status in Hindi Fiction Stories by prabhat samir books and stories PDF | औक़ात

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औक़ात

डाॅ प्रभात समीर

काशी बाबू ने अपने छुटके को डाँटा-फटकारा, रिश्ते-नातों की दुहाई दी, मारपीट की और फिर थक-टूटकर उससे दया की भीख भी माँगी। क्रोध से शुरू होकर खीज, करुणा और बेबसी तक पहुँची कई दिन की इस यात्रा में छुटका तटस्थ भाव से एक ही वाक्य दोहराता रहा -

‘हम शादी करेंगे तो बाँके की बहन से।’

पूरे परिवार ने एड़ी - चोटी का ज़ोर लगा लिया, अपनी जाति की एक से एक सुन्दर कन्याओं में से किसी एक को भी दुल्हन बनाकर ले आने के वायदे किये, लेकिन बाँंके टस से मस न हुआ। शायद वह जानता था कि जैसे क़द, पद, आकार और आकृति का वह है, उस हिसाब से अपनी जाति में किसी अप्सरा सी दुल्हन और कुबेर जैसे श्वसुर का मिलना कोरी कल्पना और भ्रम ही हो सकता था।

पहली बार छुटके ने बाँंके की बहन से अपना रिश्ता कर देने की इच्छा ज़ाहिर की तो घर के लोगों ने उसे गंभीरता से नहीं लिया । उसने शादी की रट ही लगा दी, तब भी काशी यही समझते रहे कि दो-चार गालियों और ज़्यादा से ज़्यादा दो-चार लातों से वह लाइन पर आ जाएगा। जब गाली और मारपीट भी बेअसर हो गये तब घर के और सदस्यों ने बागडोर संभाली। सब सोचते कि छुटके जैसे मूर्ख और कमअक़्ल को समझाना कौनसा मुश्किल काम है! पहले एक-एक सदस्य ने उसे समझाने की ज़िम्मेदारी ली, फिर समूह में दबाव डाले गये। बहनों की कसमें, बहनोइयों के संबंध तोड़ लेने की धमकियाँ, माँ के कई तरह के भावनात्मक झटके....लेकिन छुटके ने तो बाँके की बहन के नाम की ऐसी बूटी पी ली थी कि वह उसके नशे से बाहर ही नहीं आ रहा था।

काशी को चैन नहीं था। - ‘मालूम है न बाँके के घर में क्या काम होता रहा ? आज भी उन सबके शरीर से मैले अैर गन्दी नालियों की दुर्गन्ध आती है।’ छुटके की अंतरात्मा को जगाने की कोशिश में काशी निचुड़ से गये थे।

वह कैसे भूल जाएँ कि अभी कुछ दिन पहले तक तो कई बार बाँके भी अपने बाप के एवज में तसला और झाड़ू लेकर घर-घर घूमा करता था। दिन-वार त्यौहार पर कई बार बाँके की छोटी बहन भी झोला लटकाए त्यौहारी मांगती फिरती थी। काशीआहिस्ता से कहते-

‘अब ज़्यादा मत सोच, तू चाहे तो अभी आज ही मैं तेरे लिये रिश्तों की लाइन लगा दूँं ।’

छुटका अपने पिता को बस घूरता रहता। मौका मिलते ही सब आपस में पूछते- ‘क्यों, कोई बात बनी ?’ सबकी ज़ुबान पर तसल्ली, लेकिन आँखों में डर और अविश्वास।

बहुत दिन के बाद छुटके ने मुंँह खोला। -

‘ढोया होगा मैला और कूड़ा..

वह सब उनकी देह से तो चिपक नहीं गया और नहीं चिपका तो अब शादी से उसका क्या वास्ता ?’

न क्रोध, न उत्तेजना । एक एक शब्द सहज पर दृढ़ ।

छुटका काशी के घर का दुर्लभ नगीना था । घर में उसका अवतरण साधारण नहीं था। बेटा पाने की उम्मीद में घर में एक के बाद एक पाँच बेटियों की लाइन लग गई थी। पीर, फ़कीर, साधु-सन्यासी, मंदिर मज़ारो के चक्कर लगा-लगा कर, गंडे तावीज़, टोने-टोटके करते हुये काशी की पत्नी की उम्र ढलने पर आ रही थी। इस उम्मीद से कि इतनी तपस्या के बाद तो कुल के दीपक को घर में आना ही पड़ेगा, पत्नी का फिर से पैर भारी हो गया। इस बार का जापा पत्नी के लिए कठिन इम्तहान जैसा था । फ़े'ल हुईं तो पूरी उम्र निपूती का दाग़। किसी बुज़ुर्ग सनकी महिला ने तब उन्हें कैसी अजीब सलाह दे डाली थी... जब दर्द उठें तो मुँह से ‘उफ़’ भी मत करना-

ऐसी मुसीबत में तर्क का क्या काम! दर्द से चीखने - चिल्लाने में बेटा बेटी में बदल जाएगा क्या?पूछने की गुंजाइश ही नहीं थी। वह बस अपनी तकलीफ़ को दबाए पड़ी रहीं।

शायद मा की ऐसी तपस्या को बूझकर सौ एहसान करता छुटका इस ज़मीन पर अवतरित हो गया ।घर का वही नगीना आज बदरंग पत्थर सा लग रहा था। शायद पहली बार घर के लोगों के बदले छुटके का अपना दिमाग काम कर रहा था।

‘सच्ची कहती हूँ, लल्ला, तू बाँके की बहन को घर में लाया और मैंने कुएँ में कूद के अपनी जान दी।’ थकहारकर माँ ने अपना अंतिम, अचूक अस्त्र फेंका।

छुटके का दिल तो बाँके की बहन के पास गिरवी रखा था।थोड़ी बहुत जो अक़्ल थी, उसे लगाकर उसने अम्मा की बात पर ग़ौर किया तो उसे आशा की एक नई किरण दिखाई दे गयी । बहनें शादी करके अपने-अपने घरों की, घर में रहने को अकेले बाबूजी और अम्मा। अगर अम्मा सच में ही.... तो बाँके की बहन तो घर में मालकिन बनकर जीएगी ! अम्मा बनी रहीं तो पूरी उम्र उस पराई बेटी को ताने, उलाहने ही देती रहेंगी ।एक तो परायी और दूसरे बाँंके की बहन !वह तो कभी भी अम्मा की नज़रों में चढ़ ही नहीं सकती, उल्टे रात-दिन की चख़- चख़ और कलह। देखा जाए तो अम्मा तो अपनी उम्र जी ही चुकीं। रहें, न रहें... घर में किसी को कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ने वाला। रहे बाबूजी, तो वो कौनसा घर के अन्दर घुस के बैठे रहेंगे?

'-अम्मा, मैं तो चाहता हूँ कि तुम सौ साल तक जी के अपनी बहू से सेवा कराओ। पर अगर तुम्हारी आई होगी तो कोई रोक पाएगा भला।’

छुटका अपने फ़िल्मी डाॅयलाॅग पर खुद ही रीझ गया और छुटके की माँ ! उन्हें सिर पकड़कर ही बैठना था।

विलाप, प्रलाप, गाली- गलौज, गुस्सा, बेबसी, बौख़ला

हट... छुटका सबसे ऊपर उठ चुका था।वह जब -तब दोहरा देता -

‘शादी करूँगा तो बाँके की बहन से।’

अपनी अंधेरी ज़िन्दगी और ठप्प पड़े कॅरियर में बाँके की बहन उसके लिए एक ऐसा झरोखा थी, जिसमें से असंख्य, अकल्पनीय प्रलोभन रोशन हो रहे थे।

कल की सी बात लगती है जब स्कूल में बाँके भी छुटके की ही कक्षा में आकर बैठने लगा था। बाँके जैसे किताब और कलम पकड़ लेंगे तो झाड़ू कौन थामेगा, साफ़ -सफ़ाई करने उसके पुरखे आएंगे क्या? उस पर छुटके की ही क्लास में बैठना और अव्वल भी आना... बाँंके ने मानो उनका, उनके छुटके का, उनकी पूरी जाति का ही अपमान करने का बीड़ा उठा लिया था । पिद्दी भर का ' बेइज़्ज़त, निक्कमा, फ़िज़ूल' बाँके...काशी उसे ऐसा ही मानते थे।वह आज उनके लिये चुनौती बनकर खड़ा था!ऐसे लोगों को शिक्षा नसीब हो और वह भी उनके बेटे के साथ ! बाँके की प्रतिभा को किनारे करके, वह इस सब में उसकी किसी घिनौनी चाल की कल्पना करने लगे थे। उसके इनाम, उसकी तारीफ़, उसके लिए बजाई गई तालियां... काशी बाबू के सीने पर हथौड़े जैसे थे ।

अपनी इस आंदोलित स्थिति को काशी ने अपने तक ही सीमित रखा, भूलकर भी कभी किसी और से चर्चा नहीं किया और अनुकूल अवसर की तलाश में जुट गए।

वह अपने छुटके में बुद्धि और विवेक पैदा न कर सकें तो क्या, बाँके के उड़ान भरते पंखों को काटने की सामर्थ्य तो रखते ही थे; छुटके की रफ़्तार न बढ़े तो बाँंके का प्रवाह तो रुके।

उन्होंने अपना लक्ष्य ही बदल डाला। छुटके को छोड़, उनकी गिद्ध दृष्टि अब बाँके का पीछा करने लगी ।इलाके में अपनी ताक़त और दबदबे का उन्हें अंदाज़ था ।उनका अहंकार तो पूरी दुनिया को ही अपने प्रताप और प्रसिद्धि के सामने झुका हुआ मानता था।वह कुछ भी कहें और करें, उन्हें जवाबदेह बनाकर खड़ा करने का साहस किसी में था क्या?

फिर एक दिन ऐसा कुछ घटित हुआ, जिसके प्रत्यक्षदर्शी सिर्फ़ काशी थे। बाँके ने कोई काँंड...जघन्य अपराध कर डाला । उसे कुछ करते भले ही किसी ने न देखा हो, लेकिन काशी का गुस्सा, गालियाँ, अभद्र भाषा और पिटाई - कुटाई सबने देखी। भीड़ जमा होने तक तो बाँंके पिटकर अधमरा हो चुका था। भद्दी, गन्दी भाषा गोलियों की तरह उसके पूरे चैतन्य को छलनी कर चुकी थीं। बाँके और उसके बाप को इस लज्जाजनक स्थिति का मूल कारण समझ में नहीं आ रहा था।

अलबत्ता अपनी अभद्रता, धृष्टता और काशी के घर में अश्लील हरकतें करने के लिए वह चर्चित हो गया। कुछ एक ने चोरी का इल्ज़ाम भी उसके सिर पर मढ़ दिया।

गाँव काशी की तरफ झुका चला जा रहा था। बाँके की बिरादरी के लोगों को सच का पता ही नहीं चला और अगर पता चलता भी तो कौन काशी से वैर मोल लेता? बाँके अपराधी और भयंकर सज़ा का हक़दार सिद्ध हो गया।

अलग से छानबीन करने वालों का नाम तुरन्त ही काशी के हितैषियों की लिस्ट से हटाया दिया गया । साथ में रहे ऐसे शुभचिन्तक जिनकी मानसिकता काशी से भी इक्कीस थी।

बाँके का बाप गाँव में किसी से भी, विशेषत: काशी से दुश्मनी मोल लेने की बात सोच ही नहीं सकता था। मुद्दा अब उसके बेटे के अपराधी या निरपराधी होने का नहीं था बल्कि काशी के असन्तोष और रोष का था। उन्होंने उसे दंडनीय माना था... इतना पर्याप्त था।बाँके था कि अपना अपराध जाने बिना घुटने टेकने को तैयार नहीं था।उसे कलंकित, निंदित, दाग़ी...कुछ भी कहें, बाँके बगावती हो चुका था। न माफ़ी, न दया की भीख... वह तो काशी के नाम से चिढ़ने लगा । शायद काशी भी जानते थे कि हठी बाँके उन बच्चों में से नहीं है जो अपनी ग़लती जाने बिना घुटने टेक देगा, उसका ऐसा अड़ियलपन उनके हित में भी था।अगर उसे जड़ से उखाड़ फेंकना है तो न क्षमा, न कोई समझौता, इसीलिये काशी ने शर्त रख दी कि बाँके स्वयं अपनी काली करतूत का खुलासा दूसरों के सामने करे। कौनसी करतूत और किस अपराध की क्षमा !

एक ओर बाँके की अवज्ञा और अड़ियलपन, दूसरी ओर काशी के बढ़ते तेवर....परिणाम यह हुआ कि बाँके के बाप ने अपने बेटे और बेटी के साथ रातों - रात गाँव छोड़कर काशी के बोले गये झूठ को भी सच के रूप में प्रमाणित कर दिया।

कुछ लोग उस दिन की घटना की तह तक पहुँचे, 

असलियत को जाना, बाँके की निर्दोषिता को समझा, लेकिन खुलकर सामने आने का उनमें न साहस और न उसकी आवश्यकता।

बाँके के ऐसे समर्पण से काशी को अपनी व्यूहरचना पर मान होने लगा। एक ही बार में दुश्मन चारों खाने चित्त! ऐसा तो सोचा ही न था। अपने छुटके की ओर बड़े गर्व से देखते हुये काशी बुदबुदाए... ’टक्कर और वो भी हमारे छुटके से!’

बाँके गाँंव से चला तो गया, लेकिन आए दिन उसके बारे में कुछ-कुछ सुनने को मिलता रहता। काशी के मन के किसी कोने में भी उसकी जानकारी की उत्सुकता बनी रहती थी। जो कोई भी शहर से लौटता एक नई ख़बर ले आता...... बाँके क़ुलीगीरी करता है...ढाबे पर झूठे बर्तन-भांडे साफ करते देखा है..... वहाँ भी झाड़ू, कचरा उठाता है.....काशी चैन में थे कि कुछ भी करता है पर काॅपी, किताब, कलम तो छोड़ चुका है।

‘अच्छा ही हुआ, भैय्या, कि बाँके पर हमारी फटकार काम कर गई।’ शहर में कुछ भी करेगा यहाँ गाँव से तो अच्छा ही करेगा और ज़्यादा ही कमा- खा लेगा।’

काशी अक़्सर अपने आपको श्रेय देने लगते।

इधर गाँव में भी आहिस्ता - आहिस्ता कई बदलाव आए। पढ़ाई, रोज़ी -रोटी की तलाश में गाँव के बच्चे शहर पहुँचने लगे। कई एक की शादियाँ हो गई। किसी घर में बहू आ गई तो किसी घर से बेटी चली गई। नई पीढ़ी में मेहनत और लगन से भविष्य सुधारने की होड़ लग गई। इन परिवर्तनों के बीच में कुछ अडिग था तो वह था छुटके का भाग्य। रेंग - रेंग कर उसने जो कुछ जमात पास कर ली थीं, उनमें छुटके की मेहनत और अक़्ल कम, काशी के दबदबे ने ही ज़्यादा काम किया था। स्कूली पढ़ाई तक तो रुतबा चला, उसके बाद छुटके की किस्मत के सितारे गर्दिश में आ गये। न पढ़ाई, न नौकरी । छुटके के निकम्मा, बेरोज़गार और ठहरी ज़िन्दगी लेकर उन पर ही बोझ बनकर पड़ा होने का दुःख तो काशी को था, लेकिन राहत भी थी कि बाँके छुटके से टक्कर लेने को गाँव में नहीं था और इतना ही नहीं बाहर जाकर भी उसने किसी बड़ी कामयाबी के तमगे नहीं लटका लिये थे।

छुटका कैसा भी था, काशी का बेटा होने से गाँव में उसकी शान थी । दूसरी ओर बाँके! कहीं झाडू लगाता, बर्तन मांजता कुछ कमा-खा भी रहा होगा तो भी क्या, औक़ात उसकी किसी कीड़े-मकोड़े जैसी थी और वैसी ही रहेगी।

कई बार काशी के मन में अपना ही पाप बोलने लगता। काश! बाँके ने पढ़ने की न ठानी होती, और ठान भी ली थी तो छुटके के मुकाबले में खड़ा न हुआ होता तो आज उससे उसका गाँव, अपना घरबार न छूटता।

गाँव से शहर की दूरी अब और भी कम होने लगी थी। आए दिन लोग अपने बच्चों की पढ़ाई, नौकरी, घरबार की ख़ातिर बाहर पहुँचने लगे थे। अभी तक बाँके ने गाँव के लोगों को अपना सच नहीं बताया था या जानने वाले उसकी असलियत को काशी के सामने ले आने से बचते थे....जो भी था काशी की कल्पना में बाँके किसी मज़दूर, चौकीदार, चपरासी जैसे ही किसी साँचे में फिट था, लेकिन कुछ दिन से गाँव में एक अलग तरह की अफवाह फैलने लगी थी....’बाँके अफ़सर ’, बाँके मैनेजर' ‘बाँके बड़ा आदमी', 'बाॅंके की अमीरी’, बड़ी गाड़ी, उसका आलीशान घर ...जितने मुंह, उतनी बातें।

एक बार शुरुआत हुई तो दबी -छिपी आवाज़ें खुलकर सामने आने लगीं ।

-‘बाँके के नीचे बहुत लोग काम करते हैं।’

‘बाँके ने किशनपाल के बेटे की नौकरी पक्की करा दी है‘

-‘बाँके ने रघुवर को पैसा उधारी पर दिया है‘

बाँके का विदेशी कम्पनी में काम, उसकी साहबी, अंग्रेज़ी रँंग-ढँंग....इन अफवाहों ने काशी के जीवन में भूचाल ला दिया ।

मन ही मन कमज़ोर होते जाते काशी की जीभ तब भी उतनी ही ज़िद्दी और अड़ियल बनी रही।

- ' कुली और मज़दूर से सीधा साहब?भैया किसी साहब की चाकरी में लगा होगा।’ कहते हुए वह ठहाका लगाने लगते। सूचनाओं के अपने मज़बूत नेटवर्क पर भरोसा करके बाँके के किस्सों को उन्होंने मनगढ़न्त मान लिया।

इस बार लोगों को काशी पर कम और शहर से उड़कर आती खबरों पर ज़्यादा भरोसा होने लगा। काशी कभी अपने आपको तसल्ली देने लगते तो कभीअपने गोबर गणेश बेटे को हीन भावना से उबारने की कोशिश में लग जाते कि तभी उनके छुटके ने ही वज्रपात कर डाला-

-‘बाबूजी, बाँके की अफ़सरी तो हमने खुद देखी है... उनके ऑफिस में भी और उनके बंगले पर भी।’

- ‘नशा करने लगे हो या बौरा गये हो ?’ कहते हुए काशी ने दो-चार थप्पड़ छुटके में जड़ डाले । न बौराया और न नशे में। वह तो पूरे होशो-हवास में बाँके की खि़दमत करके आया था। चारों ओर से लाचार छुटके को अब एक अकेले बाँके में अपने भविष्य की संभावनायें दिखाई दे रही थीं। उसकी नौकरी की, शादी की उम्र निकलती जा रही थी। घर में अब हताशा और निराशा ही उसके हाथ आती थी। उम्मीदी और नाउम्मीदी की दुनिया मेें हिचकोले लेता वह कब बाँके से टकरा गया और कैसे दोनों का आपस का फ़ासला कम होता चला गया, पता ही नहीं चला।

जिस बाँके को काशी के दरवाज़े से सटकर खड़े होने तक की इजाज़त नहीं थी, उस बाँके के घर में छुटके का खाना-पीना, सोना उठना होता रहा और इतना ही नहीं वहाँ अपने घर में बाँके राजा और छुटका उसकी प्रजा !तथ्य को स्वीकार करने की मनःस्थिति में ही कहाॅं थे काशी। अभी भी छुटके को झुठलाने में ही उन्हें सुख मिल रहा था।

दूसरी ओर बाँके का गाँव से निकलना मानो उसकी लाॅटरी लग जाना। उसकी डिग्रियाँ, उसकी नौकरी, गाड़ी - बँगला...सब की जड़ में अपमान के कड़वे घूंट ही तो थे, जो उस निरपराध को पीने पड़े थे।

किसी आशंका से आशंकित काशी सब कुछ भुलाकर अब छुटके का घर बसाने की फिराक में लग गए। उन्हें भरोसा था कि उनका समाज उनके प्रति सम्मान और कृतज्ञता के बोझ से आज भी बोझिल है। उनके कहने भर से बेटियों के बाप रिश्ते लेकर दौड़े चले आएंगे।

योग्य कन्याओं की लिस्ट ले आने का काम पंडित को सौंपा ही गया था कि एक हादसा हो गया । बाँके खुद गाँंव में आ धमका। आज उसे किसी झूठे, सच्चे इल्ज़ाम का डर नहीं था। उसने सीधे अपनी गाड़ी काशी के दरवाजे़ के आगे ले जाकर खड़ी की और उतरकर ‘क्या मैं अन्दर आ जाऊँ ?’ कहता हुआ वह उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही उनकी बैठक में पहुँच गया । सन्न रह गए काशी देर बाद इतना ही कह पाए - ‘पानी मँगवायें क्या ?’ बाँके ने अपने ड्राइवर को आवाज़ दी, पानी की बोतल मँगवाकर पानी गटकते हुये बोला --

‘यहाँ का पानी!कौन बीमारी मोल लेगा ।’

काशी कसमसाकर रह गये। गाँव की काली नदी, उसका मटमैला पानी और उसी को जीवन शक्ति मानते बाॅंके जैसों के परिवार... काशी के सामने सब कुछ घूम गया।पर कुछ कह नहीं पाए। छुटके बाँके की डिज़ाइनदार, चमचमाती बोतल पर नज़र गड़ाए था, तभी बाँके कुर्सी पर इधर-उधर हुआ मानो बहुत तकलीफ़ में बैठा हो ।

- ‘ आज पहली बार आपकी बैठक देखी है, लगता है दादा-परदादा के टाइम से आजतक कुछ भी नहीं बदला।’ कहते हुए उसने अतीत कुरेद डाला ।

- ‘ आपके सामान के सामने ये सब कहाँ ठहरता है ? ‘ छुटके ने अभिभूत होकर कहा।

-‘वो सब तो विदेशी सामान है भैय्ये।’ विदेशी कम्पनी, ऑफ़िस, बँगला, पैसा, कार ....बातों के बीच बाँके ने सुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी । वह चुप हुआ तो बैठक में अजीब सन्नाटा छा गया। काशी के अंदर हलचल मची थी, लेकिन शब्द थे कि मुँह से बाहर ही नहीं आ पा रहे थे। बहुत कुछ अनकहा फैलकर तनाव देता जा रहा था। बाँके ने ही इस गहराती चुप्पी को तोड़ा -

-‘हमने तो छुटके बाबू के लिये भी बहुत कुछ सोच लिया है, कहें तो कुछ बयान करें।’

- ‘अब कहना, कहलवाना क्या ? हम तो अपनी ज़िन्दगी की बागडोर आपको सौंप ही चुके हैं।’ काशी के अहं का फन फुफकारने को था कि यह कहकर छुटके ने उसे बेरहमी से कुचल डाला

काशी ‘आप’ शब्द पर चौंके। कल तक प्रताड़नाएँ, गाली, अबे- तबे की बोली सुनकर बड़ा होता हुआ बाँके आज इतने आदरभाव का हकदार हो गया ? और ये छुटका! घर की सारी मान-मर्यादा इसने ताक पर रख दी। काशी का तनाव बाँके को सुख दे रहा था।

- ‘छुटके की बात तो हमने समझ ली, आप अपनी इच्छा प्रकट करें।’ इधर बाॅंके ने काशी से कहा, उधर छुटका सतर्क हो गया।बाबूजी ने मुँह खोला और आज भी जली-कटी सुना दी तो उनका क्या जायेगा, जो कुछ भी बिगडे़गा, उसका बिगडे़गा। काशीको बोलने का मौका दिए बिना ही वह बीच में कूद पड़ा -

