भाग -5
लॉक-डाउन का समय जैसे-जैसे बीत रहा है, पति-पत्नी का तनाव वैसे-वैसे बढ़ रहा है। दोनों के बीच यह तनाव रात में हाथ गरमाने के समय भी अब ज़्यादा दिखने लगा है। एक दिन वह झल्लाती हुई बोली, “घर में बंद होने का मतलब यह नहीं है कि जब देखो तब हाथ गरमाने लगे, आख़िर तुम्हें हो क्या गया है, पहले तो ऐसे नहीं थे।
“इस छोटी-सी कोठरी में न बच्चों का ध्यान रखते हो, न दिन का, न रात का। बस हाथ . . . अरे इतनी बड़ी विपत्ति आ गई है, ज़िन्दगी ख़तरे में पड़ गई है। काम-धंधा सब बंद है। खाना-पानी भी बंद ही समझो। संघ वाले राशन न दे रहे होते तो अब-तक भूखों मर गए होते। यह बीमारी तो बाद में मारेगी, भूख-प्यास पहले ही मार देगी।
“यह नहीं कि शान्ति से भगवान का नाम लें, पूजा-पाठ करें कि इस विपत्ति से जल्दी मुक्ति मिले। अरे मेरी नहीं तो कम से कम बच्चों की तो सोचो।” हाथ गरमाने के टाइम पर दया से ऐसी बातें सुनकर वासुदेव ऐसे शांत हो जाता है, जैसे कोई नटखट बालक टीचर के आते ही शांत हो जाता है, और उसके जाते ही फिर से शुरू हो जाता है।
दोनों के बीच बड़ी तनाव-पूर्ण स्थिति बराबर बनी हुई है, और इसी बीच एक दिन रात नौ बजे के आस-पास एक-एक करके उसके कई साथियों के फोन आए कि जो लोग अपने गाँव लौटना चाहते हैं, सरकार ने उन्हें भेजने के लिए मुफ़्त व्यवस्था की है। सारी बसें फ़लाँ-फ़लाँ स्थानों पर लगी हुई हैं।
अब दोनों में इसी बात को लेकर बहस शुरू हो गई कि चला जाए या न चला जाए। वासुदेव किसी भी सूरत में गाँव का रुख़ नहीं करना चाहता है। वह दया को समझाते हुए बोला, “देखो पहले तुम बात को समझो, गाँव पहुँचने पर बड़ी बेइज़्ज़ती होगी।
“गाँव में घर, बाहर सब कहेंगे कि ‘बड़का क़ाबिल बनके गए थे कमाने। चार दिन बंदी नहीं झेल पाए, लुटिया डंडा झोला लड़का-बच्चा लेकर दोनों भागे वापस चले आए गाँव।’ वहाँ तो सब यही जानते हैं कि हम यहाँ कउनों बढ़ियाँ नौकरी कर रहे हैं, हर महीना तनख़्वाह मिल रही है। उन्हें क्या मालूम कि यहाँ मिस्त्री-गिरी में ज़िन्दगी खप रही है।
“दूसरे मुझे इस मुख्यमंत्री की बात पर रत्ती-भर का भरोसा नहीं है। ये अव्वल दर्जे का मक्कार कौन सी कारिस्तानी कर दे, इसका कोई ठिकाना नहीं है। मुझे शक इसलिए भी हो रहा है कि अगर सरकार ने सच में ऐसी कोई व्यवस्था की होती तो समाचार में ज़रूर आता।
“चोरी-छिपे व्हाट्सएप मैसेज क्यों भेजा जाता। जो मक्कार वाह-वाही लूटने के लिए गिरे से भी गिरा काम करता रहता है, बिना कुछ किए-धरे ही अपना नाम जोड़ लेता है, वह भला इस काम में वाह-वाही लूटने में पीछे कैसे रह जाएगा। मुझे तो इसमें कोई गहरी साज़िश मालूम पड़ रही है। लॉक-डाउन लगा हुआ है, बाहर निकलते ही पुलिस जेल में डाल सकती है।”
