Dwaraavati - 31 in Hindi Fiction Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | द्वारावती - 31

Featured Books
Categories
Share

द्वारावती - 31

31
आनेवाले नए प्रभात की सुगंध वहां व्याप्त थी। गुल तथा केशव प्रतिदिन की भांति तट पर थे, समुद्र की जलराशि को देख रहे थे। जल राशि के उस पार महादेव थे जो आमंत्रित कर रहे थे। दोनों ने उस मंदिर को देखा, एक दूसरे को देखा, आँखों ने संकेत दिये और दोनों कूद पड़े समुद्र की जल राशि में। कुछ ही क्षणों में दोनों महादेव की शरण में आ गए।
मंदिर प्रवेश से पूर्व ही गुल रुक गई। केशव भी। गुल मुड़ी, समुद्र की उस लहरों को देखने लगी जिसे पार कर वह अभी अभी यहाँ आई थी।
समुद्र अपनी सहज गति से प्रवाहित था। तरंगें तट पर जाती थी, वहीं समाप्त हो जाती थी। कुछ तरंगें समुद्र में पुन: समा जाती थी। एक नि:स्पृह संत की भांति समुद्र अपने कार्य में, अपनी सहज गति में व्यस्त था। गुल उसे निहारती रही।
“क्या देख रही हो गुल?”
“क्या?... मैं...? क्या...?” गुल का उत्तर खंडित था।
“गुल, क्या बात है?”
”मैं समुद्र को निहार रही हूँ।”
“कोई विशेष बात है?”
“तभी तो। देखो इसे। अभी अभी हमने इसे परास्त किया है। किन्तु इसकी गति तो देखो। इसके प्रवाह को तो देखो। इसकी भाव भंगिमाओं को तो देखो। जैसे इस पर हमारे विजय का तथा अपने पराभव का कोई प्रभाव ही ना पड़ा हो। क्या यह समुद्र कोई संत है?”
केशव हंस पड़ा।
“वह समुद्र है, मनुष्य नहीं। यह विजय, यह पराभव आदि शब्द हमारे मनुष्यों के शब्दकोश के शब्द हैं। समुद्र इतना विराट है कि वह ईन शब्दों से प्रभावित नहीं होता।”
“तो?”
“समुद्र की यह विशेषता भी है तथा महानता भी। वह हमें अवसर देता है कि हम उसके प्रवाह से, उसकी तरंगों से, उसकी विशालता से, उसकी गहनता से सामंजस्य बना लें। यदि हम ऐसा कर लेते हैं तो वह स्वयं ही हमारी रक्षा करता है। किन्तु यदि हम उसे परास्त करने का भाव रखेंगे तो वह निमिष मात्र में हमें परास्त कर देगा। हमारे अस्तित्व को ही समाप्त कर देगा।”
केशव ने समुद्र को प्रणाम किया, “हे महासागर, मैं तुम्हारा धन्यवाद करता हूँ। गुल, समुद्र का अभीवादन करो।”
गुल ने उपेक्षा की। वह मंदिर के भीतर चली गई। आरती, पूजा, दर्शन आदि संपन्न हुआ।
“चलो लौट चलें?” गुल के प्रश्न के उत्तर में केशव समुद्र में कूद गया। गुल भी।
समुद्र की जल राशि अभी भी भरपूर थी। दोनों उसे पार करने लगे। केशव सरलता से तट के प्रति गति कर रहा था। तरंगों ने उसे सहज गति प्रदान की थी।
प्रयास करने पर भी गुल उस सहज गति को प्राप्त नहीं कर पा रही थी। वह जैसे ही तट के प्रति गति करती, तरंगें उसे तट से दूर ले जाती। वह प्रयास करती, कुछ अंतर आगे बढ़ती तो तरंगें उसे विपरीत दिशा में प्रवाहित कर देती। गुल के सभी प्रयास विफल होते गए।
केशव तट पर पहुँच गया। मुड़कर देखा तो गुल अभी भी वहीं थी, मंदिर के समीप। केशव ने उसे संकेत से तट पर आने को कहा। किन्तु गुल अपने प्रयासों में इतनी व्यस्त थी कि केशव के संकेतों को देखने का उसके पास अवसर ही नहीं था। स्वयं को समुद्र के प्रवाह से सुरक्षित करने का संघर्ष करती रही।
