Vansh - 5 in Hindi Fiction Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | वंश - भाग 5

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वंश - भाग 5

पाँच

गर्मी की उमस भरी दोपहर थी, लेकिन गाड़ी के चलते रहने के कारण हवा भी लग रही थी। असहनीय उष्णता तो नहीं ही थी। मीलों दूर तक फैले हुए पर्वतीय एवं मैदानी बीहड़ों के बाद इस लाइन पर कुछ इलाका ऐसा भी आता था जिसे न तो जंगल ही कहा जा सकता है और न पहाड़, पठार ही। आबादी बस्ती तो खैर ये है ही नहीं। हाँ बीच-बीच में इक्का-दुक्का आदिवासियों की बसाहटें बेशक दिख जाती हैं। कहीं-कहीं मुश्किल से उग पायी फसल को लिये उदास खड़े पितलिया खेत-खलिहान, पर ज़्यादातर बंजर पथरीली चट्टानों के ऊबड़-खाबड़ टीले ही।

रेल गाड़ी में बैठे अधिकांश यात्री ऐसे समय में या तो सोने-ऊँघने में होते हैं या फिर थकी-बुझी-सी आवाजों में अलसायी बातें करने में। हाँ, वो अपवाद छोड़ दिये जाने चहियें जिनके भरे पेटों में रक्त शर्करा के साथ राजनीति घुल चुकी हो। खिड़कियाँ ऐसे समय में धूप की वजह से बंद कर ली जाती हैं। खुली भी रहती हैं तो उनमें से कोई झाँकता नहीं रहता बाहर। जो युवा लोग या बच्चे, या फिर युवामन प्रौढ़ भी, रेल के सफर का आनन्द अमूमन खिड़की में ही बैठकर लेने के शौकीन होते हैं वे भी दोपहर की इस वेला में खिड़की का मोह छोड़ देते हैं। या तो सुविधा मिलने पर अपनी सीटों पर सुस्ताते हैं या फिर पत्रिकाओं और किताबों में कहानियाँ-किस्से पढ़ते हैं। ये सब ऐसे ही डिब्बों की बातें हैं, जिनमें इंस्पेक्टर जयकुमार जैसे लोग सफर करते हैं। भीड़ भरे चालू डिब्बों में इतनी सहज ऐश्वर्यभरी यात्रा की कल्पना नहीं कर सकते आप!

जयकुमार खिड़की की एक सीट के पास अधलेटे-से पड़े थे। खिड़की के शीशे से धूप आने के बावजूद उन्होंने उसे बंद नहीं किया था और मुँह पर सीधी तपिश पाने के बाद भी कभी-कभी आदतन शीशे के पार सरकते खेत-खलिहानों को देख ही लेते थे यदाकदा। गाड़ी की गति जरा धीमी थी। कोई घुमावदार-सा रास्ता था। चट्टानें और बीच-बीच में सूखे घास के मैदान से आ-जा रहे थे। कहीं-कहीं मिट्टी की कटान से बने नहर-नाले भी बड़े भयावह-से दिखाई पड़ते थे, और कहीं-कहीं ऐसे मनोरम भी कि बचपन की लुका-छिपी के दिनों को याद कर ले आदमी।

ऐसे ही एक मोड़ पर जब गाड़ी रेंगती-सी गुजर रही थी, जयकुमार ने देखा, आदम-विहीन बियाबान में जहाँ किसी परिन्दे के पर मारने के आसार भी आसानी से नजर नहीं आते थे, एक मोटर साइकल खड़ी थी। एकदम नजर जमा कर उधर ताका उन्होंने। साथ ही सेल्युलाइड पर गुजरते किसी दृश्य की ही भाँति एक और दृश्य दिख गया उन्हें। पहले तो एक खड्डे में गुलाबी कपड़ों में लिपटी एक गठरी-सी को देखकर वे समझे कि शायद देहात की कोई जनानी दिशा-मैदान से फारिग होने बैठी है, पर उसी के एकदम करीब जरा आगे एक माजरा और देखा। एक आदमी एक दूसरी औरत के साथ वहाँ हाथापाई-सी कर रहा था। औरत ने जमीन से एक पत्थर उठाकर आदमी पर मारने का उपक्रम-सा किया, पर आदमी तिरछा होकर बच लिया, फिर पलक झपकते ही उस पर झपटा और उसे अपने से लिपटा-सा लिया। बस इतना ही देख पाये जयकुमार, गाड़ी आगे बढ़ गई। और कोई वक्त होता तो शायद वे एक बार अपने साथियों की ओर देखकर एक आँख दबा जरा मुस्कराभर देते, और बात आई-गई हो जाती, लेकिन आज तो एक और ही धुन में थे। समय के हिसाब से स्टेशन भी आने ही वाला था। एकाएक सीट से उठकर बाहर दरवाज़े तक चले आये। बाहर पीछे की ओर जरा झाँकने की कोशिश भी की परन्तु गाड़ी शायद किसी ऐसे घुमावदार मोड़ पर थी कि तुरन्त ही दृश्य ओझल हो गया। वहीं बेचैनी से कुछ देर खड़े रहे फिर दरवाज़े के साथ ही बने बाथरूम में घुस गये।

