Bharat ki Rachna in Hindi Fiction Stories by Sharovan books and stories PDF | भारत की रचना - 9

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भारत की रचना - 9

भारत की रचना / धारावाहिक

नवां भाग


कॉलेज लग रहा था.

सारे विद्द्यार्थी अपनी-अपनी कक्षाओं में बैठे हुए अध्ययन कर रहे थे. कॉलेज के प्रांगण में चारों तरफ मौन छाया हुआ था. कुछेक मनचले और शरारती विद्द्यार्थी अपनी कक्षाओं में न होकर कॉलेज के बाग़-बगीचों में बैठी हुई छात्राओं को ताक रहे थे. कभी-कभार उनकी हंसी का कोई ठहाका, क्षण भर में ही कॉलेज की सारी शान्ति का कान मरोड़कर रख देता था. जिन विद्द्यार्थियों व छात्राओं की कक्षाएं खाली थीं, वे भी अपनी कक्षाओं में न होकर, वृक्षों, और झुरमुटों की आड़ में बैठे हुए वार्तालाप में मग्न थे. आकाश में सूर्य का गोला, सिरों के बीचो-बीच स्थिर होकर अपनी उष्मा से सारी वनस्पति को जैसे जला देना चाहता था. जलती और तड़पती हुई-सी, प्रकृति के समान रचना का वीरान दिल भी, भारत के वियोग में जला जाता था. उदास और दुखी हो रहा था. भारत के अपार दुःख और दर्दों की बरसात देख कर स्वयं रचना के दिल में भी गमों और उदासियों का जैसे सैलाब आ गया था. वह जब भी अपनी परिस्थिति और प्यार के हालत पर गम्भीरता से विचार करती, तो यही सोचती थी कि, उसकी किस्मत भी क्या है? सारी दुनिया में प्यार का गीत गाने के लिए उसे केवल एक 'भारत' ही मिला था? भारत भी ऐसा कि, जिससे वह अभी तक इस बारे में दो-टूक बात भी नहीं कर सकी थी. उसके अरमानों की दुनियां की हसरतें और दिल में सजाये हुए प्यार के सारे पुष्प मात्र स्मृतियों के सहारे जैसे अपने प्यार का अफ़साना लिखने के लिए मजबूर हो चुके थे. कदम-कदम पर किसी के सहारे को तरसती हुई उसकी आँखें, केवल सूने चित्रों की दुनिया में अपने रंग बिखेरने पर विवश हो गईं थीं. उसे कभी-कभी महसूस होता कि, जिस प्यार के पथ को उसने अपने-आप चुन लिया था, उन पर बिखरे हुए उम्मीदों के हौसले कहीं निराश कामनाओं के खंडर बनकर किसी नई प्यार की कहानी को जन्म देने का कार्यक्रम तो नहीं बना बैठे हैं? दिन-रात सुलगती हुई प्यार की हसरतों के सहारे उसके प्यार की दुनियां जैसे भविष्य में आने वाली किसी मनहूसियत का संकेत देने लगी थीं? कब्रिस्थान की दीवारों के पीछे से झांकती हुई रूहें मानो झांक-झांक कर किसी और अर्थी के स्वागत की प्रतीक्षा कर बैठी थीं? श्मशान के प्राचीर से उठते हुए धुएं की लपटें जैसे किसी एक और अर्थी को अपने आगोश में समेटने के लिए हाथ फैला रही थीं?

रचना का जब कॉलेज में मन नहीं लगा और सोचते-सोचते उसके सिर में दर्द भी होने लगा, तो उसने चुपचाप अपनी पुस्तकें समेटीं और चुपचाप हॉस्टल की ओर चल दी. सोचा था कि, यहाँ बैठने से भी अपने-आपको यूँ धुनने से लाभ भी क्या? जाकर आराम ही कर ले. दर्द के कारण उसका सारा मस्तिष्क ही जैसे फटा जा रहा था.

दिन-रात यूँ ही सरकते जा रहे थे.

