वहाँ जाकर इसे ले आएंगे। इस तरह बात दबी-दबाई रह जाएगी और हम नाहक के पचड़ों से भी बच जाएंगे। है न ठीक बात?’

                राम आसरी को भाई पर भी यकीन नहीं था। दोनों एक ही थाली के चट्टे-बट्टे थे। उसके मन में पक्का संदेह था कि यह दोनों मिलकर कोई घिनौनी चाल चलने वाले हैं। इनके हाथ में तो बच्चा देने से बेहतर है कि उसे सरकारी अफसर ही ले जाएं और अगर इस तरह उसे हवालात होती है तो वह भी ठीक है। यहाँ कौन से वह सुख की जिंदगी जी रही है। यहाँ का नरक तो हवालात से भी बुरा है। वह भूखी शेरनी की तरह दहाड़ीः

‘नहीं, तुम सभी भेड़िये हो। खा जाओगे इसे। नहीं ले जाने दूँगी इसे भाई के पास।’

                यह कहकर वह सुबक-सुबक कर रोने लगी। मुरली ने अब इस बारे में और आगे बोलना ठीक नहीं समझा, और बोलाः

                ‘बस्ती वाले पूछें तो बोल देना मेरा भतीजा है। भाई शहर से आया था, कुछ दिनों के लिए यहाँ पर छोड़कर गया है।’

                यह कहकर मुरली झोपड़ी से बाहर निकल गया। आँगन में जाकर उसने अपनी ढीली-ढाली खाट सीधी की और धोती ओढ़कर सो गया। उसके बाद राम आसरी ने खजूर के पत्तों से बना हाथ का पंखा उठाया और बच्चे की बगल में लेटकर पंखा करने लगी।