Dwaraavati - 32 in Hindi Fiction Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | द्वारावती - 32

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द्वारावती - 32


32
“मंदिर में मेरे साथ उन पंखियों ने अनुचित व्यवहार किया था, केशव। उनकी क्या मनसा थी?”
“विशेष कुछ नहीं, केवल भोजन चाहते थे।”
“किंतु मछलियाँ किसीका भोजन नहीं हो सकती। वह पंखी मांसाहार कर रहा था, मछली को मार रहा था। मैंने उस पंखी से उस मछली को मुक्त करवाया। मछली का जीवन बचाया। ठीक ही तो किया था मैंने। वह पंखी पापी था। पापी से मैंने किसी जीव की रक्षा की। यह तो करना ही था। वह पंखी को दंड मिलना चाहिए था।”
“नहीं, उन पंखियों का भोजन मछली ही होता है। तुमने उसका भोजन छिन लिया तो क्रोध करना स्वाभाविक ही है।”
”वह पापी है। केशव, वह पापी ही है।”
“तुम ऐसा क्यूँ कह रही हो?”
“मांसाहार पाप नहीं तो और क्या है? क्या पंखियों को किसी जीव की हत्या करने का अधिकार है?”
“पंखियों का यही भोजन है। मछली खाना पंखियों के लिए सहज है। इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है।”
“केशव, मछली पकड़ना अनुचित है, पाप है। तुम्हीं ने ही मेरे पिता को उस पाप से मुक्त करवाया था। तो कहो ना कि यह पाप है।”
“गुल, वह पाप नहीं है। पंखियों का मछली पकड़ना, उसे खाना पाप नहीं है।”
“केशव, यह कैसी बात कर रहे हो तुम? मेरे पिता जब मछलियाँ पकड़ रहे थे तो तुमने ही उसका विरोध किया था। कितना सुंदर तर्क दिया था, स्मरण है तुम्हें? उसी तर्क पर कहो कि पंखी पापी है। कहो, केशव कहो।” गुल विह्वल हो गई।
“गुल, ईश्वर ने उनके लिए यही भोजन बनाया है। मनुष्य की बात भिन्न है।”
“यह कैसी भिन्नता है?” गुल केशव की बात से असहमत थी।
“इस संसार में कुछ भी एक समान नहीं होता।”
“सत्य भी नहीं?”
“सत्य हम समझते हैं इतना सरल, सहज नहीं होता।”
“तो क्या सत्य जटिल होता है?”
“सत्य से अधिक जटिल कुछ भी नहीं।“
“मुझे तो इस सत्य से भी अधिक जटिल तुम लग रहे हो, तुम्हारे विचार लग रहे हैं। मैं तुम्हारे विचारों को नहीं मानती।”
“तो क्या चाहती हो तुम?”
“कुछ नहीं। मैं तुमसे बात ही नहीं करना चाहती। मैं चली जाती हूँ घर।”
“जैसा तुम उचित समझो।” गुल अपने भीतर, अपने साथ अनेक प्रश्न, अनेक संशय लेकर चली गई। केशव ने उसे नहीं रोका।

***

अनेक प्रभात व्यतीत हो गए। केशव समुद्र तट पर नित्य ही आया करता था। उसे प्रतीक्षा रहती थी गुल की। किन्तु गुल नहीं आती थी। दिवसों की प्रतीक्षा अब महीने में बदल गई। किन्तु गुल तट पर नहीं आई। केशव ने किसी से पुछने की चेष्टा भी नहीं की। वह मौन ही प्रतीक्षा करता, मौन ही मन को मना लेता, मौन ही गुरुकुल लौट जाता। इस मौन में छिपी संवेदना समुद्र से अज्ञात नहीं थी। समुद्र, केशव के इस मौन को समझ रहा था तथापि वह भी मौन रहा। वह भी प्रतीक्षा करता रहा। केशव की मौन प्रतीक्षा में वह अपने मौन से सहायता करता रहा।
एक नूतन प्रभात अवनि पर प्रवेश करने को सज्ज हो रहा था। केशव समुद्र तट पर बैठा था किन्तु उसका मुख समुद्र की दिशा में, पश्चिम दिशा में नहीं था। समुद्र के प्रति उसकी पीठ थी। वह पूर्व दिशा में देख रहा था, सूर्य के आगमन की प्रतीक्षा कर रहा था। उसे प्रतीत हो रहा था कि सूर्य आज उदय होने में विलंब कर रहा था। किन्तु वह पूर्ण धैर्य से प्रतीक्षा कर रहा था। सुदूर पूर्वाकाश में कुछ बादल थे जो अनेक रंग बदल रहे थे।कभी लाल, कभी पीला, कभी नारंगी तो कभी गुलाबी रंग धारण कर रहे थे। उन बादलों की छाया में अनेक पंखी उड रहे थे। वह सब मौन ही उड़ रहे थे। कोई ध्वनि नहीं कर रहे थे। समुद्र की तरंगें शांत थी। हवा मंद गति से प्रवाहित हो रही थी। समय भी मंद गति से गति कर रहा था। यह सब मौन थे, पूर्णत: मौन, पूर्णत: शांत।
