Syah Ujale ke Dhaval Pret - 1 in Hindi Horror Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | स्याह उजाले के धवल प्रेत - भाग 1

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स्याह उजाले के धवल प्रेत - भाग 1

भाग -1

प्रदीप श्रीवास्तव

पोस्ट-ग्रेजुएट राज-मिस्त्री वासुदेव को समाचार शब्द से ही घृणा है। वह टीवी, रेडियो, अख़बार कहीं भी समाचार देख सुन नहीं सकता, नाम लेते ही आग-बबूला हो जाता है। कहता है, “यह सब समाचार कम बताते हैं, बात का बतंगड़ बना कर तमाशा-ही-तमाशा करते हैं, नेताओं की तरह लोगों को भरमाते हैं, लड़ाते हैं, आग लगाते हैं, गुंडे-बदमाशों, माफ़ियाओं को दिखा-दिखा कर उन्हें हीरो बना देते हैं, अपनी दुकान चलाते हैं।”

उसके उलट उसकी ग्रेजुएट पत्नी दया को समाचार देखना बहुत पसंद है। उसे समाचार चैनलों पर होने वाली डिबेट्स धारावाहिकों से भी ज़्यादा पसंद हैं, क्योंकि यह उसे ज़्यादा मनोरंजक लगती हैं। लेकिन घर में जब-तक वासुदेव रहता है, तब-तक वह यह सब कम ही देख पाती है। 

इनके तीन बेटे एक बेटी सहित चार संतानें हैं। अपने छह सदस्यीय परिवार के पालन-पोषण के लिए वासुदेव राज-मिस्त्री के काम के साथ-साथ छोटी-मोटी दलाली भी कर लेता है। बिहार के ‘सिताब-दियारा’ गाँव से पाँच-छह साल पहले दिल्ली आया था। 

उसकी राजनीतिक समझ-बूझ बड़ी अच्छी और स्वभाव बड़ा आक्रामक है। बातचीत के समय बड़े गर्व, ताव से कहता है कि “मैं देश में आपात-काल थोपने वाली इंदिरा गांधी की, अत्याचारी सत्ता को उखाड़ फेंकने वाले, स्वतंत्रता-सेनानी एवं सम्पूर्ण-क्रांति के जनक, लोक-नायक जे.पी. (जय प्रकाश नारायण) के गाँव ‘सिताब-दियारा’ का हूँ। उनके सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन में मेरे बाबू जी ने भी हिस्सा लिया था। 

“दो प्रदेशों उत्तर-प्रदेश और बिहार, और दो महान पवित्र नदियों गंगा और घाघरा के बीच बसा मेरा गाँव इन नेताओं की मक्कारी, झूठ, इनके भ्रष्टाचार के कारण ही आज़ादी के सत्तर साल बाद भी, वह विकास नहीं कर पाया जो महान जे.पी. की जन्म-भूमि होने के कारण होना चाहिए था। इसके लिए गुंडे-माफ़ियाओं को हीरो बनाने वाली, हीरो-हीरोइनों के कपड़े, हीरोइनों के बेबी-बम्प दिखाने की दीवानी मीडिया की उपेक्षा भी नेताओं जितनी ही ज़िम्मेदार है।”

गाँव, देश के समुचित विकास की बात शुरू होते ही वह बड़े क्रोध में कहता है कि “जिस महान जे.पी. ने अंग्रेज़ों द्वारा, अंग्रेज़ों के लिए बनाई गई, कतिपय भारतीय अंग्रेज़ों के नेतृत्व वाली, कांग्रेस पार्टी की तानाशाही को चुटकियों में धूल चटा कर, देश को सच में आज़ादी दिलाई, उस व्यक्ति के जन्म-स्थान की घोर उपेक्षा करने वाले नेता, मीडिया भला क्या इस देश का भला करेंगे। ये अपने फ़ायदे के लिए ज़रूरत पड़े तो देश भी बेच डालेंगे।” 

