नि:शब्द के शब्द / धारावाहिक
'?'- बच्चे ने हां में अपनी गर्दन हिला दी.
'रहते कहाँ हो?'
उस बच्चे ने हाथ के इशारे से दूर झोपड़-पट्टी की बनी बस्ती की तरफ इशारा कर दिया.
'यहीं, ठहरना तुम. मैं तुम्हारे लिए कुछ लाती हूँ.'
कहकर मोहिनी तुरंत अंदर चली गई और फ्रिज खोलकर उसमें रखी हुई खाने की वस्तुओं को ढूँढने लगी. फिर उसे जो कुछ भी मिला, उसे लेकर उसने एक प्लास्टिक बैग में भरा और लेकर के तुरंत ही बाहर आ गई. बाहर आई तो वह बच्चा अभी भी खड़ा हुआ उसी की तरफ देख रहा था.
तब मोहिनी ने उसे दो ब्रेड पर मक्खन लगाकर दिया और साथ ही एक कप में दूध देते हुए बोली कि,
'लो, चलो पहले यहाँ बैठकर खा लो. बाद में यह बाक़ी का तुम अपने साथ ले जाना.'
'?'- लेकिन वह बच्चा आश्चर्य से मोहिनी का जब मुंह ताकने लगा तो उसे आश्चर्य हुआ. उसने उससे पूछा,
'क्यों, खाना नहीं है क्या?'
'नहीं, में जब उस बच्चे ने अपना सिर हिलाया तो मोहिनी यह देखकर दंग रह गई. वह एक संशय से उससे बोली,
'तुम भूखे हो और खाना भी नहीं चाहते हो. क्यों?'
'मेरी बहन भी भूखी है.' उस बच्चे ने जब अपनी टूटी-फूटी आवाज़ में कहा तो मोहिनी का यह सब सुनकर जैसे कलेजा बाहर आ गया. एक नादान, भूखा बच्चा, सामने भोजन देख कर भी, अपनी भूखी बहन के कारण खुद नहीं खा रहा है? यह सब देखकर मोहिनी का नारी मन रो पड़ा. जैसे-तैसे मोहिनी ने खुद को संभाला, सामान्य किया और फिर उस बच्चे से पूछा कि,
'कहाँ है तुम्हारी बहन?'
'?'- उस बच्चे ने फिर से उन्हीं झोपड़-पट्टी की तरफ इशारा कर दिया.
'?'- तब मोहिनी ने वह सारी भोजन-वस्तु को एक बार देखा और फिर उससे बोली कि,
'इतना सारा भोजन तुम अकेले कैसे लेकर जाओगे? चलो, मैं लेकर चलती हूँ तुम्हाए साथ.'
'?'- वह बालक कुछ भी नहीं बोला और चुपचाप मोहिनी के साथ चलने लगा.
झोपड़-पट्टी में रहनेवालों की बस्ती कोई अधिक दूर भी नहीं थी. कोई पांच सौ से आठ सौ फीट की दूरी होगी. उसके 'रिसोर्ट' से ही लगी हुई जगह थी. मोहिनी और उस बच्चे को वहां तक पहुंचने में मुश्किल से दस मिनट ही लगे होंगे. वह बच्चा जल्दी से अंदर एक झोपड़ी के अंदर प्लास्टिक की नीली चादर हटाकर घुस गया. उसकी झोपड़ी क्या थी? बेशर्म-बूटी की पांच लम्बी लकड़ियों को बांधकर और नीचे जमीन में गाड़कर उसके ऊपर प्लास्टिक की नीली चादर डाल कर अंदर मात्र सिर छिपाने के लायक जगह बनाने की कोशिश की गई थी. मोहिनी ने अंदर का जो करूण और गरीबी का वीभत्स दृश्य देखा तो उसे देखकर उसकी आँखें फटी रह गईं.
