Satya ke Liye - 1 in Hindi Fiction Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | सत्या के लिए - भाग 1

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सत्या के लिए - भाग 1

भाग -1

प्रदीप श्रीवास्तव

वह उस बार में रोज़ ही देर शाम को बैठ कर घंटे भर तक व्हिस्की पीती है, जो शहर का एक ठीक-ठाक बार कहा जाता है। जगह ज़्यादा बड़ी होने के कारण शान्ति से देर तक बैठ कर पीने वालों का वह पसंदीदा बार है।

वह बाहर से लेकर भीतर तक सिंपलीसिटी इज़ द बेस्ट ब्यूटी के सिद्धांत पर बना लगता है। उसकी सभी दीवारें सुपर व्हाइट कलर की हैं।

सभी फ़र्नीचर स्टील के हैं। बार-टेंडर से लेकर सारा स्टाफ़ सफ़ेद रंग की ही ड्रेस में रहता है। शराब से लेकर खाने-पीने की हर चीज़ बड़ी सादगी से परोसी जाती है।

उसके सेकेण्ड फ़्लोर पर केवल जोड़ों में आए लोग ही बैठ कर पी सकते हैं। वहाँ का सारा स्टाफ़ लेडीज़ है। क्योंकि मैं और वह दोनों ही वहाँ अकेले ही बैठ कर पीते हैं, इसलिए हमारी जगह नीचे ही होती है।

पूरे समय वहाँ पर बहुत धीमा संगीत बजता रहता है। दीवारों पर हॉलीवुड या बॉलीवुड की नायिकाओं की नहीं, बल्कि अमेरिका की एक विख्यात पत्रिका में छपने वाली मॉडलों की क्लासिक न्यूड ए थ्री साइज़ की ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरें हर तरफ़ लगी हुई हैं।

सबसे बड़ी बात यह कि शहर के अन्य बार कि अपेक्षा वहाँ चार्जेज बहुत कम हैं। इसलिए भी वह रोज़ पीने वालों की पसंदीदा जगह है।

रोज़ पहुँचने वाली वह क़रीब पैंतीस वर्षीय हृष्ट-पुष्ट शरीर की महिला है। वह हमेशा नीले रंग की जींस और उस पर ढीली-ढाली डेनिम शर्ट पहन कर आती है। उसके बाल कंधे से नीचे ब्रेज़री स्ट्रिप तक कटे हुए हैं। जिसे वह बड़ी लापरवाही से मोड़-माड़ कर क्लच लगा देती है या कभी-कभी रबड़ बैंड।

उसके चेहरे पर हमेशा ग़ुस्से और चिंता की लकीरें ही दिखाई देती हैं। वह एकदम पीछे कोने की टेबल पर ही जाती है। वह किस वजह से रोज़ ही पी रही है, यह तो मुझे नहीं पता लेकिन कुछ न कुछ गंभीर परेशानी उसके साथ ज़रूर है, यह निश्चित है।

मैं भी रोज़ पहुँचता हूँ। मैं कोई ऐसा पियक्कड़ नहीं हूँ कि रोज़ बिना पिए नहीं रह सकता। लेकिन जब साल भर पहले पत्नी बच्चों को लेकर अलग रहने लगी, तो बिना पिए मैं रात को सो नहीं सकता, इसलिए शाम यहीं बीतने लगी है।

पत्नी इसलिए छोड़ कर चली गई, क्योंकि वह यह बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी कि मैं बाहर अन्य औरतों से भी सम्बन्ध रखूँ। मैं बार-बार उससे कहता था कि ‘समझने की कोशिश करो, मैं किसी को न तो घर ला रहा हूँ, और न ही किसी से शादी करने जा रहा हूँ, न ही तुम्हारे हिस्से का टाइम, पैसा उन औरतों पर ख़र्च करता हूँ। यार थोड़ा सा मूड फ़्रेश हो जाता है, दुनिया भर के तनाव से थोड़ी मुक्ति मिल जाती है।’