व्यवस्था से सदैव नाराज़ रहने वाले वासुदेव के एक बेटे, एक बेटी का जन्म दिल्ली में ही हुआ था। यहीं एक कॉलोनी में एक कमरे के मकान में गुजर-बसर कर रहा है। गाँव में खेती-बाड़ी कुछ ख़ास थी नहीं कि वह परिवार का जीवन-यापन गाँव में ही कर पाता। राज-मिस्त्री का काम बहुत अच्छा जानता है, इसलिए कभी ख़ाली नहीं रहता। गृहस्थी की गाड़ी खींच ले रहा है। 

उसका मन हमेशा यही सोचता, परेशान रहता है कि किसी तरह रहने भर का, एकाध कमरे का ठौर हो जाता, तो जो सारी कमाई मकान मालिक खींच लेता है, वह बच जाए। वह राशन-कार्ड भी नहीं बनवा पा रहा है कि सरकार द्वारा मिलने वाला सस्ता अनाज ही उसे मिल पाता। 

स्थानीय नेता पार्षद की जी-हुज़ूरी करते-करते सालों निकल गए, लेकिन वह हर बार उसे एक ही रटा-रटाया जवाब देता है, ‘अभी व्यस्त हूँ, फिर कभी आना, तब देखूँगा।’ नेता के कहने पर दिल्ली विधान-सभा चुनाव के समय सारा काम-धंधा छोड़कर झंडा, बैनर लिए, गोल टोपी लगाए, सारा-सारा दिन उसके पीछे-पीछे लगा रहा, पार्टी सत्ता में दोबारा आ भी गई, लेकिन वासुदेव की समस्या जहाँ की तहाँ बनी हुई है। जबकि नेताजी और मोटे हो गए हैं, महँगी एस.यू.वी. गाड़ियों का उनका क़ाफ़िला भी लम्बा हो गया है। 

उसके लम्बे क़ाफ़िले की ही तरह अपनी लम्बी होती समस्याओं से वह बार-बार व्याकुल हो उठता है। नेता को देखते ही भुनभुनाने लगता है कि ‘नौकरी न चाकरी, न कोई काम-धंधा, फिर भी न जाने कहाँ से इतना अकूत पैसा लूट के ले आता है।’ 

उसे देखते ही उसके झूठ-फ़रेब से उसका ख़ून खौल उठता है। विवशतावश चाह कर भी उससे दूरी नहीं बना पा रहा है। क्योंकि वह नेता नहीं वास्तव में नेता का चोला ओढ़े, सफ़ेद रेशमी खद्दर पहनने वाला हत्यारा, माफ़िया गुंडा है। इसलिए सामने पड़ने पर नमस्कार कर लेता है, तीसरे, चौथे उसके दरबार में हाज़िरी भी लगा आता है। 

ग़ुस्से से उसका ख़ून उबल पड़ता है, जब वह उस बहुरूपिए माफ़िया को अपने समुदाय का जायज़-नाजायज़ सारा काम आँख मूँदकर करते और दूसरे समुदाय के लोगों को केवल बेवक़ूफ़ बनाते, पैसा वसूलते, टालते देखता है। 

वह दाँत पीस-पीस कर रह जाता है, जब उसे खुले-आम महिलाओं का शोषण करते पाता है। काम के लिए आने वाली महिलाओं को अपमानजनक ढंग से छूते, बाँहों में भरते देखता है। तब उसका मन करता है कि एक तेज़ भारी बाँका ले आए और एक झटके में उस दोगले पापी की खोपड़ी काटकर, ज़ोर से उस पर एक ठोकर मार दे। 

जब सीए‌ए (सिटीज़न अमेंडमेंट एक्ट) पहले कई बार की तरह आया, तो उसे यह रँगा सियार एक और नए रंग में दिखा। मीडिया, दुनिया के सामने इस मुद्दे पर अपनी घोषित पार्टी लाइन की दोगली नीति पर चलता हुआ और दूसरी तरफ़ शाहीन बाग़ में विदेशी टुकड़ों पर मोटाते, अराजकता पैदा कर देश में आग लगाने को जी-जान से जुटे, आस्तीन के साँपों के तथा-कथित सीएए विरोधी आंदोलन को ताक़त देने में जुटा हुआ। 

वासुदेव भट्ठी में दहकते लोहे सा दहक उठता है, जब उसे खुले-आम यह कहते सुनता है, ’कौन सा देश, कैसा देश, इस सरकार को हम घुटनों पर ला देंगे। हर तरफ़ इतनी आग लगाएँगे कि उनको बुझाते-बुझाते ये थक जाएँगे, लेकिन बुझा नहीं पाएँगे।’

