Saansat me Kante - 1 in Hindi Fiction Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | साँसत में काँटे - भाग 1

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साँसत में काँटे - भाग 1

भाग -1

प्रदीप श्रीवास्तव

उसकी आँखों में भर आए आँसू उसके गालों पर गिरने ही वाले थे। आँसुओं से भरी उसकी आँखों में भीड़ और उनके हाथों में लहराते तिरंगे के अक्स दिखाई दे रहे थे। ज़ीरो डिग्री टेम्प्रेचर वाली कड़ाके की ठंड के कारण उसने ढेरों गर्म कपड़ों से ख़ुद को पूरी तरह से ढका हुआ था। 

आँखें और उसके आस-पास का कुछ ही हिस्सा खुला हुआ था। वह भीड़ से थोड़ा अलग हटकर खड़ी थी। भीड़ भारत-माता की जय के साथ-साथ उस नेता का भी ज़िंदाबाद कर रही थी, जिसको, जिसके पूर्वजों, पार्टी को वह अपने सुखी-समृद्ध परिवार, पूरे जम्मू-कश्मीर की तबाही का ज़िम्मेदार मानती है। 

वह उसे, उसके परिवार को अपने हाथों से उसी क्रूरता से सज़ा देना चाहती है, जैसी क्रूर यातनाएँ, व्यवहार, जेहादी दहशतगर्दों ने उसे और उसके परिवार को दीं थीं। वह उस व्यक्ति को बिल्कुल क़रीब से देखना चाहती थी, जो प्रौढ़ावस्था से आगे निकल जाने के बावजूद देश और दुनिया में अपनी बेवुक़ूफ़ियों के कारण एक राष्ट्रीय जोकर, मंद-बुद्धि बालक के रूप में जाना जाता है। 

उसकी नज़र में वह एक परचून की दुकान चलाने की भी क़ाबिलियत नहीं रखता, लेकिन बाप-दादों द्वारा परिवारवाद की बनाई गई पक्की सड़क पर, सरपट दौड़ता हुआ प्रधानमंत्री बनने के लिए वैसे ही मचल रहा है, जैसे कोई बहुत ही देर से भूखा दुध-मुँहा बच्चा अपनी माँ का स्तन-पान करने के लिए मचलता है। अपने पूर्वजों की तरह देश को अपनी व्यक्तिगत सम्पत्ति समझता है। 

ठंड से ठिठुरते पूरे श्रीनगर, जम्मू-कश्मीर में बहती बर्फ़ीली हवाओं के साथ उसके कानों में यह बात भी पहुँच रही थी कि, वह जोकर ऐसी ड्रग्स ले रहा है कि, माइनस टेम्प्रेचर में भी केवल टी-शर्ट पहन कर पद-यात्रा कर रहा है। और उसकी पार्टी के चापलूस उसको तपस्वी योगी बता रहे हैं, कुछ बिके हुए मीडिया वालों को पैसे दे कर, यही बात चलवा-चलवा कर जन-मानस के हृदय-पटल पर स्थापित करने का पुरज़ोर प्रयास कर रहे हैं। 

उसे बड़ा ग़ुस्सा आ रहा था कि, उसके ऐसे सनक भरे काम के लिए सरकार उसको विशेष सुरक्षा प्रदान कर रही है। एस.पी.जी. सुरक्षा, सारे स्थानीय थानों की पुलिस के अलावा पचीस-तीस कंपनी सी.आर.पी.एफ़. के जवान उसको घेरे रहते हैं। फ़ाइव स्टार होटल रूम में परिवर्तित क़रीब सौ कंटेनर भी साथ चल रहे हैं, जो उसके और उसके चापलूसों के आरामगाह हैं। सब-कुछ जनता के पैसों पर हो रहा है। 

वह लाल-चौक पर तिरंगा झंडा फहराते हुए उसे फूटी आँखों नहीं सुहा रहा था। पहले तो उसने लाल-चौक पर झंडा फहराने से मना कर दिया था, वह अपनी पार्टी के कार्यालय में ही तिरंगा फहराना चाहता था, लेकिन ज़्यादा राजनीतिक लाभ लेने के लिए लाल-चौक पर आ गया। 

वही लाल-चौक जहाँ उसके नाना ने उन्नीस सौ अड़तालीस में तब जम्मू-कश्मीर के सदर-ए-रियासत शेख़ अब्दुल्ला के साथ तिरंगा झंडा फहराया था। उसकी अम्मी ने उसे बताया था कि तब उसके बाबा जान बोले थे कि, ‘शेख़ अब्दुल्लाह जल्दी ही इस जम्मू-कश्मीर राज्य को आज़ाद मुल्क बना देगा। हम काफ़िरों के देश भारत में नहीं रह सकते। अल्लाह ने चाहा तो शेख़ अब्दुल्लाह बहुत ही जल्दी पूरे भारत को काफ़िरों से छीन कर इस्लामिक अमीरात बना देगा। दुनिया का सबसे बड़ा इस्लामिक मुल्क।’ 

मगर जिन लोगों के सहारे वह यह ख़्वाब देख रहे थे, उनसे उन्हें धोखे के सिवा कुछ और नहीं मिला। एक दिन उनके ख़्वाबों को तामीर करने वाले अब्दुल्लाह देश के साथ गद्दारी करने के आरोप में जेल में बंद कर दिए गए। 