केशव ने ऊंचे स्वर में कहा, “गुल, तट पर आ जाओ। समुद्र के भीतर अधिक समय रहना असुरक्षित होता है। शीघ्र ही आ जाओ।”
केशव के शब्द तरंगों की ध्वनि में ही विलीन हो गए।
‘गुल मंदिर की शीला से आगे क्यूँ नहीं बढ़ रही? मैं उसे तट तक आने को कह रहा हूँ किन्तु वह सुनती ही नहीं। मेरे शब्द उस तक नहीं जा रहे हैं। उसका ध्यान कहाँ है? मैं कुछ क्षण प्रतीक्षा कर लेता हूँ। हो सकता है वह कुछ समय पश्चात आ जाए।’
केशव तट पर प्रतीक्षा करने लगा।
‘गुल आगे नहीं बढ़ रही है। कहीं कोई समस्या तो नहीं आ रही गुल को?’ केशव गुल को ध्यान से देखने लगा।
‘यह क्या? गुल शीला पर क्यूँ बैठ गई? उसे तट पार आने का मन ही नहीं क्या? इस प्रकार तट पर बैठी रहेगी तो तट पर कब आएगी? कब घर जाएगी? कहीं कोई नई समस्या को आमंत्रित तो नहीं कर रही? मुझे उसे शीघ्र ही तट पर लाना होगा।’
गुल को लाने के लिए केशव समुद्र में कूद पड़ा।
“गुल, समुद्र से इतना मोह उचित नहीं। चलो, घर चलो।”
“केशव। मैं भी घर जाना चाहती हूँ। किन्तु ...।”
“यह स्मरण रहे कि हम धरती के जीव हैं, समुद्र के नहीं। हमें यह मोह त्याग कर घर चलना होगा।”
“चलना तो है ही।”
“तो चलो, किसने रोका है तुम्हें?”
“इस समुद्र ने।”
“समुद्र कभी किसी को नहीं रोकता।”
“तुम नहीं मानोगे, केशव। किन्तु यही सत्य है। मैंने सभी प्रयास किए थे किन्तु समुद्र मेरे मार्ग में व्यवधान डालता रहा। प्रत्येक प्रयास पर वह मुझे तट से विपरीत दिशा में धकेल देता है। प्रयास करते करते थक गई हूँ। क्या बैर है इस समुद्र को मुझ से। तुम ही कहो ऐसे में मैं घर कैसे जाऊँगी?”
“ऐसा तो नहीं हो सकता। गुल, तुम कहीं मिथ्या तो नहीं कह रही?”
“मैं सत्य कह रही हूँ, मेरी सहायता करो। मुझे घर लौटा दो।”
केशव विचारने लगा।
“केशव, तुम सुन रहे हो? मेरी सहायता करो।” गुल के मुख पर भय, वेदना, चिंता तथा आशा के मिश्र भाव थे।
“शांत हो जाओ, गुल। तुम मेरे साथ चलो। मैं जो कहूँ वह करोगी?”
“तुम जो कहोगे वह सब कुछ करूंगी। किन्तु मुझे यहाँ से ले चलो।”
“गुल, समुद्र से क्षमा मांग लो उसकी प्रार्थना कर लो। वह अवश्य तुम्हारी सहायता करेग।”
“समुद्र से क्षमा? प्रार्थना? ... केशव...।”
“यही एक मात्र उपाय है बेटी।” पुजारी के शब्द गुल के कानों पर पड़े।
“विचार ना करो गुल। समुद्र से प्रार्थना करो। वह बड़ा ही कृपालु है।”
गुल ने अनायास ही आँखें बंद कर ली। हाथ जोड़ वंदन किया तथा मन ही मन क्षमा मांगने लगी।
“गुल। आँखें खोलो। समुद्र ने तुम्हें क्षमा कर दिया है।”
गुल ने आँखें खोल देखा। समुद्र का पानी जो कुछ क्षण पूर्व बड़ी ऊंची तरंगों के कारण भयावह लग रहा था वह अब शांत हो चुका था। तरंगें मंद गति से बह रही थी। समुद्र के गर्जन में अब सुमधुर संगीत सुनाई दे रहा था। यह सब देखकर गुल के नयनों से अश्रु बनकर प्रसन्नता बहने लगी।
तीनों व्यक्ति समुद्र पार कर तट पर आ गए। गुल घर के प्रति दौड़ गई। रेत पर वही परिचित पदचिन्ह छोड़ गई। उन पदचिन्हों को मिटाने का आज समुद्र ने कोई प्रयास नहीं किया। केशव कभी समुद्र को तो कभी उन पदचिन्हों को देखता रहा। पुजारी केशव को देखते रहे।
“गुरुकुल लौट जाओ, केशव।” वह लौट गया।