कैमरे के सामने खुले-आम अपने गुर्गों ग़ुलामों से कहता कि ’तुम लोग बस एक बात पूरी ताक़त से चलाओ फैलाओ कि यह हमारी क़ौम के ख़िलाफ़ है। हम पर यह बराबर ज़ुल्म करते आ रहे हैं। हमें तबाह करने, देश से बाहर करने की इनकी यह बहुत बड़ी साज़िश है। कोई कुछ भी बोले, कुछ भी कहे, कुछ भी पूछे लेकिन तुम-लोगों को बार-बार हर बार यही कहते रहना है बस, इसके अलावा और कुछ नहीं।’ 

यह सुनकर वासुदेव मन ही मन सुलगता हुआ कहता है, ‘तू जितना घिनौना, गंदा ऊपर से दिखता है, उससे हज़ार गुना ज़्यादा भीतर से भी है। तू और तेरी बेईमान पार्टी देश को लूट ही नहीं रहे हैं, देश को आग भी लगा रहे हैं। पता नहीं देश की सरकार तुझ जैसे गद्दारों के झुण्ड देख नहीं पा रही है, या देख कर भी अंधी बनी हुई है। लेकिन नहीं, असली ज़िम्मेदार तो वो लोग हैं, जिन्होंने कुछ सौ यूनिट बिजली, और पानी की मुफ़्त रेवड़ी के लोभ में अपना धर्म, स्वाभिमान, नैतिकता बेच कर मक्कारों को फिर बैठा दिया है सिंहासन पर। 

‘तुमको अफ़ग़ानिस्तान तक में नेस्तनाबूद कर दिया। जहाँ तुम्हारी हस्ती की निशानियाँ, तुम्हारे हज़ारों-हज़ार साल पुराने मंदिर, आज भी तुम्हारी जाहिलियत के अफ़साने कहते वीराने में खड़े हैं। काबुल में अपने ढाई हज़ार साल पुराने ‘आशा-माई’ मंदिर को दे लो भव्य रूप, है बाज़ुओं में दम। (काबुल, अफ़ग़ानिस्तान में क़रीब ढाई हज़ार वर्ष पुराना ‘आशा-माई’ मंदिर एक पहाड़ पर स्थित है। मंदिर के नाम पर ही पहाड़ का नाम ‘असामयी’ रखा गया है। अफ़ग़ानी हिंदू माँ दुर्गा को ही आशा की देवी के रूप में भी पूजते हैं। जो अब वहाँ गिनती के ही बचे हैं) अरे हम वो हैं, जिन्होंने फ़ारस को निगल कर ईरान बना दिया, दुनिया को कहीं ख़बर तक नहीं हुई। हस्ती तो तुम्हारी मिटने के रास्ते पर दौड़ रही है गधो।’ यह कहकर जानवरों की तरह मुँह फाड़-फाड़ कर हँसता। 

उसकी नसों का ख़ून पिघले शीशे सा तप उठता है, जब वह अपने भाड़े के टट्टुओं के साथ दारू पीते, बोटी नोचते हुए खींसें निपोरता और कहता, ‘यह गधे, पागल, तराना गाते नहीं थकते कि हस्ती मिटती नहीं हमारी . . . यह मूर्ख कितनी जल्दी भूल गए कि चुटकी बजा के तुम्हारा हिंदुस्तान तोड़ कर पाकिस्तान बना दिया।’ 

वह मन ही मन कुढ़ता है, कहता है, “क्या देश की सरकार नशे में है या कुम्भ-करण की नींद सो रही है, जो इस गद्दार और इसके जैसे ही दारू के नशे में गली-गली में घूम रहे गद्दारों के झुण्ड नहीं देख पा रही है। और बाक़ी लोगों को भी ये झुण्ड क्यों नहीं दिख रहे हैं। मुझ जैसे मिस्त्री को सब दिख रहे हैं, तो ये बड़े-बड़े, पढ़े-लिखे, समझदारों को क्यों नहीं दिख रहे हैं। 