मुश्किल से पाँच-सात मिनट का समय गुजरा होगा कि गाड़ी किसी छोटे शहर के आउटर पर पहुँचती-सी प्रतीत हुई। वे फिर से बाहर दरवाज़े पर आ खड़े हुए और धीमे-धीमे ओझल होते उस शहर के हिस्सों-इमारतों को देखते रहे जिसमें न जाने उन्हें कितने दिन ठहरना था। गाड़ी के धीमी होते ही भीतर लौटकर झटके से अपना सूटकेस उठा लिया और प्लेटफार्म से गले मिलती खड़ी हुई गाड़ी को आखिरी बार छू कर कूद से ही पड़े। तेज रफ्तार से चल पड़ने के बाद भी उन्होंने देखा कि उनके स्टेशन से बाहर निकलने से पूर्व ही गाड़ी ने प्लेटफार्म फिर से छोड़ दिया था।

जयकुमार स्टेशन से बाहर निकलकर एक डाकघर के भीतर दाखिल हुए और थोड़ी ही देर में कोई फोन करने में तल्लीन हो गये।

कुछ देर के बाद शहर के एक भीड़ भरे बाजार के बीचों-बीच एक साफ-सुथरे-से होटल के कमरे में लेटे जयकुमार ताजा अखबार के पन्ने सरसरी तौर पर देख रहे थे। कुछ क्षण पश्चात् कमरे के दरवाज़े पर आहट हुई। दरवाज़ा वैसे ही खुला हुआ था। किवाड़ को ढकेल कर होटल में काम करने वाला एक लड़का भीतर आया, बुशर्ट की जेब से एक विल्स का पैकेट, कुछ रेजगारी निकाल कर मेज पर रखी और बाहर जाने को हुआ। फिर न जाने क्या सोचकर वापस पलटा तथा जयकुमार से मुखातिब होकर धीमी तथा मरियल-सी आवाज में बोला-

–साहब! और कुछ?

–नहीं, बस जाओ। जयकुमार ने अनदेखे ही कहा।

–साहब कुछ खाने-पीने को।

–अभी नहीं।

–पैर-वैर दबा दूँ साहब?

अब हाथ के अखबार से निगाह हटाकर कुछ चौंकते हुए जयकुमार ने लड़के की ओर देखा। लड़का उसी तरह खड़ा था।

–तुम दिन भर होटल में काम करते हुए थकते नहीं? ऊपर चौथी मंजिल तक बार-बार चक्कर लगाने पड़ते होंगे?

–थकेंगे क्या। यहाँ ज़्यादा ग्राहक आते ही कहाँ हैं साब। और इतनी ऊपर तो कोई-कोई ही ठहरते हैं। अपन को तो बस ये ही लगता है, साब लोग थके-हारे सफर से आकर यहाँ ठहरते हैं, उन्हें जरा-सा आराम मिल जाए लॉज में..... बाकी अपने को क्या मतलब साहब।

–कितनी टिप मिल जाती है एक दिन में?

–क्या? लड़का शायद टिप का मतलब नहीं समझा।

–क्या लेते हो हाथ-पैर दबाने का? अब जरा तेज आवाज में पूछा जयकुमार ने। लड़का हँस दिया, बोला–लेंगे क्या साहब, अपनी मर्जी से जो दे जाते हैं सो ले लेते हैं। हम कोई पैसे के लिए थोड़े ही.... लड़का खिसिया-सा गया। फिर धीरे-धीरे कदम बढ़ाता हुआ कमरे से बाहर निकलने लगा।

–ठहरो! लो दबा दो पैर.... कहकर जयकुमार ने पैर सीधे कर दिये और तकिये के सहारे से अधलेटे होकर अखबार बिस्तर पर फैला लिया। लड़का पास ही आकर कोने में बैठ गया और धीरे-धीरे पैर दबाने लगा। गर्मी कुछ ज़्यादा ही थी। अखबार से ध्यान हटाकर जयकुमार आँखों को बंद करके सीधे हो गये।

उन्हें आराम में आता देखकर लड़का और अधिक उत्साह से जोर लगाकर पैर दबाने लगा। थोड़ी देर तक पैर दबाने के बाद लड़का थोड़ा ऊपर की ओर खिसक आया और उनका हाथ अपनी हथेलियों में लेकर अंगुलियाँ चटखाने लगा।

–जरा एक मिनट ठहरना। कहकर जयकुमार उठे और कमरे में ही भीतर बने बाथरूम की किवाड़ खोलकर भीतर चले गये। बाहर निकले तो गर्मी की बेहाली से उकता कर वे पैर फैलाकर वापस पसर गये।

लड़का फिर से तेजी से हाथ चला कर पैर दबाने लगा। जब तक लड़का उनके सिरहाने आकर सिर दबाने को हुआ जयकुमार को काफी आराम आ चुका था। पलकें नींद से बोझल होने लगी थीं। सिर मालिश कर फिर वह पैरों की ओर बैठ गया।

–साहब? आप कब तक रुकेंगे? लड़का एकदम चहका।

–क्यों? वे उपेक्षा से बोले।

–ऐसे ही रात की गाड़ी से जाने वाले हैं या रात को भी ठहरेंगे...