सब कुछ स्थिर था। इतनी स्थिरता, इतनी अचलता इससे पूर्व केशव ने ना ही देख़ी थी, ना ही अनुभव की थी। वह भी इसी स्थिरता में घुल गया, स्थिर हो गया। स्थिर प्रतिमा की भांति अपलक दृष्टि से, अनिमेष आँखों से सूर्योदय की प्रतीक्षा करने लगा। एक एक क्षण मौन व्यतीत हो रही थी, मंद गति से व्यतीत हो रही थी। सूर्य क्षितिज से अभी दूर था।
उस स्थिरता मे, उस अचलता में, उस नि:शब्दता में सहसा एक शब्द घोष हुआ।
ओम्।
पुन: शब्द घोष हुआ।
ओम्।
पुन: पुन: शब्द घोष होता रहा।
ओम्। ओम्। ओम्। ओम्।
इस नाद से सब कुछ आंदोलित हो गया। स्थिरता में तरंग उत्पन्न हो गए। अचलता चलित होने लगी। नि:शब्दता में नाद ध्वनित-प्रतिध्वनित होने लगा। हवा गतिमान हो गई। पंखी गान करने लगे। स्थिर बादल चलित होने लगा। समय का वह क्षण जैसे किसी तंद्रा से जागा हो, चलने लगा। समुद्र में तरंगे बहने लगी। मौन भंग हो गया।
केशव ने इन सभी परिवर्तनों का अनुभव किया, अनिमेष आँखें क्षण भर के लिए बंद हुई, पुन: खुल गई।
ओम् का नाद अभी भी हो रहा था। उस स्वर से प्रकट हो रही मधुर सुगंध का स्पर्श होने लगा।
“यह स्वर गुल का है, यह सुगंध गुल की है। निश्चित ही वह यहाँ उपस्थित है।”
गुल केशव के सन्मुख आ गई। पूर्वाकाश तथा केशव के मध्य वह बाधा बनकर खड़ी हो गई। केशव ने स्मित से स्वागत किया। गुल कुछ कहने की चेष्टा कर रही थी कि केशव ने संकेतों से उसे मौन रहने को कहा। गुल चिड गई, उसे कहना था, बोलना था किन्तु केशव उसे रोक रहा था। उसने पुन: यत्न किया, केशव ने पुन: रोका। पूर्व दिशा में उदित होने वाले सूर्य के प्रति संकेत किया।
गुल ने पूर्व दिशा में दृष्टि की। वह मौन हो गई। पूर्व दिशा के अनुपम द्रश्य के संमोहन पाश में बंध गई।
सूर्य के आगमन की क्षण आ रही थी। प्रकाश की तीव्रता में वृध्धी होने लगी। क्षण क्षण आकाश रंग बदलने लगा। किसी चंचला की भांति आकाश उत्साहित था। क्षितिज से उड़ता हुआ एक पंखी समुद्र की तरफ आने लगा। अवनि को सूर्य के आगमन की सूचना देने आ रहे प्रहरी जैसा लग रहा था वह पंखी।
निमिष मात्र में पूर्व दिशा में एक वक्राकार आकृति द्रश्यमान हो गई। सूर्य की वह प्रथम छवि थी। किसी अंगूठी जैसा आकार था। लाल रंग वाली वह आकृति क्षण क्षण विकसित हो रही थी। क्षण भर में अर्ध वक्राकार आकृति से आकाश प्रकाशित हो गया।
स्थिर द्रष्टि से केशव तथा गुल उसे देख रहे थे। किन्तु सूर्य गतिमान था। पूर्ण रूप से वह आकाश में प्रवेश कर गया। उसने लाल रंग त्याग दिया था तथा पीला रंग धारण कर लिया था। दिशाएँ देदीप्यमान हो गई। अनेक पंखी उड़ने लगे, कलशोर करने लगे।
गुल उस क्षण में स्थिर हो गई। मुग्धा सी देखती रही। मन में उठ रहे विचार शांत हो गए। कुछ भी कहने को मन नहीं हुआ। दूर एक वृक्ष की डाल पर कुछ पंखी जा बैठे। वृक्ष के पर्ण जागृत हो गए। उसने गुल को भी जागृत कर दिया। उसका संमोहन भंग हुआ। अनेक बार उसने अपनी आँखें बंद की, खोली। अंतत: वह किसी स्वप्नावस्था से जागी। उसने केशव को देखा। केशव के मुख पर अनुपम प्रसन्नता थी।
“केशव।” गुल के शब्द ने केशव को प्रवाहित कर दिया।
“कहो, गुल। अब जो कहना चाहते हो वह कह सकती हो।”
“कितने दिवसों से हम इसी स्थान पर सूर्योदय से भी पूर्व आते रहें हैं।”
“मैंने इन दिवसों की गिनती नहीं की है।”
“केशव, मैं उन दिवसों की संख्या नहीं पूछ रही हूँ।”
“तो क्या कह रही हो?”