‘ये साला हफ़्तों से काम पर नहीं जाने दे रहा है। रोज़ शाहीन बाग़ में दस-दस घंटे बैठा देता है, कि चलो चल कर वहाँ भीड़ बढ़ाओ, गोल टोपी अलग ज़बरदस्ती थमा देता है। कहता हूँ भाई रोज़ की दिहाड़ी मर रही है। तो मक्कार कहता है, ‘तुम परेशान न हो, हम तुम्हारा पूरा ख़्याल रख रहे हैं न।’ दो टाइम बड़े, छोटे, कुत्ते न जाने कौन-कौन से जानवरों की बिरयानी पकड़ा कर, साला बड़ा एहसान जताता है।” 

वह जब धरना-स्थल पर दस-बारह घंटे ज़बरदस्ती की ड्यूटी बजा कर वापस घर लौटता है, तो बहुत ग़ुस्सा होता है। उस माफ़िया रंगे नेता को बहुत ही गंदी-गंदी गालियाँ देता है। लौटते समय रोज़ जो एक बोतल शराब उसे दी जाती है, उसे कमरे में बक्से के पीछे छिपा कर रखते हुए बोलता है, “कमीना बिरयानी की तरह अँग्रेज़ी बोतल में पता नहीं कौन सी नक़ली शराब भरवा कर दे रहा है। बार-बार कहता हूँ कि मैं दारू नहीं पीता, मगर साले ज़बरदस्ती थमा देते हैं। इस नक़ली ज़हर को तो अपने खाने-पीने वाले दोस्तों को भी नहीं दूँगा। इसी के पियक्क्ड़ लगुओं-भगुओं को थमा दूँगा।”

इसके साथ ही वह देश की सरकार को फिर कोसता है कि “जब इनकी आँखों के सामने यह सब हो रहा है, तब फिर काहे को हाथ पर हाथ धरे बैठी है। गुंडों-दरिंदों, भाड़े के टट्टूओं, अर्बन नक्सलियों, ग़द्दारों के झुंड से वार्ता करके इनको काहे सिर पर चढ़ा रही है। 

“जो लोग आग लगाने की पहले से तय किए हुए बैठे हैं, आग लगाने के लिए ही यह सब कर रहे हैं, ऐसे गद्दारों से कैसी वार्ता? अरे बात-चीत तो देश को अपना मानने वाले इंसानों से की जाती है।” 

वह यहीं नहीं रुकता है, आगे कहता है, “ई जहाँ देखो वहीं घुसी रहने वाली न्याय-मूर्तियाँ बात करो, बात करो रटे जा रही हैं। अरे जब कोई तुमसे न्याय माँगने जाए, तब दो न्याय तो अच्छा भी लगे, ये कौन सी बात हुई कि न्याय माँगने वाला कोई नहीं और हम ज़बरदस्ती न्याय देने के लिए चढ़े जाएँ। 

“अरे वो गँवार खुले-आम देश को आग लगाने की बात कर रहे हैं, गाली दे रहे हैं, फिर भी पूरी दोगलई से बोलने की आज़ादी का रोना रो रहे हैं। छाती पीट रहे हैं कि हमें बोलने नहीं दिया जा रहा है। अरे गद्दारों से पहले पूछो कि बोलने को कौन कहे, सीधे आग लगा रहे हो, और धोखा दे रहे हो कि तुम्हें दबाया जा रहा है, ज़ुल्म ख़ुद कर रहे हो और दुनिया-भर में छाती पीट रहे हो कि हम पर ज़ुल्म किया जा रहा है। उन गद्दारों, उनके भाड़े के टट्टुओं के एक झुण्ड के लिए जिसको देखो वही उछल रहा है। 

“अरे दिल्ली की पाँच करोड़ जनता को भी सड़क पर चलने, बोलने की आज़ादी है। भाड़े के टट्टू सड़क जाम किए बैठे हैं। महीनों से जान-बूझकर ऐसी जगह बैठे हैं कि दिल्ली का रास्ता अस्त-व्यस्त हो जाए। सारा कारोबार चौपट हो जाए। 

