Circus - 18 in Hindi Moral Stories by Madhavi Marathe books and stories PDF | सर्कस - 18

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सर्कस - 18

 

                                                                                                   सर्कस: १८

 

        सुबह अरुणसर ने महत्वपूर्ण पेपर्स, चाबीयों का गुच्छा, रुपयों से भरी एक ब्रीफकेस  जॉनभाई को सुपूर्द कर दी, फिर बाकी लोगों को लेकर वह रेल्वे स्टेशन रवाना हुए। जबलपूर से भोपाल लगभग सात-सवा सात घंटे का सफर था। वह जाने के बाद चारों ओर घुमके कही कुछ छुटा तो नही यह देखकर, इस सुंदर शहर से हमने विदा ली। जीप में सामान पहले से ही रख दिया था। गुलाबी ठंड, चारों ओर कोहरा, वह चले जाने के बाद दिखनेवाले सफेद लहराते बादल, थोडे ही समय के बाद आकाश रंगबिरंगी हुआ ओैर पहाडों के बीच में से केसरीया रंग का सुरज उपर आ गया। हम तीनों देहभान भुलकर वह दृश्य निहारते रहे। पंछियों की चहचहाहट ने जैसे वातावरण में संगीत भर दिया था। जैसे जैसे सुरज उपर आने लगा वैसे वैसे सृष्टी का वह अद्भुत नजारा विलीन होने लगा, फिर हम एक-दुसरे से बात करने के मूड में आ गए। जॉनभाई पुरे स्पीड में गाडी चला रहे थे लेकिन उसमें भी शिस्तता थी। अचानक उन्होने कहा “ श्रवण,धीरज तुम दोनो गाडी कब सिखोगे? हर किसी को गाडी चलानी आनी ही चाहिए। भोपाल जाने के बाद, पहले तुम दोनों का नाम ड्राईव्हिंग स्कूल में दर्ज करूंगा।”  

    “ लेकिन ड्राईव्हिंग स्कूल क्युँ चाहिए आप ही सीखा दो ना गाडी।”

    “ लाइसन्स आसानी से मिल जाता है ओैर मैं पुरा ध्यान तुम दोनों की तरफ नही दे पाऊँगा, तुम वहाँ सिखलो फिर प्रॅक्टिस करवाना मेरा काम।”

    हम दोनों गाडी सिखेंगे इसी बात पर मन उत्साह से भर गया। बीच-बीच में हरे-भरे बडे पेडों ओैर पहाडों के रास्ते से सफर चलने लगा। हर एक स्थिती का अपना एक मजा होता है, उसे एन्जॉय करना आना चाहिए, वरना जिंदगी एसे ही गुजर जाएगी ओैर जीने के पल अधुरे लगने लगेंगे। जंगल का रास्ता लगा तो सामने बोर्ड भी दिखाई देने लगे की कौनसे विभाग में कौनसा जानवर आपको दिखने की संभावना है।

     “ आप दोनों को पता है? देसाईसर सर्कस छोडकर जानेवाले है।

     “ क्युँ, क्या हो गया?” हमने चौंककर पुछा।

     “ अभी तो उन्होने बताया है की उनकी पत्नी की तबियत ठीक नही है इसलिए छोड रहा हूं, लेकिन असल बात कुछ ओर ही है। उनको खबर मिली है की अरुणसर किसी ओैर के हाथ में सर्कस सोपनेवाले है। देसाईसर को लग रहा था इतने सालों से सर्कस का मॅनेजमेंट सँभाल रहा हूँ, सिनिअर भी हूँ तो अरुणसर मुझे ही मालिक बना देंगे। अब तो कुछ ओैर ही बात निकलती जा रही है तो उन्हे थोडा सदमा पहुँच गया। अभी तो वह लगभग पचास साल के हो चुके है कब तक यह कारोबर वह देख पाएंगे? सर्कस का इतना बडा कारोबर चलाना हो तो नए विचारों का जवाँमर्द होना चाहिए।”