–रुकूँगा यहीं। कल जाना है मुझे। वे बोले।

लड़के की आँखों में चमक आ गई।

अधखुली पलकों से ही जयकुमार ने देखा लड़का फिर उनके घुटने सहलाने लगा। इतना ही नहीं, बल्कि बातों-बातों में वह जांघों के कुछ  संवेदनशील हिस्सों तक भी पहुँच गया। वे हड़बड़ा-से गये।

वे थोड़े असहज हुए। एकदम करवट बदलकर उन्होंने पैर इस तरह खींच लिये कि लड़के का हाथ वापस घुटनों पर सरक गया। पर जयकुमार को लगा कि करवट बदलते-बदलते भी उनकी उत्तेजना छिपी नहीं है और सीमित वस्त्रों में होने के कारण वह लड़के पर भी जाहिर हो गई है।

अब लड़का चहककर खड़ा हो गया।

–साहब, रात के लिए कोई इन्तजाम करूँ?

–इस प्रश्न पर जयकुमार हतप्रभ-से हो गये, लेकिन वह अपने भाव चेहरे पर नहीं लाये। बिल्कुल सहज स्वर में बोले—

–कहाँ?

–यहीं, इसी कमरे में भेज दूँगा साहब।

–कौन है?

–हैं साहब। भतेरी हैं। पीछे बस्ती है। दो-एक तो यहाँ सफाई करने, झाडू लगाने भी आती हैं।

जयकुमार की तबीयत हुई कि लड़के को कसकर एक थप्पड़ रसीद कर दें और डांट कर भगा दें, पर जब्त करके बोले—

–क्या लेगी?

–कौन-सी, झाड़ू वाली को तो पाँच-सात दे देना।

–और?

लड़का एक बार फिर उत्साहित-सा हुआ। बोला–हाँ, और अच्छी भी आ जायेंगी। लड़के का हौसला कुछ ज़्यादा ही बढ़ गया। अब वह मार्गदर्शन करने तक की स्थिति में आ गया। चहककर बोला–बल्कि मैं तो बोलता हूँ साब, आप पाँच-दस रुपये मत देखो, माल सही होना चाहिये। .... वो लोग.... क्या है साहब, हर एक ऐरे-गैरे के साथ जाती हैं न....मैं लाता हूँ आपके लिये.... देखना।

जयकुमार अब गहरी नजर से उस लड़के को देखते रह गये, जिसकी उम्र मुश्किल से अभी सत्रह-अठारह साल होगी।

–एक बात बोलूँ साहब? यहाँ नारी निकुंज है ना, उसकी आती हैं....पर पैसे......

–कितने पैसे लेगी?

लड़का थोड़ा-सा सोच में पड़ा, फिर बोला–पूरी रात रखोगे?

जयकुमार आँखें झुकाए उसी तरह बैठे रहे, कुछ बोले नहीं।

लड़का ही फिर बोला–खाना-वाना खिला देना साहब! व्हिस्की उस्की पियेगी साथ में, तो बीस-पच्चीस में आ जायेगी। अच्छी-अच्छी हैं साहब पढ़ी-लिखी।

–पढ़ी-लिखी क्या करती है?

–हाँ.... लड़का खिसियाकर शरमा गया.... साहब! खाना नॉन वेज लेते हो या सादा? जयकुमार थोड़े से सकपकाये फिर एक झटके से उठते हए बोले-

–तुम ऐसा करना रात को नौ-साढ़े नौ के बीच आ जाना। अभी जरा हमें एक काम से जाना है।

-.... तो साहब.... पहले से बताना पड़ेगा, ले आऊँ न.... व्हिस्की के लिये पैसे.... 

जयकुमार ने जेब से बीस-बीस के दो नोट निकालकर लड़के को दे दिये। लड़का प्रसन्नता को अपने चेहरे पर आने से रोक नहीं पाया। यहाँ तक कि जब रुपये जेब में ठूँसता हुआ कमरे से बाहर निकला तो चेहरा लाल नजर आ रहा था।

जयकुमार पन्द्रह मिनट बाद तैयार होकर कमरा बंद करके होटल के काउण्टर पर पहुँचे तो वह लड़का सीढ़ियों के पास वहीं बैठा था और जयकुमार की ओर टुकुर-टुकुर ताक रहा था। फिर उठकर बाहर निकल गया। उसके जाते ही जयकुमार ने काउण्टर क्लर्क से, जो होटल का मैनेजर और मालिक भी हो सकता था, पूछा-

–ये लड़का आपके यहाँ कब से काम करता है?

चेहरे की मुस्तैदी से मैनेजर, लिखने के ढंग से क्लर्क और होटल के एकछत्र आधिपत्य से मालिक-सा दिखता वह आदमी चौंका। लिखते-लिखते उसका हाथ रुक गया। ऊपर देखकर जरा गंभीर से लहजे में पूछा-

–क्या हो गया?

–नहीं कुछ नहीं, मैंने तो वैसे ही पूछा। जयकुमार ने उसे आश्वस्त किया।

संशय से देखता हुआ आदमी फिर से काम में तल्लीन हो गया। बोला—

–एक डेढ़ साल हो गया।

–यह रहता कहाँ है?

–यहीं पीछे घर है इसका, थोड़ी ही दूर गली में।

–और कौन-कौन हैं इसके परिवार में?