दोनों की बहस जारी ही थी कि तभी किसी ने दरवाज़े पर हल्की सी दस्तक दी। दोनों ने प्रश्न-भरी नज़रों से एक दूसरे को देखा, तभी दूसरी बार फिर से खटखटाया गया। बाहर जो भी था, वह बहुत जल्दी में लग रहा था। वासुदेव ने जल्दी से एक चाकू अपने कपड़ों में छुपाया और दूसरा दया को थमा कर इशारा किया पीछे आने को।
उसने सावधानी से थोड़ा सा दरवाज़ा खोलकर बाहर देखा, तो पार्षद का एक चमचा मुँह पर मास्क लगाए खड़ा था। दरवाज़ा खुलते ही उसने भी बस वाली सूचना दी, साथ ही कहा कि अपने सारे साथियों को भी बता दो। मुझे और लोगों को भी बताना है। इतना कहकर वह जल्दी से चला गया।
अब वासुदेव को लगा कि व्हाट्सएप मैसेज में कुछ तो दम ज़रूर है। फिर उसने कई साथियों को जल्दी-जल्दी फोन लगाएँ तो कइयों ने उससे छूटते ही कहा कि ‘तुम अभी तक घर में ही पड़े हो, हम निकल चुके हैं बस में बैठने के लिए।’
इतना सुनते ही वासुदेव ने दया से कहा, “चल जल्दी कर, चला जाए नहीं तो सीट नहीं मिलेगी।” वह दोनों जितना सामान समेट सकते थे, समेट कर बच्चों के साथ चल दिए। उन दोनों के दिमाग़ में बस तक पहुँचने की जल्दी थी।
वासुदेव के दिमाग़ में अब ऐसा कुछ नहीं चल रहा है कि गाँव पहुँचने पर लोग क्या कहेंगे, या कि लॉक-डाउन के बावजूद घर से बाहर निकल रहे हैं तो पुलिस पकड़ लेगी। वह पैदल ही चल कर जब क़रीब दो घंटे में वहाँ पहुँचे, जहाँ पर बसों के खड़े होने की बात कही गई थी, तो वहाँ एक भी बस नहीं मिली, लेकिन स्ट्रीट लाइट में आँखें जहाँ तक देख सकती थीं, वहाँ तक लोगों की भीड़ ही भीड़ दिखाई दे रही थी।
दया ने यह सब देख कर कहा कि “लगता है हम-लोगों को आने में देर हो गई, सारी बसें चली गई हैं।”
वासुदेव से कुछ बोला नहीं गया, वह अपराध-बोध से ग्रस्त हो गया कि उसने व्यर्थ की बहस में समय बर्बाद किया, नहीं तो बस मिल जाती। वह दोनों हैरान-परेशान, सामान, बच्चों को लिए इधर-उधर भटकने लगे। जिस किसी से पूछते सबका हाल उसके जैसा ही था। सभी को उसी तरह सूचना मिली थी, जैसे उसको। एक भी बस वहाँ आई ही नहीं यह जानकर वह इस अपराध-बोध से मुक्त हो गया कि ग़लती उसकी थी।
उसने अपने साथियों को एक-एक करके फोन किया तो उन सबका भी वही हाल था। जो जहाँ भी पहुँचा, वहाँ किसी को एक भी बस नहीं मिली। सभी एक स्वर में कहने लगे कि किसी कमीने की नहीं, इसी मक्कारों की पार्टी की यह बड़ी साज़िश है। इतने लोग सड़कों पर हैं, लेकिन एक पुलिस कहीं नहीं दिख रही है।
इसी बहाने दिल्ली को पूर्वांचलियों से ख़ाली कराने, उनके बीच बीमारी फैला कर उन्हें मारने, महामारी को और फैला कर लॉक-डाउन को फ़ेल करने की साज़िश है। ये जो लाखों लोग एक जगह ही इकट्ठा हो गए हैं, इनमें से अब शायद ही कोई कोरोना संक्रमण से बच पाए। आख़िर मक्कार अपने उद्देश्य में सफल हो गया है। हमारे ही वोटों से गद्दी पर बैठा, हमारी ही पीठ में छूरा घोंप दिया।
