Dwaraavati - 40 in Hindi Fiction Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | द्वारावती - 40

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द्वारावती - 40




40


“केशव, क्या तुम बता सकते हो कि इस बंद मुट्ठी में तुम्हारे लिए क्या है?” केशव की विचार यात्रा गुल के शब्दों से भंग हो गई।
“कहो गुल, कैसी हो?”
“यह क्या बात हुई? यह प्रश्न कैसा?”
“यह प्रश्न सहज है।”
“सहज वह होता है जो प्रतिदिन होता हो। जो प्रश्न तुमने पूछा वह सहज कहाँ है?”
“प्रश्न तुमने भी पूछा था। क्या वह सहज था?”
“कोई असहज क्रिया किसी बात अथवा घटना की प्रतिक्रिया भी हो सकती है।”
“इस तर्क का संदर्भ तुम्हारे प्रश्न से कहाँ है?”
“तुम तो विद्वान हो केशव। थोड़े थोड़े ज्ञानी भी होते जा रहे हो। स्वयं उत्तर खोज लो, प्रश्न क्यों करते हो?”
“यही तो समस्या है गुल। मैं ज्यों ज्यों उत्तर खोजने का प्रयास करता हूँ, नए नए प्रश्न जन्म ले लेते हैं। प्रश्नों का जन्म लेना मेरे नियंत्रण में नहीं है।”
“तुम्हारे भीतर क्या चल रहा है? तुम्हारे मन में कोई चिंता प्रतीत होती है, केशव।”
“चलो छोड़ो उसे। कहो, तुम्हारा क्या प्रश्न था?”
“मेरी ईस बंद मुट्ठी में तुम्हारे लिए मैं कुछ लायी हूँ। क्या हो सकता है, कल्पना करो।”
“बंद मुट्ठी में सारा संसार हो सकता है।”
“यदि वह खुल जाय तो?”
“तो उसमें कुछ भी शेष नहीं रहता। शून्य हो जाता है।” गुल ने अनायास ही मुट्ठी खोल दी।
“शून्य!” गुल हंसने लगी।
“मैंने यही कहा था कि खुल गई तो शून्य ही शेष रह जाएगा। देखो तुम्हारी मुट्ठी में कुछ नहीं है।”
“भौतिक रूप से देखा जाये तो मेरी मुट्ठी में कुछ भी नहीं था, ना अभी है।”
“तुम तो कह रही थी कि इस बंद मुट्ठी में तुम मेरे लिए कुछ लाई हो। क्या था वह? कहाँ है वह? यह खाली क्यों है? क्या तुम असत्य कह रही थी?”
“केशव, जो व्यक्ति अयाचक होता है उस के लिए मैं क्या ला सकती हूँ? तुम्हारे लिए इस मुट्ठी में कुछ नहीं है।”
“तो तुमने ऐसा क्यूँ कहा था?”
“बंद मुट्ठी में सारा संसार हो सकता है। यही कहा था तुमने।”
“हाँ, यही कहा था।”
“यह भी कहा था ना कि खुल जाये तो शून्य।”
“हाँ, यह भी मैंने कहा था।”
“मेरी इस मुट्ठी में तुम्हारे लिए सारा संसार था।” गुल ने मुट्ठी बंद कर ली, “लो अब सारा संसार है।” गुल के हास्य की ध्वनि समुद्र की तरंगों की ध्वनि से एकरूप हो गई। केशव हंस ना सका।
“केशव, तुम किस गहन विचार में मग्न थे? कौन से प्रश्न, कैसे प्रश्न तुम्हारे भीतर जन्म ले रहे हैं? तुम क्यों इतने उद्विग्न हो?”
केशव गंभीर हो गया। “सुनो गुल। कल रात्रि प्रार्थना सभा में गुरुजी ने एक बात कही जो मुझे चिंता तथा चिंतन करने पर विवश कर रही है।”
“कहो, क्या बात है।”
“गुरुजी ने कहा कि इतने सारे विद्यार्थी हैं इस गुरुकुल में किन्तु एक विद्यार्थी है जो विशेष अध्ययन करेगा, सबसे अधिक शिक्षा प्राप्त करेगा।”