लेकिन मेरी हर बात, तर्क का वह एक ही उत्तर देती थी कि ‘तुम्हारा यह तनाव क्या मेरे साथ नहीं ख़त्म हो पाता? क्या मैं तुम्हारा तनाव दूर नहीं कर पाती, जो तुम इधर-उधर मुँह मारते फिरते-रहते हो।’

वह बड़े गंदे-गंदे शब्दों का प्रयोग करती। लेकिन मैं उसकी किसी भी बात का बुरा नहीं मानता था। उसकी कठोर से कठोर बात को हँस कर टाल दिया करता था। क्योंकि अंततः सच तो यही है कि कई औरतों से सम्बन्ध मेरे ही थे। वह चली गई लेकिन फिर भी यह सारे सम्बन्ध बने हुए हैं।

लेकिन यह सारे सम्बन्ध ऐसे नहीं हैं कि मेरी घर गृहस्थी को डिस्टर्ब कर सकें, मतलब कि मेरी पत्नी का स्थान ले सकें। लेकिन बार-बार इतना सब-कुछ समझाने के बावजूद, मेरे लिए अब भी हर पल स्मरणीय पत्नी महोदया किसी भी स्थिति में मेरी बात समझने को तैयार नहीं हुईं, अब भी नहीं है।

दोनों बेटों को लेकर अलग रह रही है। अपने मायके भी नहीं गई। नौकरी करती है, इसलिए उसे रुपए पैसों के लिए किसी के सहारे की ज़रूरत नहीं है। उसे मैं घमंडी कहता, तो वह कहती मैं स्वाभिमानी हूँ, घमंडी नहीं।

मेरा पूरा विश्वास है कि यदि वह नौकरी नहीं कर रही होती, तो मुझे इस तरह छोड़ कर कभी नहीं जाती। लड़ती-भिड़ती सब-कुछ करती, कुछ भी, लेकिन मेरे साथ ही रहती। मेरा परिवार इस तरह बिखरता नहीं।

पत्नी बच्चे होते हुए भी, अपने बड़े से घर में दीवारों से बाते नहीं कर रहा होता। उसकी नौकरी और दूसरी औरतों से मेरे सम्बन्ध बस यही दो मुख्य कारण हैं मेरे परिवार के बिखरने के। वास्तव में उसकी नौकरी आंशिक कारण ही कही जाएगी।

कारण जानने के बावजूद मैं अपनी लत से मजबूर हूँ। न ही मैं अनन्य सुंदरियों को छोड़ पा रहा हूँ, न ही वो मुझे। पता नहीं कामदेव का प्रकोप मुझ पर से कब समाप्त होगा, और वह अनन्य सुंदरियाँ देवी रति के प्रकोप से मुक्त होगी।

इसीलिए मित्रों से कहता हूँ कि भले ही नशा कर लेना, लेकिन किसी चीज़ की लत नहीं लगने देना। यह लत ही तो है कि यह डेनिम वुमेन मेरी तरह रोज़ बार में आकर पीती है। लेकिन यह कैसे लती बनी, किन कारणों से इस तरह से पीती है, यह जानने की मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी, हर दिन। एक कारण यह भी हो सकता है कि जाने-अनजाने वह मुझे आकर्षित करने लगी थी।

जिस क्षण मुझे इस बात का अहसास हुआ, मैंने मन ही मन कहा, “हे कामदेव महाराज मुझ पर ही यह अतिशय कृपा क्यों? इस मृत्यु-लोक में मुझे रहने लायक़ छोड़ेंगे कि नहीं।”

मेरा मन उससे बात करने के लिए व्याकुल हो रहा था। एक दिन मैं बार के बाहर तब-तक उसका इंतज़ार करता रहा, जब-तक वह आकर अंदर अपनी जगह बैठ नहीं गई।

उस समय उसकी आस-पास की टेबल पर और कोई नहीं था। छह-सात लोग आगे बैठे हुए थे। लेकिन मैं सीधे उसके पास पहुँचा और बहुत ही शालीनता से उसके सामने वाली चेयर की तरफ़ इशारा करते हुए पूछा, “क्या मैं यहाँ बैठ सकता हूँ?”