रचना का जीवन, अपने प्यार की दुनियां बसाकर, भारत के आने की प्रतीक्षा और आस के चक्रों में फंसकर एक अजीब ही उहापोह में पड़कर रह गया था. कॉलेज की पढ़ाई ज़ोरों पर चल रही थी. क्रिसमस के दिन करीब आते जा रहे थे. वातावरण में कभी-कभी ठंडक का प्रभाव बढ़ने लगा था. सब ही कुछ ठीक-सा चल रहा था; परन्तु रचना और उसका दिल अपनी ज़िन्दगी की हसीन वादियों के मुरझाये हुए फूलों के अंतिम संस्कार के मनहूस ख्यालों में बहकने लगा था. भारत के वापस आने की उसकी आस अब जैसे मृत और टूटी हुई आभाओं का बंधन पकड़ने पर विवश होने लगी थी.

उसका सारा कुछ कार्यक्रम किसी उम्मीद और उमंगों का साथ न पाकर, अब एक दैनिक कार्य बनकर रह गया था. वह हॉस्टल में रहती थी, क्योंकि उसको रहना था. कॉलेज भी जाती थी, तो इसका कारण भी, क्योंकि उसको जाना था. जीना था उसको इसलिए, क्योंकि, उम्र तो पूरी करनी ही थी. अपनी उम्र बसर करने का जो रंगीन और सुनहला सपना उसने देखा था, उसकी कोई भी वास्तविकता का आधार अभी तक उसके हाथों में नहीं आया था. आँखें सूनी, सूखे होठ, मजबूरी से दोनों हाथ मलते हुए, उसकी मुहब्ब्तों के साए जीने का कोई भी बहाना पाकर, अब उसके प्यार का मजाक करने लगे थे. ये प्यार करने वाले का हश्र है कि, जिससे रचना प्यार करने लगी थी, उसकी एक झलक भी देखने को वह तरस गई थी और जिस रॉबर्ट जॉर्ज को वह एक नज़र भी नहीं देखना चाहती थी, वह उसके चारों गिर्द चक्कर काटता ही रहता था. वह भी शायद इसलिए कि, प्यार करना पाप नहीं है, परन्तु प्यार की पसंदों में भूल करने का परिणाम सारी उम्र तक भुगतना पड़ सकता है.

फिर एक दिन.

रचना, जैसे ही कॉलेज समाप्त करके अपने हॉस्टल में आई, तो तुरंत ही उसे हॉस्टल के बूढ़े चपरासी ने एक खबर देकर चौंका दिया. उसके चेहरे से ऐसा लग रहा था कि वह जैसे काफी देर से रचना के वापस आने की प्रतीक्षा कर रहा था.

बूढ़े चपरासी ने रचना को बताया था कि, शाम को चार बजे की चाय लेने के पश्चात उसको हॉस्टल की वार्डन ने अपने कार्यालय में बुलाया है. यह सुनके रचना का चौंकना और आश्चर्य करना स्वाभाविक ही था, क्योंकि हॉस्टल की वार्डन लिल्लिमा जॉर्ज जब भी किसी को अपने कार्यालय में बुलाती थी, तो उसका एक विशेष महत्वपूर्ण कारण होता था. मुख्यत: कोई भी चेतावनी, आदेश, इत्यादि.

रचना, सूचना पाकर, अपनी पुस्तकों को बिस्तर पर पटक कर सीधी ही वार्डन के कार्यालय में जा पहुँची. तब रचना को कार्यालय में आते देख लिल्लिमा जॉर्ज ने चश्मे के ऊपर से उसको एक बार निहारा, फिर कृत्रिम मुस्कान के साथ बड़ी ही आत्मीयता से बोली,

'आओ, रचना आओ. चाय पी ली तुमने?'

'जी, अभी तो नहीं.' रचना ने एक संक्षिप्त-सा उत्तर दिया.

'तो जाओ, पहले कुछ खा-पीलो. कपड़े बदल लो, फिर आराम से आना.'

