Sanyasi in Hindi Moral Stories by Saroj Verma books and stories PDF | सन्यासी -- भाग - 8

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सन्यासी -- भाग - 8

जब दोपहर के बाद जयन्त काँलेज से लौटा और उसने सुना कि माँ को चोट लग गई है तो वो फौरन भागा भागा अपनी माँ के कमरे में पहुँचा और अपनी माँ नलिनी से चोट लगने का कारण पूछा,तब नलिनी ने उसे सारा हाल कह सुनाया....
तब जयन्त ने नलिनी से कहा...
"माँ! जब तक तुम्हारी चोट ठीक नहीं हो जाती तो तब तक तुम कुछ भी काम नहीं करोगी"
"अरे! ऐसा तो लगता रहता है,तो क्या घर के सारे काम काज छोड़कर आराम करने बैठ जाऊँ",नलिनी बोली...
"और क्या? अब तुम केवल आराम करोगी,जिन्दगी भर बहुत कर लिया तुमने काम"जयन्त बोला...
"तू मेरी इतनी चिन्ता मत किया रे!",नलिनी जयन्त से बोली....
"जिस दिन बाबूजी तुम्हारी चिन्ता करने लगेगें तो उस दिन मैं तुम्हारी चिन्ता करना छोड़ दूँगा और मुझे पता है कि बाबूजी ऐसा कभी नहीं करेगें,इसलिए तो तुम्हारी चिन्ता मुझे करनी पड़ती है",जयन्त बोला....
"बेटा! इतनी जिन्दगी गुजर गई तब तो उन्होंने मेरी कभी चिन्ता नहीं की और अब मुझे इस बात की कोई उम्मीद भी नहीं है,अब मेरी जिन्दगी बची ही कितनी है,बस तेरा ब्याह देख लूँ,तेरी गृहस्थी और बच्चे देख लूँ तो फिर भगवान मुझे अपने पास बुला ले",नलिनी दुखी होकर बोली...
"मेरे ब्याह और गृहस्थी की उम्मीद मत पालो माँ! तुम्हें निराशा ही हाथ लगेगी",जयन्त बोला...
"बेटा! उम्मीद पर ही तो ये दुनिया कायम है,इसलिए मैं अपनी ये उम्मीद कभी नहीं तोड़ूगी",नलिनी जयन्त से बोली....
"अच्छा! ये बताओ तुम कुछ खाओगी,तो मैं सुहासिनी से कहकर बनवा देता हूँ",जयन्त ने बात पलटते हुए नलिनी से कहा...
"नहीं! अभी मेरा कुछ भी खाने को दिल नहीं कर रहा",नलिनी बोली....
"ठीक है तो तुम अभी आराम करो,थोड़ी देर में शाम की चाय का वक्त हो जाऐगा तो चाय के साथ कुछ हल्का फुल्का नाश्ता ले लेना" और ऐसा कहकर जयन्त अपने कमरे में चला गया....
फिर शाम हुई तो चाय बनी तब नलिनी ने चाय के साथ थोड़ी सी दालमोठ ले ली,जयन्त सबके लिए गरमागरम समोसे भी लाया था,लेकिन नलिनी ने समोसे खाने से इनकार कर दिया,फिर चाय पीकर सुरबाला और गोपाली रात का भोजन बनाने में लग गई,करीब आठ बजे शिवनन्दन जी, देवराज और जयन्त खाना खाने बैंठे,उस समय प्रयागराज घर नहीं लौटा था,शायद आज वो मुन्नीबाई के कोठे पर चला गया था,गोपाली रसोई में रोटियाँ सेंक रहीं थी और नलिनी वहीं रसोई के बगल में खड़ी थी,आज चोट के कारण वो कोई भी काम नहीं कर पा रही थी,अभी सुरबाला सबको खाना परोस ही रही थी कि तभी सुरबाला की दो साल की बेटी मिट्ठू वहाँ पर आ पहुँची और सुरबाला की साड़ी का पल्लू खीचते हुए उसे तोतली जबान में कुछ समझाने की कोशिश करने लगी, लेकिन सुरबाला काम में व्यस्त थी इसलिए उसने मिट्ठू से कहा...
"गुड़िया...अभी दादी अम्मा के पास जाओ,माँ अभी काम कर रही है ना!"
तभी मिट्ठू ने फिर से जिद़ की तो इस बात पर शिवनन्दन जी को गुस्सा आ गया और वे नलिनी से चिल्ला कर बोले....
"दिखाई नहीं देता क्या कि बच्ची परेशान कर रही है,हाथों में मेंहदी लगा रखी है क्या ? जो तुम बच्ची को गोद में नहीं उठा सकती",
"जी! चोट लगी हुई है,इसलिए बच्ची को गोद में नहीं उठा सकती",नलिनी ने धीरे से कहा...
"चोट ही तो लगी है, कोई हाथ पैर नहीं टूट गए हैं ,जो तुम बच्ची को गोद में नहीं उठा सकती",शिवनन्दन जी गरजकर बोले...