–अजी बात क्या है, कुछ चोरी-चकारी कर ली क्या? पूरा खानदान रहता है इसका तो। इसका बाप बरसों से रिक्शा चलाता था। अब इसका बड़ा भाई चलाता है। बाप बूढ़ा है। स्कूल में पढ़ने डाला था इसे। साल-दो साल बाद आकर छोड़-छाड़ कर बैठ गया। हमारे यहाँ रखा गया था इसका बाप। छ: महीने सफाई करता था.... मेहनती है लड़का, हमने वेटर रख लिया।

–नहीं, कोई खास बात नहीं है चोरी-वोरी कुछ नहीं की। मैंने तो.... जरा बताओगे घर कहाँ है इसका?

अब काउण्टर वाले आदमी का धैर्य जवाब दे गया। तेज-सी आवाज में बोला–क्या बात है साहब? ले-लू मत जाना इसे। यहाँ पहले ही काम के लिए आदमी नहीं मिलते। हमारा काम सीखा-जाना आदमी है....

फिर उस आदमी ने भीतर से एक नौकर को आवाज दी। पल भर में रसोईघर से निकलकर अंगोछा लपेटे, मैली बनियान से मुँह पौंछता हुआ एक और लड़का आकर खड़ा हो गया।

–जरा इन साहब को शम्सुद्दीन के घर ले जा। आदमी ने लापरवाही से कहा। लड़का आँखें फाड़े कभी जयकुमार को और कभी अपने मालिक को देखने लगा। फिर धीरे-धीरे खिसकता हुआ-सा जयकुमार के आगे-आगे चल दिया।

वह नौकर जयकुमार को एक गली में ले जाकर नजदीक के दालान का इशारा कर लौटने लगा, पर तभी सामने से एक बूढ़ा खांसता हुआ नजर आ गया। जयकुमार को कुछ पूछना नहीं पड़ा, वही नौकर उन्हें बूढ़े  का परिचय यह कहकर दे गया कि शम्सुद्दीन का बाप बाहर ही बैठा है। वे भीतर दाखिल हो गये। बूढ़ा उठकर फौरन बाहर निकल आया। बोला–आइये, तशरीफ लाइये हुजूर... फरमाइये....शिष्टाचार के तले अपनी उत्सुकता छिपाता हुआ वह खाट को नीचे बिछाकर अंगोछे से झाड़ने लगा। फिर दोहरा हो गया अदब से–बैठिये, तशरीफ रखिये हुजूर। बोलिये क्या खिद्मत करूँ?

–यह शम्सुद्दीन आप ही का बेटा है न?

–हाँ! जी हाँ, पर क्या हुआ, क्या कर दिया उसने?

–नहीं-नहीं, घबराइये मत, उसने किया कुछ नहीं। बैठिये, आप भी इत्मीनान से बैठ जाइये, कहाँ है वो? है इस वक्त घर में? उससे जरा बात करनी थी।

–इस वक्त तो नहीं होगा हुजूर। इस वक्त तो घर में मैं और बस उसकी अम्मी ही होती है। वो तो दोनों भाई रात को ही आते हैं घर में। वो होटल में मिल जायेगा आपको। वहाँ नहीं था क्या? बूढ़े को जैसे याद आ गया कि होटल का नौकर ही जयकुमार को यहाँ छोड़कर गया था। फिर भी कुछ सोचता-सा बूढ़ा बोला–उसकी ड्यूटी होती है शाम तलक तो। उसके बाद ही घर आ पाता है।

–खैर कोई बात नहीं, मैं मिल लूँगा उससे। आप बेफिक्र रहिये, और नाहक चिन्ता की कोई ज़रूरत नहीं है खाँ साहब.... कोई खास बात नहीं है। जयकुमार ने जरूरत से ज़्यादा नम्र होते हुए कहा। बूढ़ा 'खाँ साहब’ का संबोधन पाकर जैसे निहाल हो गया। हाथ अपने-आप जुड़ गए उसके। लेकिन फिर तुरन्त ही झेंप गया जब उसने देखा जयकुमार अभी जाने के लिए उठे ही नहीं थे। कुछ सोचकर जयकुमार बोले—

–कितना पैसा देते हैं ये होटल वाले उसे?

–अजी क्या देते हैं। गरीब का तो बस पेट होता है और रोटी होती है। इन दोनों का मेल-मिलाप ताजिन्दगी चलता रहे, ये ही बड़ी इनायत होती है खुदा की। वैसे लड़का नेक है। एक तारीख को जो मिलता है लाकर अपनी अम्मी की हथेली पर रख देता है....हँ....हँ...हँ....अभी जनानी तो है नहीं उसकी.... लड़के में ऐब नहीं है कोई.... ईमानदार तो बड़ा वाला इब्राहिम भी है.... पर साहब.... जरा एक बात पूछूँ..... बूढ़ा अब किसी रहस्यमय स्वर से में आ गया। बोला-

–यदि कोई हर्ज न हो तो एक गुजारिश करूँ....

–हाँ-हाँ कहिये....

–ये सब किसलिए पूछ रहे हैं आप? आपने परिचय भी कराया नहीं हुजूर आपका?