“यही कि इतने दिवसों से हम यहाँ आते रहे हैं। हम कई काम करते रहे हैं। किन्तु हमारी द्रष्टि समुद्र के प्रति ही रहती थी। हमने सदैव पश्चिम दिशा में ही ध्यान केन्द्रित किया। इसी अवस्था में पूर्व दिशा में सूर्य उग जाता था। हमने कभी इस घटना को आज से पूर्व नहीं देखा। ऐसा क्यूँ?”
“गुल, मैं तो विगत अनेक दिवसों से इस घटना का साक्षी रहा हूँ। सूर्योदय का अनुभव करता रहा हूँ।”
“किन्तु मैं तो आज ही इस घटना का अनुभव कर रही हूँ।”
“इतने दिवसों के अंतराल के पश्चात जो तुम आई हो।”
“तुम ठीक कह रहे हो केशव। इन दिवसों में मैं ... ।” गुल को रोकते हुए केशव ने कहा, “उसकी कोई आवश्यकता नहीं है। इस समय हम सूर्योदय की घटना के आनंद में मग्न हैं। हम उस विषय में ही बात करें तो?”
“अवश्य, केशव। आज मैंने कदाचित प्रथम बार ही सूर्योदय देखा है।”
“देखा?”
“नहीं। नहीं। प्रथम बार अनुभव किया।”
“कैसा रहा यह अनुभव?”
“यह अनुभव तो .... ऐसा अनुभव तो.... ।” गुल उचित शब्दों को बोलने में विफल रही।
“कहो, गुल। मैं सुनने को उत्सुक हूँ।”
कुछ क्षण विचार कर गुल बोली, “न होगा यह मुझ से। उसे कहने हेतु मेरे पास शब्द नहीं है। शब्दों के पास ऐसी संभावना कहाँ कि वह भावनाओं को व्यक्त कर सके?” गुल रुक गई। केशव उसे देखता रहा।
”केशव, मुझे इस प्रकार ना देखा करो। एक तो मेरे पास शब्द नहीं है और तुम इस प्रकार मुझे देख रहे हो।”
“ठीक है, तो अब मैं तुम्हें नहीं किन्तु सूर्य को देखता हूँ, समुद्र को देखता हूँ।” केशव ने द्रष्टि हटा ली।
“अब ठीक है?”
“धन्यवाद, केशव। मुझे कहना है कि सूर्य जब उदय होता है तब कितनी सारी अनुभूतियाँ होती है । उस समय यह संसार निंद्रा में खोया होता है। यदि कोई व्यक्ति एक बार इस क्षण की अनुभूति कर लेगा तो वह कभी भी एक भी सूर्योदय को चूकेगा नहीं।”
“तुम प्रत्येक सूर्योदय की साक्षी बनोगी?”
“कोई संदेह?”
“स्वागत है आपका।”
“धन्यवाद केशव। किन्तु मेरे प्रश्न का उत्तर दो। विगत दिवसों में हमारा ध्यान सूर्योदय के प्रति क्यूँ नहीं गया?”
“उत्तर सरल है, सहज भी।”
“तो कहो ना।”
“हम समुद्र तट के निवासी हैं। समुद्र विशाल, अटल तथा अडग है। किसी भी समय वह इसी स्थान पर रहता है। यह स्वाभाविक है कि हम समुद्र के प्रभाव में रहते हैं। सूर्य भी विशाल है किन्तु वह प्रतिक्षण चलित रहता है।”
“अर्थात समुद्र का प्रभाव सूर्य के प्रभाव से अधिक है।”
“यह निष्कर्ष अनावश्यक है। बस इतना समझ लो कि जो अधिक निकट होता है उसका प्रभाव अधिक होता है।”
“बस, इतनी सी बात?”