सभी अब बस से ज़्यादा कोरोना से संक्रमित होने के भय से चिंतित हो गए। दया-वासुदेव, बच्चों सहित एक ओवर-ब्रिज के नीचे बैठ गए। हर तरफ़ लोग ही लोग जमा दिख रहे हैं। परिवार बुरी तरह थक कर चूर है, चलते-चलते दया ने अचानक कुछ सोच कर बोतल में पानी भर लिया था, लेकिन वह पूरे परिवार को थोड़ी राहत देकर समाप्त हो गया।
वासुदेव कुछ देर सुस्ताने के बाद बोला, “सवेरा हो जाए तो कमरे पर वापस चल देंगे, अब कोई मुफ़्त की बस क्या, हवाई जहाज़ भी कहेगा, तो भी घर से नहीं निकलेंगे। किसी को हो या न हो, मुझे पक्का विश्वास है कि यह मुफ़्तखोरी की राजनीति करने वाले मक्कार आदमी की ही कारिस्तानी है। उसी ने पार्टी गुंडों के ज़रिए यह अफ़वाह उड़ाई, लोगों के घर ग़लत सूचना भिजवाई। उसी की पार्टी का दल्ला ही तो मेरे पास आया था। बड़ा जल्दी में था कि सबको बताना है।”
क्रोधित वासुदेव ने सबके सामने ही पार्टी, उसके गुंडों को कई बड़ी भद्दी-भद्दी गालियाँ देते हुए कहा, “इसने सारे पूर्वांचलियों को ठगा है, सब इसकी साज़िश का शिकार बन गए हैं।” उसकी बात सुनकर पास-पड़ोस में बैठे लोगों का सिर उसकी ही ओर घूम गया।
यह देखकर दया ने उसे चुप रहने को कहा। स्थिति को देखते हुए वह शांत हो गया और अपने साथियों को फोन करके पता करना शुरू किया कि कौन कहाँ पर है। सबसे बस की बात ज़रूर पूछता और जैसे ही उसे यह बताया जाता कि यहाँ भी कोई बस नहीं है तो उसके मुँह से धारा-प्रवाह गालियाँ निकलने लगतीं। मगर धीमीं आवाज़ में, जिससे किसी और के कान में उसकी बातें नहीं पड़ें।
तभी उसे यह भी पता चला कि उसके और कई साथी भी उसी ब्रिज के नीचे कहीं बैठे हैं। उनमें से एक के बच्चे की तबीयत ज़्यादा ख़राब है, उसे एक-दो उल्टी हो गई तो आस-पास बैठे लोग उसकी कुछ मदद करने के बजाय जितना दूर हट सकते थे, उतना दूर हट गए हैं।
यह सुनकर वासुदेव ने कहा, “घबराओ मत, बहुत देर तक पैदल चलकर यहाँ आए हो, बच्चा भी थक गया होगा, ज़्यादा दिक़्क़त हो तो हमारे पास चले आना। हम यहीं सातवें खंबे के पास हैं, जहाँ पर एक पुरानी गाड़ी खड़ी है।”
फोन करके वह दया की तरफ़ मुड़ा, तो देखा वह ज़मीन पर लेटी हुई बच्ची को दूध पिला रही है, उसी से सटे हुए बाक़ी बच्चे सो रहे थे। वह दूध पीती बच्ची पर एक दृष्टि डालते हुए बोला, “आँचल से बिटिया को ढाँक नहीं सकती हो क्या, घर हो या बाहर, जहाँ देखो मटकी खोलकर चालू हो जाती हो।”
पहले बच्चे के बाद से ही उससे यह बात सुन-सुन कर दया के कान पक चुके हैं। उसने कुछ जवाब देने के बजाय अपने शरीर को ढक लिया। वह कुछ भुनभुनाई भी जिसे वासुदेव नहीं सुन पाया। यदि वह सुन लेता तो वह चीखता-चिल्लाता, उसने बात ही ऐसी कही थी, जो किसी भी पति को भीतर तक चुभ सकती थी।
रात-भर हर तरफ़ से कहीं किसी बच्चे के रोने की आवाज़, तो किसी की बहस, गाली-गलौच की आवाज़ आती रही। इस बीच पुलिस की कई गाड़ियाँ आती-जाती रहीं, मगर बस के नाम पर एक रिक्शा भी नहीं दिखा।