अंदर उस बच्चे की मां नंगे-भूखे वस्त्रों में मानो बेहोश पड़ी हुई थी. उसके पास ही उसकी दो वर्ष से भी छोटी बच्ची अपनी मां के सूखे स्तनों को जबरन चूसकर मानों अपनी भूख मिटा रही थी. मोहिनी से जब यह दृश्य देखा नहीं गया तो सबसे पहले उसने जो भोजन-वस्तु अपने साथ लाई थी, उसमें से उन दोनों बच्चों को खाने के लिए दिया. फिर उन बच्चों की मां को अपने हाथ से उठाया- उसे पहले दूध पीने को दिया. बाद में जब उसमें थोड़ी ताकत आ गई तो उसे भी खाने को दिया. फिर जब सब कुछ थोड़ा सामान्य हो गया तो उन तीनों लोगों की जो कहानी निकलकर सामने आई उससे पता चला कि, इस स्थान पर आने से पहले यह स्त्री अपने पति के साथ रेलवे लाइन के किनारे जो खाली जगह पड़ी थी, उसमें रहा करते थे. उन लोगों ने अपना एक छोटा-सा घर भी बना लिया था. दोनों पति-पत्नी मजदूरी करके अपना व अपने बच्चों का पेट पालते थे. मगर एक दिन रेलवे लाइन की वह ज़मीन किसी ने खरीद ली और वहां पर एक पेपर मिल स्थापित कर दी गई. जो गरीब लोग उस ज़मीन पर रह रहे थे, उन्हें पहले तो जगह खाली कर देने का नोटिस भेजा गया. बाद में कई बुलडोज़र आये और सब कुछ धराशायी कर दिया गया. बाद में ये लोग किसी तरह से यहाँ चले आये और यह सब यातनाएं झेलने लगे. उस स्त्री का आदमी हर रोज़ काम ढूँढने के लिए जाता है, पर देश की हालत और महामारी फैलने के कारण उसे काम भी नहीं मिल रहा था. इसीलिये उस स्त्री के साथ-साथ इन बच्चों की भी यह दुर्दशा हुई है.
मोहिनी किसी तरह उन दोनों बच्चों और उनकी मां को खिला-पिलाकर अपने ठिकाने पर तो आ गई मगर उसकी अंतरात्मा को ज़रा भी चैन नहीं पड़ सका. ऐसा लगता था कि, जैसे किसी दरिन्दे ने अचानक ही आकर उसके सारे अनछुए बदन को झकझोर डाला हो. वह बड़ी देर तक उन्हीं तीनों लोगों के बारे में सोचती रही. हांलाकि, उसने उस बच्चे और उसकी मां को कह तो दिया था कि, जब तक वह यहाँ पर है, हरेक दिन आकर उससे भोजन-वस्तु लेती रहे. मगर, ऐसा कब तक चलेगा? वह खुद भी तो यहाँ इस 'रिसोर्ट' पर सदा नहीं रहेगी. जब वह चली जायेगी तो उसके बाद इन तीनों का क्या होगा? फिर, यह तीन ही उस स्थान में अकेले नहीं थे- इस प्रकार के लगभग दस परिवार वहां पर अपनी बेबसी की दुनियां में जीने-मरने के लिए पड़े हुए थे. कोई भी उनकी व्यथा सुननेवाला नहीं था- कोई भी उनका दर्द बाँटनेवाला भी नहीं था.
वह सोचती थी कि, यूँ भी उसका यह जीवन इस संसार में किसी के काम भी नहीं आ सका है. उसने इस संसार में एक अच्छे-भले परिवार में जन्म लिया. अपनी शिक्षा ली. मेहनत की. परिश्रम किया और बाकायदा अपने पैरों पर खड़ी होकर अच्छी-शानदार, इज्ज़त वाली नौकरी भी ढूंढ ली थी. इसी बीच वह प्यार-मुहब्बत के खेल में फंस गई. एक निम्न जाति की होते हुए भी वह स्वर्ण जाति के लड़के से प्यार कर बैठी. बाद में उसको इस गलती की सज़ा भी मिली. उसकी हत्या कर दी गई, ताकि एक स्वर्ण जाति के लड़के से निम्न जाति की लड़की का बंधन न हो सके. अपने समय से ही पहले वह अकाल मृत्यु का कारण बनी और भटकने को मजबूर हुई.
