Sanyasi in Hindi Moral Stories by Saroj Verma books and stories PDF | सन्यासी -- भाग - 4

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सन्यासी -- भाग - 4

दिनभर यूँ ही काँलेज में वक्त गुजारने के बाद जयन्त घर पहुँचा,उसने साइकिल की घण्टी बजाकर चौकीदार से बंगले का गेट खोलने को कहा,जैसे ही नलिनी ने साइकिल की घण्टी की आवाज़ सुनी तो वो फौरन ही समझ गई कि उसका बेटा जय काँलेज से वापस आ गया है,इससे पहले की जयन्त अपने कमरे में पहुँच पाता, तो वो जयन्त के कमरे में पहुँचने से पहले ही कुछ मूँग दाल के लड्डू और मठरियाँ लेकर वहाँ पहुँच गई और जैसे ही जयन्त अपने कमरे में घुसा तो नलिनी ने उससे पूछा...
"आ गया तू! मैं कब से तेरा इन्तजार कर रही थी"
"तो तुम मेरी बाट जोह रही थी",जयन्त बोला...
"और क्या...मुझे तेरी चिन्ता हो रही थी,तू भूखे पेट जो चला गया था काँलेज,उस पर से तू कैन्टीन का भी तो कुछ नहीं खाता पीता,ले मैंने तेरे लिए मूँग दाल के लड्डू बनाएँ हैं,खाकर देख कि कैंसे बने हैं",नलिनी जयन्त से बोली....
"माँ! मैंने काँलेज में खाना खा लिया था,वो मेरा दोस्त वीरेन्द्र है ना! उसकी माँ गाँव से आई है तो उन्होंने मेरे लिए सब्जी और पराँठे भेजे थे",जयन्त नलिनी से बोला....
"वो तो आज तुझे तेरे दोस्त की माँ ने खिला दिया,लेकिन रोज रोज ऐसा थोड़े ही होने वाला है,इसलिए तो मैं हमेशा तुझसे कहती हूँ कि अपने बाबूजी से मत उलझाकर",नलिनी बोली...
"लेकिन माँ! मैं नहीं वो उलझते मुझसे",जयन्त बोला...
"वे तुझसे बड़े हैं और इस घर के मुखिया है इसलिए वे हम सबको कुछ भी कह सकते हैं,इसलिए छोटा होने के नाते तुझे उनकी कही बात सुननी चाहिए और तू है कि उनसे बहसबाजी करने बैठ जाता है",नलिनी ने जयन्त से कहा....
"माँ! मुखिया होने का मतलब ये नहीं होता कि मैं उनकी कही गलत बात भी सही मानने लग जाऊँ", जयन्त बोला...
"तो इसमे हर्ज ही क्या है",नलिनी ने पूछा...
तब जयन्त बोला...
"माँ! इसमे हर्ज है,मैं उस बात को कतई सही नहीं मान सकता,जिसे मानने से मेरा जमीर गवारा नहीं करता, उनकी सोच से मेरी सोच बिल्कुल भी मेल नहीं खाती,वे रुढ़िवादी परम्पराओं को मानने वाले व्यक्ति हैं और मैं उन सभी रुढ़िवादी परम्पराओं का खण्डन करता हूँ जो सदियों से चली आ रहीं हैं,उनकी नज़र में स्त्री केवल घर की चारदीवारी के लिए बनी और मैं मानता हूँ कि जो स्त्री एक जीव का सृजन कर सकती है,वो कुछ भी कर सकती है"
"जब भी उगलता है तो केवल जहर ही उगलता है,इसलिए तो तेरे बाबूजी तुझसे इतना चिढ़ते हैं",नलिनी बोली...
तब जयन्त बोला...
