Jehadan - 2 in Hindi Fiction Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | जेहादन - भाग 2

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जेहादन - भाग 2

भाग -2

उसने माँ की शिक्षा का पूरा ध्यान रखा, बोली, “अम्मा आप सही कह रही हैं। मैंने भगवान की एक छोटी-सी फोटो रखी हुई है, कितनी भी देर हो रही हो, ईश्वर को प्रणाम करके ही निकलती हूँ और आकर भी करती हूँ, आप घर पर यह सब करवाती थीं, यह तो आदत में है, कैसे भूल सकती हूँ।”

माँ ने पूछा, “तुम्हारे ऑफ़िस में सब लोग कैसे हैं?” 

उसने कहा, “अम्मा वहाँ किसी को सिर उठाकर बात करने की भी फ़ुर्सत नहीं रहती और छुट्टी होते ही सभी घर की तरफ़ भागते हैं। मिलने पर बस हाय हैलो हो जाती है। अभी कोई फ़्रेंड नहीं बनी है। यहाँ पर कोई किसी से ज़्यादा मिक्सअप नहीं होता।”

तो माँ ने कहा, “ठीक है बेटा, किसी की ज़्यादा ज़रूरत भी नहीं है। पास में मौसी रहती ही हैं, कोई ज़रूरत पड़ने पर उनके पास चली जाना। छुट्टियों में उनके पास थोड़ी देर को चली जाया करो।”

“ठीक है माँ, ऐसा ही करूँगी।”

बात ख़त्म होने के बाद उसने सोचा आने के बाद से कहीं घूमने-फिरने भी नहीं जा पायी। आज छुट्टी है, थोड़ा घूम लेती हूँ। उसने पहले मोबाइल पर आसपास ऐसी कौन सी जगह है, जहाँ पर घूमने जाना अच्छा रहेगा, उसे सर्च किया। जब गई तो घूमते हुए महसूस किया कि, घूमने-फिरने का मज़ा अकेले में नहीं है। उसे बार-बार भाई-बहनों, माँ-बाप की याद आती रही। 

दोपहर में उसने खाना भी एक रेस्टोरेंट में खाया। पेइंग-गेस्ट का एक-सा खाना खाते-खाते ऊब चुकी थी। खाना खाते समय ही उसके पास ऑफ़िस में साथ काम करने वाली निखत खान का फोन आ गया, हाय हैलो के बाद उसने पूछा, “आज छुट्टी में तुम क्या कर रही हो? क्या मेरे साथ कहीं घूमने चल सकती हो, वर्किंग-डे में तो कहीं निकलने का समय ही नहीं रहता।”

उसे तुरंत ही याद आया कि यह वही लड़की है, जिससे ऑफ़िस के तक़रीबन सभी लोग दूर ही रहना पसंद करते हैं। क्योंकि वो जब भी बातचीत करती है तो बस अल्लाह ऐसा है, अल्लाह वैसा है, एक वही है जो सब-कुछ करता है, जानता है। जो उसके सामने सज्दा करता है, वह उसे दुनिया की दौलत, सारी ख़ुशियाँ देता है। 

हमेशा बुर्क़े में रहती है, आँखों के सिवा और कुछ भी दिखता नहीं। सभी कहते हैं कि, उसकी आँखों से ही कनिंगनेस टपकती है। एक नेता की सिफ़ारिश पर उसे नौकरी मिली है। वह नेता देश में एक कट्टर जिहादी नेता के रूप में जाना जाता है, उसे सोशल मीडिया पर लोग मीडिया चाइल्ड कहते हैं। कहते हैं इस हैदराबादी गली के लफ़ंगे को मीडिया ने राष्ट्रीय नेता बना रखा है। यह देश में आज के समय का देश विभाजक जिन्ना है। 

उसने क्षण-भर सोच कर कहा, “मैं काम में बिज़ी हूँ। सॉरी मैं नहीं चल सकती।”

उसने सोचा मैंने तो यहाँ किसी को अपना नंबर दिया नहीं, इसे मेरा नंबर कैसे मिला। तुरंत ही उसने पूछा, “आपको मेरा नंबर कहाँ से मिला?” 

निखत बोली, “अरे यह कोई बड़ी बात नहीं है।”

“फिर भी बताइए न, मैंने तो आपको या किसी को भी नंबर नहीं दिया, फिर आपने कैसे जान लिया?” 

यह सुनकर निखत ने बड़े प्यार से हँसते हुए कहा, “मुझे तुम बहुत प्यारी लगती हो, मैं तुमसे दोस्ती करना चाहती हूँ, मगर ऑफ़िस में एक बार भी ऐसा मौक़ा नहीं मिला कि मैं तुमसे बात करती, तुम्हारा नंबर माँगती। तुम्हारी ही तरह एच.आर. डिपार्टमेंट में मेरी प्यारी सी एक फ़्रेंड है, उससे मैंने रिक्वेस्ट की, पहले तो उसने मना कर दिया, लेकिन जब कई बार कहा तो उसने नंबर दे दिया।”

उसे लगा कि एच.आर. डिपार्टमेंट के लोगों को किसी की पर्सनल जानकारी इस तरह किसी और को देने का अधिकार नहीं है, यह बिल्कुल ग़लत है। उसने उस कर्मचारी का नाम पूछा, तो निखत ने कहा, “प्लीज़ नाराज़ नहीं हो, मैं उसका नाम नहीं बता सकती, क्योंकि उसने इसी शर्त पर नंबर दिया कि, मैं उसका नाम डिस्क्लोज़ नहीं करूँगी।”

उसने फिर कहा, “लेकिन मैं कुछ कहने नहीं जा रही हूँ, मैं तो सिर्फ़ उसका नाम जानना चाहती हूँ।”

उसने कई बार कहा लेकिन निखत ने हर बार बड़ी ख़ूबसूरती से मना कर दिया, तो उसने बातचीत भी उतनी ही ख़ूबसूरती से बंद कर दी। अगले दिन निखत ने ऑफ़िस में लंच टाइम में उससे बातचीत करने की कोशिश की। लेकिन उसने मना कर दिया। उसने साफ़ कहा, “जब-तक आप मेरा नंबर देने वाली का नाम और उसका नंबर भी नहीं बताएँगी, तब-तक मुझे आपसे बात नहीं करनी। यह तो सीधे से चीटिंग है। और दोस्ती करने का यह कोई रीज़न भी नहीं है कि, बहुत प्यारी लगती हूँ तो आप दोस्ती करेंगी। मुझे भी दुनिया में बहुत से लोग प्यारे लगते हैं, तो क्या सभी से फ़्रेंडशिप कर लूँ।”

उसने उसके बुर्क़े की ओर संकेत करते हुए आगे कहा, “सबसे बड़ी बात तो यह कि जिसे मैं पहचानती ही नहीं, उससे फ़्रेंडशिप कैसे कर लूँ।”

यह सुनकर निखत हँसती हुई बोली, “कैसी बात कर रही हो, हम लोग इतने दिनों से साथ काम कर रहे हैं।”

तो उसने कहा, “काम ज़रूर कर रहे हैं, लेकिन मैंने आपको कभी देखा ही नहीं, आप हमेशा बुर्क़े में छुपी रहती हैं। मैं आपसे फ़्रेंडशिप कर लूँ और कोई मुझसे पूछे कि, आपकी फ़्रेंड कैसी है, तो क्या मैं उससे यह कहूँगी कि हाँ, मेरी फ़्रेंड तो है, लेकिन मैं उसे पहचानती नहीं, वह हमेशा बुर्क़े में छुपी रहती है। और मैं क्या, कोई ज़रा भी समझदार आदमी होगा तो वह किसी छुपे हुए व्यक्ति से फ़्रेंडशिप नहीं करेगा। सॉरी।” 

उसकी बात पूरी होते ही निखत ने पहले दाएँ-बाएँ देखा और फिर अपना हिजाब हटा दिया और बोली, “ध्यान से देख लो, अब तो मैं छिपी हुई नहीं हूँ। क्या अब भी मुझसे फ़्रेंडशिप नहीं करोगी।” 

वह एकटक उसकी आँखों में देखती रही। उसने देखा व्हीटिश कलर का एक औसत-सा चेहरा, जिसकी आँखों में ही नहीं, मुस्कुराहट में भी वाक़ई कनिंगनेस भरी हुई है। और साथ ही आँसू भी दिख रहे हैं। उसके लाख प्रयासों के बावजूद यह बात छिप नहीं पा रही थी कि, बड़ी कोशिश करके आँखें भरी गई हैं। जल्दी ही उसने चेहरे को हिजाब से ढँकते हुए कहा कि “अब मैं ख़ुश होऊँ कि आप मेरी फ़्रेंड बन गई हैं।”

उसने कहा, “नंबर किसने दिया, उसका नंबर क्या है? आपने यह अभी तक नहीं बताया, इसलिए फ़्रेंडशिप के बारे में मैं अब भी नहीं सोच सकती।”