–ओह.... हाँ! कहा न कोई खास बात नहीं.... जयकुमार को अब बात को ज़्यादा छिपाना अटपटा और संशय पैदा करने वाला-सा महसूस हो रहा था। उन्होंने मनगढ़न्त-सा जवाब दे डाला –वैसे ही.... मैं भी यहीं-कहीं अपना काम डालने की सोच रहा हूँ ना। काम के लिए मेहनती और भरोसे के आदमी मिलते कहाँ हैं आजकल.... ये लड़का देखा तो.... यहाँ आना-जाना होता रहता है मेरा। छोटा-सा एक झूठ और निकल गया जयकुमार के मुँह से।

–अच्छा-अच्छा....सारा संशय धुल गया मियांजी का। तभी जयकुमार ने गौर किया, दरवाज़े की ओट से शरबत के दो गिलास दिखाई दिये और खंखारने की एक जनानी आवाज भी सुनाई पड़ी।

–अरे, ये तकलीफ क्यों की आपने? जयकुमार ने शिष्टाचार निभाया। बूढ़ा गिलास पकड़ने के लिए उठ चुका था।

–तकलीफ क्या बाबूजी, ये क्या खुदा की कम इनायत है हम पे कि लड़के के लिए काम-मजूरी वास्ते मालिक लोग खुद तफ्तीश करते हुए हमारी ड्यौढ़ी पे आएं। बूढ़ा जैसे गद्गद् होकर कहीं खो गया। कुछ ठहरकर फिर बोला–साहब, जब तक अपने हाड़ घिसे नहीं थे, मैंने इन बच्चों को पढ़ाने-लिखाने, काबिल बनाने की पूरी-पूरी ख्वाहिश पाली, अपनी हैसियत जैसी। पर.... खैर अब भी आपके फजल से कमी-नुक्ता नहीं है कोई। अगले जाड़ों में इसके निकाह की सोच रहे हैं अब तो। बूढ़े का सन्तोष और आकांक्षा दोनों आँखों में एक साथ झलके।

–निकाह के लिए छोटा नहीं है अभी?

–हैं-हैं-हैं.... अब आप लोगों जैसी बड़ी बातें तो हुजूर न करनी आती हैं, न पचानी हम खाकसारों को। पर हमारी नजर में तो जिस दिन घर पर बाप के साथ सोते में बेटा रात को चारपाई चरमराने लगे, हम गरीब देहाती लोग तो फिक्र में पड़ ही जाते हैं...

जयकुमार बूढ़े की सटीक दलील पर झेंप-से गये। फिर शरबत का गिलास एकाएक एक घूँट में खाली किया और उठ खड़े हुए। बूढ़े ने लपककर दोनों हाथ जोड़ दिये और बाहर तक आकर सलाम में दोहरा हो गया।

–तो हुजूर मैं भेजूँ उसे...?

–नहीं कोई जरूरत नहीं। अभी शाम को मैं होटल में ही मिल लूँगा उससे। कहते हुए जयकुमार ने भी हाथ जोड़ दिये।

रात को जयकुमार नौ बजे से ही कमरे के दरवाज़े के हर खड़के को कान देने लगे थे। एक दो बार आहट-सी सुनकर उन्होंने उठकर दरवाज़ा खोला भी, पर हर बार उन्हें निराशा ही हाथ लगी। आधा घण्टा और गुजरा होगा कि उनकी बेचैनी और बढ़ने लगी। शम्सुद्दीन न खाना लेकर आया और न ही उसने कोई और सूचना आकर दी। जयकुमार शाम को ही होटल मालिक और शम्सुद्दीन के घर पर उसके पिता से उसके बारे में काफी बातचीत करके संशय के बीज बो चुके थे, इसलिए अब ज़्यादा पूछताछ करने जाना नहीं चाहते थे। फिर भी जब रात के साढ़े दस बज गये और उन्हें भूख सताने लगी तो हठात् उन्हें नीचे उतरकर काउण्टर पर पूछताछ करनी ही पड़ी। उनकी इस जानकारी से होटल मालिक चकित था कि शम्सुद्दीन उनसे खाने के लिए पैसे ले गया है पर अब तक आया नहीं है।

मालिक एकदम हरकत में आ गया।

–कितने पैसे ले गया है आपसे?

–चालीस रुपये।

–और कुछ भी मंगवाया था क्या? मालिक ने जरा रूखेपन से पूछा।

–हाँ, दो-एक बीयर की बोतलें लाने को कहा था। बस यही निकला जयकुमार के मुँह से, उन्होंने सहज होकर जानकारी दी।

–आप चलिये कमरे में, मैं देखता हूँ क्या चक्कर हो गया। लौंडा ऐसा है नहीं। जाएगा तो कहीं नहीं। कोई न कोई लफड़ा ही फँसा होगा.... खैर मैं खाना बाहर से मँगवाकर भिजवाता हूँ, कहकर उस व्यक्ति ने जयकुमार को तो संतुष्ट कर दिया पर खुद असन्तुष्ट होकर इधर-उधर घूमने लगा। उसने लॉज के पिछवाड़े रसोई घर में जाकर नौकरों से थोड़ी-बहुत पूछताछ की।

