Swayamvadhu - 7 in Hindi Fiction Stories by Sayant books and stories PDF | स्वयंवधू - 7

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स्वयंवधू - 7

मैं अपनी गहरी सोच में खोई हुई थी। तभी मैंने स्टडी रूम के दरवाज़े पर दस्तक सुनी। वहाँ सरयू थे। "वृषा तुम्हें तीस मिनट में निकलना होगा।",
"ठीक है, मेरा सूट तैयार करो।", वे कुछ फाइल देखने गए,
"मुझे खेद है वृषा लेकिन समीर सर ने मुझे इस प्रतियोगिता अवधि के दौरान तुम्हारी किसी भी दैनिक गतिविधि में शामिल होने से मना किया गया है।", सरयू ने कहा,
"उसने क्या कहा?", वृषा हक्के-बक्के रह गए,
उसने जारी रखा, "हाँ वृषा। यह कायल की इच्छा है कि सबकुछ वह अपने नियंत्रण में रखे, यहाँ तक कि तुमने नीचे जो नाश्ता किया था, वह भी। वह गुस्से में है और उसके खिलाफ कुछ योजना बना सकती है...तुम जानते हों कि मेरा मतलब कौन है।"
"तुम जाओ मैं इसका ख्याल रखूँगा।", सरयू वहाँ से चले गये,
"क्या हुआ?",
तत्काल खेद-> (इश! वे अपनी गंदगी का ख़्याल ख़ुद रख सकते है। मुझे इतनी पंचायत क्यों है?) उन्होंने मेरी बात नहीं सुनी,
(मुझे पहले कि तरह अपने काम से काम रखना चाहिए।)
"यही-यही होता है!", 'धम!!' उन्होंने अपने हाथ मज़े पर ज़ोर से दे मारा! मैं सोफे पर से उछल गयी। उससे मेरा दिल लगभग बाहर आ गया था। वे उत्तेजित लग रहे थे फिर भी उनकी आँखें कह रही थीं 'मैं कुछ नहीं कर सकता!'
(मैं जानती हूँ यह आँखें। मम्मा...डैडा) ये मेरा व्यक्तित्व नहीं था फिर भी मैं उनके पास गई।
"...वृषा...",
मैं उनके कंधे तक नहीं पहुँच सकती। मैंने ज़ोर से कहा ताकि वे मेरी बात सुने, "वृषा, आपको रिपोर्ट करने जाना होगा। आपको देर हो रही है। अगर आपको किसी चीज़ कि ज़रूरत है तो मैं यहाँ आपके सहायक के रूप में मौजूद हूँ... और दाईमाँ द्वारा नियुक्त भी हुई हूँ। मेरा भरोसा करिए।", (मुझे लगता है कि यही वह तरीका है जिससे मैं उनकी दयालुता का बदला चुका सकती हूँ।)
उन्होंने मुझे ऐसे देखा जैसे 'यह लड़की क्या बकवास कर रही है?' फिर उन्होंने राहत भरी मुस्कान के साथ मेरी ओर देखा, "आपको सूट चाहिए? मैं आपकी मदद कर सकती हूँ।", मैंने पूछा,
"सच में?", वे वापस अपनी तंस वाली हँसी में आ गए,
(कौन था जो थोड़ी देर पहले सिर पकड़कर बैठा था?) "अहम्मम, सच में! मैं घर के काम के साथ-साथ आपके द्वारा सिखाए गए ऑफिस के काम में भी सक्षम हूँ। आप मुझ पर भरोसा कर सकते हैं।", (ये तो खुद को बेचना हो गया।)

हम उनके कमरे में गए, मैंने पहली बार उनके कमरे में प्रवेश किया। यह बहुत बड़ा था! इसमें वह सारी विलासिता थी जो हम सिर्फ फिल्मों में देखते थे। एक बड़े बिस्तर के साथ बड़ी खिड़की, और बाल्कनी को जाता दरवाज़ा...ओह! उनके पास एक बड़ा वॉक-इन-क्लोज़ेट भी था। अमीरी हर इंच में झलक रही थी!
(इतनी अमीरी मुझ गरीब को हज़म नहीं हो रही। मुझे भी इतना कमाना है कि मैं मम्मा-डैडा के लिए सभी सहुलियत वाला घर बनाकर उपहार में दे सकूँ...फिलहाल तो दिल्ली दूर है।)
"चलो पहले उनके कपड़े निकाल लेती हूँ...", मैंने उनका पूरा क्लोज़ेट छान मारा पर काले रंग के अलावा कुछ और रंग था ही नहीं। (ये अंधेरे के बेटे है क्या!?!)