     “ यह बात भी ठीक है लेकिन केवल जवान होने से काम नही बनते। तजुरबा भी जरूरी है।” देसाईसर की मेरे तरफ देखने की नजर याद आते ही कुछ अजीब सा महसुस हुआ। इतने साल का अनुभवी आदमी पहले नजर में ही सब जान जाता होगा, लेकिन कोई बडा प्रतिस्पर्धी भी नही बचा इस बात का अहसास होकर थोडा अच्छा भी लगा, क्युं की बाकी लोगों का आना-जाना शुरू रहता था। मेरा विचारचक्र घुमने लगा। अभी तक तो किसी को कुछ खबर नही मिली होगी। देसाईसर जैसा महत्वपूर्ण आदमी जाएगा तो उनकी जगह पर कौन काम संभालेगा? एसे पुछ्ने पर जॉनभाई बोले “ अरुणसर बहुत होशियार आदमी है। वह कभी एक के उपर निर्भर नही रहते। हर एक विभाग संभालने का अवसर हर एक आदमी को देते है, इस वजह से कभी किसी के बिना कोई काम अटक नही जाता। ऑफिस स्टाफ को भी सब कामों के बारे में पता रहता है, तो कोई छोडकर गया तो उसके बिना भी काम चल जाता है। अर्थात देसाईसर यह तो महत्वपूर्ण आदमी थे ओैर सब तरह के काम वह बहुत ही खुबी से निभाते थे, सच्चा इमानदार आदमी है। उनको खोना मतलब थोडी हानी ही है। उनके जगह पर अरुणसर ने श्याम जगताप नाम का कोई आदमी ढुंढ के रखा है, दो महिने देसाईसर उसे ट्रेनिंग देंगे फिर वह चले जाएंगे।”

    “ जॉनभाई, लेकिन बाद में जगताप भी यह कह सकेगा ना की मुझे सर्कस का मालिक बना दो।”

    “ ऐसा नही रहता है श्रवण, सर्कस का मालिक बनना मतलब खुद का पैसा भी उसमें लगाना पडता है ओैर वह हर किसी के बस में नही होता। जिसके पास पैसा रहेगा वही आदमी सर्कस खरीद सकेगा, ओैर यह बात भी देसाईसर जानते थे। इस उम्र में पैसा लगाना भी बेवकुफी थी, इसलिए बहुत सोच समझकर उन्होने यह फैसला किया है।” अब मुझे भी थोडी स्थिरता आ गई। कल कोई भी सामने उठकर खडा रहकर यह नही कहनेवाला की मैं सर्कस का मालिक बनूंगा। अरुणसर ने पहले ही मैं सर्कस का मालिक बनूंगा यह बात तय करके रखी है तो अब मुझे किसी बात का डर नही है, सिर्फ मन लगाकर सब काम सिखना है, लोगों की परख करनी है, उनके दुख-दर्द में शामिल होना है ओैर मेरी जगह पक्की करनी है।

    अब जैसे-जैसे दिन उपर आने लगा वैसे-वैसे गरमी बढने लगी। जंगल का रास्ता लगा की थोडा शांत, ठंड महसुस होता था। बीच में एक ढाबे पर रुककर हमने खाना खाया जॉनभाई खाने के बडे शोकिन थे। भोपाल के एक मित्र से उन्होने बरहाणपुर की दाबरा ओैर विदिशा की इंद्राणी मिठाई की टोकरियाँ मँगाकर रखी थी, नए शहर में जब अरुणसर की तरफ से खास खाना होता है उस वक्त जॉनभाई यह मिठाई अपने तरफ से बाटनेवाले थे। खाना खाने के बाद हम दोनों को झपकी लगी। थोडी निंद के बाद फिर से गपशप शुरू हो गई।

    “ तुम दोनों के लिए ड्रायव्हिंग का पहला नियम, ड्राइव्हर के सीट के बाजू में जो भी बैठेगा वह कभी सोएगा नही। ड्राइव्हर को नींद ना आ जाए इसलिए गपशप करता रहेगा।” जॉनभाई के इस बात पर हम तीनों हँसने लगे। आधा सफर तो खत्म हो गया था।

     “ धीरज, अब तुम्हारे पिताजी की तबियत कैसी है?”