“लोग ऑफ़िस, फ़ैक्ट्री काम-धंधे पर नहीं जा पा रहे हैं। सब चौपट हो रहा है। ग़रीबों के भूखों मरने की नौबत आ रही है। अरे तुम तो सबसे बड़े ताक़त वाले हो, न्याय देने वाले हो, ये कुछ सौ लोगों का झुण्ड पाँच करोड़ लोगों का जीवन नरक बनाए हुए है, इतना घनघोर अन्याय तुम्हें नहीं दिख रहा। 

“तुम तो तानाशाहों से भी बड़े ताक़तवर हो, क्यों नहीं पुलिस को, सरकार को आदेश देते कि वो देश को आग लगा रहे, पाँच करोड़ लोगों के साथ घोर अन्याय कर रहे इस झुण्ड को काल-कोठरी में झोंक दे, जिससे न्याय हो सके। तुम्हारी तो ज़बान हिलने भर की देर है, क्या से क्या नहीं हो सकता। 

“लेकिन ज़बान हिलेगी क्यों? तुम लोगों को क्या? तुम्हें तो हर चीज़ की सरकारी सुविधा है। राजाओं-महाराजाओं से ठाठ हैं। महीना पूरा होते ही वेतन मिलना ही मिलना है। और उन गुंडे बदमाशों के झुंड के पास भी, न जाने कहाँ-कहाँ से पैसा आता ही रहता है। कभी इसका भी संज्ञान ले लिया करें तो कितना अच्छा हो, देश का कितना भला हो सकता यह भी अच्छी तरह समझ ही सकते हैं। 

“न जाने कौन-कौन से तरह का कपड़ा पहने, अजीब-अजीब तरह की दाढ़ी बढ़ाए, न जाने कहाँ-कहाँ के उठाइगिरे, देश-द्रोही आकर ऐसे पैसा बहाते हैं, दलालों को देते हैं कि जैसे न जाने कितने बड़े देश के राजा हैं। साले चोरों की तरह मुँह छिपाते हुए आते हैं, दलालों गुर्गों को पैसा दे के, कानों में फुसफुसा के छछूंदरों की तरह घुस जाते हैं बिलों में। 

“नाक के नीचे देश की जड़ खोदी जा रही है, और इस सरकार के नाक, कान, मुँह में न जाने कौन सा कितना तेल भरा पड़ा है कि इसे कुछ पता ही नहीं चल रहा है, गद्दारों को समझाने, बतियाने में लगी है। दुनिया जानती है कि लातों के भूत, बातों से नहीं, लातों से ही मानते हैं, तो इनको लतियाओ, बतियाओ नहीं। जहाँ एक बार लतियाओगे तो इन गद्दारों की आंदोलन के नाम पर चल रही यह गद्दारी ठिकाने लग जाएगी। 

“गद्दारी ये करें, और मरें रोज़ कमाने खाने वाले। नहीं! ख़ाली दिहाड़ी वाले कहाँ, बड़ी-बड़ी कंपनियों में, मोटी-मोटी तनख़्वाह पाने वाले, बड़े-बड़े सेठ, दुकानदारों, की भी तो हालत ख़राब हो रही है। सारे रास्ते बंद हैं, लोग अपनी फ़ैक्ट्रियों, ऑफ़िसों, दुकानों को नहीं पहुँच पा रहे हैं। काम-काज ठप्प हैं, ताले पड़ते जा रहे हैं। मर कर्मचारी, नौकर ही नहीं, मालिक भी रहा है। फ़ैक्ट्रियाँ बंद पड़ी हैं, सब-कुछ चौपट हो रहा है।”

वासुदेव घर लौट कर स्वयं से ऐसे ही तब-तक बड़बड़ाता हुआ अपनी भड़ास निकालता रहता है, जब-तक कि उसकी पत्नी चाय-पानी दे कर यह न कहती, “लो चाय पियो और अपना दिमाग़ ठंडा रखो। अरे धरना आज नहीं तो कल ख़त्म हो ही जाएगा। भाड़े के टट्टुओं से अपनी यह धोखा-धड़ी की दुकान कितने दिन चला पाएँगे। मज़दूर कामगारों को टोपी पहना-पहना कर कब-तक दुनिया को धोखा देंगे।”

