Shrimad Bhagwat Geeta Meri Samaj me - 2 in Hindi Spiritual Stories by Ashish Kumar Trivedi books and stories PDF | श्रीमद्भागवतगीता मेरी समझ में महत्वपूर्ण श्लोक (भाग 2)

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श्रीमद्भागवतगीता मेरी समझ में महत्वपूर्ण श्लोक (भाग 2)



श्रीमद्भागवतगीता के कुछ महत्वपूर्ण श्लोक
(भाग 2)

अध्याय 5

श्लोक 16
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः ।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ॥

जिनका अज्ञान दिव्य ज्ञान द्वारा नष्ट हो जाता है, उनके लिए परम सत्ता उसी तरह प्रकट हो जाती है जिस प्रकार सूर्य उदय होने पर सब कुछ प्रकाशित कर देता है।

भ्रम की स्थिति में सत्य का ज्ञान नहीं हो पाता है। भ्रम से बाहर निकलने पर ही सच अपने आप सामने आ जाता है।
अक्सर ऐसा होता है कि हम अंधेरे में भ्रमित हो जाते हैं। हिलते हुए पेड़ की परछाईं हमें किसी भूत प्रेत के होने का एहसास कराती है और हम डर जाते हैं। उसी समय यदि कोई प्रकाश कर दे तो सच हमारे सामने आ जाता है और हम भय से मुक्त हो जाते हैं।
रात के अंधेरे में हम जब किसी नए स्थान पर जाते हैं तो उस स्थान का सही अनुमान नहीं लगता है। हम सही तरह से कुछ समझ नहीं पाते हैं। पर जैसे ही सूर्य निकलता है वो अंधेरे को दूर कर देता है। तब सब स्पष्ट दिखाई पड़ता है।
इसी तरह जब तक सच्चे ज्ञान की अनुभूति हमें नहीं होती है तब तक हम भ्रम की अवस्था में रहते हैं। कई भ्रामक बातें अपने मन में बसा कर परेशान होते हैं। पर जिसे सच्चा ज्ञान प्राप्त हो जाता है उसके सारे भ्रम दूर हो जाते हैं।



अध्याय 6

श्लोक 23
तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा।।

जिसमें दुखों का संयोग ही वियोग है, वह अवस्था योग कहलाती है। पूरे मन से दृढ़ संकल्प के साथ इसका अभ्यास निराशा से मुक्त होकर दृढ़ निश्चय के साथ करना चाहिए।

इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण समभाव अपनाने की सीख दे रहे हैं। मनुष्य दुखों से घबराता है। उनसे पीछा छुड़ाना चाहता है। पर इस संसार में दुख न मिले ऐसी कल्पना करना ही व्यर्थ है। दुख से छुटकारा पाने का एक ही रास्ता है कि उसे स्वीकार कर लिया जाए। दुख को स्वीकार करने का अर्थ उसमें डूब जाना नहीं है। इसका अर्थ है कि चाहे जीवन में दुख आए या समाप्त हो हमें समान भाव ग्रहण करना चाहिए। दुख से परेशान नहीं होना चाहिए। उसके जाने पर प्रसन्न भी नहीं होना चाहिए। उसके प्रति उदासीन भाव रखना चाहिए।
पर समभाव में स्थित होने के लिए दृढ़ संकल्प की आवश्यकता होती है। आशावान रहकर मनुष्य अभ्यास से इस स्थिति को प्राप्त कर सकता है।


श्लोक 30
.यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।।

जो सबमें मुझे देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।

हम ईश्वर को पाना चाहते हैं। इसके लिए हम देवस्थानों में जाकर पूजा अर्चना करते हैं। विग्रह बनाकर उसकी पूजा करते हैं। ये आरंभिक अवस्था है। पर ईश्वर सिर्फ किसी देवस्थान या विग्रह में नहीं है। ईश्वर तो सर्वव्यापी है। अतः जब व्यक्ति अपनी भक्ति से प्राप्त ज्ञान के द्वारा हर वस्तु और हर प्राणी में ईश्वर को देखने लगता है तो वह सचमुच ईश्वर के निकट पहुँच जाता है। ईश्वर भी उसे अपनी शरण में ले लेते हैं।