वह नज़रें झुकाए अभी तक मोबाइल में कुछ देख रही थी। मेरी आवाज़ सुनते ही उसने चेहरा ऊपर किया, कुछ क्षण मुझे देखा, फिर बोली, “जैसी आपकी इच्छा, मुझे आपत्ति क्यों होगी?”

मैं उसे धन्यवाद कहता हुआ बैठ गया। मन में ख़ुश हुआ कि मैं इसकी तरफ़ पहला क़दम ठीक-ठीक बढ़ा पाया। लेकिन वह अपने मोबाइल में ऐसे व्यस्त हो गई, जैसे मैं वहाँ पर हूँ ही नहीं। इसी बीच वेटर आ गया, उसने रोस्टेड चिकन का ऑर्डर किया एक ठीक-ठाक ब्रांड की व्हिस्की के साथ।

मैंने भी अपने ब्रांड की व्हिस्की, सीख कबाब का ऑर्डर दिया। मैं उससे बातचीत शुरू करने का अवसर ढूँढ़ रहा था, लेकिन वह बिल्कुल भी अवसर नहीं दे रही थी।

रोज़ की तरह व्हिस्की पीने लगी, लेकिन चिकेन को हाथ ही नहीं लगाया। तभी मेरा ध्यान गया कि उसने रोज़ की तरह सिगरेट नहीं निकाली है। मैंने सोचा कि यह एक अच्छा अवसर है कि मैं इसे सिगरेट ऑफ़र करूँ। बातचीत करने का बेस यही तैयार करेगा।

मैंने सिगरेट, लाइटर निकाला और पूरी विनम्रता के साथ उसे ऑफ़र किया, लेकिन उसने नज़र उठा कर देखे बिना ही मुझसे कहा, “जी नहीं, धन्यवाद।”

लेकिन बात आगे बढ़ाने का सूत्र मैंने पकड़ लिया था। मैंने कहा, “मैं आपको रोज़ ही यहाँ पर देखता हूँ। क्या हम एक दूसरे से परिचित होते हुए व्हिस्की एन्जॉय कर सकते हैं।” उसने बहुत ही बेरुख़ी दिखाते हुए कहा, “आप मुझे डिस्टर्ब कर रहे हैं।”

यह सुनकर मैं थोड़ा निराश हुआ। सॉरी बोल कर चुपचाप पीने लगा। रोज़ की तरह सींख कबाब आज भी बहुत शानदार बना था। दिन में किसी वजह से मैं लंच नहीं कर सका था, इसलिए मुझे भूख लगी हुई थी। गरम-गरम कबाब मैंने जल्दी-जल्दी खा लिए।

मैं बहुत टाइम लेकर पीता हूँ, जब मेरा पहला पैग ख़त्म हुआ तब-तक वह तीसरा भी आधा पी चुकी थी। मगर चिकन को उसने अभी हाथ भी नहीं लगाया था। मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्या हुआ है। रोज़ तो यह जल्दी-जल्दी खा लेती है और फिर धीरे-धीरे व्हिस्की और सिगरेट पीती रहती है।

मेरा ध्यान इस तरफ़ भी गया कि आज उसके चेहरे पर चिंता की रेखाएँ, ग़ुस्सा ज़्यादा है। मैंने सोचा कि इससे बात करने का प्रयास करने का, आज उचित अवसर नहीं है।

लेकिन मैंने यह तय कर लिया कि आज मैं तभी उठूँगा, जब यह यहाँ से उठेगी। घंटे भर के बाद जब वह उठी तो उसके पाँव लड़खड़ा रहे थे। मैंने सोचा यह अपनी स्कूटर कैसे ड्राइव करेगी। लेकिन यह उसका रोज़ का काम था।

मगर अत्यधिक नशे में भी वह अपने होश क़ायम रखती थी। जिस दिन उसको लगता कि वह स्कूटर ड्राइव नहीं कर पाएगी, उस दिन वह स्कूटर बार में ही छोड़ कर कैब बुक करके चली जाती थी।