देखा जाए तो वो हमेशा शतरंज की बिसात की तरह सफेद रंग की शर्ट और काले रंग को कोट पहनते है। जब उन्होंने मेरा अपहरण किया तब भी...और उस दिन भी-उन्होंने मुझे काला कोट दिया था...पुफ!-शर्म से मैं अभी मर जाऊँ।
"मेरे पास और कोई चारा नहीं।", काले सूट, नीले-सफ़ेद टाई-डाई टाई के साथ ओशन ब्रीज़ी परफ्यूम लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। मैंने सब निकालकर वृषा के बिस्तर में सही से रख दिया। तब मैंने देखा वृषा का गीला तौलिया बिस्तर पर पड़ा हुआ था।
"ये आदत अमीरीयत भी नहीं बदल सकती।",
"क्या नहीं 'बदल सकती'?", वृषा तभी कमरे में आए,
"इस बेचारे तौलिये कि दुर्गति।", मैंने तौलिये पर तरस दिखाते हुए कहा,
वृषा ने अपना मुँह घुमा लिया। मैंने उस बेचारे को बाहर बाल्कनी में सुखा दिया। मैं अंदर गई,
"वृषाली, मैंने सब काम तैयार रखा है और मेरे बिना नीचे मत जाना।",
"...पर-", मुझे कुछ बोलने का मौका नहीं दिया,
"मेरे अलावा तुम बस सरयू और दिव्या पर ही भरोसा करना, दिमाग कि बात में सरयू पर। समझ गई?",
कोई चारा नहीं, "समझ गई।",
मैं बगल वाले कमरे में थी। अपना सारा काम देख रही थी। वहाँ वृषा आए, "सिर्फ चार फाइल?",
"हम्मम",
"आप अभी निकल रहे हो?",
"हाँ।",
"दोपहर के खाने का क्या?",
"ऑफिस में कैफेटेरिया है।",
मेरे पास कोई शक्ति नहीं थी इसलिए, "रास्ते पर अपना ध्यान रखना।", उन्हें ऐसे जाने दिया।

वे अपने काम पे गए और मैं अपने काम पर लग गई। एक बार जब मैंने काम करना शुरू किया तो समय रेत की तरह निकल गया। इससे पहले कि मुझे पता चलता, यह दोपहर के खाने का समय हो गया था। मैंने दरवाज़े पर दस्तक सुनी और सरयू अंदर आए।
"मैं तुम्हारे लिए खाना लाया हूँ।",
उन्होंने खाना परोसा और बाहर चले गये। मैंने खाना खाया और अपना काम पे फिर से लग गई लेकिन लगातार बैठे रहने से मेरी पीठ में दर्द उठने लगा...
इससे पहले कि वृषा निकले मैंने आम बाल्कनी का उपयोग करने की अनुमति माँग ली थी। इससे उनके बगीचे और आकाश का अद्भुत दृश्य दिखता था जो रात के समय तारों को देखने के लिए तो अधिक उपयोगी था। मैंने फ़ाइलें और लैपटॉप लिया और बीन बैग पर धपाक से बैठ गयी और अपना काम फिर से शुरू कर दिया। कुछ ही देर बाद पहेली मेरे पास आकर सो गई। मेरा आधा काम हो गया। मैं खुद को थोड़ा खिंचने के लिए उठी। वहाँ दिव्या पहेली ढूँढती हुई आई, जब उसने हमें देखा तो वह हमारे साथ बैठ गई। उसने कुछ देर तक मुझसे बातचीत की, वह थी जो पूरे समय बात कर रही थी, जबकि मैं केवल एक श्रोता के रूप में बैठी थी। तभी अचानक पहेली मेरी गोद में आकर बैठ गई।
फिर उसने पूछा, "क्या बिल्लियों को प्रशिक्षित करना संभव है?",
मैं जो केवल पालतू जानवरों के वीडियो ऑनलाइन देखती थी, "हाँ! निश्चित रूप से आप यह कर सकते हैं।",
"सच्ची! कैसे?", उसके बहुत दबाव डालने के बाद मैंने प्रयास किया,
मैंने पहेली के लिए कुछ सूखी चीज़ें लीं और कहा, "पहेली, हाथ मिलाओ..."