"वे मुझसे चिढ़ते नहीं हैं,वे मेरे द्वारा कही सच्ची बातों को स्वीकार नहीं करना चाहते,जब कि उन्हें ये अच्छी तरह से मालूम होता है कि मैं सही कह रहा हूँ,वो इसलिए मेरी बातों में सहमति नहीं जताते क्योंकि ऐसा करने के लिए कहीं ना कहीं उनका पुरूषत्व आड़े आता है,वे उस दायरे से निकलना ही नहीं चाहते जो उन्होंने खुद के लिए बना रखा"
"ये गलत है,तेरे बाबूजी बिलकुल भी ऐसे नहीं हैं",नलिनी बोली...
तब जयन्त बोला....
"हाँ! तभी तो इस उम्र तक तुमने कभी भी उनके साथ बैठकर खाना नहीं खाया,कभी उन्होंने तुम्हारी तबियत के बारें में पूछा है.....? और जब कभी तुम बीमार हुई तो उन्होंने कभी तुम्हें अपने हाथ से एक निवाला भी खिलाया, इसलिए तुम ये झूठा भ्रम पाले रहो कि बाबूजी ऐसे नहीं है,लेकिन मेरे वश में नहीं है ऐसा झूठा भ्रम पालना, क्योंकि मैं धरातल में रहता हूँ और हमेशा ऐसा ही रहूँगा,मैं बाबूजी की तरह सूखी शान लेकर नहीं जी सकता, इसलिए उनके लाख कहने पर भी मैं मोटर से नहीं साइकिल से काँलेज जाता हूँ और इस बात पर मुझे बिलकुल भी शरम नहीं आती कि इतने बड़े बाप का बेटा और साइकिल से काँलेज जाता है"
"बहुत बड़ी बड़ी बातें करने लगा है आजकल तू! किसकी संगत का असर है",नलिनी ने पूछा....
"माँ! ऐसा समझो कि मैं तुम्हारा बेटा नहीं कोई सन्यासी हूँ,जो अभी तो रह रहा है तुम्हारे साथ,लेकिन क्या पता कभी ऐसा वक्त आ जाएँ और तुम्हारा ये बेटा,बेटा ना रहकर कोई ऐसा सन्यासी बन जाएँ जिसके दर्शनों के लिए दूर दूर से लोग आएँ" जयन्त बोला....
तब नलिनी बोली...
"सन्यासी बने तेरे दुश्मन, मैं ऐसा होने से पहले एक सुन्दर सी लड़की देखकर तेरा ब्याह रचा दूँगीं और उससे कहूँगी कि अब सम्भाल अपने पति को और इसे इतना प्रेम दे कि ये तेरे मोहजाल में बुरी तरह से फँस जाएँ जिससे ये कहीं जा पाएँ,फिर जब तू उसके प्रेम में पड़ जाएगा तो कैंसे सन्यासी बनेगा और अगर पोता हो गया तो फिर तो तेरा इस घर से जाना बहुत मुश्किल हो जाएगा"
"ऐसा ना कहो माँ! राजकुमार सिद्धार्थ भी अपनी पत्नि यशोधरा और अपने बेटे राहुल को छोड़कर चले गए थे, फिर गौतम बुद्ध बनकर लौटे थे,इसलिए कब, कौन ,कहाँ ,कैंसे सन्यासी बन जाएँ इसका कोई ठिकाना नहीं है, किसी को बाँधने में फिर ना तो किसी पत्नी का प्रेम काम आता है और ना ही बच्चे का मोह", जयन्त बोला...
फिर नलिनी जयन्त की इस बात पर खफ़ा होकर बोली...
"अब तेरी बकवास खतम हो गई हो तो ये लड्डू खा ले,वरना मैं चली अपने कमरे में"
"तुम तो रुठती हो माँ!",जयन्त बोला...
"तो मैं क्यों ना रूठूँ भला! तू बातें ही ऐसी करता है",नलिनी बोली...
"अच्छा! चलो नहीं करता ऐसी बातें,लाओ लड्डू खिलाओ",जयन्त बोला...