पुलिस प्रशासन ने इस तरफ़ ध्यान ही नहीं दिया, यह जानने की आवश्यकता ही नहीं समझी कि लॉक-डाउन के बावजूद लोग इतनी भारी संख्या में सड़क पर क्यों इकट्ठा हैं। ऐसा लग रहा था जैसे कि उन्हें सब-कुछ मालूम है कि लोग यहाँ पर क्यों इकट्ठा हैं।
अपने घर पहुँचने के लिए व्याकुल इन लोगों को, कोई भी, कुछ भी बताने वाला नहीं है। मीडिया वाले भी भोर में आकर जब गए तो सुबह होते-होते चैनल पर समाचार आने लगा। सुबह होते ही कई स्वयं-सेवी संगठनों ने लोगों को पानी और बिस्कुट आदि पहुँचाने शुरू कर दिए।
लेकिन इनमें से ज़्यादातर एक-दो लोगों को बिस्कुट, पानी की बोतल देते हुए फोटो खिंचवा कर, वीडियो बनवा कर चलते बने। मगर संघी लोग मॉस्क, फेस-शील्ड लगाए बिस्कुट, पानी, लइया-चना, ब्रेड लोगों को देते रहे। इसकी न वो ख़ुद कोई फोटो खींच रहे थे, वीडियो बना रहे थे, न ही कोई और।
वासुदेव, दया ने फिर से उन्हें जन-सेवा में लगा देख कर एक दूसरे को देखा। दया ने कहा, “यह बेचारे अपनी जान ख़तरे में डालकर, जहाँ देखो वहाँ हर किसी की मदद के लिए पहुँच जाते हैं, लेकिन इनके पास इतने पैसे कहाँ से आते हैं।”
वासुदेव ने उसके पैकेट से बिस्कुट निकालते हुए कहा, “न ये किसी से पैसा लेते हैं, न कोई इनको पैसा देता है, यह सब-लोग आपस में मिलकर अपने पास से सारी व्यवस्था करते हैं। यह सभी कहीं न कहीं नौकरी, या काम-धंधा करने वाले लोग हैं। गाँव के मास्टर साहब, प्रधान को नहीं देखा, कैसे उन लोगों का पूरा परिवार लगा रहता है।”
दोनों अब-तक संघियों से मिले पानी, बिस्कुट, ब्रेड बच्चों संग खा-पी चुके थे। जिससे उन्हें बड़ी राहत मिली थी। दया ने लइया-चना सहित बाक़ी चीज़ें भी, बच्चों के लिए बचा कर बैग में रख दीं। जो खाने-पीने के बाद फिर माँ से चिपके ज़मीन पर ही सो रहे थे।
जब अँधेरा छटने लगा, आसमान से तारे ग़ायब हो गए, दूर सामने क्षितिज रेखा केसरिया होने लगी तो वासुदेव कमरे पर वापस चलने की सोचने लगा, वह सवेरे-सवेरे ठंडे मौसम में ही लौट जाना चाहता है।
लेकिन उसके मन के किसी कोने में बस की आस अब भी बनी हुई है। इसलिए उत्सुकता भरी दृष्टि से लोगों को, इधर-उधर हर तरफ़ देखता है कि शायद कहीं कोई बस दिखाई दे, लेकिन अगर कुछ उसे दिखाई देता है तो सिर्फ़ पुलिस-प्रशासन की गाड़ियाँ, जो पता नहीं क्या देखती हुई, आगे जाकर ओझल हो जाती हैं।
अंततः धूप तेज होते देखकर वह सामान उठा कर चलने लगा। दया ने अब-तक बच्चों को उठा कर फिर से बिस्कुट पानी खिला-पिला दिया था। वह कुछ क़दम ही चले थे कि एक के बाद एक कई बसें आती नज़र आईं। वह दया के साथ कुछ उत्सुकता आशा के साथ ठहर गया। बसें एक-एक करके उनसे थोड़ी दूर पर रुकती गईं।
उनसे आगे पुलिस वाले थे, उन्होंने जब भीड़ को यह बताया कि ये बसें उनको लेकर घर तक जाएँगी तो भीड़ की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा। मारे ख़ुशी के लोगों की आँखें चमक उठीं कि अब वह अपने गाँव, घर-द्वार पहुँच जाएँगे।
पुलिस वालों की ढुल-मुल व्यवस्था के चलते बस में बैठने को लेकर ख़ूब धक्का-मुक्की हुई, झगड़े तक की नौबत आ गई। कोरोना से बचने के लिए सेंट्रल गवर्नमेंट की गाइड-लाइन सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियाँ ख़ूब उड़ती रहीं।
धक्का-मुक्की, रेलम-पेल के बीच वासुदेव परिवार सहित एक बस में बैठ गया। सभी प्रवासियों के चेहरे पर ख़ुशी चमक रही है। सबको पूरा विश्वास हो गया है कि वे अब अपने-अपने गाँव-घर ज़रूर पहुँचेंगे। सब के सब प्रदेश सरकार की ख़ूब प्रशंसा करने लगे।
दया ने बच्ची को दूध पिलाते हुए वासुदेव से कहा, “हम बार-बार कहते हैं कि किसी को ठीक से जाने बिना कुछ न कहा करो, मगर मेरी बात काहे सुनोगे। आख़िर बस भेजी ही गई। अरे घर के काम-काज में देर-सबेर हो जाती है, ये तो सरकारी काम-काज है। लेकिन नहीं, मार गाली-गलौज किये जा रहे थे। परदेश का मामला है, कहीं कोई लड़ाई-झगड़ा कर बैठे तो और जी का आफ़त। लेकिन हम कह रहे हैं, तो कैसे सुन लेंगे कोई बात।”
अब-तक चुप बैठा वासुदेव फिर भड़क उठा, तमतमाते हुए बोला, “ऐसा है, ठीक से जानो-सुनो तुम, हमें अब भी बिलकुल विश्वास नहीं है। वो मक्कार अपनी मक्कारी, धोखेबाज़ी से बाज़ आ ही नहीं सकता, इसके पीछे ज़रूर कोई न कोई चाल है, समझी। उसके असली चेहरे की तरह, जल्दी ही उसकी यह चाल भी सामने न आ जाए तो कहना।
और हमको ज्ञान देने से पहले, ये अपनी मटकी बंद करके दूध पिलाना सीखो पहले। दस साल से कह रहा हूँ, लेकिन समझ नहीं आ रहा है। किसी औरत को आज-तक देखा है बच्चे को ऐसे दूध पिलाते हुए, घर हो बाहर, सड़क हो बस, जहाँ देखो मटकी की प्रदर्शनी लगाए बैठी हैं, आओ, मुफ़्त (मुफ्त) में देखो प्रदर्शनी। हँ . . .अ . . . हमको ज्ञान दे रही हैं।”
दया को अंदाज़ा नहीं था कि वह बच्ची को दूध पिलाने के ढंग को लेकर इतना ग़ुस्से से भरा बैठा है। और बहाना ढूँढ़ रहा था उस पर बरसने के लिए। वह कहना तो चाहती थी कि तुम लोग देखते ही काहे हो कि हम छिपाते फिरें। दुनिया में मटकी देखते, खंगालते फिरते होगे, तभी ख़ुद पर आई तो बौखलाए बिदक रहे हो। लेकिन वह चुप रही और बच्ची को आँचल में ढँक लिया, कुछ ऐसे कि कुछ न दिखे, ख़ासतौर से . . . तभी बेटे ने पूछा, “अम्मा घर कब पहुँचेंगे?” तो उसने कहा, “जल्दिये पहुँचेंगे बेटा।”
उसकी आवाज़ में घर पहुँचने की आशा, विश्वास दोनों झलक रहे थे, लेकिन उन्हें नहीं मालूम था कि अभी तो पहाड़ सी समस्याएँ उनकी प्रतीक्षा कर रही हैं। वह जिस शासन-प्रशासन को धन्यवाद दे रहे हैं, प्रशंसा कर रहे हैं, जल्दी ही उनके मुँह से इनके लिए गालियाँ निकलेंगी, अच्छी भावना बदल जाएगी।