वह बस मुझे घूर रही थी तो मैंने आदेश देकर उसका हाथ पकड़ लिया। फिर "अच्छा बच्चा।", उसकी सराहना करते हुए उसे बिल्ली के खाने को पुरस्कार के रूप में दिया। कुछ दोहराव के बाद उसने इसे सीख लिया। यह बिल्ली प्रतिभाशाली थी। (फू!)
दिव्या जो हमें देख रही थी वह आश्चर्यचकित थी कि बिल्ली, कुत्ते की कलाबाजियाँ कैसे कर रह थी, लेकिन यह तो सिर्फ बुनियाद था। मैं भी हैरान थी कि ये मुझसे कैसे हो गया? मुझे पहेली के साथ जुड़ाव महसूस हुआ और दिव्या के साथ थका देने वाला बंधन महसूस हुआ।
(जो भी हो वह लड़की साफ दिल वाली लगती है।) फिर मैं पूरे दिन पहेली के साथ खेलती रही और किसी बच्चे की तरह अपनी बिल्ली को पकड़कर वहीं सो गयी। मैं भयानक ठंड के तमाचे से उठी। मेरे ऊपर कम्बल था, वहाँ मैंने वृषा को आते देखा। मैंने टैब पर समय देखा तो रात के साढ़े ग्यारह बज रहे थे। (वे काफी देर से आए। वे इतने उदास क्यों दिख रहे हैं?)
मैं टैब, लैपटॉप, पहेली ले बाल्कनी का दरवाज़ा बंद करके अंदर आई। पहेली को बाहर छोड़ स्टडी रूम में दो बार खट-खटाकर अंदर चली गई। वृषा अंदर थके-हारे अपना काम कर रहे थे।
"इतनी देर हो गई आपको, आराम कीजिए...", उनकी आँखे लाल थी,
"नहीं, तुम्हें सोना चाहिए, इधर-उधर घूमना बंद करो।",
उनकी पेट से गुड़-गुड़ाने कि आवाज़ आई।
मुझे हल्की हँसी आई, "क्या आपने कुछ खाया?",
वे चुप थे और मुझसे बच रहे थे। मुझे लगा कि मेरे पास कोई विकल्प नहीं थी, "कुछ खाना है? मैं आपके लिए बना दूँगी।",
"नहीं धन्यवाद!", वे इतने स्पष्ट थे कि इससे मेरे अहंकार को ठेस पहुँची।- फालतू का अहंकार।
"वह सही कह रही है तुम्हें कुछ खाना चाहिए। तुमने नाश्ते के अलावा कुछ नहीं खाया। क्या तुमने पानी भी पिया?", सरयू ने आकर कहा,
और हम किचन में, "क्या हमारे पास कुछ बचा हुआ है?"
"चावल।",
"बढ़िया! भैय्या- मेरा मतलब...आ...", (मुझे पहले ही पूछना चाहिए था!)
सरयू मुस्कुराए, "भैय्या ठीक रहेगा।",
"...भ-भ-भैय्या मुझे सामान दिखाइए ना?",
"ठीक है, चलो।",
"वृषा आप व्यस्त है तो अपना काम लेकर नीचे आइए।", हमारी बात मान वृषा भी अपना मोबाइल फोन लेकर नीचे आ गए। मैंने उन्हें गुनगुना पानी दिया। हमने फ्राइड राइस बनाया जो सरल, तेज़ और आसान था। हम तीनों ने एक साथ खाना खाया, जहाँ मैंने वृषा को जीरा, अजवाइन और सौंफ से बनी चूर्ण दी, जिससे उनका पेट हल्का रहे।
"और कभी इतने देर तक भूखे मत रहिये।", मैंने चिंता दिखाई,
हमने खाना खाया और ऊपर चले गए जहाँ हमें देर तक काम करना पड़ा क्योंकि उन्हें कल अपनी मीटिंग के लिए रिपोर्ट चाहिए थी। एक साथ काम करने से बहुत मदद मिलती थी। हमारा काम जल्दी पूरा हो गया और बिस्तर पर चले गए।

अगली सुबह...