तब भी वह यह कहे बिना नहीं रहता है कि “अरे तब-तक तो हम जैसों की हालत ख़राब हो रही है। खाने-पीने के लाले पड़ रहे हैं। बच्चों के स्कूल बंद पड़े हैं। उनकी पढ़ाई-लिखाई बर्बाद हो रही है। और ये न सोचो कि ये जल्दी ख़त्म होने वाला है। उन सब की तैयारी बहुत लम्बी है। वह टोपी ही नहीं बुर्क़ा भी थोक में रखे हुए हैं। 

“जैसे हम-लोगों को टोपी पहनाते हैं, वैसे ही तमाम साड़ी वाली औरतों को बुर्क़ा भी पहना देते हैं। मगर मुश्किल तो यह है कि इतना पैसा भी नहीं है कि यह मकान छोड़कर कहीं और चलें, दलाल को सँभालें, नए मकान मालिक को सँभालें, क्या-क्या करें? कहाँ से लाएँ दोहरा-तिहरा ख़र्चा। चिंता तो अब दंगे को लेकर ज़्यादा हो रही है।”

“दंगा!” दया चौंकी। 

“हाँ, दंगा। जब इन गद्दारों ने देखा कि भाड़े के टट्टुओं से काम नहीं चल रहा है। इतनी अति कर दी है, आग मूत रहे हैं कि सरकार लाठी डंडा चलाए, गोली चलाए, दो-चार दर्ज़न मरें, तो छाती पीटें कि हाय हम पर जुलुम (ज़ुल्म) हो रहा है, पूरे देश में आग लगाएँ, दुनिया में देश की थू-थू कराएँ। 

“सबको बातें करते सुनता हूँ, सोशल-मीडिया पर लोग बराबर कह रहे हैं कि धरने-प्रदर्शन का यह देश-द्रोही कुटिल ड्रॉमा वाम-पंथियों, अर्बन-नक्सलियों, हर क्षण प्रधानमंत्री बनने के लिए फुदकते रहने वाले कांग्रेस के युवराज और राष्ट्रीय जोकर के दिमाग़ की उपज है। 

“इनकी इस उपज को क्रियान्वित करने वाला मास्टर-माइंड, देश-द्रोही संगठन पी.एफ़.आई. और उसके सहयोगी संगठन हैं। आंदोलन के नाम पर ये आग यह सब कई ज़िलों में फैला चुके हैं। और यहाँ दंगा कराने के लिए दूसरे प्रदेशों के तमाम ज़िलों से ख़ूनी दरिंदों, हत्यारों, नर-पिशाचों को इकट्ठा कर रहे हैं। 

“यहाँ जगह-जगह फैले उनके मददगार उन्हें अपने घरों में ठहराए हुए हैं। सोशल-मीडिया पर यह सब चल रहा है, दुनिया को दिख रहा है, लेकिन देश की सरकार इन गद्दारों की करतूत समझ के भी, इनकी कमीनगी को बर्दाश्त कर रही है, कुछ नहीं कर रही है यह मुझे, मुझ जैसे बाक़ी लोगों को समझ में नहीं आ रहा है। 

“मगर देश की सरकार की बर्दाश्त करने की इस घनघोर क्षमता से ये सब पागल कुत्तों की तरह बउरा गए हैं। इनकी हिम्मत, इनका दिमाग़ सातवें आसमान पर पहुँच गया है, तो अब सीधे दंगा करने की तैयारी में जुटे हैं। उन सब की जैसी तैयारी देख रहा हूँ, उससे तो लग रहा है कि ये जल्दी ही होने वाला है। इन सबकी बहुत बड़ी गहरी साज़िश चल रही है। 

“अंदाज़ा तुम इसी से लगा लो कि साले तख़्त, कुर्सियों पर औरतों को बैठा देते हैं। सामने की कुर्सियों पर सबसे बुज़ुर्ग, घर की खलिहर पंचायती औरतों को। जितनी औरतें होती हैं, उससे ज़्यादा गुंडे दरिंदे पीछे, आस-पास भले-मानुष का भेष धरे रँगे-सियारों की तरह खड़े या बैठे रहते हैं। इन सबके पास चाकू-छूरे, तमंचे, देसी बम सब का इंतज़ाम है। उनके हाथ खून-ख़राबे के लिए फड़क रहे हैं। वहीं पर दो-तीन ऐसी भी जगह बना रखी हैं, जहाँ यह सारे दिन खाते-पीते, अय्याशी करते रहते हैं।” 

यह सुनकर दया चकित होती हुई पूछती है, “अच्छा, लेकिन जब उन सबने दंगे की ही तैयारी कर रखी है तो फिर औरतों को काहे बैठा रखा है। और ये राष्ट्रीय जोकर कौन है?” 