क्योंकि प्रदेश सरकार ने उन्हें घर तक पहुँचाने के लिए नहीं, बल्कि उनसे मुक्ति पाने के लिए षड्यंत्र के तहत यह बसें भेजी हैं। जो उन्हें ऐसे अधर में छोड़ने वाली हैं, जहाँ उनसे न जीते बनेगा न ही मरते। ज़िन्दगी का वो नर्क देखने-भोगने वाले हैं, जिसके बारे में उन्होंने न कभी सोचा होगा, न सुना होगा, न देखा होगा।
कोविड-१९ के सारे प्रोटोकॉल की धज्जियाँ उड़ातीं, लोगों को ठूँस-ठूंस कर बैठाए हुए बसें, फर्राटा भरती जो चलीं, तो सुबह नौ बजते-बजते दिल्ली बॉर्डर से उत्तर-प्रदेश बॉर्डर में प्रवेश कर चार-पाँच किलोमीटर आगे जाकर रुक गईं। और सबको तुरंत ही जल्दी-जल्दी उतर जाने के लिए कहा।
असमंजस उहा-पोह में डूबे लोग जब-तक कुछ समझते तब-तक बसें उन्हें उतार कर वापस दिल्ली की ओर ऐसे भागीं, जैसे कोई उनका पीछा कर रहा हो। लोग सड़क पर अब-तक काफ़ी तेज हो चुकी धूप में, ठगे से उनको आँखों से ओझल होते हुए देखते रह गए।
किसी को कुछ देर समझ में ही नहीं आया कि हुआ क्या, जब समझ में आया कि उनके साथ धोखा हुआ है, तो उन सब ने अपना सिर पीट लिया। रात-भर के सब थके-हारे, नींद से बोझिल होती आँखें, क्षण प्रति क्षण तेज होती जा रही धूप में सब बिलबिलाने लगे हैं। कहीं भी दूर-दूर तक छाया नाम की चीज़ नहीं है।
है तो धूप में चमकती, दूर तक चली जा रही सड़कें, हर तरफ़ धूल-मिट्टी, और लोगों की तरह-तरह की बातें ही बातें, भूख-प्यास से बच्चों का रोना-चिल्लाना इसके अलावा और कुछ नहीं।
जैसे दिल्ली में ब्रिज के नीचे वासुदेव को हर तरफ़ भीड़ ही भीड़ दिख रही थी, वैसे ही यहाँ भी हर तरफ़ लोग ही लोग हैं। घंटों बीत गए लेकिन शासन-प्रशासन का एक भी आदमी नहीं दिखा। बच्चों का रोना, चीखना-चिल्लाना धूप की तरह बढ़ता ही जा रहा है।
महिलाएँ अपने बच्चों की तकलीफ़ देख-देख कर रो पड़ रही हैं। कुछ मर्दों की भी आँखों से आँसू निकल-निकल आ रहे हैं। मगर वहाँ कौन है, जो उन्हें, उनकी हृदय बींध देने वाली पीड़ा को देखता, समझता, महसूस करता।
सूर्य-देव भी मानो उनके साथ हुए इस पाशविक अत्याचार से क्रुद्ध होकर अपना रौद्र रूप दिखाने पर तुले हुए हैं। जिससे अंततः धोखा खाए, अपने घरों को लौटने को आतुर ग़रीब ही झुलस रहे हैं। मार चाहे जैसी भी हो, शिकार आख़िर ग़रीब ही होता है, और वहाँ लगा लोगों का यह हुजूम शिकार बन गया है, उस मक्कार का जिस पर उन्होंने आँख मूँद कर भरोसा किया था।
यह सभी अपने भरसक हर कोशिश करने लगे कि कैसे भी हो आगे बढ़ें, और कम से कम पानी की कुछ तो व्यवस्था हो। सभी अपने-अपने सारे साथियों, रिश्तेदारों को फोन करके कुछ व्यवस्था करने की विनती कर रहे हैं।
मगर कोरोना का भय इतना कि सबको बस आश्वासन ही आश्वासन, बातें-ही बातें सुनने को मिल रही हैं। इन्हीं बातों में निकल कर आया कि मीडिया वालों को फोन करो, सारी स्थिति को बताते हुए, पूरी भीड़ का वीडियो बनाकर व्हाट्सएप पर डालो। सबके सामने समस्या मोबाइल की बैटरी ख़त्म होने की भी आ रही है।