Vansh - 7 in Hindi Fiction Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | वंश - भाग 7

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वंश - भाग 7

सात

जयकुमार एक नितान्त सुनसान-सी सड़क पर चलते-चलते शहर से लगभग बाहर ही आ गये थे। रात के इस चढ़ते पहर में वह लौटने का विचार बना ही रहे थे कि अचानक उनका ध्यान सामने कुछ दूर तक अँधेरे में डूबी सड़क पर चला गया। कुछ दूरी पर सड़क के किनारे एक आदमी खड़ा था और उसी से कुछ फासले पर जरा आगे सड़क के किनारे एक ऑटो रिक्शा खड़ा था। ऑटो रिक्शा की दूरी इस आदमी से सम्भवत: पचास-साठ गज के फासले पर रही होगी।

जयकुमार ने जेब से सिगरेट निकाली और उसे होठों से लगा लिया। फिर अपनी जेबें टटोलते हुए ऐसे उस आदमी की ओर बढ़े, मानो उससे माचिस मांगना चाहते हों। आदमी भी चलकर उनकी ओर ही आया, धीरे-धीरे बढ़ता हुआ। लेकिन दो-चार कदम और चलकर जयकुमार के समीप आते ही जैसे बिजली-सी गिरी उस आदमी पर। वह एकदम हक्का-बक्का रह गया और पलटकर तेजी से वापस अँधेरे की ओर भागने लगा।

जयकुमार ने सिगरेट फेंककर चीते की-सी फुर्ती से झपट्टा मारा और दो-चार लंबे डग भरकर भागते हुए उस आदमी को पीछे कॉलर से पकड़ लिया, झटके से अपनी ओर घुमाया और तड़ाक से एक घूँसा दे मारा उसके चेहरे पर। आदमी और कोई नहीं, शम्सुद्दीन ही था जिसे पिछले दो दिनों से जयकुमार कोशिश करके भी मिल नहीं पाये थे।

शम्सुद्दीन संभल भी नहीं पाया कि झन्नाटे से एक और घूँसा पड़ा। उसके मुँह से हल्की-सी चीख निकल गई। उसने अपने को छुड़ाने का असफल-सा प्रयास किया और जयकुमार की पकड़ अपनी गर्दन पर ढीली न होती देखकर एक बार उनकी कलाई पर दांत गढ़ाने की कोशिश भी की, पर जयकुमार से पार पाना इतना आसान नहीं था। दो-तीन भरपूर वार उन्होंने उसके पेट, कंधे और सिर पर कर डाले और उसे संभलने तक का मौका नहीं दिया। तभी जयकुमार ने देखा कि आवाज सुनकर दूर खड़े ऑटो रिक्शा में से झटके से कूदकर एक आदमी बाहर आ गया और मारपीट होती देखकर जरा फुर्ती से वह एकदम पास आ गया और फिर जयकुमार की ओर देखकर हड़काने के अन्दाज में बोला-कौन है बे! कैसे फड़क रही हैं तेरी बोटियाँ? मार खायेगा क्या?

–मैं हूँ तेरा बाप! जयकुमार का एक करारा थप्पड़ उस आदमी के गाल पर भी पड़ा। इस भरपूर वार से आदमी सकते में आ गया। सकपका कर एकाएक पीछे की ओर लौटने को हुआ पर जयकुमार ने उसे भी दबोच लिया। उन्होंने उसके कूल्हों पर एक जोरदार लात मारी कसकर। आदमी सड़क से थोड़ी दूर झाड़ियों में जाकर गिरा। इधर शम्सुद्दीन की खबर लेनी जारी रखी जयकुमार ने।