‘ हम तो बाबूजी के लड़ैते हैं....जो हमारी इच्छा सो उनकी इच्छा।’ बाँके जानता था कि काशी का वश चले तो आज भी ऐसी शतरंजी चाल चलें कि बाॅंके अपने घोड़ों, प्यादों सहित किसी गटर में पड़ा हुआ दिखाई दे लेकिन इस खेल में मोहरा तो उनका छुटका और चाल चलेगा बाॅंके।

बाॅंके ने भी ज़्यादा खींचना ठीक नहीं समझा और काशी को मान देते हुये कहा -

-‘मतलब कि छुटके को आपका आशीर्वाद भी मिल चुका है, अब हमारी बहन को भी आशीर्वाद दें साक्षात् लक्ष्मी है, जहाँ जाएगी, सारी दरिद्री दूर कर देगी।’ काशी की आँखों में सीधा झाँकते हुये उसने धमाका किया।

काशी का हाथ आदतन बाँके को मारने को उठा जिसे चुपके से छुटके ने थाम लिया।

काशी के स्वभाव से बाँके भी खूब परिचित था, अब वहाँ और रुकना ठीक नहीं था।

बांके की बहन पढ़ी -लिखी नहीं थी, तो छुटका ही कौनसा बहुत योग्य था। अपनी बहन को इस घर में ब्याहने की बाँके की ज़िद ने छुटके को ऐसे लपेटे में ले लिया था कि काशी उसे कैसे भी उस पकड़ से बाहर नहीं ला सकते थे।

देखने-भालने में सुन्दर बाँके की बहन छुटके को भा गयी थी। शहरी तौर-तरीके इतने सीख गई थी कि छुटके को उससे सबक लेने पड़ते। शादी, पैसा, नौकरी का लालच और शान-शौकत---एक के बाद एक जादुई लुभाव और छुटका उनमें क़ैद।

बाॅंके कुर्सी से उठा, गाड़ी में पड़ा मिठाई का डिब्बा, मेवों की टोकरी जैसे कई प्रलोभन उसने काशी के सामने सजाकर रखते हुए फिर तीर चलाया - ‘बाबूजी, यह सब आपके लिये। छुटके तो शगुन का नारियल और रूपये हमसे ले ही चुके हैं।'

' बालिग हैं, अपने फै़सले खुद कर सकते हैं।'

- ‘कुछ भी हो हमें आपके आशीर्वाद का बहुत इंतज़ार रहेगा।’

दरवाजे़ की ओर बढ़ते हुए अपनी गर्वीली मुस्कान के साथ इतना कहते हुए काशी के घर को भूकम्प सा हिलाकर, वह निकल लिया।धूल उड़ाती उसकी गाड़ी कुछ ही देर में गाँव की सीमा से बाहर हो गई।बाॅंके ने गांव में किसीको अपने इरादों की हवा नहीं लगने दी।क्या भरोसा कि कौन बने - बनाए खेल को बिगाड़ दे।अभी काशी की बुद्धि का भी क्या भरोसा, किधर का रुख करे।

इस घटना के बाद छुटके का बचा-खुचा डर और संकोच भी खत्म हो गया।उसे समझाने की कोशिशें दीवार में सिर मार देने जैसी सिद्ध हुईं। बाँके की बहन की ख़ातिर वह माँ-बाप, नाते-रिश्ते, सम्मान, समाज... सब कुछ दाँव पर लगा सकता था।

काशी भी समझ चुके थे कि अब अगर ज़्यादा जकड़ा तो घर का एकमात्र चिराग़ जिससे उनके घर की देहरी रोशन होती है, जाकर बाँके के घर को जगमग करने लगेगा.... काशी को कपकपी छूटने लगी।

आखि़र थक-टूटकर उन्होंने पत्नी से कहा-‘अब रोना-धोना, लानत मलामत, गाली-गलौज बन्द करो। हम घर में कुछ लेकर ही आ रहे हैं, कुछ देने तो नहीं जा रहे।’ पत्नी बिफर उठीं -

-‘अब बाँके की बहन हमारे घर-आँगन में घूमेगी?’

