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मंदिर से पूर्व ही एक श्रद्धालु ने केशव को रोक लिया।
“बेटे, तुम ब्राह्मण हो?”
“हाँ। किन्तु आपको संदेह क्यूँ है?”
“क्यों कि यह पीताम्बर आदि परिधान मैंने अन्य व्यक्तियों में भी देखा है।”
“आप तो व्यक्ति के वस्त्रों के आधार पर निश्चय कर लेते हो कि वह क्या है, कौन है?”
“नहीं, मैं तो बस ... ।”
“चलो छोड़िए। मुझे आप से तर्क वितर्क नहीं करना है।”
केशव उसे वहीं छोडकर जाने लगा।
“बेटे, रुको तो।”
“जी, कहो जो कहना है।” केशव रुक गया।
“क्या तुमने यज्ञोपवीत धारण की हुई है?”
“क्या तात्पर्य है आपका ?”
“मुझे किसी यज्ञोपवीत धारी ब्राह्मण बालक को यह दान करना है।” श्रद्धालु ने हाथों में रखे केले दिखाए।
“ब्राह्मण बालक ही क्यूँ? यदि बालक ब्राह्मण है किन्तु यज्ञोपवीत धारण नहीं किया तो क्या? यदि बालक ने यज्ञोपवीत धारण किया है किन्तु वह ब्राह्मण नहीं है तो क्या?”
“मुझे मेरे गुरुजी ने कहा है कि किसी यज्ञोपवीत धारी ब्राह्मण को यह दान देना है।”
“तो आपने अयोग्य गुरु को पसंद किया है।”
“मेरे गुरु के विषय में ऐसा कैसे कह सकते हो? तुम उसे कभी मिले नहीं हो तो यह मत कैसे बना लिया? वह बड़े ही विद्वान है, महान है, ज्ञानी है, सिध्ध है।”
“आपके गुरुजी की महानता को वंदन। किन्तु जो गुरु बालकों में भेद रखे वह गुरु कैसा? बालक किसी भी वर्ण से हो, उसका बालक होना मिथ्या नहीं हो जाता।”
“तुम तर्क सुंदर कर लेते हो, बालक।”
“इस प्रकार तर्क करना, संवाद करना मेरी रुचि नहीं है।”
“ठीक है बेटे, चलो, यह ले लो। मैं तुम्हें यह केले दान करता हूँ।”
“धन्यवाद महोदय। किन्तु मैं आपके इस दान का सादर अस्वीकार करता हूँ।” केशव ने क्षमा की मुद्रा में हाथ जोड़े।
“तुम मेरा, मेरे इस दान का अपमान कर रहे हो बालक।”
“नहीं श्रीमान, मेरा तात्पर्य यह नहीं है।”
“तो इसे स्वीकार करो, इसे ग्रहण करो।”
“मैं पुन: हाथ जोड़ आपसे क्षमा माँगता हूँ।”
“अर्थात पुन: अपमान?” श्रध्द्धालु क्रोधित हो गए।
“केशव, चलो यहाँ से। हमें ऐसे व्यक्तियों से चर्चा नहीं करनी चाहिए।” अब तक मौन रहकर इन संवादों को सुन रही गुल ने धैर्य खोया।
“ए छोकरी। कौन हो तुम? तुम भी इसके साथ मिलकर मेरा अपमान कर रही हो।”
“नहीं श्रीमान। आपको मान, अपमान तथा सन्मान के भेद ही विदित नहीं है। आपसे वार्तालाप करना व्यर्थ प्रलाप ही होगा। यह तो समय तथा ऊर्जा का व्यय है। केशव, हमें चलना चाहिए।”
“यह छोकरी कौन है जो हमारे मध्य हो रहे वार्तालाप में व्यवधान डाल रही है।”
“यह गुल है, मेरी मित्र। हमारा वार्तालाप तो सम्पन्न हो चुका है। यद्यपि कोई अविवेक हुआ हो तो मैं क्षमा मांगता हूँ।” केशव ने हाथ जोड़ कहा, “अब हमें आज्ञा दें। चलो गुल।”
दोनों चल पड़े। श्रद्धालु उसे देखते रह गया। कई क्षणों के पश्चात उसे ज्ञात हुआ कि केले उसके हाथ में ही रह गए। गुल तथा केशव उसकी द्रष्टि से दूर जा चुके थे।
“अन्य कोई विघ्न आए उससे पूर्व चलो मंदिर चलते हैं।”
“नहीं गुल, अब मंदिर नहीं घर चलते हैं। प्रभु से मिलन के लिए मुझे अभी प्रतीक्षा करनी होगी।”
“ऐसा क्यूँ कह रहे हो?”
“यह जो श्रीमान मिले थे वही प्रभु थे। उसके दर्शन कर लिए तो मैं तृप्त हो गया।”
“केशव, ऐसे शब्दों के प्रयोग से तुम उस व्यक्ति पर व्यंग कर रहे हो। प्रथम तो तुमने केले का दान नहीं लिया, अब उसका उपहास कर रहे हो। क्या यह तुम्हारा अभिमान था? इस प्रकार तुम उसका अपमान नहीं कर रहे थे?” गुल ने प्रश्नों का प्रहार किया।
“प्रत्येक बात के लिए हमारी व्यक्तिगत धारणाएं होती है। अपनी अपनी संवेदनायें होती हैं। यह भिन्नता होना सहज है। प्रत्येक धारणा अपने अपने दृष्टिकोण से सत्य होती है। किन्तु यही अंतिम सत्य नहीं होता।”
“तो सत्य क्या है?”
“सत्य की स्वयं कोई परिभाषा नहीं होती। सत्य स्वयं ही स्पष्ट नहीं होता। वह सापेक्ष होता है। इस घटना का सत्य भी भिन्न है, सापेक्ष है। प्रत्येक घटना का सत्य भिन्न तथा स्वतंत्र होता है।”
“इस घटना का सत्य क्या है, कहो केशव।”
“वह व्यक्ति जब केले का दान कर रहा था तब उसके मन में भाव यह था कि वह अपने समग्र ऐश्वर्य का दान कर रहा हो।
दूसरी बात- वह यह मान रहा था कि लेने वाला प्रत्येक व्यक्ति तुच्छ होता है।
तीसरी बात- मैं गुरुकुल का विद्यार्थी हूँ। गुरुकुल का प्रत्येक विद्यार्थी ‘अयाचक’ होता है।”
“अयाचक होने का अर्थ क्या है?”
“जो व्यक्ति किसी से कोई भी वस्तु कि याचना ना करे वह अयाचक कहलाता है।”
“तो तुम अयाचक हो?”
“अवश्य।”
“इस घटना में तुमने कहाँ कोई याचना की थी? वह तो स्वयं ही तुम्हें दे रहे थे।”
“अयाचक व्यक्ति बिना श्रम के कोई भी वस्तु ग्रहण नहीं करता।”
“ओह।” गुल मौन हो गई।
“किस विचार में खो गई, गुल?”
“यदि कभी मैं तुम्हारे लिए कोई वस्तु लेकर आउं तो तुम उसे ग्रहण करोगे क्या?”
“तुम ऐसा क्यों पूछ रही हो?”
“क्यों कि तुम अयाचक हो।” केशव कुछ कहे उससे पूर्व ही वह घर की तरफ दौड़ गई, केशव गुरुकुल की तरफ।