आधे घण्टे के बाद एक और नौकर ने बीयर की दो बोतलों, एक गिलास और एक ट्रे में खाने के बर्तनों के साथ कमरे में प्रवेश किया। उसी से जयकुमार को पता चला कि शम्सुद्दीन आज शाम से ही नहीं है। यह भी पता चला कि अमूमन शाम के वक्त वह कहीं जाया नहीं करता, पर आज ही न जाने कहाँ चला गया। जयकुमार ने अनुमान लगा लिया, हो न हो उनके द्वारा शाम को उसके घर जाकर की गई पूछताछ ने उसे शक में डाल दिया है और वह उनके सामने आने से घबरा रहा है। इसीलिए संभवत: उसने और 'कोई’ बन्दोबस्त करने का जोखिम भी नहीं उठाया। जयकुमार को कुछ क्रोध अपनी जल्दबाजी पर आया लेकिन थोड़ी परेशानी उस पर भी हुई। उनकी बोटियाँ क्रोध से फड़कने लगीं, फिर भी वह बीयर का गिलास हाथ में लेकर जल्दी-जल्दी खाना खाते रहे।

कुछ देर के बाद जब नौकर बरतन उठाने के लिए वापस कमरे में आया तो जयकुमार फिर से बाहर निकलने के लिए तैयार हो रहे थे। कुछ सोचकर उन्होंने टोह लेने की गरज से उस नौकर को रोका। बोले—

–तुम्हारा नाम क्या है?

–सीताराम....

–रात को कितने बजे तक ड्यूटी है तुम्हारी?

–मेरी ड्यूटी तो यहीं रहती है। रात को यहीं सोता हूँ, काउण्टर के पास नीचे.... रात को भी दो गाड़ियाँ आती हैं न। कभी-कभी पैसेंजर आ जाते हैं। लड़के ने विस्तार से बताया।

–तुम्हारा काम खतम हो गया?

–हाँ, काम तो खतम हो गया। ये बरतन देने जाऊँगा होटल तक।

–फिर जरा यहाँ आओगे, ऊपर।

–क्यों? लड़के ने शंकास्पद निगाहों से देखा।

–तुम मालिश-वालिश करते हो हाथ-पैरों की?

–नहीं साहब! लड़का जाने लगा।

–और है होटल में, जो कोई करता है।

–पता नहीं साहब। अपने से यह काम नहीं होता। नीचे पूछो काउण्टर पर। लड़का रुष्ट-सा होकर बाहर नीचे उतर गया। उसके जाते ही जयकुमार उठ खड़े हुए।

जयकुमार ने कमरे में ताला लगाया और बाहर घूमने के इरादे से नीचे आ गये। रात के सवा ग्यारह बज जाने के कारण चहल-पहल जरा कम हो गई थी पर पान की दुकानें, इक्का-दुक्का रेस्टोरेंट अब भी जोरों पर चल रहे थे। और जगह-जगह पुराने मशहूर गायक-गायिकाओं के सदाबहार नगमे कहीं मौलिक और कहीं डुप्लीकेट आवाजों में बज-बज कर गूँज रहे थे। जयकुमार का ध्यान शमशाद बेगम के एक पुराने मशहूर गीत पर गया तो मन-ही-मन सोचने लगे कि आज के संगीतकारों को पुरस्कार दिया जाना चाहिए, इस बात के लिए कि उनके बेहूदा कानफोड़ू संगीत ने कम से कम पुराने गीतों का चलन फिर से ला दिया। आज वे फिर सुने जा रहे हैं।  

जयकुमार खिन्न-से थे। शम्सुद्दीन की हरकत ने उसे उनकी निगाह में और भी संदिग्ध बना दिया था। और इतना वह मन-ही-मन तय कर चुके थे कि इस शहर से अब उनकी वापसी संभव नहीं होगी। दो-एक रोज उन्हें यहाँ रहना ही होगा। विचारमग्न वे काफी दूर तक टहलते-टहलते अपेक्षाकृत एक सुनसान से ही इलाके में चले गये। खुली हवा में टहलने का भी अपना एक अलग ही नशा होता है।

फुरसत से टहलते हुए जब समूचे घटनाचक्र को जयकुमार ने विश्लेषणात्मक तरीके से मन-ही-मन याद करते हुए दोहराकर देखा तो उन्हें अपनी स्वयं की भूल सिर्फ एक जगह पर नजर आई। उन्हें यही लग रहा था कि उस लड़के शम्सुद्दीन के बारे में जानने और उसकी छिपी हुई गतिविधियों के बारे में खोजबीन करने में कुछ जल्दबाजी से ही काम लिया। उन्हें शम्सुद्दीन के घर आज नहीं जाना चाहिये था, और पूछताछ भी आज की रात गुजार लेने के बाद ही कर सकते थे। लड़के के मन में सन्देह घर कर गया और वह एकाएक गायब हो गया। अब वह कल हाजिर भले ही हो जायेगा किन्तु और कुछ तो वह आसानी से अब नहीं ही बतायेगा। इस धंधे से लगा हुआ लड़का थोड़ा-बहुत चौकन्ना तो होगा ही। जिस तरह शम्सुद्दीन ने उन्हें उकसा कर वेश्यावृत्ति की दावत-सी दे डाली थी, उससे स्पष्ट जाहिर था कि यह कार्य यहाँ बड़े पैमाने पर हो रहा है और इस तरह के लड़के जब खुले आम दलाली में लगे हैं तो कारोबार की व्यापकता सहज ही आंकी जा सकती है।

उन्हें पूरा विश्वास था कि इस लड़के से उन्हें वर्तमान सुधीर पाटिल हत्या काण्ड का कोई सुराग नहीं भी मिला तो भी कोई-न-कोई सनसनीखेज सूत्र जरूर हाथ लगेगा। कोई न कोई रहस्योद्घाटन वे इस सूत्र से करके रहेंगे। इस नगर के इस 'नारी निकुंज’ पर भी उनकी नजर थी।