फिर नलिनी ने खुशी खुशी लड्डुओं और मठरियों से भरी तश्तरी जयन्त की ओर बढ़ा दी और जयन्त उन्हें खाने लगा,उसने अभी एक ही लड्डू खतम किया था कि तभी सुरबाला यानि कि जयन्त की बड़ी भाभी कमरे में आकर उससे बोली....
"तुम काँलेज से आ गए देवर जी!?",
"नहीं! बड़ी भाभी! अभी मैं कहाँ आया काँलेज से,तुम्हारे सामने तो जयन्त का भूत खड़ा है", जयन्त मज़ाक करते हुए बोला....
"देखो !मज़ाक मत करो देवर जी!",सुरबाला रुठते हुए बोली...
"अच्छा बाबा! नहीं करता मज़ाक! अब बताओ कि क्या बात है"? जयन्त ने सुरबाला से पूछा...
"माँ का हाल चाल पूछने के लिए ख़त लिखा था,अगर तुम इसे डाक में डाल देते तो बड़ी मेहरबानी होती", सुरबाला सकुचाते हुए बोली....
"भाभी! तुम ये सब काम बड़े भइया से क्यों नहीं करवाती,आखिर वे तुम्हारे पति है,ये सब फर्ज तो उनके हैं और तुम मुझसे कहती हो ये सब करने के लिए",जयन्त ने सुरबाला से कहा...
"तुमसे तो उनका स्वाभाव छिपा नहीं है देवर जी!,वे दूसरे बाबूजी हैं,घर की औरतों की कोई बात माननी उन्हें उनकी गुलामी करना लगता है",सुरबाला दुखी होकर बोली...
"भाभी! तुम्हारा तो रोज़ का है,तुम छोटे देवर जी.... छोटे देवर जी कहकर अपने सारे काम मुझसे करवा लेती हो,जो कि अच्छी बात नहीं है",जयन्त झूठा गुस्सा दिखाते हुए बोला...
अब सुरबाला का उदास चेहरा देखकर नलिनी चुप ना रह सकी और जयन्त से बोली....
"जय! इतना भाव मत खा,बेचारी इतनी मिन्नतें कर रही है तो लेले ख़त,कल सुबह डाक में डाल देना"
"माँ! अब तुम कहती हो तो ठीक है,तो ले लेता हूँ ख़त,नहीं तो मैं हरगिज़ ना लेता,जब देखो तब ये अपना सारा काम मुझसे ही करवातीं रहतीं हैं",जयन्त बोला....
तब सुरबाला दुखी होकर बोली...
"छोटे देवर जी! अब मेरा कोई भाई तो है नहीं ,इसलिए जब से इस घर में आई हूँ,तुम्हीं को अपना छोटा भाई मानती आ रही हूँ,उधर मेरी माँ के पास कोई भी नहीं है उसकी देखभाल करने के लिए इसलिए ख़त लिखकर उसकी खैर खबर पूछती रहती हूँ,जिस दिन माँ भी भगवान के पास चली जाऐगी,तो ये ख़तों का सिलसिला भी खतम हो जाऐगा,फिर तुम्हें कोई झंझट नहीं रहेगी"
और ऐसा कहते कहते सुरबाला की आँखें भर आईं,तब जयन्त सुरबाला से बोला...
"अरे! भाभी! मैं तो मज़ाक कर रहा था,तुम तो बुरा मान गई,मेरी अच्छी भाभी...मेरी प्यारी भाभी! माँ के बाद अगर कोई मुझे चाहता है तो वो तुम हो,तुमने हमेशा मुझे बड़ी बहन की तरह चाहा है,इसलिए तो मैं तुम्हें छोटे भाई की तरह मान देता हूँ,अब अपने आँसू पोछ लो और बेफिक्र हो जाओ,कल ही तुम्हारा ख़त डाक में डल जाऐगा"
और फिर सुरबाला ने अपने आँसू पोछ लिए और मुस्कुरा पड़ी......

क्रमशः....
सरोज वर्मा....