दया वासुदेव की बातों पर विश्वास नहीं कर पा रही है। उसका यह संशय वासुदेव को चुभ गया। वह ग़ुस्साता हुआ बोला, “दिन-भर टीवी में घुसी रहती हो, और इतना भी समझ में नहीं आता कि दुनिया को धोखा देने की यह उनकी चाल है। 

“यह सब औरतें सिखा-पढ़ा कर बैठाई गई हैं कि अगर पुलिस कोई कार्यवाई करे, लोगों को हटाने की कोशिश करे, तो तुम-लोग बेतहाशा चीखने-चिल्लाने लगना कि हाय मार डाला। बूढ़ी औरतों को भी नहीं बख्शा, महिलाओं की इज़्ज़त पर हाथ डाला, कपड़े फाड़ डाले। और ख़ुद ही अपने कपड़े फाड़ भी लेंगी। 

“उनके चीखने-चिल्लाने, झूठे गंदे आरोपों से पुलिस कुछ देर को सकते में आ जाएगी, उसके हाथ थम जाएँगे। तभी चारों तरफ़ जो भाड़े के ख़ूनी हत्यारे गुंडे घेरे रहते हैं, वह पुलिस पर पहले से ही छुपाए गए हथियारों, ईंट-पत्थरों, छूरों, तमंचों से हमला कर देंगे। इससे बड़ी संख्या में पुलिस, निर्दोष अनजान लोग मारे जाएँगे। 

“यह औरतें भी इस हमले में पूरी तरह शामिल रहेंगी। लेकिन इसके उलट हंगामा यह मचाया जाएगा कि पुलिस ने शांति-पूर्ण ढंग से धरना पर बैठे लोगों पर बर्बर अत्याचार किया। बुज़ुर्ग, युवा महिलाओं, लड़कियों पर भी गोलियाँ चलाईं। उन्हें बचाने आए मर्दों पर लाठियाँ, गोलियाँ बरसाईं। 

“और तब यह जो टीवी, अख़बार वाले हैं न, यही सब दिन-भर चीख-चीख कर पूरी दुनिया सिर पर उठा लेंगे। हंगामा करने में सबसे बड़ा रोल निभाएँगे यहीं के कई विश्व-विद्यालयों, कॉलेजों में छात्र-संगठनों के नाम पर बने देश-द्रोही संगठन, टुकड़े-टुकड़े, कैंडिल मार्च और पुरस्कार वापसी गैंग। इनका नेतृत्व करेंगे वाम-पंथी, अर्बन नक्सली और राष्ट्रीय जोकर पप्पू। अब समझ में आया न राष्ट्रीय जोकर कौन है, या तुम भी . . . 

“ये सब खोपड़ी खा लेंगे कि पुलिस वालों ने बहुत अत्याचार किया। इन पुलिस वालों को गोली मारो, फाँसी पर चढ़ाओ। बाक़ी पार्टियाँ भी सेकुलरिज़्म के नाम पर, अपनी दुकान चमकाने के लिए आग में घी डालने लगेंगी। रोज़ साले वहाँ ऐसे पहुँचेंगे ढेर के ढेर घड़ियाली आँसू बहाते हुए, जैसे इनके बाप-महतारी, लड़का-बच्चा मर गए हैं या फिर पत्नी किसी और के साथ रुपया-पैसा, गहना लेकर भाग गई है।”

दया उसका ग़ुस्सा शांत करने के लिए और जतन करती हुई कहती है, “तुम अब थोड़ी देर बच्चों को लेकर बाहर टहल आओ। कोई सब्ज़ी मिल जाए तो लेते आओ। सवेरे के लिए कुछ नहीं है, और हाँ नमक भी ले लेना, ख़त्म हो गया है। यह सब राज-काज है, इनके चक्कर में न रहो। बेवजह काहे को अपना दिमाग़ ख़राब करते रहते हो।”