इसके लिए उसने संभवतः बार के मैनेजर से पहले ही बात कर रखी थी। आज भी वह कैब बुलाकर घर चली गई।

मैं बड़ी देर रात तक उसके बारे में सोचता रहा कि आख़िर यह एक महिला होते हुए रोज़-रोज़ बार में पीने कैसे चली आ रही है। माना पश्चिमी सभ्यता के पीछे हम भारतीय बेतहाशा भाग रहे हैं, लेकिन इसके बावजूद ऐसी स्थिति अभी नहीं आई है कि कोई लेडी इस तरह रोज़ ड्रिंक करे, वह भी किसी बार में, अकेले ही। क्या इसके परिवार में और कोई नहीं है या फिर इसका परिवार किसी और शहर में रहता है।

न जाने क्यों उसके बारे में सब-कुछ जान लेने की मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी। कई प्रयासों के बाद अंततः एक दिन वह मेरे साथ पीने के लिए तैयार हो गई। उस दिन मैंने बात-चीत में यह जाना कि वह एक अच्छी नौकरी करती है, साथ ही योग टीचर भी है। यह सुनकर मुझे आश्चर्य हुआ कि योग टीचर होकर, योग की अच्छी जानकारी रखते हुए भी, यह इस तरह शराब और नॉन-वेज खाती है, वह भी रोज़।

जबकि देश में हिन्दू समुदाय में सामान्यतः जेंट्स लोग भी मंगल, बृहस्पति और शनिवार को नॉन-वेज नहीं लेते। उस दिन उसके बारे में जानने से पहले मैंने उसे अपने बारे में बहुत कुछ बता दिया, यह भी बता दिया कि अकेले ही रहता हूँ। यह कहते हुए मैंने उसके चेहरे के भावों को पढ़ने का विशेष रूप से प्रयास किया था। लेकिन कुछ समझ नहीं पाया। वह मेरी समझ से भी ज़्यादा ठीक, और होशियार थी।

तीन पैग हो जाने के बाद वह बात-चीत में ज़्यादा खुलने लगी। उसे फ़ैशन इंडस्ट्री, फ़ैशन के अलावा शेयर मार्केट के बारे में भी बहुत अच्छी जानकारी थी। नौकरी के अलावा वह शेयर-मार्केट से भी हर महीने अच्छी-ख़ासी कमाई कर रही थी। वह हफ़्ते में तीन दिन शेयर ट्रेडिंग का काम करती थी। कहीं मैंने यह समाचार पढ़ा था कि दो हज़ार बीस के बाद, दो वर्ष के भीतर देश में क़रीब छब्बीस लाख महिलाएँ शेयर मार्केट से जुड़ीं।

दूसरे दिन भी मैंने उसे अपने साथ खाने-पीने के लिए तैयार कर लिया। उस दिन वह पहले दिन से थोड़ा ज़्यादा सहज थी। उसके चेहरे पर ग़ुस्सा चिंता की जो लकीरें रहा करती थीं, वह मुझे कम दिखीं।

उस दिन पूरी बात-चीत के दौरान वह मुझसे मेरी पसंद ना-पसंद के बारे में ही बात करती रही। मैंने देखा कि उसे अन्य तमाम औरतों की तरह अपने शारीरिक सौंदर्य की प्रशंसा सुनने में कोई ख़ास रुचि नहीं थी।

बातचीत में वह बहुत फ्रैंक थी। मैंने उससे कहा कि “क्यों नहीं संडे को आप मेरे यहाँ आतीं, बार के बजाय घर पर खाने-पीने को एंजॉय किया जाए। थोड़ा चेंज भी तो होना चाहिए।”

लेकिन वह मेरी बात को बड़ी ख़ूबसूरती से टाल गई। क़रीब एक दर्जन बार साथ खाने-पीने के बाद मैंने उससे मोबाइल नंबर शेयर किया। अपना नंबर बताते समय उसे मैंने कुछ संकोच में देखा था। मैंने उससे यह भी पूछ लिया कि उसे किस समय कॉल करना ठीक रहेगा। उसने कहा, “जब मन आए कर लीजिएगा। समय रहने पर कॉल रिसीव कर लूँगी।”

नंबर लेने के तीन-चार दिन बाद मैंने एक दिन लंच टाइम में उसे फोन किया, लेकिन उसने कॉल रिसीव नहीं की। मुझे बुरा लगा कि जब कॉल रिसीव ही नहीं करनी थी तो नंबर लेने-देने का मतलब क्या है?