संयोग से मैं जल्दी उठी और अपने घावों पर क्रीम लगाई ताकि कल रात कि तरह वृषा की डांट से बच सकूँ। मैंने उनके लिए विशेष रागी दलिया बनाया ताकि वह बिना खाए लंबे समय तक ऊर्जावान रह सके और मैं ऊपर दिव्या और भैय्या के साथ पहेली ट्रेनिंग कर रही थी। ऐसे ही तीन चार दिन बीत गए। मेरे घाव बहुत जल्दी ठीक हो गए और वृषा मुझसे कुछ कसरत करवाने लगे।
"मुझसे नहीं होगा।",
"नखरे मत दिखाओ और यहाँ खड़े हो।", मुझसे बेवजह दो घंटे मज़दूरी कराई। सब ठीक-ठाक था पर मैं चिंतित थी। वह वृषा का दोपहर का भोजन था। वह ठीक से खाना नहीं खा रहे थे जिसका असर उसके शरीर पर पड़ रहा था। मैं इसे समझ सकती थी।
मैं आज देर रात तक जागी ताकि मैं उनके साथ अच्छी बातचीत कर सकूँ। वे फिर काफी देर से आए। यह सप्ताहंत था। मैं उनके इंतज़ार में सोफ़े पर ही सो गयी। जब मैं उठी तो सुबह हो चुकी थी, "वे आए या नहीं?",
जब मैं नीचे गयी तो भैय्या ने मुझे बताया कि वृषा कल घर नहीं आए, वे देर रात घर आऐंगे।
"यह वास्तव में उन्हें बुरी तरह से चूस लेगा।", मैंने अपनी चिंता प्रकट की,
"हाहाहा! लगता तो है।", -भैय्या,
"तो मिस्टर बिजलानी आज भी देर तक काम कर रहे है? क्या अत्याचार है।", -दिव्या,
"लेकिन मैं सोच रही हूँ कि क्या वे खा रहे हैं? या आराम कर रहे है?",
"ओ-ओह! देखो तो किसीको किसकी कुछ ज़्यादा ही चिंता-चिंता हो रही है, हाँ?", दिव्या मेरा मज़ा ले रही थी,
"हाँ?", मैं पूर्णतः मूर्ख,
"अरे! उसकी मासूमियत से मत खेलो!", भैय्या ने उसे चुप करा दिया।
रविवार देर रात वह काफी देर से घर आए। मैं बाहर 'धम' की आवाज़ से जागी। यह मेरे दरवाज़े के ठीक बाहर था इसलिए मैंने थोड़ा सावधानी से दरवाज़ा खोला। वहाँ मैंने देखा कि वृषा ने कुछ फ़ाइलें गिरा दी थी। मैं उनकी मदद करने बाहर गई। सब जमाकर और उनके कमरे में ले गए। फिलहाल वो एक बड़ी सूखी मछली लग रहे थे।
"धन्यवाद, अब जाओ और सो जाओ...", उन्होंने कहा लेकिन...
"रुकिए! आपने आराम किया? क्या आपने कुछ खाया?", उनके आँखे के नीचे के गड्ढे...
(जब से हम आए है, उन्होंने चैन कि एक साँस तक नहीं ली!)
"हाँ, मैंने कुछ खाया।",
वे मरने कगार पर थे।
"तो फिर आप इतने भूखे क्यों लग रहे हो? यदि आप कर सकते हैं, तो थोड़ा आराम करें अन्यथा आप जल्द ही गिर जायेंगे...अगर आप चाहो तो मैं आपके लिए कुछ बना लाती हूँ।",
मैंने इसकी पेशकश की लेकिन मुझे सचमुच बहुत नींद आ रही थी।
"मुझे...भूख नहीं लगी। मेरे पेट और सिर में दर्द है, मैं कुछ काम के बाद सो जाऊँगा।",
(पेट दर्द?) "काम, काम, काम! आपको सिर्फ काम सूझता है! काम से पहले तो आप खत्म हो जाओगे!", मैंने उन्हें खूब डांटा, "मैं आपके लिए गर्म दूध लाती हूँ। तब तक आप हाथ-मुँह धोकर बैठिए।", जाते हुए, "खबरदार जो इन फाइलों को छुआ तो! और हाँ कल आप घर रहकर आराम करेंगे। अगर मदद चाहिए तो मैं कर दूँगी।", कह मैं नीचे रसोई से वृषा के लिए दूध और गुनगुना पानी ले आई। वृषा दूध पानी पीकर अच्छे से सो गए, मैं भी।
कल सुबह उठने के बाद मुझे अहसास हुआ कि कल मैंने वृषा को नींद में कितना डांटा। सुबह से मैं वृषा से मिलना टाल रही थी पर भूल गई थी कि हम एक साथ काम करते थे। अभी मैं उनके साथ स्टडी रूम में घुट रही थी,