वास्तव में उनके यहाँ आने का मुख्य कारण यही था। दिल्ली में सुष्मिताजी के घर एक रात को अत्यन्त रहस्यमय तरीके से अजनबी युवक सुधीर पाटिल का कत्ल हो गया था। सुधीर पाटिल के कपड़े और अन्य सामान जो सुष्मिताजी के घर से पुलिस ने बरामद किया था, उसके आधार पर सुधीर के कथित पते पर पुणे पहुँचकर खोजबीन की गई थी। उसके रिश्तेदारों तथा निकट संबंधियों से उसकी हत्या के संभावित कारणों, स्थितियों के बारे में सुराग पाने की कोशिश की गई। और वहीं कुछ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सूत्र पुलिस के हाथ लगे थे जिनके आधार पर इस केस को नया मोड़ मिल गया था। सुष्मिताजी के घर महज संयोग से आ गया यह नौजवान वास्तव में एक जबरदस्त गिरोह से संबद्ध होने के संकेत पाए गये, जिससे पुलिस को बड़े पैमाने पर हरकत में आना पड़ा। संक्षेप में जो जानकारी जयकुमार को यहाँ आने से पूर्व इस केस के बारे में हो सकी थी, यहाँ के सूत्रों के देखते बिलकुल बेबुनियाद नहीं कही जा सकती थी।

हुआ वास्तव में ऐसे, कि सुधीर हत्या काण्ड की तफ्तीश करती पुलिस जब उसके गृह नगर पुणे पहुँची तो वहीं सुधीर के एक रहस्यमय ढंग से घर पर छुपा रखे गये बैग से कुछ कागजात बरामद हुए। उन कागजात से सुधीर की उसके एक मित्र से खतोकिताबत जाहिर हुई। उन खतों से यह स्पष्ट हो गया था कि सुधीर का संबंध वास्तव में बम्बई और दिल्ली के बीच सक्रिय एक ऐसे आपराधिक रैकेट से हो गया था जो देश के विभिन्न हिस्सों से लड़कियों को अगवा कर, उड़ाकर विभिन्न वेश्यालयों को बेचने का काम बड़े पैमाने पर कर रहा था। देश में विभिन्न उम्र और समुदायों की कई लड़कियों के लापता हो जाने या भगा लिए जाने की विभिन्न घटनाओं की एक सिलसिलेवार कड़ी इस समूचे घटनाक्रम से वाबस्ता थी। सुधीर के उस तथाकथित मित्र की गिरफ्तारी के बाद सुधीर के संबंध में अत्यन्त सनसनीखेज तथ्य सामने आये। वह गिरफ्तारी सुधीर के घर से बरामद खतों के आधार पर ही हुई किन्तु बाद की तफ्तीश ने इसके अन्य कई पहलुओं को उजागर करके कुछ और गिरफ्तारियों का रास्ता भी खोला।

एक कड़वी और उलझी हुई वास्तविकता यह थी कि कम उम्र का भोला-सा दिखने वाला वह शख्स सुधीर किरण से प्रेम तो करता था परन्तु वह उसे उसके तीन बच्चों सहित स्वीकार नहीं करना चाहता था। उसकी योजना यह थी कि वह किरण को उसके पति से छुटकारा दिलवाने के बाद उसके बच्चों को भी किसी तरह उससे अलग करवा देगा। फिलहाल अपने दो साथियों को भी वह यह विश्वास दिला चुका था कि उसे किरण के बच्चों से कोई मोह नहीं है और यहाँ तक कि पति से आरंभ से ही परेशान और असन्तुष्ट रहने वाली किरण के मन में भी उसके बच्चों के लिए ममता की भावना नहीं है। वह पूरी तरह वासना के वशीभूत हो चुकी है और अपने से चौदह वर्ष छोटे अपने युवा प्रेमी की शारीरिक चाह में अपने मासूम बच्चों का भविष्य भी अँधेरे में लटका देने पर तैयार की जा सकती है, ऐसा सुधीर और उसके साथियों का मानना था। युवा देह मानवता के लिए कैसा तमस रच सकती है, यह स्थिति सामाजिक मान्यताओं के लिए भी एक चुनौती बनाकर खड़ी कर दी थी इस अनोखी प्रेम-कहानी ने, जिसमें एक या दो नहीं पूरे छ: जीवन प्रत्यक्ष रूप से संबद्ध थे।

फिलहाल सुधीर की निगाह किरण की बड़ी बेटी पर थी जिसकी आयु अभी मात्र तेरह वर्ष थी। सुधीर जैसी कच्ची बुद्धि, पर पक्की बदचलनी वाला युवक उस लड़की के साथ अपना किसी प्रकार का भावनात्मक संबंध नहीं देख पाता था। वह आयु में उससे सिर्फ नौ वर्ष बड़ा था पर उसकी माँ का प्रेमी था। इस रूप में लड़की के लिए किसी पितृवत् भाव की संभावना वहाँ कोसों दूर थी।