हालात कुछ ऐसे बदले कि देखते-देखते जम्मू-कश्मीर के नेता पाकिस्तान के इशारे पर नाचने लगे। पूरे राज्य में आतंकवादियों का प्रभाव बढ़ता चला गया और घाटी तो पूरी तरह से आतंकवादियों निशाने पर आ गई। 

वह सनातनी कश्मीरियों का नर-संहार करने लगे और उसके बाबा जान, चाचा जान सभी आतंकवादियों के शुभ-चिंतक बने, उन्हें हर सम्भव मदद पहुँचाते रहे। फिर उनमें से कई लोग आतंकवादियों की परस्पर गुटबाज़ी संघर्ष में और कुछ सेना की गोलियों से मारे गए। उसके बाबा, चच्चा जान भी। 

इससे उसके अब्बा जान घबरा उठे और अपना घर छोड़कर दूसरी जगह रहने लगे। मगर आतंकवादियों का ख़ौफ़ सिर पर मँडराता रहता था और केंद्र सरकार जिस तरह का व्यवहार कर रही थी, उससे जम्मू-कश्मीर के लोगों को लगता ही नहीं था कि वह जम्मू-कश्मीर को भारत का हिस्सा मानती है, उसके लिए चिंतित है, बाक़ी लोगों की सुरक्षा करना चाहती है। 

इससे उसके अब्बा अन्य बहुतों की तरह चक्की के दो पाटों के बीच ख़ुद को पिसता महसूस कर रहे थे। इन सबके लिए वह अकेले एक ही व्यक्ति नेहरू को ज़िम्मेदार मानते और उनको बार-बार कोसते, और तब के एक सनातनी नेता की बात दोहराते कि, ‘श्रीनगर के जिस चौक का नाम श्रीनगर चौक या ऋषि कश्यप चौक होना चाहिए, क्योंकि यह ऋषि कश्यप की पवित्र भूमि है, यह बात सनातन संस्कृति के पौराणिक आख्यानों में दर्ज है, इन सारे तथ्यों को दरकिनार कर नेहरू केवल तुष्टीकरण, अपनी वामपंथी सोच और वामपंथियों के दबाव में, सोवियत संघ के रेड स्क्वायर के नाम पर लाल-चौक रख रहें हैं। यह एक आत्म-घाती क़दम है, वह दिन दूर नहीं जब यह लाल चौक रक्त चौक बन जाएगा।’ वह कहते उस काफ़िर ने बड़े पते की बात कही थी, लाल-चौक आख़िर रक्त-चौक ही बना। 

आख़िर यह सनातनियों के ख़ून के साथ-साथ उन मोमिनों के रक्त से भी तो लाल होता आ रहा है, जो जेहादियों के इशारे पर नहीं नाचते, उनके मददगार, मुख़बिर नहीं बनते। 

उसे अच्छी तरह याद है कि ज़्यादा समय नहीं हुआ जब वहाँ आतंकियों का एक-छत्र राज था, भारत का नाम लेने वाला ज़िंदा नहीं रह सकता था। यह सब उसके परिवार, ख़ुद उसके लिए जश्न मनाने का अवसर होता था। किसी भी सनातनी का ख़ून बहा देना बस यूँ ही हो जाया करता था। 

नेहरू को वो धारा ३७०, धारा ३५ ए के तहत राज्य को ऐसा स्पेशल स्टेटस देने के लिए तहेदिल से शुक्रिया तो कहते ही, साथ ही मूर्खता-भरा काम भी, क्योंकि इस क़ानून ने एक तरह से जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग ही कर दिया था स्वतंत्र इस्लामिक देश बना दिया था, भारत का कोई क़ानून उन पर लागू ही नहीं होता था। 

उनकी और शेख़ अब्दुल्ला की इस मिलीभगत का परिणाम यह था कि, उन्नीस सौ अड़तालीस के बाद वहाँ पंद्रह अगस्त या फिर छब्बीस जनवरी को भी राष्ट्रीय तिरंगा फहराया नहीं जा सकता था, हर तरफ़ आतंकवादियों, अलगाववादियों का क़ब्ज़ा था। 

आतंक इतना था कि कोई भी आस-पास न तो तिरंगा लगा सकता था, न ही बेच सकता था। ऐसा करने वाले को आतंकवादियों की गोलियों का शिकार होना पड़ता था। ऐसे ख़तरनाक माहौल के बावजूद उन्नीस सौ अड़तालीस के बाद एक पार्टी के दो नेताओं ने अलगाववादियों, आतंकियों के अड्डे लाल-चौक पर ही तिरंगा लहराने का संकल्प लिया। 

और बड़ी भारी संख्या में लोगों के साथ लाल-चौक की तरफ़ बढ़ चले, लेकिन केंद्र और राज्य की सरकार ने उन्हें मना कर दिया। मगर वो नेता भी ज़िद पर अड़ गए कि जम्मू-कश्मीर भारत का हिस्सा है, श्रीनगर भारत का है और वहाँ पर तिरंगा फहराना ही उनका अटल निश्चय है। क्योंकि इसके बिना राष्ट्र का सम्मान अधूरा ही नहीं, उसका अपमान है, देश अब यह अपमान बर्दाश्त नहीं करेगा। 

उनकी ज़िद और उन्हें देशवासियों का मिल रहा सपोर्ट, इन दोनों से केंद्र और राज्य सरकार झुक गई। तब उन्नीस सौ बानबे में उन्होंने इन दोनों नेताओं मुरली मनोहर जोशी और नरेंद्र दामोदरदास मोदी को लाल-चौक पर झंडा फहराने दिया।