     “ वैसे तो ठीक है, लंगडाते ही चलते है, एक जगह पर बैठे नही रहते कुछ ना कुछ करते रहते है। आँगन में सब्जी उगाते है। उनका कहना है अब मेरे इलाज के उपर खर्चा करने से अच्छा है बच्चों के पढाई पर लगाए। इससे बरकत आ जाएगी। कुछ जादा ही तकलिफ होने लगी तो पहचान के एक डॉक्टर है उनसे दवा ले आते है। अपनी वजह से किसी को कोई तकलीफ नही होनी चाहिए ऐसा उनका मानना है।”

      “ बाकी सब लोग ठीक है ना?”

      “ हा बाकी सब ठीक है। माँ का काम शुरू है, मैं जितना हो सके उतने पैसे भेजता हूँ। छोटे भाई-बहन पढ रहे है। माँ घर आने तक पिताजी खाना भी बनाकर रखते है। कहते है जीवन में तुम्हे कभी कुछ नही दे पाया, अब जितना हो सके उतना करता हूं। उनके प्यार ने पुरे घर को बांध रखा है।” कुछ पल के लिए सब चुप हो गए। हर कोई अपने जीवन के बारे में कैसे सोचता है? कैसे जीने का सुकर मार्ग निकालता है, यह उस व्यक्ति के संस्कार पर ही निर्भर है। हर व्यक्ती अपने दृष्टी से देखता है ओैर वही सही है इसी की भलावण करता है। मेरे खयाल से किसी की किसी से तुलना नही करनी चाहिए, हर कोई अपने दृष्टी से सही होता है। जॉनभाई के आवाज से मेरी तंद्रा भंग हो गई।

      “ श्रवण, तुम्हे कविता पसंद है?”

      “ हा, सुनने अच्छा लगता है, कुछ याद भी है।”

      “ सुनाओ फिर कुछ।”

      “ जिंदगी क्या है, आज ए दोस्त सोचले ओैर उदासी के नमकीन पलों कही खुशबू बिखर जाए..”

      “ ए, एसे दर्दभरे दुखडे मत सुना।” धीरज ने कहा, वह कही मायूसी महसुस करने लगा।

      “ अच्छा बाबा ठीक है सुन, समय का सबसे कहना है, जीवन चलते रहना है, इसको बरबाद मत करो, सदा काम में लगे रहो।”

      “ वा, क्या बात है, अब मैं सुनाता हूं। इनकों जपानी में हायकु कहते है। निसर्ग पर तीन से चार पंक्तियों की यह कविता होती है। छोटे से पखेरू ने साद दी, शांती से भरा वन गुंज उठा। समझे?”

       “ हा समझ तो गए। केवल दो पंक्तियों में कितना गहरा मतलब छुपा है।”

       “ अब दुसरी, बकुल फुलों की खुशबू सुखने के बाद भी महकती रहती है,

                   फिर बाकी फुलों का गंध कहाँ खो जाता है?

        

         दुर तक फैले पेड की डालिया झुम रही है

         चारों तरफ खिले है फुल, बसंत सब पर छाया है।

         रात तक तो सब कलिया थी तो

         सुबह किसने उन्हे खिलाया है?”

      “ वा धीरज, बहुत ही सुंदर कविता। अब मैं एक सुनाता हूँ।

           बहुत कुछ लिखना था लेकिन कुछ लिखना तो हुआ ही नही

           बहुत कुछ कहना था पर सूननेवाला था नही,

           जीवनकथा तो खत्म होने आयी, पर वेदना खत्म हुई नही।”

    एक के उपर एक कविताए चलती रही। बडे मजे से रास्ता कट रहा था। जल्द ही हम भोपाल पहुँच गए। अब हम तीनों थक चुके थे। शाम का समय था शहर के भीड-भडक्के में से रास्ता निकालते हॉटेल पहुँच गए। बाकी लोग भी पहुँच चुके थे। सिर्फ संथाळसर आना बाकी था, खा-पीकर हम तो सोने चले गए। थकावट की वजह से गहरी नींद सोए, लेकिन बीच-बीच में शरीर की वेदना से नींद खुल जाती। सुबह कोई दरवाजा खटखटा रहा है यह महसुस हुआ तो हम जग गए। कोई तो आवाज दे रहा था। दरवाजा खोला तो मन्या, छोटू ओैर दो-तीन लोग अंदर घुस गए। आज ट्रीप का दिन था तो सब बडे उत्साह में दिख रहे थे। किसी के भी चेहरे पर सफर की थकावट नही दिख रही थी। मेरा, धीरज का अभी फिरसे घुमने का कोई इरादा नही था। कल के सफर से ही शरीर भारी हो गया था। जॉनभाई की तरफ देखा तो उनको भी समझ आ गया की हमें ट्रीप में जाना नही है। वह भी जीप से सफर करने के बाद तुरंत कही जाते नही थे। बीच में जैसे समय मिले तब कही घुमके आते थे।