“हाँ, गुल।”
“केशव, तूम मेरे प्रत्येक संशय का समाधान कर देते हो। मेरे प्रश्नों के उत्तर अत्यंत सरलता से देते हो।”
“इस प्रसंशा के लिए धन्यवाद।”
“केवल धन्यवाद? कुछ और कहो।”
“मुझे कुछ नहीं कहना। तुम्हें कुछ कहना हो तो कहो।”
“तुम पुछोगे नहीं कि इतने दिवसों से मैं क्यूँ नहीं आई? मैं कहाँ थी? कुछ तो पूछ लेते तुम?”
केशव ने मौन स्मित दिया। गुल उसका अर्थ समझ नहीं पाई।
“केशव कुछ बोलो ना। इस प्रकार तुम्हारा मौन रहना मुझे विचलित कर रहा है।”
“इतनी सारी अनुभूतियों के उपरांत ऐसे प्रश्न करना, ऐसी उत्कंठा प्रकट करना उचित है क्या?”
“क्यूँ?”
“यह मोह है। मोह बंधन है। हमें ऐसे मोह से, ऐसे बंधन से बचना होगा।”
“केशव, तुम निष्ठुर हो अथवा स्थितप्रज्ञ?”
“मुझे विदित नहीं है। मैं विगत समय में रुचि नहीं रखता। मेरे लिए यह वर्तमान ही रुचिकर है।”
“इस वर्तमान में क्या रुचिकर है श्रीमान?”
“सब कुछ रुचिकर है। जैसे कि इस क्षण तुम यहाँ हो। तुम्हारे साथ अभी अभी हमने सूर्योदय की अनुभूति की है। इस क्षण हम समुद्र की ध्वनि को सुन रहें हैं। दूर मंदिर की धजा हवा की लय पर कोई संगीत सुना रही है। यह क्षण....।”
“हाँ, यह सब रुचिकर है।”
“कुछ ही क्षण में मंदिर में आरती होगी। घंटनाद एक नयी रुचि उत्पन्न कर देगा। हमें उसका आनंद लेना होगा। तो मंदिर चलें?”
“मंदिर चलने की इच्छा तो है किन्तु मन रोक रहा है। मंदिर के नाम से मन में आशंका उत्पन्न हो जाती है।”
“कैसी आशंका?”
“दो है। एक, उन पंखियों का मांसाहार मुझे अभी भी व्यथित कर रहा है। दूसरा, कहीं पुन: समुद्र में भटक ना जाऊं? नहीं केशव, मैं मंदिर नहीं आ रही। तुम जाना चाहो तो जा सकते हो।” गुल शीला पर बैठ गई।
“गुल, तुम्हारी दोनों आशंकाएं निरधार है। एक, समुद्र ने तुम्हें क्षमा कर दिया है। दो, पंखियों के मांसाहार तथा पापाचार की बात। पाप तथा पुण्य कभी निरपेक्ष नहीं होते। व्यक्ति, समय तथा परिस्थिति के सापेक्ष में ही इसका मूल्यांकन करने पर ही ज्ञात होगा कि वह पाप है, पुण्य है अथवा कुछ भी नहीं है।”
“वह कैसे?”
“मनुष्यों के लिए प्रकृति ने भोजन के अनेक विकल्प प्रदान किए हैं। हम फल, अन्न आदि ग्रहण कर सकते हैं, उसे उगा सकते हैं, उसे पका सकते हैं। पशु-पंखी आदि को यह विकल्प उपलब्ध नहीं है। अत: वह मांसाहार करते हैं। बड़ा जीव छोटे जीव को मारता है। यह प्रकृति की रचना है। यही प्रकृति का क्रम है।”
“ईस क्रम को बदल देना चाहिए।”
“प्रकृति के क्रम को कैसे बदला जा सकता है?”
“यह कार्य हम जैसे मनुष्यों को करना होगा।”
“हमें? कैसे?”
“हमें इन पशु पंखियों को अन्न खिलाना होगा। समय के एक अंतराल के पश्चात संभव है कि प्रकृति की यह व्यवस्था बदल जाय। प्रकृति सदैव परिवर्तनशील होती है।”
“गुल, इस विषय पर तुम इतना अधिक सोच सकती हो? तुम्हारे इस विचार ने एक नयी दिशा का संकेत दिया है। हमें इस प्रस्ताव पर कार्य करना होगा।”
“तो इस क्षण से ही प्रारम्भ करते हैं।”
“चलो, मंदिर चलते हैं।”