अध्याय 18 (भाग 2)
मोक्ष संन्यास योग
पिछले भाग में अध्याय के पहले, 39 श्लोकों की व्याख्या की थी। उनमें भगवान श्रीकृष्ण ने संन्यास और त्याग के बारे में बताया था। ज्ञान, बुद्धि, कर्म, कर्ता, संकल्प और सुखों के सात्विक, राजसिक और तामसिक गुणों का वर्णन किया था।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि पृथ्वी या अन्य उच्च लोकों में रहने वाला कोई भी प्राणी प्रकृति के तीन गुणों सात्विक, राजसिक और तामसिक से अप्रभावित नहीं रहता है। अब भगवान समाज के चार वर्णों के विभाजन के बारे में बता रहे हैं।
हे शत्रुहंता मानव समाज को चार वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में विभाजित किया गया है। उनके कर्तव्यों को इनके गुणों के अनुसार तथा प्रकृति के तीन गुणों के अनुरूप वितरित किया गया है। ये विभाजन जन्म पर आधारित नहीं है।
शांति, संयम, तपस्या, शुद्धता, धैर्य, सत्यनिष्ठा, ज्ञान, विवेक तथा परलोक में विश्वास रखने वाला ब्राह्मण कहलाता है।
शूरवीरता, शक्ति, धैर्य, रण कौशल, युद्ध से पलायन न करने का संकल्प, दान देने में उदारता नेतृत्व क्षमता ये सब क्षत्रियों के कार्य के स्वाभाविक गुण हैं।
कृषि, गोपालन और दुग्ध उत्पादन तथा व्यापार वैश्य के स्वाभाविक कार्य हैं। श्रम और सेवा शूद्र का स्वाभाविक कर्म है।
अपने भीतर निहित जन्मजात गुणों से उत्पन्न अपने कर्तव्यों का पालन करने से मनुष्य पूर्णता प्राप्त कर सकता है। भगवान श्रीकृष्ण आगे बताते हैं कि कोई निर्धारित कर्तव्यों का पालन करते हुए कैसे पूर्णता प्राप्त करता है।
अपनी स्वाभाविक वृत्ति के अनुसार अपने कर्मों को संपन्न करते हुए मनुष्य यदि उस परमेश्वर की शरण में खुद को समर्पित कर देता है तो सरलता से पूर्णता प्राप्त कर सकता है।
अपने नियत कर्म का पालन त्रुटिपूर्ण ढंग से करना अन्य के कार्यों को उपयुक्त ढंग से करने की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ है। अपने स्वाभाविक कर्तव्यों का पालन करने से मनुष्य पाप अर्जित नहीं करता।
किसी को भी अपनी प्रकृति से उत्पन्न कर्त्तव्यों का परित्याग नहीं करना चाहिए चाहे कोई उनमें दोष भी क्यों न देखता हो। हे कुन्ती पुत्र जैसे आग धुंए से ढकी रहती है उसी तरह सभी प्रकार के कर्मों में वास्तव में कोई न कोई बुराई होती है।
वो जिनकी बुद्धि सदैव प्रत्येक स्थान पर अनासक्त रहती है, जिन्होंने अपने मन को वश में कर लिया है, जो वैराग्य के अभ्यास द्वारा कामनाओं से मुक्त हो जाते हैं, वो कर्म से मुक्ति की पूर्ण सिद्धि प्राप्त करते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं हे अर्जुन अब मैं तुम्हें समझाऊँगा कि जो सिद्धि प्राप्त कर चुका है वह भी दृढ़ता से दिव्य ज्ञान में स्थित होकर कैसे ब्रह्म को भी पा सकता है।
कोई भी मनुष्य जो विशुद्ध बुद्धि और दृढ़ता से इन्द्रियों को संयत रखता है। शब्द और अन्य इन्द्रिय विषयों का परित्याग करता है। राग और द्वेष से स्वयं को दूर रखता है। वह मनुष्य ब्रह्म को पाने की पात्रता प्राप्त कर सकता है। ऐसा व्यक्ति जो एकांत वास करता है, अल्प भोजन करता है, शरीर मन और वाणी पर नियंत्रण रखता है, सदैव ध्यान में लीन रहता है वह ब्रह्म को पाने का अधिकारी है। वैराग्य का अभ्यास करने वाला, अहंकार, हिंसा, अभिमान, कामनाओं, संपत्ति के स्वामित्व और स्वार्थ जैसी भावनाओं से मुक्त रहता है और जो शांति में स्थित है वह ब्रह्म के साथ एकरस होने का अधिकारी है।
परम ब्रह्म की अनुभूति में स्थित मनुष्य मानसिक शांति का अनुभव करता है। वह कभी शोक नहीं करता है और न ही कोई कामना करता है। वह सभी के प्रति समभाव रखता है, ऐसा परम योगी मेरी भक्ति को प्राप्त करता है।
मेरी प्रेममयी भक्ति से ही मनुष्य मुझे सत्य के रूप में जान पाता है। यथावत सत्य के रूप में मुझे जानकर मेरा भक्त मेरे पूर्ण चेतन स्वरूप को प्राप्त करता है।
यदि मेरे भक्त सभी प्रकार के कार्यों को करते हुए मेरी पूर्ण शरण ग्रहण करते हैं। तब वो मेरी कृपा से मेरा नित्य एवं अविनाशी धाम प्राप्त करते हैं।
अतः अपने सभी कर्म मुझे समर्पित करो और मुझे ही अपना परम लक्ष्य मानो। बुद्धियोग का आश्रय लेकर अपनी चेतना को सदैव मुझमें लीन रखो।
सदैव मेरा स्मरण करने से तुम सभी कठिनाईयों और बाधाओं को पार कर पाओगे। यदि तुम अभिमान के कारण मेरे उपदेश को नहीं सुनोगे तब तुम्हारा विनाश हो जाएगा।
हे अर्जुन यदि तुम अहंकार से प्रेरित होकर सोचते हो कि तुम युद्ध नहीं लड़ोगे तो तुम्हारा ये निर्णय निरर्थक सिद्ध हो जाएगा। तुम्हारा स्वाभाविक क्षत्रिय धर्म तुम्हें युद्ध लड़ने के लिए विवश करेगा।
मोहवश जिस कर्म को तुम नहीं करना चाहते हो उसे तुम्हें अपनी प्राकृतिक शक्ति से उत्पन्न प्रवृत्ति से बाध्य होकर करना पड़ेगा।
हे अर्जुन! परमात्मा सभी जीवों के हृदय में निवास करता है। उनके कर्मों के अनुसार वह आत्माओं को इस तरह निर्देशित करता है जैसे वो भौतिक शक्ति से निर्मित यंत्र पर सवार हों।
हे भारत ईश्वर को परम लक्ष्य मानकर अपने पूर्ण अस्तित्त्व के साथ केवल उसकी शरण ग्रहण करो। उसकी कृपा से तुम पूर्ण शांति और उसके नित्यधाम को प्राप्त करोगे।
इस प्रकार से मैंने तुम्हे ये ज्ञान दिया है जो गुह्य से गुह्यतर है। इस पर गहनता के साथ विचार करो और फिर तुम जो चाहो वैसा करो।
पुनः मेरा परम उपदेश सुनो जो सबसे श्रेष्ठ गुह्य ज्ञान है। मैं इसे तुम्हारे लाभ के लिए प्रकट कर रहा हूँ क्योंकि तुम मेरे प्रिय मित्र हो।
सदा मेरा चिंतन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी अराधना करो, मुझे प्रणाम करो, ऐसा करके तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे। मैं तुम्हें ऐसा वचन देता हूँ क्योंकि तुम मेरे अतिशय मित्र हो।
सभी प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और केवल मेरी शरण ग्रहण करो। मैं तुम्हें समस्त पाप कर्मों की प्रतिक्रियाओं से मुक्त कर दूँगा, डरो मत।
यह उपदेश उन्हें कभी नहीं सुनाना चाहिए जो न तो संयमी है और न ही उन्हें जो श्रद्धाहीन हैं। इसे उन्हें भी नहीं सुनाना चाहिए जो आध्यात्मिक विषयों को सुनने के इच्छुक नहीं हैं और विशेष रूप से उन्हें भी नहीं सुनाना चाहिए जो मेरे प्रति द्वेष रखते हैं।
वो जो इस अति गुह्य ज्ञान को मेरे भक्तो को सिखाते हैं, वो अति प्रिय कार्य करते हैं। वो निःसंदेह मेरे धाम में आएंगे।
जो मेरे इस ज्ञान का प्रचार करते हैं उनसे अधिक कोई भी मनुष्य मेरी प्रेमपूर्वक सेवा नहीं करता है। इस पृथ्वी पर मुझे उनसे प्रिय न तो कोई है और न ही होगा।
मैं यह घोषणा करता हूँ कि जो हमारे पवित्र संवाद का अध्ययन करते हैं वो ज्ञान के समर्पण द्वारा अपनी बुद्धि के साथ मेरी पूजा करेंगे।
जो श्रद्धायुक्त तथा द्वेष रहित होकर केवल इस ज्ञान को सुनते हैं वो पापों से मुक्त हो जाते हैं। वो मेरे उन पवित्र लोकों को प्राप्त करते हैं जहाँ पुण्य आत्माएं निवास करती हैं।
भगवान श्रीकृष्ण पूछते हैं कि हे पार्थ क्या तुमने एकाग्रचित्त होकर मुझे सुना? हे धनंजय क्या तुम्हारा अज्ञान और मोह नष्ट हुआ?