लिल्लिमा ने कहा तो रचना जैसे सकुचाई. उसके मुख से आश्चर्य के साथ स्वत:ही निकल गया,

'जी?'

शायद रचना ने अपनी वार्डन का ऐसा बदला हुआ रूप-व्यवहार पहले कभी नहीं देखा था. इसलिए वह विस्मय से अपने स्थान पर अचानक ठिठक भी गई थी.

वार्डन ने उसकी मनोदशा को समझ लिया, इसलिए वह रचना को जैसे साहस दिलाते हुए, पहले से और भी अधिक स्नेह से बोली,

'हां. . .हां. . .जाओ, पहले चाय आदि ले लो, कॉलेज से आई हो, थकी हुई होगी. घबराने की कोई बात नहीं है. मुझे फुर्सत से तुमसे ढेर सारी बातें करनी हैं.'

लिल्लिमा जॉर्ज ने उसको निश्चिन्त किया, तो रचना उलटे पैर वहां से एक आश्चर्य और संशय के समन्वय में डूबी कार्यालय से बाहर आ गई. कार्यालय के बाहर आते ही, उसकी सहेली ज्योति, जो रचना का वार्डन के कार्यालय में अचानक बुलावा देखकर घबरा-सी गई थी, ने उसे रोक लिया और रचना को देखते ही पूछ बैठी,

'क्या बात थी. सब ठीक तो है?'

'अभी, पता नहीं. रचना ने कहा, तो ज्योति आश्चर्य से गड़ गई. वह झट से बोली,

'पता नहीं. तबियत तो ठीक है तेरी?'

'हां, ठीक ही हूँ.' रचना ने फिर एक छोटा-सा उत्तर दिया, तो ज्योति ने उसे परेशान होकर देखा. फिर, जैसे तनिक क्रोध में उसके दोनों कंधों को अपने हाथों से झिंझोड़ते हुए उससे बोली,

'अरे,बताती क्यों नहीं?क्यों बुलाया था उस बुढ़िया ने तुझे?'

'बुढ़िया?' रचना ने ज्योति के कहे हुए शब्दों को आश्चर्य से दोहराया, तो ज्योति जैसे और भी अधिक खीज गई. वह अपने मुख का स्वाद खराब करते हुए, आगे बोली,

'और नहीं तो क्या. पचास के ऊपर पहुँच गई है, अभी तक सत्रह साल की थोड़े ही बनी रहेगी. फिर, तू क्या जाने इसे. तू, तो ठहरी सीधी-साधी मोम की गुड़िया. जिधर चाहो, उठाकर उधर ही बैठा दो.'

'फिर भी तुझे, इस प्रकार से नहीं बोलना चाहिए. किसी ने सुन लिया तो?'

'तो क्या मार डालेगी मुझे वह? मैं क्यों डरती फिरूं, उससे?' ज्योति बोली तो उसकी इस बात पर रचना उसको धीरे-से एक तरफ ले गई और उससे बड़े ही प्रेम से बोली,

'देख ज्योति, मैं और तू भले ही एक ही कक्षा, एक ही स्थान, एक ही कॉलेज और एक ही कमरे में रहकर पढ़-लिख रहे हैं, परन्तु फिर भी मेरी और तेरी परिस्थिति में जमीं और आसमान का अंतर है. तू तो ठहरी, धनी पिता की इकलौती पुत्री और मैं वह हूँ, कि जिसके न तो पिता का ज्ञान किसी को है, और न ही मेरी अपनी मां के बारे में कोई जानता है. तू, यदि यहाँ हॉस्टल में रहकर पढ़ती है, तो तेरे पिता उसका भुगतान करते हैं और मैं मिशन वालों की मोहताज़ हूँ. जब तक अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो जाती हूँ, तब तक मैं अपनी इच्छा से कुछ भी नहीं कर सकती हूँ.'

'हां, हां ठीक है. मैं जानती हूँ सब. दुःख है मुझे. लेकिन, बात क्या थी? क्यों बुलाया था उसने तुझे?' ज्योति रचना की बात सुनकर, अपनी वार्ता के वास्तविक विषय पर आ गई. तब रचना ने उससे कहा कि,

'अभी, उसने कोई भी बात नहीं की है. शाम की चाय के बाद मुझे फिर से उसके कार्यालय में जाना है.'

'तो, ठीक है. जैसा भी हो, मुझे हरेक बात विस्तार से बताना. मुझे अवश्य ही दाल में कुछ काला नज़र आता है. ये वार्डन, ऐसे ही किसी को आमंत्रित नहीं करती है.'

ये कहते हुए ज्योति, रचना का हाथ थामकर, चाय के लिए हॉस्टल के 'केफेटेरिया' की ओर चल दी.

फिर, चाय इत्यादि के पश्चात, अधिकतर लड़कियां, तो खेल के मैदान की ओर, तथा कुछ यूँ, ही शाम को थोड़ी-सी मिली फुर्सत का समय बिताने के लिए चल दीं. परन्तु, रचना वार्डन के कार्यालय की तरफ जाने लगी तो उसके जाते-जाते भी ज्योति ने फिर उसे एक बार समझाया. वह बोली,

'किसी भी प्रकार की बातों में यूँ आसानी से मत आ जाना तू उसके. इतना ध्यान रखना कि, बहुत सीधी नहीं है वह?'

उसकी इस बात पर रचना बोली,

'तू, क्या मुझे बुद्धू समझती है?'

'बुद्धू तो नही, पर हां, छुई-मुई अवश्य ही है तू. किसी ने ज़रा-सा छुआ नहीं तुझे कि, तेरी तो जान ही निकल जाती है.'

ज्योति की इस बात पर रचना ने आगे कुछ भी नहीं कहा. वह केवल मुस्कराकर ही रह गई. बाद में, अपनी हल्की-सी मुस्कान को सारे वातावरण में बिखेरते हुए वह उसके पास से चली गई.

वार्डन के कार्यालय में जिस समय रचना पंहुची, तो लिल्लिमा जॉर्ज जैसे उसी की प्रतीक्षा कर रही थी. वह रचना को देखते हुए मुस्करा दी और बोली,

'आओ रचना. तुम्हारी उम्र तो बहुत लम्बी होगी. मैं, अभी तुमको ही याद कर रही थी.'

इस पर रचना ने कहा तो कुछ नहीं, पर एक बार वार्डन की ओर निहार कर आश्चर्य और विस्मय में डूबी चुपचाप उसकी बड़ी-सी मेज के सामने जाकर खड़ी हो गई. कुछ सहमी-सहमी-सी, गुमसुम-सी.

'नहीं. . .नहीं, वहां मत खड़ी हो. यहाँ बैठो आकर चेयर पर.'

लिल्लिमा ने कहा तो रचना आश्चर्य से उसका मुंह ताकने लगी. इस पर वार्डन ने रचना को कुछेक पल निहारा, फिर बोली,

'आश्चर्य मत करो. मैं आज वार्डन के समान नहीं, बल्कि तुम्हारे परिवार के एक अन्तरंग सदस्य के समान ही बात करूंगी. चलो, बैठो पहले और अपने-आपको सहज करो.'

तब रचना चुपचाप, एक संशय के साथ कुर्सी पर बैठ गई और लिल्लिमा जॉर्ज का मुंह देखने लगी, तो फिर उन्होंने अपनी बात आरम्भ की. वे बोली कि,

'देखो रचना, मैं इतने दिनों से सोच रही थी कि, कॉलेज की शिक्षा में तुम्हारा यह वर्ष फायनल होगा. इसके पश्चात तुम बी. एड. एक वर्ष के लिए करोगी. फिर बी. एड. के पश्चात, कोई नौकरी. फिर साथ-साथ, तुम्हें अपना घर भी बसाना होगा.'

-क्रमश: