चमक पैदा करती उम्मीद की किरणें –
वर्ष 2000 शुरू हो रहा है और शुरू हो रहा है अपनी नौकरी का अब उत्तरार्ध |
हम उस पीढ़ी के भाग्यशाली लोग हैं जो एक सदी का अंत और दूसरी सदी की शुरुआत देख पा
रहे हैं | याद आ रहा है 30 अप्रैल 1977 को इलाहाबाद ( अब प्रयागराज) से अपनी
नौजवानी में प्रारंभ आकाशवाणी की
सेवा और उसके बाद गोरखपुर वापस जाने की
छटपटाहट | फिर आकाशवाणी गोरखपुर पहुंचना लेकिन एक अदृश्य घटनाक्रम में एक बार फिर
से इलाहाबाद कि पोस्टिंग पर जाना और
फिर गोरखपुर आकर प्रमोशन पाकर
आकाशवाणी के रामपुर केंद्र से होकर अब इसी
शहर से रिटायर होने की हसरत लिए लखनऊ केंद्र पर आ चुका हूँ |
कुल 14 साल और 6 महीने की शिफ्ट की लंबी और थका देने वाली सेवा करने के बाद मुझे
प्रमोशन मिला |पदोन्नति पाने के बाद पहले
रामपुर फिर वहाँ से लखनऊ और फिर गोरखपुर में कार्यक्रम अधिकारी पद पर अपनी सेवाएं देते
हुए लखनऊ
आया हूँ |नवाबों और कुलीन संस्कारों वाले इस अंतर्राष्ट्रीय स्तर के
शहर में रहकर काम करने के लिए ढेर सारे
सपने, ढेर सारी योजनाएं मन में बनने लगी हैं
| आकाशवाणी महानिदेशालय के आदेश संख्या 40/2003-S-1(B)(पत्रांक
4(337)/91-एस. -1 (बी)दिनांक 11-07-2003 के अनुपालन में समान पद क्षमता में
आकाशवाणी गोरखपुर से स्थानांतरण के फलस्वरूप आकाशवाणी के लखनऊ केंद्र पर
मैंने 9 सितंबर 2003 को अपराह्न में ज्वाइन कर लिया |स्मरण दिलाना चाहूँगा कि मुझे प्रसारण
अधिशासी (क्लास थ्री,नॉन गजेटेड )पद से
कार्यक्रम अधिशासी (क्लास टू ,गजेटेड) पद
पर दिनांक 29-10-1991 को पदोन्नति मिल
चुकी थी और मैंने आकाशवाणी रामपुर से इस पद पर काम करना शुरू किया था | जब
मैं अपनी अंतिम पोस्टिंग पर लखनऊ आया तो
मंगलवार , 9 सितंबर 2003 की सुबह अपने
कल्याणपुर मुहल्ले के आवास से नहा धो कर
मैंने आकाशवाणी केंद्र ज्वाइन करने के लिए प्रस्थान किया |सीधे केंद्र निदेशक
श्रीमती करुणा श्रीवास्तव के कमरे में
पहुंचा हूँ | वे कुछ अनमने ढंग से मेरा
स्वागत करती प्रतीत हो रही हैं और यह क्या
? वे अब
बता रही हैं कि यहाँ तो कोई पद
रिक्त ही नहीं है | उनकी चालाकी मैंने पकड़
लिया है क्योंकि वे यह नहीं बताना चाह रही हैं
कि पद तो रिक्त है , लोग दूसरे केंद्रों के लिए स्थानांतरित भी हैं लेकिन
केंद्र उन लोगों पर विशेष रूप से मेहरबान
है और महानिदेशालय के बार बार कहने पर भी उनको रिलीव नहीं कर रहा है | सही बात है
| ऐसे में फिर जगह बने तो कैसे ? वे भागी
हुई बगल के कमरे में बैठे अपर महानिदेशक
रामधनी राम के पास जाती हैं और वहाँ से
चाणक्य नीति का ज्ञान लेकर लौट चुकी हैं
| अब मुझे बताया जा रहा है कि
ज्वाइनिंग लेटर ले लिया जा रहा है लेकिन ज्वाइन अभी नहीं कराया जा सकेगा |.. मैं
अवाक ! यह सिलसिला लगभग पंद्रह दिन चलता रहा
है |मैं प्रतिदिन जाता ,यहाँ वहाँ बैठता -जानकारियाँ लेता और वापस घर चला
आता |उधर करुणा और रामधनी की जोड़ी मेरा ट्रांसफर कैंसिल कराने के जोड़ तोड़ में
पड़ गई |मैं निराश होता चला गया |लेकिन