अर्जुन ने उत्तर दिया कि हे अच्युत आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है। अब मैं ज्ञान में स्थित हूँ। मैं संशय से मुक्त हूँ और मैं आपकी आज्ञाओं के अनुसार कर्म करूँगा।
अंत में संजय ने धऋतराष्ट्र को बताया कि मैंने वासुदेव पुत्र श्रीकृष्ण और उदारचित्त पृथा पुत्र अर्जुन के बीच अद्भुत संवाद सुना। यह इतना रोमांचकारी संदेश है कि इससे मेरे शरीर के रोंगटे खड़े हो गए हैं। वेदव्यास जी ने कृपा की जिसके कारण मैं इस परम गुह्य योग को साक्षात योगेश्वर श्रीकृष्ण से सुन सका।
हे राजन जब-जब मैं परमेश्वर श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच हुए इस चकित कर देने वाले अद्भुत संवाद का स्मरण करता हूँ तब-तब मैं पुनः पुनः हर्षित होता हूँ।
भगवान श्रीकृष्ण के अति विस्मयकारी विश्व रूप का स्मरण कर मैं अति चकित और बार-बार हर्ष से रोमांचित हो रहा हूँ।
जहाँ योग के स्वामी श्रीकृष्ण और श्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन हैं वहाँ निश्चित रूप से अनंत ऐश्वर्य, विजय, समृद्धि और नीति होती है, ऐसा मेरा निश्चित मत है।
अध्याय की विवेचना (शेष 39 श्लोक)
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि न सिर्फ इस धरती पर बल्कि अन्य लोकों में जो प्राणी हैं वो सभी प्रकृति के तीन गुणों से प्रभावित हैं।
प्रकृति के तीन गुण सत्व, रजस और तम मनुष्य के पूरे व्यक्तित्व पर प्रभाव डालते हैं। हमारी सोच, काम करने का तरीका, ज्ञान, बुद्धि, कर्म सब इन गुणों से प्रभावित होते हैं।
ऐसा नहीं है कि मनुष्य उपरोक्त में से किसी एक ही गुण के आधीन हो। हो सकता है कि कोई सात्विक गुणों से भरा हो। समाज में बहुत प्रतिष्ठित हो। सब उसके ज्ञान की सराहना करते हों पर उसमें कुछ मात्रा में रजस या तमो गुणों का प्रभाव हो सकता है। जैसे कि ज्ञान होने के बाद भी मन में मान सम्मान पाने की लालसा हो। कर्म करने में सतत न हो या अनुशासन हीन हो।
हमारे भीतर जो भी दोष होते हैं वो हमें प्रगति करने से रोकते हैं। पर हमारे पास अवसर होता है कि हम अपने दोषों को पहचान कर उन्हें दूर करने का प्रयास करें।
यही तो गीता का उपदेश है। जब तक हम अपने समस्त दोषों से मुक्त होकर, अपने कर्मों और उनके फलों से स्वयं को असंबद्ध नहीं कर लेते हैं तब तक बार बार जन्म लेते रहेंगे। अच्छे कर्म हमें मनुष्य योनि में जन्म लेने में सहायक होते हैं। अन्य प्राणियों की तुलना में मनुष्य सबसे प्रबुद्ध है। उसके पास ये अवसर होता है कि वह अपनी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करे। इसलिए मनुष्य जीवन का सबसे अधिक महत्व है।
भगवान श्रीकृष्ण आगे कहते हैं कि प्रकृति के गुणों और कर्म के आधार पर मानव समाज को चार वर्णों में बांटा गया है। ये विभाजन जन्म के आधार पर नहीं होता है। इस विभाजन के अनुसार चार वर्ण हैं ब्रह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इन सभी के गुणों और कर्मों का वर्णन भगवान श्रीकृष्ण ने किया है।
उन मनुष्यों में जिनमें सत्व की मात्रा अधिक होती है। जिनमें ज्ञान के प्रति झुकाव होता है। पवित्रता, विचारों की शुचिता, धैर्य, शांति, संयम, तपस्या, सत्यनिष्ठा के गुण रखने वाला व्यक्ति ब्राह्मण है। ज्ञान अर्जित करने की क्षमता के कारण ब्राह्मण का दायित्व समाज को आध्यात्मिक रूप से उन्नत करना, शिक्षा प्रदान करना और विभिन्न संस्कारों एवं यज्ञ अनुष्ठान संपन्न करवाना होता है।
शूरवीरता, शक्ति, धैर्य, रण कौशल, युद्ध से पलायन न करने का संकल्प, दान देने में उदारता और नेतृत्व की क्षमता क्षत्रिय के गुण हैं। क्षत्रियों में सत्व गुण होते हैं पर रजोगुण की मात्रा अधिक होती है। इन पर समाज की रक्षा, राज्य का संचालन एवं विस्तार करने का दायित्व होता है।