उस दिन शाम को जब मैं बार पहुँचा तो वह भी क़रीब-क़रीब उसी समय पहुँची थी। मुझे देखते ही बोली, “सॉरी मैं आपकी कॉल रिसीव नहीं कर पाई, मैं उस समय बहुत बिज़ी थी।”

मैंने कहा, “कोई बात नहीं।” मुझे लगा कि वह रोज़ की अपेक्षा आज कुछ ज़्यादा ही तनाव में है। मैंने अपनी और उसकी पसंद की व्हिस्की और सीख कबाब मँगवाया। उसने व्हिस्की को इस तरह पीना शुरू किया जैसे कि उस पर अपना ग़ुस्सा उतार रही हो। देखते-देखते उसने चार पैग ख़त्म कर दिए। और एक प्लेट कबाब भी।

मेरे अभी तक दो पैग भी ख़त्म नहीं हुए थे। मन में ही सोचने लगा कि आज यह फिर स्कूटर यहीं छोड़ कर जाएगी।

मैं नहीं चाहता था कि वह और ज़्यादा पिए, लेकिन वह ऑर्डर पर ऑर्डर देती चली गई। जब छह पैग हो गए तो मैंने कहा, “अब काफ़ी हो गया है। अभी घर भी चलना है।”

तो उसने कहा, “इतनी जल्दी भी क्या है? दस भी तो नहीं बजे हैं।” उसकी ज़बान बहुत ज़्यादा लड़खड़ा रही थी। कुर्सी पर बैठे-बैठे वह इधर-उधर हिल रही थी।

मेरे बार-बार मना करने के बावजूद उसने दो पैग और पी लिए। इसके बाद मैंने वेटर को मना कर दिया, तो वह नाराज़ होने लगी, लड़खड़ाती आवाज़ में जो कुछ भी बोल रही थी, वह समझ में नहीं आ रहा था। उसकी आँखें झुकी जा रही थीं।

इसी बीच उसने अचानक ही मेरा गिलास उठा कर, जो आधा पैग था, उसे एक झटके में पी लिया। इसके साथ ही उसके हाथ से गिलास छूट कर नीचे गिर गया। वह एकदम से बाईं तरफ़ लुढ़क गई। उधर यदि दीवार न होती तो वह ज़मीन पर गिर जाती। मैंने उसे सँभाला, सीधा किया। लेकिन अब-तक उसकी आँखें बंद हो चुकी थीं। वह बिल्कुल भी होशो-हवास में नहीं थी।

मैंने स्टाफ़ से बात करके पानी से कई बार उसका मुँह धोया कि वह कुछ तो होश में आ जाए, लेकिन उसे बिलकुल भी होश में नहीं आया। मैंने सोचा यह रोज़ ही पीने वाली है, हैविचुवल है, केवल सात-आठ पैग से ही इतनी गहरी बेहोशी नहीं आनी चाहिए।

तभी बात-चीत में वेटर ने बताया कि मैडम जब आईं तभी उन्होंने पी रखी थी। मुझे चिंता हुई कि यह अब घर कैसे जाएँगी। मुझे उसके घर के बारे में कुछ भी पता नहीं था कि मैं अपनी गाड़ी से उसे छोड़ देता। मैंने मैनेजर से बात की, कि क्या उसे कुछ आईडिया है। तो उसने इंकार कर दिया।