मेरे मन को यह विश्वास था कि भले ही ज्वाइनिंग में देर
होगी लेकिन अंधेर नहीं होने पाएगी |वैसा ही हुआ जिसका किस्सा आगे बताऊँगा |
जब
मैंने नौकरी शुरू की थी तो पहले मेरी पे स्केल रु. 425 से 7,000 की थी और फिर
प्रसार भारती की सिफारिश के बाद रु. 1400
से 2600 के स्केल में मेरा फ़िक्सेशन हुआ
|अगली पदोन्नति के बाद रु. 2000 से 3500
मेरी पे स्केल हो गई | मेरा यह वेतन मेरे आरामदायक रहन सहन और खर्चों के हिसाब से
बहुत ज्यादा तो नहीं था लेकिन भगवान की कृपा
से मुझे कभी भी आर्थिक तंगी का सामना नहीं करना पड़ा | मेरी पत्नी मीना
त्रिपाठी भी अपनी केन्द्रीय विद्यालय की सेवा से अच्छा वेतन उठा रही थीं |यह दूसरी
बात है कि उनका वेतन गृह खर्च में काम नहीं आता था क्योंकि उसकी आवश्यकता ही नहीं
पड़ती थी |हाँ जब कोई बड़ा खर्च आ जाता था तो वे सहर्ष आर्थिक योगदान करती रहीं |
अपना
शहर गोरखपुर अब हमेशा के लिए छूट गया
है |लखनऊ मुझे सहजता से और प्यार से मानो
अपनाना नहीं चाह रहा है | मेरे लखनऊ आ
जाने के बावजूद मेरी ज्वाइनिंग कराई नहीं जा रही है | मुझे
अभी तक कोई विभाग, बैठने के लिए
कोई कमरा तक एलॉट नहीं किया गया है |
आकाशवाणी लखनऊ के तत्कालीन उच्च अधिकारियों के व्यवहार ने मुझे आहत कर दिया है |
याद आ
रही है गोरखपुर पर लिखी एक नज़्म जिसे
शायर जनाब रियाज़ खैराबादी ने लिखा है
–
“अवध
की शाम ,बनारस की सुबह हो सदके ,
कि एक
जहां से जुदा है अदा ए गोरखपुर |
हुई है
मेरी जवानी फ़िदा ए गोरखपुर ,
लहद से आएगी आवाज़
हाय – गोरखपुर |
हम
अपने खून ए तमन्ना से सींच आए हैं ,
हंसी
मंगा के लगाएं हिना ए गोरखपुर |
पुकारती है यही दिल फरेबियाँ उसकी ,
कि आके
हो जिसे जाना ,न आए गोरखपुर |
जवानी जिनमें
खोई है ,वे गलियां याद आती हैं ,
बड़ी
हसरत पे लब पे जिक्र ए गोरखपुर आता है |”
सचमुच मैं उन दिनों को आज जब याद करता
हूँ तो मन अत्यंत भावुक हो रहा है |
ओह !
मैंने गोरखपुर को अलविदा कह कर अच्छा नहीं किया | अगर रिटायरमेंट के बाद भी
मैं लखनऊ छोड़कर गोरखपुर चला गया होता तो मुझे आत्मिक शांति मिली होती |लखनऊ
(आकाशवाणी केंद्र और समाज ) ने भले ही मुझे अंतत: मनो वांछित सम्मान दे दिया लेकिन जो बात, जो खुशबू गोरखपुर की फिजाँ में
है वह यहाँ नहीं .. कदापि नहीं |
लखनऊ ने मुझसे छीना बहुत है, दिया कम
है |इस शहर ने मुझसे मेरा प्यारा बेटा यश आदित्य पहले उधार लिया और फिर छीन
ही लिया |इस शहर ने बेटे के अकाल मृत्यु से मेरी पत्नी को आजीवन के लिए
मनोरोगी बना दिया है |यह सच कहने में मुझे कोई डर नहीं है कि इस शहर ने
अपनी “पहले आप “ कल्चर को अब “लील” लिया है और अन्य किसी बड़े शहरों की तरह आपको कुचलते हुए पीछे छोड़ने का
कल्चर डेवेलप कर लिया है |इसीलिए इस दौर
में अब यह कहा जाने लगा है कि लखनऊ का
शरीर तो रह गया है परंतु आत्मा समाप्त हो गई है |
कहा जाने लगा है कि “अब पहले से बलबले हैं ना अरमानों की भीड़
!” आप सभी जानते ही हैं कि मशहूर लेखिका कर्तुल ऐन हैदर की इच्छाओं और पसंद का शहर