"क्या हुआ?", वृषा ने पूछा,
"न-नहीं...मैं (बाल्कनी!) यहाँ पक रही हूँ इसलिए मैं बाहर जाकर अपना काम पूरा करने जा रही हूँ।", मैं जल्दी उठी और बाहर जाने लगी, उसी वक्त वृषा ने मुझे रोका और पूछा, "बाहर कहाँ?",
"बा-बाल्कनी..",
"जहाँ हो वही रूको तुम।", उनके कहते ही मेरे पैर रूक गए। उन्होंने मुझे फाइले पकड़ाई और लैपटॉप लिए मुझे उनके पीछे आने को कहा। हम उनके बागीचे में गए। वहाँ ठंडी हवा चल रहो थी, मौसम ठंडा था। हम शेड के नीचे बगीचे की कुर्सी पर बैठे।
"मैं जानता हूँ तुम मुझसे क्यों बच रही हो। तुम्हें ऐसा करने की ज़रूरत नहीं है।",
"क्षमा करें, मुझे अपनी सीमाएँ पता होनी चाहिए।",
"तुम्हें ऐसा कहने की ज़रूरत नहीं है। वैसे भी, तुम्हारा धन्यवाद मैं इतने भाग-दौड़ के बाद आराम कर सका।",
"हे हे हे, यह सुनकर खुशी हुई।", मेरी हँसी अजीब लगी,
"तुम्हारे लिए दिन कैसा बीत रहा है? बिना कुछ जाने यहाँ रहना। निराशा हो रही होगी? बी हॉनेस्ट।",
"हम्मम थोड़ी सी। पहली बार मैं अपने परिवार से दूर रही और कारण...पर पहेली के साथ मेरा दिन मज़े से बीत रहा है।",
"पहेली? और कोई नहीं?", (मुझे पता है कि वह ऐसी ही है लेकिन कम से कम तुम दिव्या से बात कर सकती थी? मुझे पता है कि वह तुम्हे कभी अकेला नहीं छोड़ती होगी।)
"कभी-कभी दिव्या मुझसे बात करने आती है लेकिन...हाह! मैं उसकी बहिर्मुखी ऊर्जा का सामना नहीं कर सकती।", बात करते-करते वह पीली पड़ गयी। यह उसके लिए बहुत थका देने वाला होगा।
"यह तुम्हारे लिए कठिन होगा?",
यह एक ऐसी बातचीत थी जो हममें कभी-कभी होती थी जैसे मेरे नए माहौल में खुद को ढालने या अधिकतम हमारी बात काम और खाने के बारे में होती थी। तभी अचानक दिव्या तूफ़ान की तरह आ गई। वह हमारे बगल वाली कुर्सी पर बैठ गई और वृषा के साथ मज़ाक-मस्ती करने लगी लेकिन उन्होंने उसे हवा की तरह नजरअंदाज कर दिया। वे भी मेरी तरह ही थे, लोगों को नजरअंदाज करने में माहिर लेकिन मुझसे ज़्यादा आत्मविश्वासी। फिर उसने कुछ ऐसी बात कही जिसने मेरा ध्यान खींचा,
"तो स्वयंवधू जल्द ही शुरू होने वाली है?", तभी वहाँ भैय्या आए,
"शायद जल्द ही।", भैय्या ने कहा,
"लेकिन एक महीना हो चुका है, कौन सी चीज़ उन्हें रोक रही है?", वह अधीर लग रही थी,
वृषा ने अपना काम रोक दिया, "हम्म।",
भैय्या ने उसकी टांग खींचते हुए बोला, "क्या तम जानबूझकर प्रतिस्पर्धा करना चाहती हो? क्या आर्य पूरा नहीं पड़ रहा?",
दिव्या भी कम नहीं थी, "हैंग आउट करना चाहते हों? तुम्हें अवश्य परमानंद मिलेगा। इस दुनिया को ही भूल जाओगे! चलना है?",
मैं असहज थी।
"चलो! तुम्हें इसकी ल~त लग जायेगी!", मैं बहुत असहज हो चुकी थी,
वृषा ने कहा, "उन पर ध्यान मत दो। वे ऐसे ही हैं। इसे खाओ।", मेरे मुँह में नारंगी ठूस दी,
"वे~ट अ मिनट! समवन इस बल्शिंग?", उसने वृषा की ओर इंगित किया और आगे कहा,
"क्या आप भी यही चाहते थे?-अप!", जब वह एक बिगड़ैल लड़की थी कि तरह हरकत कर रही थी तब वहाँ एक और महिला आई जो दिव्या के विपरीत अधिक शांत और परिपक्व लग रही थी, उसने दिव्या का मुँह कसकर पकड़ लिया,
"सत्ताईस साल की उम्र में भी तुम्हें शालीनता से बात करना नहीं आता!", उसने कुछ ही सेकंड में उसे नियंत्रित कर लिया,
(वोह, कूल!)
वह उसे अपने साथ ले गई। भैय्या भी चर्चा करके चले गए। अब मैं मेरी दिलचस्पी इस बात में थी कि उनकी जीवनसाथी के रूप में चुनने का मापदंड क्या होगा? उनमें कुछ दैवीय शक्ति अवश्य होनी चाहिए तभी वे एक हो सकते थे। मैं यह बुरी तरह से जानना चाहता थी।
मुझसे और बर्दाश्त नहीं हुआ, "आपमे इतना खास क्या है? दो आँखें, दो कान, एक नाक, और एक होंठ ही है और आपकी प्रतिभा बात करे तो आप बहुत डराने वाले हैं और हमेशा दूसरे का मज़ाक उड़ाते रहते हैं। आप में खास क्या है सभी आपको जीतने की कोशिश कर रहे है?" (वे आकर्षक चेहरे और शरीर वाले दुष्ट हैं तो सही पर...क्या इससे मुझे कोई फ़र्क पड़ता है? बिल्कुल नहीं! पर रुको!)
मैं अपने में बड़बड़ाते गयी, "अगर आपके ऊपर का टैग हटा दे तो...", मैं वृषा से, "वृषा, आपको कोई ऐसा मिला है जो आपको वृषा की तरह देखता हो ना कि चलते-फिरते स्टेट्स टैग की तरह?",
वृषा ने मुझे घूरकर देखा,
(क्या मैं फिर हद आगे बढ़ गयी?)
उन्होंने आह भरी, "क्या तुम्हें लगता है कि ऐसा कभी हुआ होगा?",
मेरे पास इसे अस्वीकार करने के लिए कोई शब्द नहीं था। यदि हम सामान्य परिस्थितियों में भी मिले होते तो मैं कभी भी उनसे मिल नहीं पाती।
"मुझे नहीं लगता।",
"तुम्हें मिल गया। यहाँ कोई भी वृषा के लिए नहीं आया। हर कोई बिजलानी की उपाधिषको में से एक बनना चाहते है। केवल दिव्या जिससे तुम पहले मिली थी, उसे इस मूर्खता में कोई दिलचस्पी नहीं है। वह एक बेवकूफ की तरह दिखती है लेकिन उसे कम मत आंकना, वह स्मार्ट है और केवल एक आदमी के प्रति समर्पित है।",
"? 'एक आदमी'? मतलब 'आर्य' जी जिन्हें लेकर भैय्या और वो लड़ रहे थे?",
वहाँ मैंने 'आर्य' आदमी के बारे में पूछा जिसका ज़िक्र सरयू भैय्या ने पहले किया था। वहाँ वृषा ने मुझे उनकी प्रेम कहानी के बारे में बताया,
"उसका पूरा नाम आर्य खुराना है, जो भारत और विदेशों में करोड़ों होटलों के मालिक हैं। हालाँकि वह एक करोड़पति है लेकिन ज़मीन से जुड़ा हुआ व्यक्ति है और...काफ़ी चिपचिपा इंसान है। मेरी मुलाकात आर्य से बिजनेस डीलिंग के दौरान उसके होटल में हुई थी और तब से हम दोंनो मित्र है।",
उन्होंने कहा कि उन्होंने यह सोचकर उन्हें नज़रअंदाज कर दिया कि वह अपने स्वार्थ के लिए उनके पीछे पड़े थे। लेकिन वह इस बात पर कायम थे कि वह बस उनसे बस भाईयों वाली दोस्ती करना चाहते थे, हर मौके पर वो उनके साथ थे और अंततः वृषा समझ गए कि उसके पास उनके प्रति कोई गलत उद्देश्य नहीं था। उसके बाद भी वृषा उनके साथ शामिल नहीं होना चाहते थे लेकिन वे थोड़े-बहुत शामिल हो गए और अभी उनकी दोस्ती तीन साल की हो गई थी।
इसके बाद वे मिस्टर खुराना की प्रेम कहानी में भी शामिल हो गए। एक रात उन्हें पार्टी में आमंत्रित किया गया जिसे वृषा अस्वीकार करना चाहते थे लेकिन मिस्टर खुराना उन्हें अपने साथ खींचकर ले गए।
(ही ही, सोचकर ही हँसी आ रही है उनका फुला हुआ मुँह आखिर कैसा होगा।)
उस रात वृषा सिर्फ अपना काम करना चाहते थे जबकि मिस्टर खुराना कि कुछ और ही योजना थी। वृषा ने कहा, "उसने कहा कि, 'आज तुम्हें तुम्हारी भाभी मिलने वाली है!' मैं पहले से ही चिढ़ा हुआ था और उसने अपनी भावी भार्या के बारे में बात करना शुरू कर दिया? मानना पड़ेगा उसकी आकांक्षाओ को- जिसकी छाया का भी उसे पता नहीं था वो उसके बारे में सोच रहा था।
अजीब पार्टी में हम लड़कियों से घिरे हुए थे, जहाँ उसकी मुलाकात दिव्या से हुई जो सिर्फ शराब पी रही थी और उसने आर्य को शराब पीने की चुनौती दी।",
"क्या? यह दिव्या की तरह लगता है।", इतनी हिम्मत उसी में थी,
"और वो भी पागल, लड़की देखा नहीं कि फिसल गया। दोनों पीते हुए अपनी धुन में खो गए। वहाँ बाकी लोगों के साथ सहज था तो मैंने निकलने का तय किया तभी दोनों महाशय आए और अपने रिश्ते का एलान कर दिया पहले मैंने सोचा कि वे नशे में थे और अंततः अलग हो जायेंगे...पर वो नशेडी दुर्घटना अब भी उसी उनके बीच बरकरार है।",
"वाह! यह तो बहुत हास्यप्रद था। शराब पीकर गर्लफ्रेंड बनाना? खैर, अंत भला तो सब भला।",
"ऐसा लगता तो है।", वृषा ने कहा,
"तुमने सही कहा। वे दोनों स्वतंत्र विचारों वाले व्यक्ति हैं, अच्छी बात है उनके किस्मत ने साथ दे दिया। जब मैं पार्टी छोड़कर जा रहा था तो मेरे मन में कई सवाल थे जैसे कि वे एक पूर्ण अजनबी पर कैसे भरोसा कर सकते हैं...", (लेकिन अब मैं! कर रहा हूँ!)
(हम शाम तक काम करते रहे लेकिन पहले की तरह थकावट से जान नहीं निकली। सहायता प्राप्त करना कभी-कभी अच्छा होता है। अब, मेरे पास जल्दी घर आने का कारण था...
क्या मुझे उसे बताना चाहिए?...मुझे यकीन नहीं है कि मैं अब सच को लंबे समय तक छुपा सकता हूँ।)
वह अपना बचा हुआ काम निपटा रही थी, (हवा अब अधिक ठंडी हो गई है।) वह काम में बहुत ज़्यादा घुस गई थी।
"वृषाली रात को सोने के पहले स्टडी रूम में आ जाना मुझे तुमसे कुछ ज़रूरी बात करनी है।",
"जी पर क्यों?",
"रात को।",

रात के समय स्टडी से आने वाली आवाजें-
"क्या! तुम्हें पता है?",
मैं बाहर खड़ी होकर अंदर जाने का इंतज़ार कर रही थी।
"दूध पीता भी समझ जाएगा-", एक औरत की चीखने की आवाज़,
"क्या समझ जाएगा?", वृषा ने शांत स्वर में पूछा,
"आपका मतलब क्या है? मेरे होते हुए किसी और के पैर चूमना?!", मेज़ पर हाथ पटककर,
"मैं किसको चूमूँ या चाटूँ, इससे तुम्हें क्या?",
"मुझे क्या?...मुझे क्या? शुरूआत से मैं ही 'स्वयंवधू' हूँ! वह बदसूरत क्या उखाड़ लेगी? पैर तो आपको मेरे ही चाँटने होगी!", वह बहुत ज़ोर से बोल रही थी,
"कोशिश करो। मैं इंतज़ार करूँगा। एक असुरक्षित शीर्ष अभिनेत्री क्या कर सकती है जब वह ही सब कुछ तय करने वाली हो। देखते हैं।",
"देखते रहना जब ये कायल उसे उसकी औकात कैसे दिखाती है!", वह गुस्से से कमरे से दरवाज़ा पटकती बाहर निकली!
मैं अंदर गयी तो देखा, किताबों से लेकर फाइलों और नाइट लैंप तक सब कुछ फर्श पर बिखरा पड़ा था। वृषा का शर्ट उलझा हुआ था जैसे किसीने उसे पकड़कर खींच होसौर उनकी ऊपर की दो बटन भी टूटी हुई थी। मैं चुपचाप बगल खड़ी थी।
वृषा मुझसे, "मुझे माफ करना पर तुम्हें ये जो बच्चो का खेल लग रहा है, वैसा कुछ नहीं है। तुम्हारे नज़रअंदाज करने के तरीके से कुछ नहीं होगा। तुम शिकार ही बनोगी!",
"...'शिकार'?", मेरी कुछ समझ नहीं आया,
"हम्मम शिकार! दिव्या और सरयू की वजह से अब तक तुम्हारे साथ कोई हादसा नहीं हुआ।",
"-'हादसा'? कैसा हादसा?", सब अचानक उलझ गया,
"हाह...", (इन्होंने इतनी लंबी और गहरी साँस क्यों ली?)
"वृषा-", मैंने दबी आवाज़ में कहा, उन्होंने मुझे सुना नहीं या नज़रअंदाज किया पता नहीं,
मैंने उसे नज़रअंदाज किया, "वृषाली देखो तुम आने वाले समय के लिए सावधान रहो, बस!",
वे अपने काम पर वापस लौट गए। (बातचीत हो गई?) ऐसे ही?!
"बात अभी तक पूरी नहीं हुई! कैसी सावधानी?-आप ऐसे बात कर रहे है जैसे किसीकी हत्या कि साजिश रच रही हो।",
"सही समझी। यहाँ तुम्हें हर वक्त चौकन्ना रहना होगा। मैं तुम्हारी सुरक्षा सुनिश्चित करूँगा, पर तुम्हें भी सतर्क रहना होगा!", उनका एक-एक शब्द मुझे सुई चुभो रहा था,
"यह एक सामान्य प्रतियोगिता नहीं है?",
"किसने कहा?", उन्होंने पूछा,
मैं दंग रह गई! मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। ऐसा लग रहा था का मैं फिर से अपनी गणित की कक्षा में थी, "क्या गणित है?",
"गणित ये है -मैंने तुम्हें जो आत्मरक्षा तकनीकें सिखाईं है उन्हें याद रखना बच्चे।",
"पर क्यों?", (इसका कोई मतलब नहीं है ना? जैसे कि, मेरे जैसे को कौन चोट पहुँचाने कि कोशिश करेगा जिसकी अस्तित्व किसीका कोई संबंध नहीं है? जैसा कायल ने कहा। इन सबका एक ही मतलब निकलता है-!)
"बहुत खराब मज़ाक है वृषा!", वो मेरा मज़ाक उड़ा रहे होंगे!
मैं गुस्से में वहाँ से भाग निकली, मैं बच्ची नहीं जो उनकी हर बात पर आँख मूँदकर चलते चलूँ!
मैं वृषा पर इतना नाराज़ थी कि मैंने केवल उनके लिए नाश्ता बनाया और कुछ नहीं। मैंने उनसे बात नहीं की, और वे हमेशा की तरह ऑफिस के लिए निकल गए।
(मुझे लगता है कि मैं बहुत कठोर थी।) वे बहुत परेशान लग रहे थे। (मुझे उनसे माफ़ी माँगनी चाहिए।)
"रात को- पक्का!" (बस मेरी ज़बान ना लड़खड़ाए।) मैंने निश्चय किया।

मैं पहेली को उसका खिलौना देने जा रही थी कि, "तो क्या तुम हो वो खैराती जिसे वृषा बिजलानी लेकर आया है?", एक तीखी आवाज़ ने मुझे रोका- उसकी शक्ल देखकर पता लग रहा था वो मुझे अभी के अभी कच्चा चबा जाए।
"दो शब्द? ऊपर! अभी!!", वह रूखी थी, रूखी से ज़्यादा असभ्य थी उसने मेरी राय नहीं पूछी और मुझे पूल के पास ले गई।