अध्याय 9

श्लोक 34
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः।।

सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो। अपने मन और शरीर को मुझे समर्पित करके तुम अवश्य ही मेरे पास आओगे।

ईश्वर ही परम सत्य है। जो इसे जान लेता है उसके लिए इस संसार में जानने योग्य कुछ नहीं रह जाता है। उसका बस एक ही लक्ष्य होता है ईश्वर की प्राप्ति। भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में उसका ही रास्ता बता रहे हैं। ईश्वर को प्राप्त करने का रास्ता बहुत आसान है। ये रास्ता है पूर्ण समर्पण। जो व्यक्ति पूरी भक्ति के साथ ईश्वर का नाम लेता है। अपना शरीर, अपने कर्म व उसके फल उनके चरणों में समर्पित कर देता है वह सच्चा भक्त ही ईश्वर को प्राप्त कर पाता है।
ऐसी भक्ति तभी मिलती है जब मन में पूर्ण विश्वास होता है। जिस व्यक्ति की आस्था दृढ़ होती है वही पूर्णतया ईश्वर को समर्पित हो सकता है।



अध्याय 12


श्लोक 8
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः।।

अपने मन को केवल मुझमें स्थिर करो और अपनी बुद्धि को मुझे समर्पित कर दो। ऐसा करने पर तुम सदैव मुझमें निवास करोगे। इसमें कोई संदेह नहीं है।

इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने पूर्ण समर्पण की विधि बताई है। पूर्ण समर्पण का एक ही उपाय है। मन को स्थिर करके अपनी बुद्धि को भगवान के चरणों में अर्पित करना।
मनुष्य का मन सबसे अधिक चंचल है। ये अनेक इच्छाएं उत्पन्न करता है। कई तरह की कल्पनाएं करता है। इसे वश में करना सबसे कठिन काम है। जिस प्रकार किसी जंगली घोड़े को नियंत्रण में करना कठिन होता है वैसे ही हर पल इधर उधर भटकते मन की लगाम थामना एक दुष्कर कार्य है।
किंतु जब तक मन स्थिर नहीं होगा तब तक वह हमें परम सत्य में ध्यान केंद्रित नहीं करने देगा। इसलिए अभ्यास द्वारा मन को नियंत्रण में करना सीखना होगा।
मन को स्थिर करने के लिए अपनी बुद्धि को सांसारिकता से हटा कर ईश्वर को समर्पित करना होगा। बुद्धि जब ईश्वर के प्रति समर्पित रहेगी तो वो मन के भटकने पर उसे बार बार ईश्वर की तरफ खींचकर लाएगी। जब तक मन पूरी तरह स्थिर नहीं हो जाता है।



श्लोक 10
अभ्यासेऽप्यसमरथोऽसि मत्कर्मपरमो भव |
मधुरथम्पि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ||

यदि तुम भक्तिपूर्वक मेरा स्मरण करने का अभ्यास नहीं कर सकते, तो केवल मेरे लिए कार्य करने का प्रयास करो। इस प्रकार मेरी भक्ति करते हुए, तुम पूर्णता की अवस्था को प्राप्त करोगे।

यहाँ भगवान श्रीकृष्ण कर्म मार्ग का अनुसरण कर स्वयं तक पहुँचने की युक्ति बता रहे हैं। भक्ति मार्ग पर चलने वालों के लिए आवश्यक है कि वो सदैव ईश्वर का स्मरण करें। पर संसार में रहते हुए मनुष्य को अनेक लय कर्म करने पड़ते हैं। जिनके कारण वह भगवान का निरंतर स्मरण नहीं कर पाता है। अतः ऐसे लोगों के लिए कर्म का मार्ग अच्छा है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि अपने सारे कर्म और उनके फल मुझे समर्पित कर अपना कर्म करते रहो। ये भी एक तरह की भक्ति है जो तुम्हें मुझ तक पहुँचा देगी।



अध्याय 14

श्लोक 4
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः ।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ॥

हे अर्जुन जो भी प्राणी किसी भी योनि से उत्पन्न होते हैं, उनका गर्भ प्रकृति है और मैं बीज-दाता पिता हूँ।

इस श्लोक में भगवान ने स्पष्ट रूप से स्वयं को सृष्टि के प्रत्येक प्राणी का पिता कहा है। प्राणी चाहें कीट योनि से उत्पन्न हो या मनुष्य योनि से। उनके जन्म का कारण ईश्वर है। भौतिक जगत में जिस प्रकार पिता के बीज से माता के गर्भ में संतान का विकास होता है, वैसे ही सृष्टि के गर्भ में बीज रोपित करने वाले ईश्वर हैं।



अध्याय 18


श्लोक 46
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।।

अपनी स्वाभाविक वृत्ति का निर्वहन करते हुए उस सृजक भगवान की उपासना करो जिससे सभी जीव अस्तित्त्व में आते हैं और जिसके द्वारा सारा ब्रह्माण्ड प्रकट होता है। इस प्रकार से अपने कर्मों को सम्पन्न करते हुए मनुष्य सरलता से पूर्णता प्राप्त कर सकता है।

ईश्वर की उपासना का एक तरीका ये भी है कि व्यक्ति अपने स्वभाव के अनुसार अपना नियत कर्म करे। अपने कर्म उस परमात्मा को समर्पित कर दे जो सभी जीवों के अस्तित्व का कारण है। ईश्वर ही सभी जीवों में आत्मा के रूप में वास करता है।
जो व्यक्ति सभी जीवों में ईश्वर की उपस्थिति को देखता है वह सभी के प्रति उदार होता है। अपना कर्म करते हुए निजी लाभ के बारे में नहीं सोचता है। निष्काम भाव से कर्म करते हुए वह अपनी आध्यात्मिक उन्नति को सुनिश्चित करता है।
निष्काम कर्म और भक्ति उसकी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करते हैं।


श्लोक 50
सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे।
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा।।

हे अर्जुन अब मुझसे संक्षेप में सुनो और मैं तुम्हें समझाऊँगा कि जो सिद्धि प्राप्त कर चुका है वह भी दृढ़ता से दिव्य ज्ञान में स्थित होकर कैसे ब्रह्म को भी पा सकता है।

जो व्यक्ति सिद्धि प्राप्त कर लेता है अर्थात जो परम ज्ञान को पा लेता है, वह यदि उस ज्ञान को अपने जीवन में उतार लेता है तो ब्रह्म को प्राप्त कर सकता है।
यहाँ ध्यान देने वाली बात ये है कि सिर्फ ज्ञान प्राप्त कर लेना ही पर्याप्त नहीं है। उस ज्ञान को अपने आचरण में लाना बहुत आवश्यक है। जैसे यदि कोई श्रीमद्भागवतगीता के श्लोकों को कंठस्थ कर ले उनके अर्थ को समझ ले तो उसे ज्ञानी कहा जाएगा। परंतु ये उसके मोक्ष अर्थात ब्रह्म को प्राप्त करने के लिए पर्याप्त नहीं है। उसे मोक्ष तब ही प्राप्त होगा जब वह श्रीमद्भगवद्गीता के सार को समझ कर उसके अनुसार आचरण करेगा। सुख दुख, निंदा स्तुति, हानि लाभ जैसे द्वंद उसे विचलित नहीं करेंगे। निष्काम कर्म करते हुए वह पूर्णतया ईश्वर को समर्पित हो जाएगा।



श्लोक 58
मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥

यदि तुम सदैव मेरा स्मरण करते हो तब मेरी कृपा से तुम सभी कठिनाईयों और बाधाओं को पार कर पाओगे। यदि तुम अभिमान के कारण मेरे उपदेश को नहीं सुनोगे तब तुम्हारा विनाश हो जाएगा।

भगवान श्रीकृष्ण ने जीवन में आने वाली चुनौतियों को पार करने का रास्ता बताया है। रास्ता सरल है, सदैव ईश्वर का स्मरण करो। ईश्वर की शरण में समर्पित होकर अपना कर्म करो। इस बात का स्मरण रखो कि इस सृष्टि में ईश्वर के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। इस प्रकार ईश्वर का ध्यान करने से उनकी कृपा प्राप्त होती है।
कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो अहंकार के वशीभूत होकर ईश्वर के उपदेश की अवमानना करते हैं। ईश्वर के अस्तित्व को नकारते हैं। ऐसे व्यक्ति स्वयं अपने विनाश का कारण बनते हैं।


श्लोक 65
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥

सदा मेरा चिंतन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी अराधना करो, मुझे प्रणाम करो, ऐसा करके तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे। मैं तुम्हें ऐसा वचन देता हूँ क्योंकि तुम मेरे अतिशय मित्र हो।

इस श्लोक में भी ईश्वर की भक्ति का महत्व बताया गया है। जो व्यक्ति पूरी तरह ईश्वर को समर्पित होकर अपना जीवन व्यतीत करता है वह अपनी मुक्ति का मार्ग स्वयं तैयार करता है। भगवान कहते हैं कि ऐसा करने वाला उन्हें सर्वाधिक प्रिय होता है।

श्लोक 66
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥

सभी प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और केवल मेरी शरण ग्रहण करो। मैं तुम्हें समस्त पाप कर्मों की प्रतिक्रियाओं से मुक्त कर दूँगा, डरो मत।

यहाँ भगवान श्रीकृष्ण हमें पूर्ण समर्पण के लिए प्रेरित कर रहे हैं। उनका कहना है कि अपने अच्छे बुरे कर्मों को मुझमें अर्पित कर तुम सिर्फ मेरी शरण में आ जाओ। मैं ही तुम्हारा परम गंतव्य हूँ। तुम्हारी सद्गति मेरी शरण में ही है। अतः डरो नहीं बस मेरी शरण में आ जाओ। मैं तुम्हारे सभी पापों को क्षमा कर दूँगा।

श्लोक 78
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।

जहाँ योग के स्वामी श्रीकृष्ण और श्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन हैं वहाँ निश्चित रूप से अनन्त ऐश्वर्य, विजय, समृद्धि और नीति होती है, ऐसा मेरा निश्चित मत है।

ये श्रीमद्भगवद्गीता के अंतिम अध्याय का अंतिम श्लोक है। हम सभी अपने जीवन के कुरुक्षेत्र में युद्ध कर रहे हैं। अर्जुन की तरह हम भी अक्सर दिशा भटक जाते हैं। तब हमें श्रीमद्भागवतगीता जैसे दिव्य ग्रंथ से सही दिशा प्राप्त हो सकती है।
श्रीमद्भागवतगीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं जो दुविधा में फंसे अर्जुन को दिव्य ज्ञान देते हैं। उसे दुविधा से निकाल कर कर्तव्य के पथ पर चलने की शिक्षा देते हैं। अर्जुन उनके उपदेश का पालन कर मुक्त हो जाता है।
हमें भी अर्जुन की तरह ही अपने आप को भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित कर देना चाहिए। पूर्ण समर्पण भाव से ही हम अपनी कठिनाइयों से मुक्त हो सकते हैं।


श्रीमद्भागवतगीता का सार है ईश्वर के चरणों में संपूर्ण समर्पण। इसका उद्देश्य है जीव की मुक्ति।


हरि ॐ तत् सत्