     “ मन्या, तुम लोग चले जाओ ट्रीप के लिए, हम बाद में कभी घुम लेंगे। यहाँ के रास्ते बहुत ही उबड-खबड होने की वजह से हमारा शरीर भारी हो गया है। तुम लोगों का नाश्ता हो गया?” यह सुनते ही गँग आई ओैर चली गई। हम दोनों को छोडकर ट्रीप पर जाना, मन्या के जानपर आया था लेकिन जॉनभाई के सामने कुछ कह नही पाया। एक-दो घंटे ऐसे ही कभी जगते, कभी सोते निकाले, उठने का मन तो नही कर रहा था। आखिर में जॉनभाई उठे ओैर नहा-धोकर तरोताजा हो गए। फिर हम दोनों भी तैयार हो गए ओैर नीचे जाकर खाना खाया, थोडा इधर-उधर टहेलने के बाद कमरे में आकर पॅरासिटीमोल गोली जॉनभाई ने खिलायी, फिर हम शांती से सो गए। शाम के वक्त एकदम तरोताजा लगने लगा। थकावट दुर हो गई थी। नीचे लॉन में चाय पिते बैठकर बाकी लोगों की राह देखने लगे।

    अंधेरा होने के बावजुद लोगों का कुछ अता-पता ही नही था। उनकी राह देखते रहने के सिवाय हमारे पास भी कोई चारा नही था। आखिर में रात को नौ बजे बस पहुँच गई। एक बस का टायर पंक्चर हो गया था, तो वह बदलने में वक्त लग गया। ट्रीप के किस्से सुनते-सुनाते खाना खाया, थके-हारे अपने कमरे में सोने के लिए चले गए। दुसरे दिन नाश्ता करने के बाद हम सर्कस जहाँ लगनेवाली थी वहाँ चले गए। दो दिन बॉक्स उतारना, खोलना, तंबू लगाना, अडव्हर्टाइजमेंट, बॅनर लगाना, दिन-रात काम शुरू हो गया। छोटे बच्चों से अरुणसर तक सब की भागा-दौडी चालू थी। इस मैदान में कमरे नही थे इस वजह से जादा तंबू लगाने पडे। आखिर सब तैयारी पूरी हो गई। एक दिन आराम के बाद खेल की शुरुवात होनेवाली थी। काम से थके-हारे पुरा दिन सोते रहे।

      सुबह उठा। मुनी दादाजी तो अभी तक आए नही थे। मेरा ध्यान, पढाई, नाश्ता कर के संथाळसर के यहाँ चला गया, आज से खेल की प्रॅक्टिस शुरू होनेवाली थी। अब बॅंड बजाना ठीक से आने लगा। बिट्स कहाँ ओैर कैसे देने है वह समझ में आ गया इसलिए संथाळसर ने आज से बॅंड बजाने है यह कह दिया था। कही गलती भी हो गई तो भी कोई समझ नही पाता है क्युं की प्रेक्षक खेल देखने में मश्गुल रहते है। बॅंडवाले चमकिले ड्रेस पहनकर एक कोने में उपर बैठते थे। चमकीला ड्रेस पहनकर मैं भी तैयार हो गया। आएने में देखा तो मुझे बहुत ही हँसी आने लगी। कभी सोचा भी नही था की इस तरह के कपडे मैं पहनुंगा। उन्ही कपडों में, मैं जॉनभाई के यहाँ चला गया। मुझे देखते ही सब जोर-जोरसे हँसने लगे। मैने धीरे से पुछा “ इतना अजीब दिख रहा हूँ मैं?”