वैश्य समाज पर कृषि, पशु पालन एवं व्यापार की ज़िम्मेदारी होती है। इनमें सत्व और रजस के साथ साथ तमोगुण का प्रभाव होता है।
उपरोक्त सभी वर्णों की सेवा का दायित्व शूद्र वर्ण पर है। इस वर्ण में श्रमिक जन आते हैं। इनमें तमोगुण का प्रभाव अधिक होता है।
गुणों के आधार पर सभी मनुष्यों को चार वर्णों में बांटा गया था। यह विभाजन आनुवंशिकता पर आधारित न होकर सत्व, रजस और तम के अनुपात पर आधारित था। हर एक वर्ण का कर्म निर्धारित किया गया जो उनके स्वभाव के अनुकूल था।
इस हिसाब से भले ही व्यक्ति ब्राह्मण कुल में जन्म लेता है पर उसमें अध्ययन करने की क्षमता नहीं है। उसके भीतर वो गुण हैं जो वैश्य के हैं तो उसे वैश्य माना जाएगा। व्यक्ति वही काम अच्छी तरह से कर सकता है जो उसकी प्रकृति के अनुकूल हो। ऐसा करते हुए ही वह बेहतर परिणाम दे सकता है।
वर्ण व्यवस्था का उद्देश्य सभी को आध्यात्मिक विकास का अवसर प्रदान करना था। स्वयं को निर्धारित कर्तव्य का पालन करते हुए व्यक्ति संतुष्ट रहता है। ईश्वर के प्रति आस्थावान रहता है। यदि कोई अपने स्वभाव के प्रतिकूल काम करता है तो उसे संतुष्टि नहीं मिलती है। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि मनुष्य को दूसरे का कर्म करने की जगह स्वयं का नियत कर्म करना चाहिए।
वर्ण प्राकृतिक गुणों के अनुरूप हैं। सभी समाजों में मनुष्य के गुणों के आधार पर ही उसे काम सौंपा जाता है। जैसे कि जिस व्यक्ति में ऑफिस का सफलता पूर्वक संचालन करने के गुण होते हैं उसे मैनेजर का पद दिया जाता है। जो उसे संचालन में सहायक हो सकते हैं उन्हें क्लर्क का पद मिलता है। सभी कर्मचारियों को उनके काम में सहायता प्रदान करने। उनकी सुविधा का खयाल रखने के लिए ऑफिस हेल्प होता है। ये विभाजन व्यक्ति की क्षमता पर आधारित होता है। व्यक्ति के गुण और उसे निर्धारित काम में यदि मेल न हो तो ये काम और उसे करने वाले दोनों को प्रभावित करता है।
आधुनिक युग में इस वर्ण विभाजन को जाति बना दिया गया है। जिसका निर्धारण कर्म या गुणों के आधार पर न होकर जन्म के आधार पर होता है। अतः ब्राह्मण के लिए निर्धारित एक भी गुण न होने के बावजूद ब्राह्मण कुल में जन्म लेने वाला ब्राह्मण कहलाता है। इसी प्रकार सत्व गुण की प्रधानता रखने वाला व्यक्ति जिसमें ज्ञान प्राप्त करने की अभिलाषा है निम्न जाति में जन्म लेने के कारण शूद्र ही कहलाता है।
अपने उपदेश का समापन करते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि मेरी भक्ति करते हुए अपने नियत कर्म करने वाला व्यक्ति परम ज्ञान को प्राप्त करता है। ज्ञान में स्थित हो जाने के बाद वह परम ब्रह्म को पाने का अधिकारी हो जाता है। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि तुम क्षत्रिय होने के नाते अपना कर्तव्य करो। ये मत सोचो कि तुम प्रियजनों का वध करके अनुचित कर रहे हो क्योंकि इस युद्धभूमि में यही तुम्हारा कर्तव्य है।
अपनी दुविधा को त्याग कर युद्ध करो। मैं तुम्हें मोक्ष प्रदान करूँगा। तुम निश्चिंत रहो।
अर्जुन को इस प्रकार आश्वासन देने के बाद श्रीकृष्ण उसे स्वयं निर्णय लेने के लिए छोड़ देते हैं। अर्जुन कहता है कि अब उसके संशय मिट गए हैं। वह अपना कर्म करेगा।
श्रीमद्भगवद्गीता का ये उपदेश आपको संशयमुक करने के लिए है। इसे सही प्रकार से पढ़कर, तर्क की कसौटी पर कसने के बाद आप दुविधा से मुक्त हो पाएंगे। इस उपदेश को समझने के लिए ईश्वर के प्रति आस्था होना आवश्यक है। आस्थाहीन व्यक्ति इसे सही तरह से आत्मसात नहीं कर सकता है।
हरि ॐ तत् सत्