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एक अन्य दर्शक भी उस नृत्य को देख रहा था। प्रांगण के एक छौर पर मौन खड़ा था वह। गुल के नृत्य से वह अभिभूत था। गुल के साथ नृत्य कर रहे पंखियों को देखकर वह साश्चर्य प्रसन्न था। गुल के नृत्य की एक एक भाव भंगिमाओं को वह रुचिपूर्वक देख रहा था।
‘कितना निर्बाध, कितना सहज, कितना उन्मुक्त, कितना उत्कट भाव से भरा नृत्य है यह!’ वह मन ही मन बोल उठा।
वह उसे देखते ही जा रहा था। स्वगत बोले जा रहा था, ‘ऐसा नृत्य कभी किसी ने किया होगा क्या? किसने? कब? कहाँ? कैसे? किसने देखा होगा? अभी तक प्राप्त शिक्षा में ऐसे नृत्य के विषय में कभी नहीं सुना। अनेक राज नर्तकियों की कथा सुनी है। अप्सराओं – गन्धर्वों के नृत्यों से भी परिचय है। किन्तु ऐसे नृत्य का किसी भी पुस्तक में उल्लेख नहीं है। यह नृत्य स्वयं में अनूठा है, अनुपम है, प्रथम है, उत्कृष्ट है। गुल, तुमने एक नए युग को जन्म दिया है। इस युग के आरंभ का मैं साक्षी हूँ। हे ईश्वर, मैं तेरा धन्यवाद करता हूँ कि तुमने इस क्षण को मेरे जीवन में स्थान दिया। हे समय, हो सके तो इस क्षण को सदैव के लिए रोक लो। मुझे ज्ञात है कि मैं काल गति से विपरीत मांग कर रहा हूँ किन्तु मांगना मेरा अधिकार है, मेरी मांग उचित हो अथवा अनुचित हो। संभव हो तो इस क्षण पर स्थिर हो जाओ, समय।’
समय ने केशव की बात नहीं मानी। वह नहीं रुका- चलने लगा। समय के चलते ही गुल का नृत्य रुक गया। पंखी भी रुक गए। शांत रहकर नृत्य का आनंद ले रहे दर्शक पंखियों की तंद्रा भंग हो गई। वह मंद मंद ध्वनि करने लगे। धीमे धीमे वह ध्वनि तीव्र होता गया।
एक पंखी उड़ता हुआ गगन में चला गया। समुद्र के ऊपर उड़ने लगा। उसे देखकर दूसरा पंखी भी उड़ गया। तीसरा, चौथा, पाँचवा... पंखी उड़ने लगे। उड़ रहे श्वेत पंखीयों की गुल के समक्ष भिंत रच गई। एक एक कर सभी पंखी समुद्र की तरफ उड़ गए। दृष्टि के सन्मुख से श्वेत भिंत हट गई। भिंत के उस पार उसे सब स्पष्ट दिखने लगा।
वहां कोई था जो उसे देख रहा था। वह सकुचाई, संभली तथा उसे देखने लगी। वह अनिमेष नयनों से गुल को देख रहा था। गुल उसके नयनों के झपकने की प्रतीक्षा करने लगी। क्षण व्यतीत हो रहे थे किन्तु वह वैसे ही स्थिर था। गुल का धैर्य अधीर हो गया। वह उसके समीप गई।
“श्रीमान, नृत्य सम्पन्न हो चुका है। सभी दर्शक भी उड़ गए हैं। समय का वह क्षण व्यतीत हो चुका है, काल में बदल चुका है। कृपा कर के वर्तमान के इस क्षण में प्रवेश करने का कष्ट करें।”
“नहीं नृत्यांगना, वह क्षण काल नहीं हुआ है। वह क्षण अभी भी मेरे सन्मुख उसी नृत्य, उसी ताल, उसी संगीत, उसी भावों को लेकर खड़ा है। मेरे लिए जैसे वह क्षण स्वयं ही स्थिर हो गया हो। वहाँ देखो, उस बिन्दु पर देखो। तुम अभी भी वहाँ नृत्य कर रही हो, सभी पंखी तुम्हारे साथ है। दर्शक दीर्घा में बैठे असंख्य पंखियों को देखो।”
उसने दूर किसी एक बिन्दु पर संकेत किया। गुल ने उस बिन्दु को देखा। वहाँ एक ज्योति थी। वह आरती की शलाका थी। सम्पन्न की हुई आरती की ज्योत लेकर पुजारी मंदिर के प्रांगण में खड़े थे। उस ज्योत के प्रकाश में गुल ने उस आकृति को पहचान लिया।
“श्रीमान केशव, यहाँ कोई नृत्य नहीं हो रहा है। नृत्य की उस व्यतीत हो गई आभा से मुक्त होकर देखो। तुम्हारा भ्रम निरस्त हो जाएगा। वहाँ जो है वह आरती की प्रज्जवलित ज्योत ही है जो अपने आलोक से तुम्हें आकर्षित कर रही है। वहाँ पुजारी भी है, ध्यान से देखो केशव।”
केशव ने समय की उस क्षण को तोड़कर, छोडकर वर्तमान में प्रवेश किया।
“ओह। अनुपम, अद्भुत, अकल्पनीय, अद्वितीय क्षण! मैं तेरा धन्यवाद करता हु।”
“केवल उस क्षण का धन्यवाद क्यों? मेरा भी तो ...।”
“तुम्हारा भी। किन्तु क्षण का धन्यवाद सर्वप्रथम करना होता है।”
“ऐसा क्यूँ?”
“स्वयं समय ही ऐसी क्षणों का सर्जन करता है। यह भिन्न बात है कि ऐसी क्षणों के लिए समय किसका चयन करता है, किसे माध्यम बनाता है। तुम भाग्यशाली हो कि समय ने उस क्षण के लिए तुम्हें पसंद किया। भाग्यशाली मैं भी हूँ क्यूँ कि समय ने उस क्षण का मुझे साक्षी बनाया। भाग्यशाली वह पंखी भी है जो उस क्षण का हिसा बने।”
“भाग्यशाली तो मैं भी हूँ, केशव, गुल।” पुजारी ने कहा।
“वह कैसे ? आप तो महादेव जी की आरती में व्यस्त थे।”
“नहीं। आज मैंने ना तो घंटनाद किया, ना शंखनाद किया ना ही महादेव जी की आरती की।”
“तो यह आरती, यह ज्योत? यह क्या है?” केशव तथा गुल दोनों ने प्रश्न किया।
“आज मैंने नृत्य कर रही गुल की आरती उतारी है। मुझे उसमें मां पार्वती की प्रतीति हो रही थी। मैंने आरती तैयार कर ली थी। मैं आरती का प्रारम्भ करने ही जा रहा था कि मेरे भीतर से किसी ने मुझे आदेश दिया कि बाहर जाओ, गुल की आरती उतारो। आदेश का पालन करते हुए मैं बाहर आ गया। मैंने मां पार्वती की आरती उतारी।”
“ओह, ईश्वर। तेरी लीला सभी तर्कों से परे है। कोई नहीं समझ पाया इसे।” केशव ने हाथ जोड़े, नत मस्तक किया। गुलने तथा पुजारी ने भी वही किया। सभी मंदिर के भीतर गए। महादेव जी के दर्शन किए। आरती की। गुल ने घंट बजाया, केशव ने शंख। पश्चात, सभी तट पर लौट गए।