हुआ करता था लखनऊ लेकिन आगे चलकर उन्होंने एक उपन्यास ही लिख डाला “ गर्दिशे रंगे
चमन “ अर्थात “दि डेथ ऑफ ए सिटी |”
बहरहाल हम आते हैं अपनी जीवन यात्रा
के उस बिन्दु पर जब वर्ष 2003 बीत रहा है |बीस फरवरी को मैंने गोरखपुर के महुई
सुघरपुर मुहल्ले की लगभग 1800 स्क्वायर फिट की अपनी जमीन की रजिस्ट्री करके
एक दूसरी जमीन में पैसा लगा दिया है |14 मार्च को गोरखपूए से झांसी होते हुए
हैदराबाद और फिर होली के दौरान पुणे
प्रवास का जिक्र है जहां मेरे
छोटे बेटे यश आदित्य भारतीय
थल सेना में ट्रेनिंग ले रहे हैं
|मार्च 22 से मेरी पत्नी मीना सरदार नगर
के पास स्थित केवलादल चौक नामक गाँव में
एक फीचर फिल्म “चला चलीं देसवा की ओर ‘की शूटिंग में व्यस्त हो गईं |यह देखी 5
अप्रैल को मीना का लखनऊ के लिए ट्रांसफर आर्डर आ गया है |बिना देरी 8 अप्रैल 2003
को उन्होंने लखनऊ ज्वाइन कर लिया है |मई की छठवीं तारीख मेरी ज़िंदगी में एक
अप्रत्याशित खुशी लेकर आ गई है |मुझे टाटा चाय ने अपनी अखिल भारतीय स्लोगन राइटिंग
प्रतियोगिता के लिए प्रथम पुरस्कार देने का निर्णय लिया है और इनाम में मुझे मिलने
जा रही है एक नई टाटा इंडिका कार |प्रेस
क्लब गोरखपुर में नगर विधायक (अब राज्यसभा सांसद) डा ० राधा मोहन दास अग्रवाल के
हाथों 10 जून को इनाम में मिली कार की चाभी
सौंपी जा रही है |मेरे साथ मेरे दोनों बेटे,पत्नी ,अम्मा-पिताजी इस समारोह को
अविस्मरणीय बाना रहे हैं | अगले दिन इसी
के चलते अखबार की सुर्खियों में मैं बना हुआ हूँ |इसी बीच मेरे भांजे डा ० दिव्य
नारायण के बी. एच. यू .में इंटर्नशिप के दौरान
डा . वैशाली नामक युवती से प्रेम और फिर विवाह की खबरें मिलती हैं |ना
बैंड-बाजा ना बारात |बहरहाल 28 जून को लखनऊ आकर हमलोग वैशाली और दिव्य की शादी
के उपलक्ष्य में पार्टी इनज़्वॉय करते हैं|जून की नौवी तारीख इसलिए भी याद रहेगी
क्योंकि उसी दिन मैंने लखनऊ ज्वाइनिंग की
है और उसी दिन गोरखपुर में मीना की अभिनीत
भोजपुरी फिल्म “चला चलीं देसवा की ओर “ सिनेमाघरों में प्रदर्शित हो रही है
|
कभी कभी भगवान जब देता है तो छप्पर फाड़
कर देता है |इस साल ने मुझे गोरखपुर में
पुरानी जमीन बेंच कर एक नई जमीन खरीदने का मौका दिया और उसी बीच लखनऊ के एक पॉश कालूनी महानगर में एक प्लॉट खरीदने का भी अवसर प्रदान किया |पैसा नहीं था
लेकिन भला हो मित्र अविनाश किरण का कि सभी काम हो रहे हैं | कितनी कितनी सौगातें
दे रहा है यह साल .. छोटे बेटे यश का एन.डी.ए. में पहले प्रयास में सेलेक्शन होना ,हम दोनों पति -
पत्नी का लखनऊ ट्रांसफर होना और 8 दिसंबर
को विज्ञानपुरी, महानगर की खरीदी भूमि पर भवन निर्माण के लिए भूमि पूजन का सम्पन्न
होना ! उपलब्धियों का सिलसिला इतने पर ही नहीं रुकता है |गोरखपुर में मेरे पिताजी
आचार्य प्रतापादित्य की पहली पुस्तक “तंत्र साधना
की रहस्य कथाऐं ‘ छपने को गई है | और अब , 13 दिसंबर को आई.एम.ए. देहरादून
में बड़े बेटे दिव्य आदित्य की
पासिंग आउट परेड में हम सभी का शामिल हो रहे हैं यह सब कितना रोमांचक है !