     अपनी हँसी दबाकर धीरज बोला “ नही रे अच्छा दिख रहा है, सिर्फ तुम्हे एसे कभी देखा नही है ना, तो एकदम से हँसी आ गई।”  अपना काम शुरू किया ओैर खतम कर के खेल के वक्त स्टेज पर चला गया। एक बात तो अच्छी थी की, बॅंड एक कोने में होने की वजह से लोगों का ध्यान हमारे उपर कम ही जाता था। बजाते वक्त एक-दो बार गलती तो हो गई लेकिन बाकी लोगों ने सँभाल लिया। रुटीन शुरू हो गया, समय का पहिय्या घुमता रहा। सर्कस को अच्छा प्रतिसाद मिल रहा था। हमारा ड्राईव्हिंग क्लास भी अच्छा चल रहा था। जॉनभाई अलग-अलग गाडीयों के मॉडेल्स दिखाते ओैर उसके स्पेसिफिकेशन बताते। पार्ट रिपेअरी, केवल गाडी के आवाज में बदलाव आने से कौनसा पार्ट खराब हुआ है, उसकी पहचान कैसे करनी है यह सिखाते। रात के गपशप में कभी अरुणसर भी शामिल हो जाते थे।

     आज मैं बहुत खुश था, बॅंड पर एक पूरी धुन बजाना अब सीख लिया था तो आज खेल के वक्त मैं वह बजानेवाला था। सुबह से लेकर शाम के प्रोग्राम तक वह धुन बजाते मुझ में बडा आत्मविश्वास आ गया, सामने खेल रंग ला रहा था। प्रेक्षक लोगों की उत्सुकता, उत्कंठा, हशा, तालियों की गुँज, वातावरण में एक नशा फैला हुआ था। मौत का कुआँ का पिंजरा सामने आया, हँडसम मार्कोस ने सब प्रेक्षकों को अभिवादन किया ओैर पिंजरे के अंदर चला गया। बाइक स्टार्ट की ओैर बडे शानदार तरिकेसे बाईक चलाने लगा। लोग उत्स्फूर्तता से दाद दे रहे थे। अचानक जोर से आवाज आया ओैर मार्कोस उछलता हुआ पिंजरे में गिर गया। स्पीड में बाइक भी उसके उपर गिर गई। कुछ क्षण किसी को पताही नही चला की क्या हो गया? खुन के फवाँरों से पिंजरा लाल हो गया। वह देखते ही चारों ओर से चिल्लाने की आवाज शुरू हो गई। हम अपना वाद्य छोडकर उसकी तरफ दौडे। मार्कोस के असिस्टंट ने पिंजरे का दरवाजा खोलकर अंदर प्रवेश किया ओैर मोटरसाइकिल उसके शरीर पर से बाजू की। मार्कोस को देखा तो शरीर पर रोंगटे खडे हो गए। खुन में लथपथ उसका शरीर किसी तरह से पिंजरे से बाहर निकाला। सर्कस के आवास में एक अंबुलन्स रखनी कंपलसरी होती है, वही से आदमी दौडते हुए आए ओैर उसे स्ट्रेचर पर लिटाकर अस्पताल ले गए। अरुणसर, जॉनभाई भी अस्पताल चले गए। संथाळसर ने प्रेक्षकों को दिलगिरी व्यक्त करते हुए कहा  आज का खेल रद्द किया जाता है, अपने पैसे बॉक्स ऑफिस से ले जाना चाहे तो ले जा सकते है। प्रेक्षक चले गए। हमे कुछ सुझ नही रहा था। कपडे बदलने का होश भी हम खो चुके थे। अस्पताल में क्या हुआ होगा? इसी विचार से दिमाग खराब हो रहा था। कही से भी आशा की एक किरण दिख जाए ऐसी आस लगाए एक-दुसरे के सामने बैठे थे। एक घंटा बीत  गया, गोदाक्काने जबरदस्ती हम सब लोगों को उठाकर खाना खाने के लिए मजबुर किया। खाना खाकर हम फिर से गेट के सामने आ बैठे। एक घंटे बाद देसाईसर रिक्शा से आ गए। उन्हे देखते ही सब उनकी तरफ दौडे क्या हुआ पुछ्ने लगे।