लेकिन यह भी कहा कि गाड़ी में इनका कोई आई कार्ड या ड्राइविंग लाइसेंस तो होगा ही, उससे इनका एड्रेस मालूम हो सकता है। गाड़ी चेक करने से पहले मैंने सोचा कि इनका मोबाइल चेक करूँ, जिन नम्बरों पर इन्होंने कॉल कि हो, उन पर कॉल करने पर कुछ पता चल जाएगा।

लेकिन मोबाइल भी साइलेंट मोड में गाड़ी में ही मिला। उसे पासवर्ड देकर लॉक किया हुआ था। आख़िर मैं उसे अपनी गाड़ी से लेकर चला। एड्रेस कार्ड से मिल गया था। मुश्किल से चार किलोमीटर चला होऊँगा कि मुझे गाड़ी में भयानक बदबू महसूस हुई। जिस आशंका के साथ मैं गाड़ी रोक कर नीचे उतरा, वह सही निकली।

मैंने उसे पीछे सीट पर लिटाया हुआ था। सीट से लेकर नीचे लेग स्पेस तक का काफ़ी हिस्सा भीगा हुआ था। मैं बुदबुदाया बड़ी मुश्किल है। अब क्या करूँ। मैं गाड़ी के शीशे खोल कर, नाक पर रुमाल बाँध कर, उसके एड्रेस पर पहुँचा। वह बार से क़रीब दस किलोमीटर दूर एक नई-नई बन रही सोसाइटी की कॉलोनी थी। गूगल मैप के ज़रिए एड्रेस ढूँढ़ने में ज़्यादा दिक़्क़त नहीं आई।

क़रीब बीस गुणे पचास का मकान सेमी फ़िनिश्ड लग रहा था। दीवार का प्लास्टर भी अधूरा पड़ा था। कॉलोनी में आधे से ज़्यादा मकान अधूरे बने पड़े थे। दो-दो, चार-चार मकान छोड़कर लोग रह रहे थे। उसके बैग से चाबी निकालकर मैंने गेट खोला। फिर कमरे का दरवाज़ा खोला, जो उसका ड्राइंग-रूम कम बेड-रूम लग रहा था।

अब मेरे सामने समस्या यह थी कि उसके घर के आस-पास एक भी आदमी नहीं दिख रहा था। रात्रि के ग्यारह बजने वाले थे। बार पर तो वहाँ के स्टॉफ़ ने मिलकर उसे गाड़ी की पिछली सीट पर लिटा दिया था।

यहाँ मैं अकेले कैसे उतारूँ? पास-पड़ोस के लोगों को जगाना भी नहीं चाहता था। क्योंकि मैं भी नशे में था। दोनों को नशे में देखकर लोग न जाने क्या-क्या तमाशा खड़ा कर सकते हैं। अंततः मैं गाड़ी को पोर्च में ले आया।

बहुत ही मुश्किल से मैं उसे खींच-खाँच कर गाड़ी से बाहर निकाल पाया। और उसी तरह खींचते हुए अंदर ले आया। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि अब मैं क्या करूँ। इस हालत में इसे न तो बेड पर लिटा सकता हूँ, न ही ज़मीन पर छोड़ कर जा सकता हूँ। कहीं कुछ होश आने पर उठी, गिर गई तो जान-लेवा चोट भी लग सकती है।

अब-तक भयानक बदबू के चलते मेरा सारा नशा उतर चुका था। मैंने बाथरूम में अपनी रुमाल भिगोकर फिर नाक पर बाँध ली।

एक बार सोचा कि इसे कमरे में बंद करके बाहर गाड़ी में रात बिताऊँ, जब इसे होश आ जाए तभी घर जाऊँ। सवेरे से पहले तो यह होश में आने वाली नहीं।

लेकिन तभी याद आया कि गाड़ी की सीट तो इतनी ज़्यादा गंदी है कि कमरे से ज़्यादा बदबू तो वहीं पर है। पूरी सीट भीगी हुई है। बदबू कमरे में रुकने नहीं देगी, और गाड़ी तो बिना धुले चलाने लायक़ भी नहीं है।