इसके बाद जयन्त ने किसी से कुछ नहीं कहा और फिर वो बच्ची को अपनी गोद में उठाकर उससे बोला...
"मिट्ठू बेटा! जिद़ नहीं करते,तुम्हारी माँ काम कर रही है ना,तुम मेरी गोद में आराम से बैठकर खाना खाओ, चलो मैं अपनी प्यारी मिट्ठू को खाना खिलाता हूँ"
और जब जयन्त ने मिट्ठू को प्यार से समझाया तो वो मान गई और जिद छोड़कर जयन्त के हाथों से खाना खाने लगी,ये देखकर शिवनन्दन का गुस्सा शान्त हो गया,तब जयन्त बोला....
"प्यार से समझाने पर तो जानवर भी समझ जाता है ,फिर ये तो बच्ची है और वैसे भी इस घर में इन्सान और जानवर को बराबर का दर्जा दिया जाता है,तभी तो किसी के लिए यहाँ किसी के दिल में कोई हमदर्दी ही नहीं है",
जयन्त की इस बात पर शिवनन्दन जी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी,वे भड़के नहीं और चुपचाप खाना खाते रहे,ये देखकर नलिनी को थोड़ी तसल्ली मिली कि आज रात के खाने पर कोई महासंग्राम नहीं हुआ, वो नहीं चाहती थी कि उसकी वजह से कोई बहसबाजी हो.....
जब जयन्त खाना खा चुका तो वो थोड़ी देर तक मिट्ठू के साथ खेला और फिर मिट्ठू जयन्त की गोद में ही सो गई,वो पेट भर खाना खा चुकी थी इसलिए सुरबाला ने जयन्त से उसे बिस्तर पर लिटा आने को कहा, जयन्त मिट्ठू को बिस्तर पर लिटाकर नलिनी के पास आकर बोला....
"माँ! चलो मैं तुम्हें खाना खिला देता हूँ"
"तू खिलाएगा मुझे खाना,रहने दे मैं खा लूँगीं",नलिनी ने मुस्कुराते हुए कहा....
"माँ! तुमने हम सभी को बचपन में खाना खिलाया है तो क्या तुम्हें तकलीफ़ होने पर हम लोग तुम्हें अपने हाथ से खाना नहीं खिला सकते",जयन्त भावुक होकर बोला...
"ऐसा दिन कभी ना आएँ कि मुझे दूसरों के हाथ से खाना खाना पड़े,भगवान ये दिन दिखाने से पहले मुझे अपने पास बुला लें,हाथ पैर चलते चलते ही ऊपरवाले के पास चली जाऊँ तो ही अच्छा",नलिनी जयन्त से बोली....
"माँ! तुम्हारे दाएँ हाथ में चोट लगी है,तभी कह रहा हूँ,लाओ मैं खिलाता हूँ ना तुम्हें खाना"
और ऐसा कहकर जयन्त रसोई में गया और गोपाली भाभी से कहकर नलिनी के लिए थाली लगवा लाया फिर अपने हाथ से नलिनी को खाना खिलाने लगा,जयन्त का उसके लिए प्यार देखकर उसकी आँखें भर आईं और उसकी आँखों से दो बूँद आँसू भी टपक गए,तब जयन्त ने नलिनी से पूछा...
"अब तुम रोती क्यों हो?",
"यही देखकर मन भर आया कि तू मेरा कितना ख्याल रखता है,शादी के बाद आज पहली बार किसी ने मुझे अपने हाथ से खाना खिलाया है,इस तरह से मेरे बाबा मुझे खाना खिलाया करते थे",नलिनी भावुक होकर बोली...
"हाँ! बाबूजी से तो ऐसी उम्मीद करना बेकार है और तुम आज मुझे अपने बाबा ही समझ लो,ऐसा समझो कि स्वर्ग से उतरकर वे धरती पर केवल तुम्हें खाना खिलाने आएँ हैं",जयन्त ने मज़ाक करते हुए कहा...
जयन्त की बात सुनकर नलिनी को खाते खाते हँसी आ गई और उसे जोर का ठसा लग गया,तब जयन्त ने उसकी पीठ ठोककर उसे पानी पिलाते हुए बोला....
"लगता है सच में तुमने मुझे अपना बाबा समझ लिया,तभी तो मुझसे अपनी इतनी सेवा करवा रही हो"
"अब तू ने मुझे हँसवा दिया तो मैं क्या करूँ,लग गया ठसा",नलिनी गुस्सा करते हुए बोली....
"माँ! तुम यूँ ही हँसती रहा करो,मुझे अच्छा लगता है",जयन्त ने नलिनी से कहा...
"हाँ! तू मेरा यूँ ही ख्याल रखेगा तो मैं हमेशा यूँ ही मुस्कुराती रहूँगी",नलिनी ने जयन्त से कहा....
और फिर यूँ ही माँ बेटे के बीच बातें होतीं रहीं....

क्रमशः....
सरोज वर्मा....