-‘घर में चूहे, बिल्ली भी तो घूमा करते हैं, रोक लेती हो क्या?’

-'और जात-बिरादरी में हमारी नाक ?’

- ‘वो हम देख लेंगे। बिरादरी में क्या, पूरे गाँव में हमारी नाक ऐसी ही रहेगी।’

काशी के ऐसे झंझावाती निर्णय से सारा घर हिलने लगा था।

छड़ी उठाकर बाहर घूमने को निकलते हुए काशी ने पत्नी को आदेश दिया - ‘तुम तो अब छुटके पर नज़र रखो।’

। एक ओर ऊॅंच-नीच, छोटे-बड़़े, जाति, बिरादरी के बनाए उनके ही कठोर नियम और उन पर टिकी हुई उनकी साख, दूसरी ओर सब पर भारी पड़ता उनका मतिभ्रष्ट बेटा...

परिवार को इस झंझावात से निकालना, घुटने टेक देने के बाद भी छुटके पर नियंत्रण का आडम्बर बनाए रखना, अपनी साख और सम्मान को बचाए और बनाए रखना...स्थिति बहुत यातनाप्रद थी। सबसे पहले काशी ने अपने आप को संभाला, अनुशासित किया और अपनी योजना पर काम शुरू कर दिया।

काशी ने सबसे पहले बाॅंके का गाॅंव में आना, उनसे मिलना....इस सबको उसके अपराध बोध से जोड़ा ।उसकी तारीफ़ के पुल बांधते हुए वह यह बताना नहीं भूलते थे कि ऊंचे पद पर पहुंचकर भी कैसे वह अपनी काली करतूत पर अभी तक भी शर्मिंदा है और उसका प्रायश्चित ही उसे उन तक खींच लाया था।

उनका सुबह का टहलना अब उस ओर होने लगा जिस ओर अभी भी बाँके का टूटा-फूटा घर था।चेहरे पर मुस्कान और मुलायमियत लिए वह रुककर लोगों से बात करने लगे। बात-बात पर वह उपेक्षितों और पीड़ितों के लिये द्रवित होने लगे। समता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुत्व की बात करते हुए बाॅंके और उस जैसे अनेकों के लिये उनकी पीड़ा बाँध तोड़कर बहने लगी। बाँके ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया, उन्होंने क्षमा कर दिया...इतना बताकर वह आत्माभिमान से भर जाते और फिर छद्म विनम्रता से उसके बेगुनाह बाप से मिलने को छटपटाने लगते।

हमेशा से अहंकार औरअविश्वास से भरी हुईअपनी पृष्ठभूमि को बदलने में उन्हें वक़्त लगा, मेहनत लगी और पैसा भी खूब खर्च हुआ, लेकिन आहिस्ता से उन्होंने अपनी मनचाही छवि बना ही ली।

मन में भरी हुई नफ़रत और अपनी कांपती आवाज़ को बाँके की बहन से अपने बेटे के विवाह की घोषणा के शोर में उन्होंने दबा लिया। पूरे गांव में अपनी प्रगतिशीलता और साहसिक कदम का डंका बजवाने में उन्हें बहुत श्रम करना पड़ा। बाँके तक भी सूचना भिजवा दी गई ।

बाँके ने अखबारों में काशी का चित्र देखा जिसके ऊपर लिखा था - ‘दलितों के मसीहा’। चित्र के नीचे उनके परिचय में दलितवर्ग के लिये उनके महत्वपूर्ण योगदान की खूब सराहना की गई थी। बाँके की बहन से अपने बेटे की शादी के उनके निर्णय को प्रशंसनीय और अनुकरणीय कदम बताया गया था।

इस तरह काशी ने विधानसभा इलेक्शन के लिए एक ख़ास वर्ग के वोटों की भी बढ़ोत्तरी करके अपनी जीत सुनिश्चित कर ली और दूसरी ओर बाँके को भी गुपचुप एक संदेश भेज दिया -

‘काशी से जीतने का सेहरा अपने सिर बाँधने की

कोशिश कभी मत करना और न कभी अपनी औक़ात भूलना।’

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