इन सब से ज़्यादा मुझे चिंता यह हो रही थी कि कहीं होश में आने पर यह कोई विवाद न पैदा कर दे कि मैं इस तरह घर कैसे आ गया। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूँ। स्थितियाँ मुझे वहाँ से निकलने नहीं दे रही थीं, और भयानक बदबू वहाँ ठहरने नहीं दे रही थी।

आख़िर मैं गेट से बाहर निकल गया। इधर-उधर टहलने लगा। तभी चौकीदार मुझे देखता हुआ आगे निकला और थोड़ा ही आगे जाकर पहले दो बार सीटी बजाई, फिर पलट कर मुझे ऐसे देखा जैसे कि पहचानने, कुछ जानने-समझने की कोशिश कर रहा हो, और फिर धीरे-धीरे आगे चल दिया।

मैंने सोचा यह चौकीदार है, कॉलोनी में मुझ अनजान को इस तरह टहलता हुआ देखकर कहीं लोगों को इकट्ठा न कर ले। मैं चुपचाप अंदर चला आया। मगर अंदर तो हालत और भी ज़्यादा ख़राब हो चुकी थी। उसने एक बार फिर से कपड़े और गंदे कर दिए थे। उसकी कमर के इर्द-गिर्द गंदगी का कुंड सा बन गया था।

अब मेरे सामने दो ही रास्ते थे कि मैं चुपचाप पोर्च में ही किसी तरह गाड़ी को साफ़ करूँ और इसे कमरे में बंद करके चला जाऊँ। मैंने देखा बाथरूम में पानी, पाइप सब-कुछ है। मगर जब ध्यान उसकी तरफ़ गया तो फिर उसकी चिंता हुई कि पता नहीं क्या कर बैठे? इस तरह छोड़ कर जाना ठीक नहीं होगा।

कोई भी घटना हुई तो मैं ही पकड़ा जाऊँगा, चौकीदार सब देख कर ही गया है। आख़िर मैंने उसे साफ़-सुथरा करके बेड पर लिटा देना ही उचित समझा। सोचा होश में आने पर यह जब अपनी हालत के बारे में जानेगी-समझेगी तो मुझे धन्यवाद भले ही नहीं कहेगी तो कम से कम नाराज़ भी नहीं होगी, यदि होगी तो देखा जाएगा। इसकी जान को सुरक्षित करना ज़्यादा ज़रूरी है।

सबसे पहले मैंने सटे हुए दूसरे कमरे में जाकर उसके लिए दो कपड़े निकाले। पूरा घर अस्त-व्यस्त था। अंदर भी एक बेड पड़ा था। जिस पर कपड़ों का ढेर था। दो अलमारी भी थीं, दोनों बंद थीं।

बहुत ही मुश्किल से उसे साफ़ करके, उसके कपड़े चेंज किए और बेड पर लिटा दिया। इस दौरान वह दो एक बार थोड़ा सा होश में आती दिखी।

उसे लिटाने के बाद मैंने पूरा कमरा धो डाला। कार में से फ्रेशनर लाकर लगाया। अब-तक मैं बहुत ज़्यादा थक चुका था। मुझे नींद भी आ रही थी। लेकिन सोऊँ या जागता रहूँ कुछ डिसाइड नहीं कर पा रहा था। सोने के लिए कोई जगह भी नहीं थी।

मैं फिर भीतर वाले कमरे में गया और बेड पर से ढूँढ़ कर दो चादरें उठा लाया, और सोफ़े पर ही लेट गया यह सोचते हुए कि अभी पूरी रात पड़ी है और यह देर सुबह से पहले उठने वाली नहीं।

लेटते ही मुझे नींद आने लगी, मेरी कोशिश थी कि जागता रहूँ लेकिन अंततः कुछ ही देर में सो गया। सुबह के क़रीब नौ बजे होंगे, तभी मुझे लगा कि जैसे कोई मुझे हिला-हिला कर मेरा नाम ले रहा है। मैंने आँखें खोलीं तो सामने वही खड़ी थी।