मरने के बाद वह अन्य आत्माओं के समान भटकती फिरी. मगर वह दोबारा मिन्नतें करके इस संसार में आई तो किसी ने भी उसको मोहिनी के रूप में दोबारा स्वीकार नहीं किया. अब वह क्या करे? कहाँ जाए? किस प्रकार से अपना यह जीवन व्यतीत करे? सारा ज़माना ही उसको नोच-खा जाने के लिए अपना मुंह खोलकर बैठा हुआ है. उसका मंगेतर न मालुम क्यों उसको अपने मार्ग से सदा के लिए हटाने पर तुला हुआ है? इसलिए वह ऐसा कुछ क्यों नहीं करती है जिससे उसका यह जीवन दूसरों के काम आये और वह स्वयं भी अपनी परेशान आत्मा को शान्ति दे सके.
अपनी ज़िन्दगी के तमाम उतार-चढ़ावों और सदा ही रंग बदलते हुए हालात के मध्य एक दिन रोनित का फोन जब मोहिनी के पास उसके हाल-चाल जानने के लिए आया तो मोहिनी ने उन दोनों बच्चों और उसकी मां की कहानी की बात उसे बताई तो रोनित ने उसे बताया कि, उसके 'रिसोर्ट' के जिस स्थान पर जो झोपड़-पट्टी के आठ-दस परिवार रह रहे हैं, वास्तव में वह ज़मीन भी उसी के 'रिसोर्ट' का हिस्सा है. अगर वह उस ज़मीन में कुछ करना भी चाहे तो कर नहीं पाता है, क्योंकि अगर वह उस ज़मीन को इस्तेमाल करता है, तो बेचारे ये गरीब लोग कहाँ जायेंगे?
'वह ज़मीन आप मुझको बेच दीजिये.'
'?'- आपको ! क्या करोगी उस दो कोड़ी की ज़मीन का?' रोनित ने मोहिनी की बात सुनी तो आश्चर्य से पूछ भी लिया.
'मैं, वहां पर ऐसे उन गरीब बच्चों का शरणस्थान बनाना चाहती हूँ, जो अपने मुख से तो कुछ नहीं कहते हैं पर उनके चेहरे, उनकी आँखों, उनके शरीर की भाषा और उनके हालात पर उनकी सारी दास्तान लिखी होती है.'
'?'- तब रोनित काफी देर तक चुप बना रहा. वह इसी बारे में बहुत कुछ सोचता रहा. तब काफी कुछ सोचने के बाद वह मोहिनी से बोला कि,
'ख्याल तो तुम्हारा बहुत अच्छा है, मगर आप उस ज़मीन को खरीदना क्यों चाहती हैं? मैं आपको वह ज़मीन ऐसे ही 'डोनेट' किये देता हूँ.'
'सच?' मोहिनी जैसे अचानक ही किसी रजनीगन्धा के पुष्प के समान खिल उठी. इस प्रकार कि, उसे लगा कि जैसे उसका सारा कमरा ही फूलों की सुगंध से सराबोर हो चुका है.
'सोलह आने सच.' रोनित बोला.
'?'- मोहिनी भी खुशी में कुछ भी न कह सकी.
'इतना ही नहीं, बल्कि, मैं तुम्हारे इस सेवार्थ के काम में हरेक वह मदद भी करूंगा, जो मैं कर सकता हूँ.'
रोनित ने कहा तो मोहिनी को लगा कि, वह अभी जाकर रोनित के दोनों हाथों को चूम ले. वह सोचने लगी कि, एक समय था कि, जब उसने आसमानी राजा के राज्य में राजा को तो देखा ही था साथ ही देवदूत भी देखे थे- मगर वह आज साक्षात इस पापी धरती पर भी किसी फरिश्ते को देख रही है. उन बेजुबान बच्चों के दिल की धड़कती हुई धडकनों में उस छिपी हुई आवाज़ को भी सुन चुकी थी, जिन्हें इस संसार का हरेक इंसान सहज ही नहीं सुन पाता है. खामोश और बुझे-बुझे, मासूम होठों की आवाज़- खामोशी की एक न सुनने वाली भी आवाज़.
-क्रमश: