Shrimad Bhagwat Geeta Meri Samaj me in Hindi Spiritual Stories by Ashish Kumar Trivedi books and stories PDF | श्रीमद्भगवद्गीता मेरी समझ में - अध्याय 17

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श्रीमद्भगवद्गीता मेरी समझ में - अध्याय 17



अध्याय 17

श्रद्धा त्रय विभाग योग

ईश्वर पर श्रद्धा ही मनुष्य की मुक्ति का साधन है। स्वयं को श्रद्धापूर्वक ईश्वर के चरणों में समर्पित करने से ही मुक्ति मिलती है। मनुष्य प्रकृति के तीन गुणों से प्रभावित होता है। ये तीन गुण उसकी श्रद्धा, भोजन और तप पर भी प्रभाव डालते हैं। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने उसी का वर्णन किया है।
अर्जुन ने पूछा कि हे कृष्ण जो धर्मग्रन्थों की आज्ञाओं की उपेक्षा करते हैं पर फिर भी श्रद्धा के साथ पूजा करते हैं, उन लोगों की स्थिति क्या होती है? क्या उनकी श्रद्धा, सत्वगुणी, रजोगुणी अथवा तमोगुणी होती है?
पुरुषोत्तम भगवान ने उत्तर देते हुए कहा कि प्रत्येक प्राणी स्वाभाविक रूप से श्रद्धा के साथ जन्म लेता है। मनुष्य प्रकृति के गुणों के प्रभाव में होता है अतः उसकी श्रद्धा सात्विक, राजसिक अथवा तामसिक तीन प्रकार की हो सकती है।
सभी लोगों में श्रद्धा होती है चाहे उनकी श्रद्धी की प्रकृति कैसी भी हो। मनुष्यों की श्रद्धा उनके मन की प्रकृति के अनुरूप होती है।
सतगुण वाले स्वर्ग के देवताओं की पूजा करते हैं। रजोगुण वाले यक्षों तथा राक्षसों की पूजा करते हैं। तमोगुण वाले भूतों और प्रेतात्माओं की पूजा करते हैं।
कुछ लोग अहंकार और दंभ से अभिप्रेरित होकर धर्मग्रंथों की आज्ञाओं के विरुद्ध कठोर तपस्या करते हैं। कामना और आसक्ति से प्रेरित होकर वो न केवल अपने शरीर के अंगों को कष्ट देते हैं बल्कि उनके शरीर में परमात्मा के रूप में स्थित मुझे भी कष्ट पहुँचाते हैं। ऐसे मूर्ख लोगों को पैशाचिक प्रवृति वाला कहा जाता है।
हे अर्जुन सभी मनुष्यों को भोजन भी प्रकृति के गुणों के अनुसार तीन प्रकार का प्रिय होता है। इसी प्रकार यज्ञ, तप और दान भी तीन प्रकार के होते हैं।
सतगुण की प्रकृति वाले लोग ऐसा भोजन पसंद करते हैं जिससे आयु बढ़ती है। इसके अलावा सद्गुणों, शक्ति, स्वास्थ्य, प्रसन्नता तथा संतोष में वृद्धि होती है। ऐसे खाद्य पदार्थ रसीले, सरस, पौष्टिक तथा प्राकृतिक रूप से स्वादिष्ट होते हैं।
अत्याधिक कड़वे, खट्टे, नमकीन, गर्म, तीखे, शुष्क तथा मिर्च युक्त दाहकारक व्यंजन रजो गुणी व्यक्तियों को प्रिय लगते हैं। ऐसे भोज्य पदार्थों के सेवन से पीड़ा, दुख तथा रोग उत्पन्न होते हैं।
जो भोजन अधिक समय का रखा हुआ, स्वादहीन, दुर्गन्धयुक्त, सड़ा हुआ, अन्य के द्वारा झूठा किया हुआ और अपवित्र होता है वो भोजन तमोगुणी मनुष्यों को प्रिय होता है।
धर्मशास्त्रों की आज्ञाओं के अनुसार फल की इच्छा किए बिना और मन की दृढ़ता के साथ कर्त्तव्य समझते हुए किया गया यज्ञ सत्वगुणी प्रकृति का है।
हे श्रेष्ठ भरतवंशी जो यज्ञ भौतिक लाभ के लिए आडंबरपूर्ण तरीके से किया जाता है उसे रजोगुणी श्रेणी का यज्ञ कहते हैं।
श्रद्धा विहीन होकर तथा धर्मग्रन्थों की आज्ञाओं के विपरीत किया गया यज्ञ जिसमें भोजन अर्पित न किया गया हो, मंत्रोच्चारण न किए गए हों तथा दान न दिया गया हो, ऐसे यज्ञ की प्रकृति तमोगुणी होती है।
परमपिता परमात्मा, ब्राह्मणों, आध्यात्मिक गुरु, बुद्धिमान तथा श्रेष्ठ संतजनों की पूजा यदि पवित्रता, सादगी, ब्रह्मचर्य तथा अहिंसा के पालन के साथ की जाती है, तब इसे शरीर की तपस्या कहा जाता है।
किसी को भी कष्ट न पहुँचाने वाले शब्द बोलना, सत्य बोलना, प्रिय लगने वाले हितकारी शब्द बोलना और वेद-शास्त्रों का उच्चारण द्वारा अध्यन करना, वाणी सम्बन्धी तप कहा जाता है।
विचारों की शुद्धता, विनम्रता, मौन, आत्म नियंत्रण तथा उद्देश्य की निर्मलता इन सबको मन के तप के रूप में घोषित किया गया है।
जब धर्मनिष्ठ व्यक्ति उत्कृष्ट श्रद्धा के साथ भौतिक पदार्थों की लालसा के बिना तीन प्रकार की तपस्याएँ करते हैं तब इन्हें सात्विक तप कहा जाता है।
जब किसी तपस्या को मान सम्मान प्राप्त करने और आराधना कराने के लिए दंभपूर्वक स्वयं को कर्ता मानकर किया जाता है तब ये राजसी तपस्या कहलाती है। इससे प्राप्त होने वाले लाभ अस्थायी तथा क्षणभंगुर होते हैं।
जो तप ऐसे व्यक्तियों द्वारा किया जाता है जो भ्रमित विचारों वाले हैं तामसिक होते हैं। इस प्रकार के तप में स्वयं को यातना देना तथा दूसरों का अनिष्ट करना सम्मिलित होता है।
जो दान बिना प्रतिफल की कामना से यथोचित समय और स्थान में किसी सुपात्र को दिया जाता है वह सात्विक दान माना जाता है।
अनिच्छापूर्वक अथवा फल प्राप्त करने की इच्छा के साथ दिए गये दान को रजोगुणी कहा गया है।
ऐसा दान जो अपवित्र स्थान तथा अनुचित समय पर कुपात्र व्यक्तियों को या बिना आदर भाव के अथवा अवमानना के साथ दिया जाता है उसे तमोगुणी की प्रकृति का दान माना जाता है।
ॐ-तत्-सत् शब्दों को सृष्टि के आरंभ से सर्वोच्च परम सत्य की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति माना है। इन तीनों शब्दों का प्रयोग यज्ञ करते समय ब्राह्मणों द्वारा वैदिक मन्त्रों का उच्चारण करके ब्रह्म को संतुष्ट करने के लिये किया जाता है।
इसलिए यज्ञ कर्म करना, दान देना और तपस्या जैसे कार्यों का शुभारंभ करते समय वेदों के व्याख्याता वैदिक विधानों के निर्देशानुसार ॐ का उच्चारण करते हैं।
ऐसे व्यक्ति जो किसी फल की कामना नहीं करते हैं किंतु भौतिक उलझनों से मुक्त रहना चाहते हैं वो तप, यज्ञ तथा दान जैसे कार्य करते समय 'तत्' शब्द का उच्चारण करते हैं।
सत् शब्द का अर्थ शाश्वत और साधुता है। हे अर्जुन इसका प्रयोग शुभ कर्मों को संपन्न करने के लिए किया जाता है। तप, यज्ञ तथा दान जैसे कार्यों को पूरा करने में प्रतिष्ठापित होने के कारण इसे सत् शब्द द्वारा वर्णित किया जाता है। अतः ऐसे किसी भी उद्देश्य के लिए किए जाने वाले कार्य के लिए सत् नाम दिया गया है।
हे पृथा पुत्र जो भी यज्ञकर्म या तप बिना श्रद्धा के किए जाते हैं वे असत् कहलाते हैं। वो इस लोक और परलोक दोनों में व्यर्थ जाते हैं।


अध्याय की विवेचना

प्रकृति तीन गुणों के प्रभाव में रहती है। सतोगुण, रजोगुण एवं तमोगुण। इनके बारे में अध्याय चौदह में विस्तार से बताया गया है। प्रकृति के ये तीन गुण मनुष्य को भी प्रभावित करते हैं। इन गुणों से उसके कर्म और भोजन की रुचि भी प्रभावित होती है।
इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण इसी का वर्णन कर रहे हैं। हम सभी में किसी न किसी के प्रति श्रद्धा होती है। हम किसके प्रति श्रद्धावान हैं और उसका परिणाम क्या होगा ये इस बात पर निर्भर करता है कि हम प्रकृति के किस गुण के आधीन हैं।
सतोगुण के प्रभाव में व्यक्ति विभिन्न देवताओं की आराधना करता है। अपनी आराधना से उस देवता को प्रसन्न करने का प्रयास करता है जिससे वांछित फल मिल सके। ये देखने में आता है कि कुछ लोग एक खास दिन उस दिन से संबंधित देवी या देवता की पूजा करते हैं। व्रत करते हैं। आवश्यक अनुष्ठान करते हैं। ऐसे व्यक्ति ये कहते हैं कि ऐसा वो अपनी किसी विशेष इच्छा की पूर्ति के लिए कर रहे हैं। सतोगुण के प्रभाव में वह अपनी श्रद्धा का केंद्र उस विशेष देवी अथवा देवता को बनाते हैं।
रजोगुण के प्रभाव वाले मनुष्य अक्सर किसी सफल व्यक्ति को अपना आदर्श मानते हैं। वह व्यक्ति उनकी श्रद्धा का केंद्र होता है। वो उस व्यक्ति के चरित्र की कमियों पर ध्यान नहीं देते हैं। उनके लिए उसकी सफलता ही सबकुछ होती है। वर्तमान समय में अक्सर ये देखने को मिलता है कि आर्थिक और पेशेवर रूप से सफल व्यक्ति को लोग अपना आदर्श मानकर उसका अनुसरण करते हैं। उस व्यक्ति के जैसा बनना चाहते हैं। अपनी श्रद्धा के कारण वही करते हैं जैसा वो व्यक्ति करने को कहता है।
अज्ञानता के कारण बहुत से लोग तमोगुण के प्रभाव में होते हैं। ऐसे व्यक्ति अपनी लालसाओं की पूर्ति के लिए अनुचित कार्य करने से भी पीछे नहीं हटते हैं। इनकी श्रद्धा ऐसे लोगों में होती है जो बिना परिश्रम के इन्हें मनचाही वस्तु दिलाने की बात कहते हैं। अक्सर ऐसी खबरें सुनने को मिलती हैं कि किसी तांत्रिक के कहने पर एक व्यक्ति ने अपनी संतान या किसी प्रिय व्यक्ति की बलि चढ़ा दी। उसने ऐसा अपनी किसी विशेष इच्छा की पूर्ति के लिए किया था।
श्रद्धा जब किसी सांसारिक वस्तु की पूर्ति के लिए होती है तब तक मुक्ति प्रदान नहीं करती है। सच्ची श्रद्धा बिना किसी इच्छा के ईश्वर के चरणों में स्वयं को समर्पित कर देना ही है।
तप का अर्थ होता है आत्मिक और शारीरिक उन्नति के लिए अनुशासन का पालन करना। तप में व्यक्ति अपने आप को एक नियम में बांध लेता है। कष्ट सहकर भी उसका अभ्यास करता है। तप में संयम की आवश्यकता होती है।
पवित्रता, सादगी, ब्रह्मचर्य तथा अहिंसा का पालन करना। अपने गुरुजनों, माता पिता, बुद्धिमान व्यक्तियों की सेवा करना शारीरिक तप होता है।
ऐसे शब्द न बोलना जो किसी का दिल दुखाएं, सत्य बोलना, प्रिय लगने वाले हितकारी शब्द बोलना और वेद शास्त्रों का उच्चारण करना वाणी का तप है।
अपने विचारों की शुद्धता पर ध्यान देना, आत्म नियंत्रण, दूसरों के साथ विनम्रता से पेश आना, मौन रहना ये सब मानसिक तप हैं।
जब बिना किसी सांसारिक कामना के कोई व्यक्ति पूरी श्रद्धा से अपने शरीर, वाणी और मन से तपस्या करता है तो ये सात्विक तप है। उदाहरण के लिए कोई व्यक्ति अपने माता पिता की सेवा करता है। सादगी से भरा जीवन जीता है। कभी किसी को कष्ट नहीं पहुँचाता है। संयम पूर्वक जीवन जीता है और इस बात का ध्यान रखता है कि वह सन्मार्ग पर चले तो वह सात्विक तप कर रहा है।
सांसारिक ऐश्वर्य पाने की चाह में किया गया तप रजोगुण से प्रेरित है। इस तरह के तप का उद्देश्य आत्मिक उन्नति नहीं होता है। व्यक्ति सिर्फ अपने उद्देश्य को पाने के लिए स्वयं को एक अनुशासन में बांधता है। जैसे समाज में मान सम्मान पाने के लिए कोई सेवा का व्रत लेता है। लोगों के साथ विनम्रता से पेश आता है। ऐसी बातें करता है जो आदर्श हों और लोगों के बीच उसकी प्रतिष्ठा बढ़ाएं।
किसी को दुख देने के लिए स्वयं को ऐसे नियम में बांधना जो आपको कष्ट दे तामसिक तप है। किसी का अनिष्ट करने की इच्छा से किया गया तप तमोगुण से प्रेरित होता है।
जो भोजन आसानी से पच जाए, स्वादिष्ट, ताजा होता है। जिसको खाने के बाद व्यक्ति अपने भीतर ऊर्जा महसूस करता है। ऐसा भोजन सात्विक होता है। सात्विक भोजन वही करते हैं जिनके जीवन का उद्देश्य जिव्हा को संतुष्ट करना नहीं होता है। भोजन सिर्फ शरीर को ऊर्जा प्रदान करने के लिए करते हैं। उत्तम विचार उन्हें तृप्ति प्रदान करते हैं।
बहुत तीखा, मसालेदार भोजन जो जीभ को संतुष्ट करता है पर पचने में आसान नहीं होता है। ऐसा भोजन राजसिक होता है। वर्तमान में बहुत से लोग इस तरह के भोजन के आदी हैं। इसे जंक फूड कहा जाता है। इसका शरीर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
बासी, जूठा, दुर्गंधयुक्त अखाद्य पदार्थ तामसिक भोजन होते हैं। इस तरह का भोजन शरीर और मन दोनों पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है।
यज्ञ और दान भी तीनों गुणों से प्रभावित होते हैं। धर्म और संस्कृति के उत्थान के लिए बिना किसी लालसा के किया गया यज्ञ सात्विक होता है। ये समाज में एक उदाहरण प्रस्तुत करता है। सांसरिक इच्छाओं की प्राप्ति के लिए जब यज्ञ अनुष्ठान किए जाते हैं तो वो राजसिक हैं। शास्त्रविरुद्ध यज्ञ तामसिक होते हैं।
जब योग्य और ज़रूरतमंद लोगों को बिना किसी लाभ के दान दिया जाता है तो वो सात्विक दान है। स्वयं की कीर्ति के लिए जब दान दिया जाता है तो वो राजसिक है। ऐसे व्यक्ति जो पात्र नहीं हैं। जो दिए गए दान को अपने या समाज के अहित में प्रयोग करेंगे, उनको दिया गया दान तामसिक है।
श्रद्धा, तप, यज्ञ, दान तथा अन्य कर्म जब ये मानकर किए जाते हैं कि ईश्वर सर्वव्यापी है। वह परम नियंता है। वही परम सत्य है तो सारे कर्म मोक्ष प्रदान करने वाले होते हैं।


हरि ॐ तत् सत्