Sanyasi in Hindi Moral Stories by Saroj Verma books and stories PDF | सन्यासी -- भाग - 6

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सन्यासी -- भाग - 6

सुबह हुई तो घर में बवाल मचा हुआ था,क्योंकि प्रयागराज ने जयन्त की शिकायत शिवनन्दन जी से कर दी थी,जब कि इस बारें में शिवनन्दन जी को भी सब पता था क्योंकि उन्होंने रात में सब सुन लिया था,लेकिन किसी से कुछ बोले नहीं थे,उन्होंने सोचा इस मसले पर सुबह ही बात होगी,इसके बाद शिवनन्दन जी ने इस बात को लेकर जयन्त से बात करने की सोची,फिर जयन्त को सबके सामने पेश किया गया और तब शिवनन्दन जी ने जयन्त से पूछा....
"तुम्हें किसने अधिकार दिया पति-पत्नी के बीच में बोलने का"
"कोई किसी को जानवरों की तरह पीटे जाएँ और मैं चुप रह जाऊँ,ये मुझसे ना हो सकेगा",जयन्त बोला...
"वो उसकी पत्नी है और वो उसके साथ कुछ भी करे,तुम कौन होते हो उन दोनों के बीच में पड़ने वाले", शिवनन्दन जी ने जयन्त से कहा..
"वो केवल उनकी पत्नी नहीं,एक स्त्री भी है,एक जीव है जो साँस लेती है ,उनके बच्चे को सम्भालती है, अपनी सभी जिम्मेदारियाँ बखूबी निभाती है और मैं उनके बीच क्यों ना बोलूँ,जब आप बड़ो ने इस मसले को सुलझाने की कोशिश नहीं की,उनके बीच नहीं बोले तो मजबूरी में मुझे उन दोनों के बीच में आना पड़ा,मुझे भाभी की तकलीफ़ देखकर अच्छा नहीं लगा,वो उनकी पत्नी है कोई बेगार मजदूर नहीं जो उनके जुल्म सहतीं रहें"जयन्त ने शिवनन्दन जी से कहा....
"तो क्या करेगा तू !अपने भाई को फाँसी पर चढ़वा देगा ,वो इसलिए कि वो अपनी बीवी पर जुल्म करता है",शिवनन्दन जी गुस्से से बोले....
"मैंने ऐसा तो नहीं कहा,आप ही मेरी बातों का गलत मतलब निकाल रहे हैं",जयन्त बोला....
"तो फिर कहना क्या चाहता है तू!",शिवनन्दन जी ने पूछा...
"मैं तो बस इतना चाहता हूँ कि कोई किसी पर अत्याचार ना करे,बेमतलब किसी पर हाथ नहीं उठाया जाना चाहिए",जयन्त बोला...
"तेरी तो मत मारी गई है,जब तुझे उनके बीच हो रही मारपीट की वजह ही नहीं पता तो फिर तू क्यों बीच में अपनी नाक घुसाता है",शिवनन्दन जी गुस्से से बोले...
"मारपीट की एक ही वजह हो सकती है बाबूजी! वो ये कि प्रयाग भइया उसी तवायफ़ मुन्नीबाई के कोठे पर उससे मिलने गए होगें और मुन्नीबाई को भाभी का भेंटस्वरूप कोई गहना सौंप आए होगें,जिससे भाभी ने खफ़ा होकर भइया को कुछ कहा होगा और भइया ने गुस्से में आकर भाभी पर हाथ उठा दिया,यही तो होता है अक्सर ,कल तो पता नहीं भइया घर जल्दी कैंसे लौट आए,वरना वो तो मुन्नीबाई का मुजरा सुने बिना घर ही नहीं लौटते",जयन्त बोला...
"अब तू घर की इज्जत सर-ए-आम उछालने की कोशिश कर रहा है,जो बात घर की चारदीवारी में रहनी चाहिए,वो तू घर के सभी लोगों के सामने बक रहा है"शिवनन्दन जी गुस्से से बोले...
"अच्छा! तो मैं घर की इज्जत उछाल रहा हूँ,आप ये बात प्रयाग भइया से क्यों कहते कि वो मुन्नीबाई के कोठे पर जाना बंद करे,घर की इज्ज़त मेरी वजह से नहीं उनकी वजह से उछल रही है",जयन्त गुस्से से बोला....
"गुस्ताख़....! अब एक भी लफ्ज़ जुबान से निकाला तो मुझसे बुरा कोई ना होगा,अपने बाप के सामने ऊँची आवाज़ में बात करता है,शर्म नहीं आती",शिवनन्दन जी गुस्से से बोले....
"अगर इस घर में गलत के खिलाफ़ आवाज़ उठाना गुस्ताखी है, तो हाँ मैं गुस्ताख़ हूँ"
और ऐसा कहकर जयन्त आज भी नाश्ते की टेबल से उठकर अपने कमरे में चला आया,वो काँलेज जाने के लिए अपनी किताबें उठा ही रहा था कि तभी गोपाली उसके कमरे में आकर बोली...
"देवर जी! ये क्या तुम बिना खाएँ ही चले आए वहाँ से"
"अब मैं क्या करूँ भाभी! शायद मेरे नसीब में ही नहीं है सबके संग बैठकर खाना"जयन्त कमरे से निकलते हुए बोला...
"ठहरो ! देवर जी! यूँ बिना खाए घर से बाहर नहीं निकलते",गोपाली बोली...
"तुम चिन्ता ना करो भाभी! ,मैं बाहर से कुछ लेकर खा लूँगा",जयन्त ने गोपाली से कहा....
"मेरे रहते तुम भूखे चले जाओ,मैं ये कभी नहीं होने दे सकती",
और ऐसा कहकर गोपाली ने अपने साड़ी के पल्लू में छुपाया हुआ पीतल का डब्बा जयन्त के हाथों में थमा दिया...
"इसमें क्या है भाभी!",जयन्त ने पूछा...
"पूरियाँ और परवल की सूखी सब्जी है,तुम्हें परवल बहुत पसंद हैं ना!,काँलेज पहुँचकर खा लेना",गोपाली बोली....
"इसकी क्या जरूरत थी भाभी!",जयन्त बोला....
"जरूरत कैंसे नही थी,देवर जी!,तुम हमेशा एक छोटे भाई की तरह मेरे लिए सबसे लड़ जाते हो,भला मैं तुम्हारे लिए इतना भी नहीं कर सकती",गोपाली बोली....
"तो कल रात के एहसान का बदला चुकाया जा रहा है",जयन्त मुस्कुराते हुए गोपाली से बोला...
"नहीं! देवर जी! उस एहसान का बदला तो मैं कभी नहीं चुका सकती,बस इन्सानियत के नाते ऐसा कर रही हूँ",गोपाली बोली....
"ठीक है तो अब मैं चलता हूँ,माँ से कह देना वो मेरी चिन्ता ना करें,मैं साथ में खाना लेकर जा रहा हूँ,काँलेज पहुँचते ही खा लूँगा"
और ऐसा कहकर जयन्त बाहर चला गया फिर गोपाली भागकर रसोई में आई और उसने अपनी सास नलिनी से कह दिया कि आपको चिन्ता करने की जरूरत नहीं है,मैंने जयन्त भइया को खाना दे दिया है, इसके बाद जब गोपाली रसोई का काम निपटाकर अपने कमरे में आई तो प्रयागराज उससे बोला...
"क्या बात है आजकल जयन्त तेरा कुछ ज्यादा ही हिमायती बना फिरता है?",
"वो इसलिए कि अभी उसमें इन्सानियत बरकरार है",गोपाली गुस्से से बोली...
"मैं तो समझा था कि कोई और बात है",प्रयागराज बोला...
"तुम जैसे इन्सान के दिमाग़ में बस ऐसी ही घटिया बातें आ सकतीं हैं",गोपाली गुस्से से बोली....
"क्या बात है,जय ने तेरा साथ क्या दे दिया,अब तो तेरे मुँह में जुबान भी आ गई",प्रयागराज बोला....
"मुझे तुमसे बहस करने का मन नहीं है"
और ऐसा कहकर गोपाली अलमारी से अपने कपड़े निकालकर आने लगी तो प्रयागराज ने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा....
"मैं बहुत अच्छी तरह से जानता हूँ तुम जैसी औरतों को,त्रियाचरित्र से भरा हुआ होता है तुम जैसों का दिमाग़",
"तुम जैसा लम्पट इन्सान और सोच ही क्या सकता है,त्रियाचरित्र मैं नहीं,ये सब वो तुम्हारी मुन्नीबाई करती है,तभी तो एक एक करके मेरे गहनों का बक्सा खाली होता जा रहा है"गोपाली अपना हाथ छुड़ाते हुए बोली....
"ज्यादा बकवास मत कर,ये सब मेरी कमाई का है,मैं चाहे इन्हें किसी को भी दूँ,तू तो गरीब घर की है,कभी तूने अपने घर में इतने गहने देखें हैं,जो ऐश-ओ-आराम तुझे यहाँ मिल रहा है,तूने कभी अपने घर में ऐसा कुछ देखा है भला!", प्रयागराज ने गोपाली से कहा....
तब गोपाली जोर से हँसी और फिर बोली....
"गहने....ऐसे कई गहने न्यौछावर तुम पर,क्या करूँगी मैं ऐसे गहने पहनकर,जब मुझे देखने वाला ही कोई ना हो,जिस घर में पति अपना नहीं होता ना तो उस घर में एक पत्नी कभी भी किसी चींज पर अपना हक़ नहीं जता सकती,एक स्त्री सच्ची ब्याहता तब कहलाती है,जब उसका पति उसे मान दे,सम्मान दे और प्यार करें,जब उसे अपने पति का प्यार मिल जाता हैं ना तो वो उस समय सबसे दौलतमंद हो जाती है,तब उसे किसी भी चींज की जरूरत नहीं रहती,प्यार करने वाले पति के साथ वो झोपड़ी में रहकर,दो जोड़ी कपड़ों और सूखी रोटी खाकर भी काम चला सकती है,फिर उसे इन महलों का सुख नहीं चाहिए होता",
और फिर ऐसा कहकर गोपाली कमरे से बाहर चली गई और प्रयागराज उसे जाता हुआ देखता रह गया....

क्रमशः....
सरोज वर्मा....