–साला, हरामी .... औरतों की दलाली करता है.... बदहवास से जयकुमार बारी-बारी से दोनों को सूंतते जा रहे थे। लात, मुक्का, थप्पड़ सब एक साथ। ऑटो रिक्शा से निकल कर आया आदमी तो एक बार कंटीले झाड़ों में गिर जाने के बाद से ही बेदम-अधमरा-सा हो गया था। एक बार तो नीचे गिरते ही उसने हाथ में एक बड़ा-सा पत्थर उठाकर जयकुमार की ओर ताना, पर अगले ही पल जयकुमार ने लात से उसके उसी हाथ को एक ठोकर दी। पत्थर भी गिर पड़ा और आदमी का मुँह माथे से रिसते खून से सन गया। जयकुमार को इससे भी कोई फरक नहीं पड़ा। वे तो जैसे उसका कीमा ही बनाने पर तुले थे। बोलते भी जा रहे थे और मारते भी।

–साला मारेगा मुझे! हरामी, तेरी हड्डियों में जोर बचा है अभी, ले संभाल—एक लात और दी जयकुमार ने। बीच-बीच में वह शम्सुद्दीन को भी दो-एक मुक्के-झापड़ रसीद करते जा रहे थे, जिसे उन्होंने अब बालों से पकड़ लिया था। उनकी पत्थर-जैसी मुट्ठी में शम्सुद्दीन का सिर आ जाने से वह भी बेहाल-सा हो गया था। उसने छूटने की कोशिश छोड़ दी और मार खाता रहा। पसीने  से लथपथ जयकुमार के फौलादी-पुलिसिया हाथों के करारे वार वह भली प्रकार भाँप चुका था।

शम्सुद्दीन और उस तथाकथित ग्राहक को मारते-मारते जब अघा गये जयकुमार, तो उन लोगों को कॉलर से पकड़कर लगभग घसीटते हुए उन्होंने ऑटो रिक्शा की ओर रुख किया, जिसके समीप ही घायल चिड़िया-सी डरी-सहमी एक युवती सिमटी-सकुचाई-सी खड़ी थी। अँधेरे में भी बेतरह जल्दबाजी में लपेटे हुए उसके वस्त्र मुसे-मुरझाए से स्पष्ट नजर आ रहे थे।

जयकुमार की आँखों से शोले-से बरस रहे थे। उस युवती को भी बख्शा नहीं उन्होंने। व्यंग्य-बाण छोड़ते हुए बोले–फरमाइये, कहाँ ठिकाना है आपका? कैसा चल रहा है कारोबार? कितने आशिक हैं शहर में आपके? धंधा तो अच्छा चुना है.....

लेकिन जयकुमार के ये तेवर ज़्यादा देर नहीं रह सके। खुद अपना सुर बदलना पड़ा उन्हें। युवती ने उनकी उम्मीद की तरह सड़क छाप आवारा औरतों की तरह पलटकर उसी छिछली भाषा का प्रयोग नहीं किया, बल्कि आँचल मुँह में ठूँस कर हिचकियों से रोने लगी। आँसू भी बह निकले आँखों से। दोनों आदमियों को पीछे की सीट पर लगभग धकेलते से जयकुमार लड़की से बोले—

–कहाँ रहती हो? स्वर नम्रता और सख्ती का मिला-जुला संगम-सा था। ऐसा नहीं कि अनदेखा कर दिया जाये। ऐसा भी नहीं कि लड़की अविश्वास से देखे जयकुमार को। धीरे-धीरे उसी तरह सिसकते हुए बोली-नारी-निकुंज में।

–कब से?

–तीन महीने....

–कहाँ की रहने वाली हो?

–'धरती की।’ अब लड़की के स्वर में भी जयकुमार के स्वर-सी नैतिक कठोरता और व्यंग्य-विद्रूप का पुट आ गया था। चौंके जयकुमार। रुककर फिर बोले—

–गाँव, पता-ठिकाना कुछ...? घर कहाँ है तुम्हारा....

–कभी था घर। अब नहीं है। मांस के लोथड़ों का ठिकाना कहाँ होता है। एक गिद्ध की चोंच से दूसरे के पंजों तक.... बस जहाँ एक चबाकर अपनी चोंच से गिरा जाये वहीं से दूसरा आकर उठा ले जाता है... कहकर लड़की एक बार फिर जोर-जोर से रोने लगी। बेतहाशा प्रवाह फूट पड़ा उसके गले से। शायद महीनों का जज़्ब स्रोता आज राह पा गया था।

स्पष्ट था कि लड़की पढ़ी-लिखी भी थी और किसी खाते-पीते घर से ताल्लुक भी रखती थी। एक बार पाँव फिसल जाने के बाद रास्ते छोड़ आई थी अपने। दिखने में भी ठीक-ठाक सी....

पिघल-से गए जयकुमार, रात के सन्नाटे में उस अनजान युवती का यों हूक-हिचकियों से रोना उन जैसे आदमी को भी बरदाश्त नहीं हुआ। 'विराट’ हिलता-सा प्रतीत होता था उसकी हिचकियों में। देर नहीं की उन्होंने। उसे भी पीछे बैठने को कहा उन्होंने, और फिर एक जोर की चपत शम्सुद्दीन के सिर पर लगाई। बोले–चल, कोई होशियारी मत करना।.... पहले इसे छोड़ फिर तेरी पूजा मैं करता हूँ... खिसक बे... एक लात् से उस पीछे बैठे आदमी को सरकाकर जगह बनाई और फिर युवती से आहिस्ता से बोले–बैठ जाओ तुम... और स्वयं भी सवार हो गये रिक्शा में।

शम्सुद्दीन ने गाड़ी दौड़ा दी। रिक्शा सरपट भाग चला। रात के सन्नाटे को चीरता हिचकोले खाता। आदम युग के शाश्वत इन्सानी दाँव-पेंच सभ्यता की इक्कीसवीं सदी में भी तरोताजगी से देखने का गैरचश्म साक्षी वह रिक्शा, निर्दोष गति से लौट भागा चला जा रहा था अपने शहर की गलियों में, जिनमें जंगल-बियाबान छोड़-छोड़ कर आदमी बसते आते जा रहे थे। चला रहा था उसे शम्सुद्दीन, जो पिछले दो दिनों से न जाने किस भय से जयकुमार के सामने नहीं पड़ा था।

शायद उसे उसी शाम शक हो गया था जब जयकुमार होटल के काउण्टर पर उसके बारे में पूछताछ करके उसके घर भी जा आए थे। वह अपनी रोजाना की करनी से बाज तो नहीं आया पर जयकुमार की निगाहों के सामने न पड़ने मात्र से अपने-आपको महफूज समझ रहा था। उसे पता भी कहाँ था कि जिस शख्स को बंद कमरे में पैर दबाते हुए उसने शारीरिक भूख मिटाने की दावत दे डाली थी, वह पुलिस महकमे का ऐसा ही हाकिम था जो स्वयं इस तिजारत की दुर्गन्ध सूँघने की मुहिम पर आया हुआ था।

पहले नारी-निकुंज पहुँचे वे लोग। परन्तु जयकुमार ने लड़की की फितरत देख-भाँप कर इस वक्त कुछ तीन-पाँच करना उचित नहीं समझा, बल्कि नारी निकुंज से थोड़ी दूर ही लड़की को उतार दिया और उसे चुपचाप अपनी राह चली जाने के लिए इशारा कर दिया। युवती के दो-चार कदम बढ़ जाने के बाद शायद जयकुमार की पुलिसिया प्रत्युत्पन्नमति ने एकाएक जैसे उन्हें कोई रिस्क न लेने की सलाह दे डाली। उन्होंने धीरे-से पीछे से आवाज देकर युवती को वापस बुलाया। वह उन्हीं कदमों वापस लौट आई। वे बोले–मेरा नाम जयकुमार है। घबराने की कोई बात नहीं है, बिलकुल किसी तरह की फिक्र मत करना। किसी शोर-शराबे की जरूरत नहीं है। जो मैं कहूँ, करो। मैं वचन देता हूँ कि तुम्हारे गिर्द जमे कोहरे को छाँटने की कोशिश करूँगा। तुम्हारी आजादी मेरा ध्येय होगी... छापे के वक्त घबराना मत, न ही इधर-उधर भागने की कोशिश करना। और किसी को इस बाबत बताना भी मत, जाओ...।

लड़की की आँखे फिर से आँसू में डूबे मोतियों-सी हो गईं, निगाहों-नजरों में ही शुक्रगुजारी यदि किसी भाँति संभव है तो वही थी इस वक्त जयकुमार के लिए उस बेबस दिखी-सी आँखों में। नमस्ते की मुद्रा में उसने दोनों हाथ जोड़े और नजरों से ही आश्वस्त करके वापस पलट गई।

शम्सुद्दीन और वह अधेड़-सा आदमी आधी रात को ही स्थानीय थाने की सलाखों के पीछे बंद कर दिये गये। ऑटो रिक्शा जब्त कर लिया गया।

शम्सुद्दीन थाने पहुँचकर गुमसुम-सा बैठा था। न कुछ बोला, न ही उसने जयकुमार की ओर देखा। चलते-चलते जयकुमार ने ही जरा भारी-सी आवाज में कहा-

–बोल, बूढ़े माँ-बाप को चिन्ता में मरने दूँ तेरी, या खबर करवा दूँ घर पर तेरे कारनामों की?

शम्सुद्दीन ने कोई जवाब नहीं दिया। वो दूसरा आदमी बैठते ही पायजामे के पाँयचों को घुटनों तक उठाकर अपने पैर पर आई विभिन्न चोटों को सहला रहा था। जगह-जगह से खून रिस रहा था। मुँह पर भी सूखते लाल खून की धाराएँ किसी नक्शे पर बनी नदियों-सी अंकित हो गई थीं। कमीज भी जगह-जगह से फट गई थी और धूल-मिट्टी के निशान साफ तेज रोशनी में यहाँ-वहाँ दिखाई देने लगे थे।

थोड़ी देर की बातचीत के बाद पता चला कि वह आदमी उसी शहर में एक मोटर गैरेज चलाता था और शम्सुद्दीन की मार्फत इस धंधे का नियमित-सा ही ग्राहक था। दोनों को हिकारत की नजर से देखकर जयकुमार थानेदार जी के साथ बाहरी कक्ष में आकर बैठे। तब तक एक आदमी कॉफी के दो प्याले मेज पर रखकर जा चुका था। आधे घण्टे तक दोनों में इधर-उधर की बातें होती रहीं। दोनों की गुफ्तगू के बाद जयकुमार ने उठते-उठते हाथ मिलाया और कुछ तय-सा करते हुए धन्यवाद देकर उनसे विदा ली। निकलने से पहले शम्सुद्दीन से अकेले में भी दस-बारह मिनट बात की जयकुमार ने।

अगली सुबह, लोग सोकर भी नहीं उठे थे जब पुलिस द्वारा तड़के ही नारी-निकुंज पर छापा मारा गया। चारों ओर से उसे घेर लिया गया। भाग-दौड़ की आवाजों से अधीक्षिका जब नींद की खुमारी में ही भुनभुनाती-चिल्लाती अपने कमरे के अहाते से बाहर निकलीं तो सामने ही थानेदार जी को देखते ही सकते में आ गईं। जयकुमार ने शम्सुद्दीन से मिली सारी जानकारी का भरपूर फायदा उठाया था और उसी बिनाह पर धरपकड़ शुरू हो गई। किसी को छिपने बचने का मौका नहीं मिला। एक-एक करके कमरों की बत्तियाँ जलीं और युवतियाँ, प्रौढ़ाएँ तथा कुछ आदिवासी लड़कियाँ अपने-अपने कमरों से बाहर निकल-निकल कर आने लगीं। उसी समय सबको भीतर ही रहने के आदेश दिये गये। सिर्फ नौ लड़कियाँ गिरफ्तार की गईं, जिनमें दो प्रौढ़ाएँ भी शामिल थीं। रात की ड्यूटी वाला दरबान भी गिरफ्तार किया गया। बड़े ही नाटकीय तरीके से अधीक्षिका के कमरे की तलाशी लेकर व्हिस्की की तीन खाली बोतलें और अलमारी में रखे हुए तीन सौ चौरासी रुपये भी बरामद किये गये, जो शम्सुद्दीन से मिली सूचना के अनुसार उस रात का 'भुगतान’ थे। अधीक्षिका द्वारा वे एक विशेष डिब्बे में उसी रात रखे गये थे।

जयकुमार को उस तथाकथित कारोबार का राई-रत्ती ब्यौरा मिल गया था और उसी के आधार पर व्यापक धर-पकड़ की गई थी। शम्सुद्दीन से यह भी राज पता चला लिया गया था कि अधीक्षिका स्वयं इस धंधे में आपाद-मस्तक लिप्त थी और एक प्रकार से वही इसका संचालन कर रही थी। शम्सुद्दीन अधीक्षिका के अच्छा मुँह लगा हुआ था और उससे खोद-खोद कर की गई पूछताछ के दौरान पता लगा था कि इस अधीक्षिका के स्वयं के करनामों की भी एक खासी फेहरिस्त थी। शम्सुद्दीन उसकी गतिविधियों से हद से ज़्यादा वाकिफ था, और उसके कई राज उस पर जाहिर थे। होटल के माध्यम से वहाँ का कारोबार वह पूरी तरह इसकी मदद से ही चला रहा था। उस अधीक्षिका की स्वयं की सेवा में भी वह कई मर्दों को उनके कक्ष में पहुँचा चुका था। अधीक्षिका खुद भी गिरफ्तार की गई।

उसकी गिरफ्तारी के दौरान जयकुमार ने उन आश्चर्य भरे इशारों को भी महसूस किया जो थानेदार और उस प्रौढ़ महिला के बीच में होने की कोशिश में थे। लेकिन थानेदार जी ने उनसे ऐसे मुँह फेर लिया जैसे उन्हें पहली बार देख रहे हों। न जाने कैसे, उनकी निगाहों में बदलाव आ गया पा रही थी हताश अधीक्षिका। एकाएक ऐसी कर्त्तव्यपरायणता की व्याप्ति तो पहले कभी देखी नहीं थी उसने इन बड़ी-बड़ी मूँछों पर आँखों वाले हाकिम में। वह युवती भी गिरफ्तार औरतों में थी जिसे रात को स्वयं जयकुमार ने यहाँ आकर छोड़ा था। उस समय घटनाचक्र के चलते उसका नाम तक नहीं पूछा था उन्होंने पर बाद में पता लगा लिया था। वे साफ देख रहे थे कि उसके चेहरे पर गिरफ्तारी का कोई भय, पश्चात्ताप या ग्लानि नहीं बल्कि कोई जीवित आस की किरण-सी दमक रही थी इस वक्त।

जीप में भरकर उनके काफिले के लौट जाने के बाद नाकेबंदी समाप्त की गई थी नारी-निकुंज की। और इसके साथ ही थोड़ी देर के लिए नारी-सुधार के वास्ते संचालित इस सरकारी रिहायशी परिसर में मातमी माहौल-सा छा गया। लेकिन वास्तव में.... वो नासूर आज छेद कर काट दिया गया जो लगभग एक-सवा साल पूर्व इसकी इस नई अधीक्षिका के रूप में यहाँ आने वाली एक पथ भ्रष्टा नारी की छत्र-छाया में ही पनपने लगा था।

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