      देसाईसर बोले “ सब कुछ तो यही खत्म हो चुका था। अक्सिडेंट है इस कारण डॉक्टर पोस्टमार्टम करेंगे। उस के बाद बॉडी हाथ आ जाएगी। अरुणसर के विचार से तो पुलिस केस, रिपोर्टर, छानबीन सब पीछे लग जाता लेकिन मार्कोस के पॉकेट में एक खत हाथ लगा, उसमें लिखा है की मैं पुरे होश-हवास में यह खत लिख रहा हूँ। दस साल पहले ही इसी तारीख को मेरे जीवन का सब सार खत्म हो चुका था। जीवन से जो भरोसा उठ गया था उसी अवस्था में मैने इतने साल निकाले, लेकिन अब मैं इस अवस्था में जादा नही जी सकता इसलिए अब मैं आत्महत्या कर रहा हूँ। जीवन असह्य हो गया है। आज मैं अपने खेल का आखरी शो करते हुए इस जीवन से विदा ले रहा हूँ। मेरे मृत्यु के संदर्भ में किसी को भी दोषी ना ठहराते हुए मैं अपना आत्महत्या अपराध स्वीकार करता हूँ। आखरी खेल के वक्त मैंने ही ब्रेक की केबल आधी-अधुरी काटी थी। वह टुटने तक मैं खेलता रहा। मेरे सर्कस वासियों ने मुझे जो भर-भरकर प्यार दिया है, मैं ही था की जो उनके प्यार के सहारे जादा दिन जिंदा रह सका।” देसाईसर बोलते-बोलते रुक गए। सर्वत्र रोने के उदासी भरे स्वर सुनाई देने लगे। शोकपूर्ण माहोल में सबने उसे श्रद्धांजली दी।

    “ अब तुम सब जाकर सो जाओ। कल उसे हॉस्पिटल से उसके गाँव में ले जानेवाले है। जॉनभाई ओैर मैं उसे लेकर जाएंगे। श्रवण, जॉनभाई की बॅग भरकर रखना।” इतना कहकर देसाईसर चले गए। मार्कोस का अंतिम दर्शन भी हमे होनेवाला नही था, तो हॉस्पिटल से एयरपोर्ट जाते वक्त कुछ मिनिट के लिए यहाँ उसे लेकर आए। गोदाक्का ने वह बात जाकर देसाईसर को बता दी ओैर उन्होने उसे मान्यता दी। धीरज, मैं, चंदूभैय्या जॉनभाई की बॅग तैयार करने लगे।

    “ तुम्हे पता है, आज सुबह से मार्कोस बहुत अस्वस्थ था। कल उसे कही से फोन आया, तब से उसका अपने मन के उपर से आपा ही खो गया था। रात को जॉनभाई ने उसे नींद की गोली देकर सुलाया। आज सुबह सब नॉर्मल है ऐसे जताया लेकिन वह अंदर से पुरा हिल चुका था। मोटरबाईक के खेल में हमेशा स्टाफ, बाइक की पूरी जाँच करता है तब उसने किसी को बाइक को हाथ ही नही लगाने दिया.” चंदूभैय्या की बात सुनकर हमे सदमा लग गया। व्यक्ती इतनी आसानी से मृत्यु को स्वीकार कर सकती है? पुरे दिन में, एक क्षण भी उसे ऐसा नही लगा होगा की मृत्यु का खयाल छोडकर अब नया जीवन प्रारंभ करूँगा। अनाकलनीय है यह मानवी जीवन। हम तीनों जॉनभाई के यहाँ ही सो गए। नींद तो नही आ रही थी। आँखों के सामने मार्कोस ही दिख रहा था। डर के मारे मेरा तो हाल बुरा हुआ। धीरज का हाथ पकडा, तो वह भी जग रहा था। दोनों एक-दुसरे का हाथ थामे लेटे रहे। न जाने कौनसे डोर में हम दोनों बंधे थे, धीरज हमेशा मेरे पीछे एक पहाड बनकर खडा है ऐसे ही लगता था। कभी तो आँख लग गई। नींद में भी स्वप्न, विचित्र अवस्था ही थी सभोवताल के घने अंधेरे जैसी।

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