आपको बताता चलूँ कि भारतीय सैन्य अकादमी देहरादून दुनिया के श्रेष्ठ
सैन्य प्रशिक्षण संस्थानों में एक है। हम लोग यहां पहली बार आए हुए हैं । एक सैन्य
अधिकारी के परिजन के रूप में इसमें प्रवेश
करते ही भावनाओं का एक अतिरेक उत्पन्न हो रहा है और अब याद कर रहा हूँ कि वहां से विदा लेने के बाद
भी एक लंबे समय तक उसका हैंगओवर बना हुआ
रहा ।
द्रोण घाटी में बहती टोंस नदी के
पूर्वी किनारे पर स्थित इस अकादमी के मुख्य द्वार से करीब 100 मीटर
पूर्व में द्रोण द्वार है। उसके दोनों तरफ दो स्टैंड हैं और सामने ड्रिल स्क्वायर।
ड्रिल स्क्वायर के ठीक उत्तर में एक भव्य इमारत है जिसे अब चेटवुड हॉल के नाम से
जाना जाता है। इस भवन की बनावट मंत्रमुग्ध कर रही है । मध्य भाग में एक शानदार हॉल
है और इस हॉल के दोनों और लंबाई में फैले हुए दांए और बांए भवन है।
अब इस भवन को ड्रिल स्क्वायर के साथ
मिलाकर देखिए। ये मिलकर एक खूबसूरत रूपक प्रस्तुत करते हैं। मानो ये भव्य भवन
मातृभूमि है जिसने अपने दोनों ओर हाथ फैला रखे हो और सामने अपना आँचल फैलाया हो।
वो हाथ फैला कर आह्वान कर रही हो कि हर वो जोशीला युवा जिसका हृदय देश प्रेम से
भरा हो,जिसमें अदम्य साहस और जुनून हो और जो अपनी मातृभूमि
के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग हंसते हंसते कर सकता हो,उसके
आँचल की छांव में आ सकता है। वो उन सब को अपने गर्भ में धारण करेगी। उनको नए रूप
में गढ़ेगी। उनको युद्ध विद्या में निष्णात करेगी। उनके मष्तिष्कों को युद्ध कौशल
की सैद्धान्तिकी से लैस करेगी। मेरे बहादुर बेटे दिव्य और उनके बैच के लोग मानो
चार साल
की प्रसव पीड़ा के बाद भविष्य में लिखी जाने वाली अद्भुत शौर्य और साहस की
कहानियों को लिखने वाले योद्धाओं के रूप में अब सामने आ रहे हैं । मानो ये युवक जन्म लेने के साथ ही अपनी साज सज्जा के साथ इस सैन्य मंदिर के आँचल में आने को उद्यत रहे हैं। अब सामने उनका ड्रिल काहल रहा है और वे देश
रक्षा का संकल्प लेते हुए उसके सम्मान में
शीश नवाते हैं और अंतिम पग से सलाम कर उसकी रक्षा करने के उपक्रम में साहस और
शौर्य की कहानियां लिखते हुए कल से सीमाओं
की ओर प्रस्थान करने निकल पड़ने को उद्यत हो रहे हैं।
साल मे दो बार इस तरह का आयोजन
होता है |हर आयोजन पर हर्षोल्लास का
माहौल रहता है । इस बार भी स्टैंड्स भरे हुए हैं । माता पिता से लेकर नातेदार सब
शामिल हैं जांबाजों के इस दीक्षांत समारोह
में। अब हो रही है पिपिंग सेरेमनी । यहीं पर मेरी मुलाकात हो गई है अपने एक मित्र
दीपेन्द्र सिवाच से जो रेडियो कवरेज पर आए हुए हैं| उनसे बातचीत चल रही है कि किसी देश को आखिर
योद्धाओं को तैयार करने की क्यों आवश्यकता
होती है? क्यों युद्ध ज़रूरी होते हैं? क्यों आदमी नहीं समझ पाता उसकी योग्यता,बुद्धि
और ताकत कितनी बेमानी है? प्रकृति के सामने कितना लाचार है आदमी। उसका एक ना
दिखाई देने वाला अति सूक्ष्म वायरस भी उसे कितना असहाय बना देता है, बौना
सिद्ध कर देता है। उसकी ताकत,उसकी बुद्धि सब असहाय,बेबस। फिर काहे की हाय
तौबा। तोप- तलवार,गोला बारूद सब बेकार। क्या ऐसा नहीं हो सकता जो
संसाधन हम युद्धों की तैयारियों में लगाते हैं,वे प्रेम और शांति के लिए,करोड़ों
लोगों की भूख और दुख दर्द को कम करने में लगा दें। और क्या ऐसा नहीं हो सकता कि श्रेष्ठ
सैन्य अकादमियों को शांति प्रतिष्ठानों में बदल दें।
फिलहाल तो हम सभी गौरवान्वित
अभिभावकों की आँखों में अपने सैन्य पुत्र
अधिकारियों के एक बेहतर भविष्य की उम्मीद
की किरण चमक पैदा कर रही है।
(क्रमश:)
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