“गुरुजी ने तुम्हारा नाम नहीं लिया होगा। मैं समज गई। तुम इसी कारण चिंतित हो, उद्विग्न हो।”
“नहीं ऐसा नहीं है। गुरुजी ने जिस विद्यार्थी का नाम लिया था वह मैं ही हूँ।”
“वाह। क्या बात है केशव। अभिनंदन।तुम्हारे गुरुजी का यह वचन सत्य होगा।” गुल प्रसन्न हो गई। किन्तु केशव के मुख पर कोई भाव नहीं थे। उसे देखते ही गुल की प्रसन्नता लुप्त हो गई।
“तुम क्यों चितित हो केशव? तुम्हें तो प्रसन्न होना चाहिए।”
“मेरा नाम सुनते ही तत्क्षण मैं भी प्रसन्न हुआ था। साथी विद्यार्थियों ने भी अभिनंदन दिये थे। रात्रि भर उसी प्रसन्नता को मन में लिए अनेक स्वप्नों की कल्पना करता रहा। किन्तु प्रात: जागते ही मन पर विपरीत विचार आक्रमण करने लगे।”
“क्या प्रश्न है? कैसे विचार हैं?”
“एक, बाकी विद्यार्थी भी वही शिक्षा ले रहें हैं जो मैं ले रहा हूँ।
द्वितीय, क्या कुछ ऐसा होनेवाला है कि बाकी छात्र शिक्षा पूर्ण ना कर पाएँ?
तीसरा, क्या यह शिक्षा के उपरांत भी कोई अन्य शिक्षा है जो मुझे पूरी करनी होगी? कैसी होगी वह शिक्षा? कौन होंगे मेरे शिक्षक? कैसे होंगे? कहाँ होंगे? क्या मुझे इस नगरी का त्याग करना होगा? यदि एक बार मैंने इस नगरी का त्याग कर दिया तो मैं कब लौटकर इस नगरी में आ पाऊँगा? आ सकूँगा कि नहीं? क्या है मेरी नियति? वह मुझे कहाँ ले जाना चाहती है? नियति कौन सा कर्म मेरे माध्यम से करवाना चाहती है? मैं...।”
“रुको केशव। तुम कितना गहन विचार करते हो? आज से पूर्व तो कभी ऐसा नहीं हुआ।”
“आज से पूर्व भी गहन विचार तो करता ही था किन्तु वह मेरे भविष्य के विषय में नहीं होते थे।”
“तुम केवल विचार नहीं कर रहे हो अपितु चिंतन कर रहे हो, चिंता कर रहे हो। यह सत्य है ना?”
केशव ने मुक सम्मति दी।
“केशव, यही अंतर होता है विचारों में। अन्यों के विषय में हम केवल चिंतन करते हैं, जब बात स्वयं पर आ जाती है तब हम चिंता भी करते हैं। चिंतन तथा चिंता में यही भेद है, केशव।”
“तुम्हारा कहना उचित है गुल।”
“यह सभी भविष्य कि चिंता है।”
“तो?”
“इस प्रश्नों के उत्तर, इसकी चिंता का उपाय भी हमें भविष्य ही देगा। तो क्यों ना हम इसे आनेवाले कल पर छोड़ दें?”
“क्या तात्पर्य है?”
“भविष्य के गर्भ में प्रत्येक प्रश्न का उत्तर होता है। इसी कारण हमें वर्तमान के यह क्षण व्यर्थ नष्ट नहीं करने चाहिए।”
“क्या करना चाहिए इस क्षण में?”
गुल दौड़ गई। समुद्र की तरंगों में अपने चरणों को भिगोने लगी। केशव को संकेत से बुलाया। केशव समुद्र की तरफ गया।
केशव के समीप आते ही गुल ने हथेलियों में समुद्र का पानी भरा, केशव पर उछाल दिया। केशव भीग गया। समुद्र के उष्ण जल ने केशव के तन की चेतना को जगा दिया। उसने भी एक अंजलि भरी, गुल की तरफ उछाल दी। गुल ने उसका स्वागत किया। समय के तरंगों के साथ दोनों समुद्र के तरंगों के जल में भीगते रहे।