सुधीर के ऊपर लगातार दबाव डाला जा रहा था कि वह किसी प्रकार उस बालिका को इंसानियत के उन क्रूरतम कारोबारियों के हत्थे चढ़वा दे। सुधीर के लिए यह कुकृत्य आसान भी बन गया था, क्योंकि किरण पूरी तरह उसके प्रेम में गिरफ्तार हो चुकी थी। किरण अपने पति से आरम्भ से ही सन्तुष्ट नहीं थी। इसी छटपटाहट ने विवाहिता किरण की प्यासी निगाहों से परपुरुषों की तलाश जारी करवाई और इसी अतृप्त कामेच्छा ने सुधीर और किरण को मिलाया था जिनका मेल-मिलाप वक्त की रफ्तार के साथ प्रेम में तब्दील हो गया था। धीरे-धीरे सुधीर और किरण के बीच शारीरिक रिश्ते इतनी मजबूती और बारंबारता से पनपते चले गये कि वे अपने मिलन की सामाजिक स्वीकृति की चाह तक करने लगे। सुधीर ने, जो आरंभ में अपने गलत राह के मुसाफिर दोस्तों की सोहबत के कारण इस गिरोह से जा फँसा था, अब अपनी प्रेमिका के पति के बच्चों को रास्ते से हटाने के लिए इस योजना में अपने को पूरी तरह फँसा लिया था।

किरण इस बार दिल्ली जाते समय बेटे को अपने साथ लिये जा रही थी। वैसे भी सबसे छोटा होने के कारण बेटा उसे प्रिय भी था और उसके प्रति वह आसानी से कोई उपेक्षा या लापरवाही होने नहीं देती थी। किन्तु दोनों बेटियाँ पीछे से अपने पिता के घर ही रहने वाली थीं।

इन दोनों बच्चियों को इस बार किरण की अनुपस्थिति में किरण की ससुराल से गायब कर लेने की पूरी योजना सुधीर की मदद से बनायी जा चुकी थी। इस समय उनकी दृष्टि में इस कार्य को अंजाम देने में एक लाभ यह भी था कि लड़कियों के गायब होने की सूरत में पुलिस के लिए शक करने के लिए किरण के परिवार के लोग एक महत्त्वपूर्ण सूत्र के रूप में मौजूद थे जो स्वयं किरण की अपने पति के साथ लगातार अनबन से अब उसे पति से छुटकारा दिलवाने की बात अदालती स्तर पर भी सोचने लगे थे। सुधीर को गिरोह की ओर से यही सलाह दी गई थी कि किरण की बड़ी बेटी को अगवा करके किसी प्रकार से इस 'नारी निकुंज’ में पहुँचा दिया जाये, ताकि बाद में कुछ समय बाद मामले की सनसनीखेजता पर मिट्टी पड़ जाने के बाद आगे की बात सोची जा सके। वैसे भी पुलिस को मिली जानकारी के आधार पर इस 'नारी निकुंज’ के बारे में ही यह रहस्यमय जानकारी मिली थी कि अपराधी संभावित जिस्म-बाजार की आरंभिक जिंसों को बड़े शहरों के ख्यात आधुनिक वेश्यालयों के काबिल बनाने का कार्य यहीं कर रहे हैं। इस छोटे-से शहर के एकान्त हिस्से में बने नारी निकुंज को पुलिस की निगाहों में किरकिरी बना छोड़ने का कार्य इन्हीं महत्त्वपूर्ण सूत्रों ने किया था।

और एक सबसे दिलचस्प बात यह थी, कि सुधीर के तथाकथित दोस्त ने गिरफ्तार होने के बाद जयकुमार की मार के बलबूते पर जो एक 'आँखों देखा किस्सा’ सुनाया था, वह संयोग से उसी एक घटना से मेल खाता था जो इंस्पेक्टर जयकुमार ने रेलगाड़ी से इस नगर की सरहद में दाखिल होते ही देखा था। उनके पिछले 'शिकार’ को नारी-निकुंज में लाया गया था, पर इससे पूर्व अपने एक और साथी की मदद से एक मोटरसाइकल पर उड़ाई गई वह लड़की शहर की सरहद के बाहर लाई गई थी, जहाँ बलात् उसके जिस्म से अस्मत के आवरण और औरतपन का पानी उतारा गया था। जयकुमार वैसा ही दृश्य उसी शहर के एक हिस्से में देखकर भीतर तक हिल गये थे जब दोपहर में वे इस शहर में आये।

पुलिस को और जो सुराग मिले थे, वह इस बात की पुष्टि करते थे कि इस नारी-निकुंज में भर्ती लड़कियों को पेशे के लिए विवश करने का अन्दाज भी निराला था। यहाँ एक पूरा गैंग इस दुष्कर्म के लिए सक्रिय था। वे किसी नई लायी गई लड़की को सुनसान बियाबान में ले जाकर समाज में न रहने के काबिल बनाते थे, डराते-धमकाते और प्रताड़ित करते थे और साथ ही प्रलोभन देते थे जिस्म की तिजारत से जुड़ी ऐश्वर्यपूर्ण जिन्दगी में कदम रखने का। और इस तरह मनसा-वाचा-कर्मणा अपने व्यवसाय के लिए युवतियों को तैयार करने में कामयाब हो जाते थे।

इस सारे दुष्चक्र और तथाकथित 'नारी-निकुंज’ की नब्ज टटोलने को आये जयकुमार काफी देर तक टहलने के बाद अपने होटल की ओर लौट पड़े। रात आधी हो चुकी थी जब वे सोने के लिए लौटे।

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