यह सुनते ही निखत ने एक गहरी साँस लेकर कहा, “ठीक है, मैं बताती हूँ, लेकिन आपको भी एक प्रॉमिस करना पड़ेगा कि, उससे कोई झगड़ा नहीं करेंगी। वह मेरी ही नहीं आपकी भी फ़्रेंड हो जाएगी।”

उसने कहा, “मैं कोई प्रॉमिस नहीं करूँगी। आप बताएँ या न बताएँ।” उसकी आवाज़ में नाराज़गी का पुट आ गया था। उसने मन ही मन सोचा, समझ में नहीं आ रहा है यह फ़्रेंडशिप के पीछे इतना क्यों पड़ी हुई है। साथ काम करने का मतलब फ़्रेंडशिप भी हो यह ज़रूरी तो नहीं। उसने आवाज़ में थोड़ी नम्रता लाते हुए आगे कहा, “न ही मैं आपको जानती हूँ, न ही आपकी फ़्रेंड को, आख़िर क्या मतलब है ऐसी फ़्रेंडशिप पर इतना ज़ोर देने का।”

यह सुनकर निखत हँसती हुई बोली, “प्यारी फ़्रेंड, यही तो मैं कह रही हूँ कि, मैं अपने बारे में बताती हूँ, आप अपने बारे में बताइए और इस तरह हम परिचित हो जाएँगे, हमारी फ़्रेंडशिप हो जाएगी और फिर हम बहुत अच्छे फ़्रेंड बन जाएँगे। सारे फ़्रेंड, फ़्रेंड बनने से पहले अपरिचित ही होते हैं।”

यह सुनते ही उसने सोचा, ओह यह तो बिल्कुल गले ही पड़ गई है। इतना ज़्यादा पीछे पड़ने का मतलब क्या है? यह सब जाने बिना इससे फ़्रेंडशिप वग़ैरह बेकार की बातें हैं। जब मेरा मन ही नहीं है तो फ़्रेंडशिप हो ही कैसे सकती है। 

इसी बीच लंच टाइम ख़त्म हो गया, वह सॉरी बोल कर अपनी सीट पर चली गई। शाम को छुट्टी में भी वह उसके पीछे पड़ गई। जिसने उसे नंबर दिया था, उसने उसका नाम और नंबर भी उसे बता दिया। बोली, “खुदेजा खान तुम्हारी ही तरह बहुत-बहुत प्यारी है। तुम उससे बात करोगी तो तुम्हें बहुत ख़ुशी होगी।”

नंबर लेकर उसने किसी तरह उससे पीछा छुड़ाया और घर आ गई। नौ बजने वाले थे। उसने कपड़े वग़ैरह चेंज करके घर फोन किया। पेरेंट्स, भाई-बहनों से बात की। पेरेंट्स को सारी बात बताई तो फ़ादर ने कहा, “जब सभी लोग उससे दूर रहना पसंद करते हैं तो ज़रूर कोई बात होगी। तुम्हें नया समझ कर एकदम पीछे पड़ी हुई है, इसके पीछे कोई कारण ज़रूर होगा। एच.आर. से नंबर लेना, बिल्कुल पीछे पड़ना बहुत संदेह पैदा कर रहा है। उसकी हरकतें ठीक नहीं लग रही हैं, तुम उससे दूर ही रहो और एलर्ट भी।”

पेरेंट्स ने कई और सावधानियाँ बरतने को कहीं। वह बातचीत के बाद खाना खाकर मोबाइल देखने लगी। एक बार उसका मन हुआ कि खुदेजा को फोन करे, उससे कहे कि तुमने मेरी पर्सनल चीज़ें किसी और से क्यों शेयर की। मैं तुम्हारी शिकायत एच.आर. मैनेजर से करूँगी। लेकिन फिर पता नहीं क्या सोच कर रुक गई। 

फ़्रेंडशिप के लिए उसकी बार-बार की न, निखत के प्रयासों से आख़िर हाँ में बदल गई। देखते ही देखते उसकी और खुदेजा की बेस्ट फ़्रेंड बन गई। इतनी क़रीब हो गई कि मौक़ा मिलते ही बात होने लगती। मगर उन दोनों से फ़्रेंडशिप का एक और असर भी हुआ, ऑफ़िस के जो लोग पहले उससे बात करते थे, उन्होंने उससे किनारा कर लिया, बिल्कुल वैसा ही जैसा निखत से किया हुआ था।