कभी कभी इन्सान अपने जीवन से विरक्त होकर इस सांसारिक जीवन से सन्यास लेकर सन्यासी बन जाता है, लेकिन क्या वो सच में इस संसार के चक्रव्यूह से निकल पाता है,शायद नहीं! क्योंकि सांसारिक जीवन को त्यागकर उस ईश्वर की शरण में जाना,इतना भी आसान नहीं होता जैसा कि हमें दिखाई देता है,क्योंकि हमें उस सर्वशक्तिमान ईश्वर की शरण में जाने के लिए आत्मिक परिपक्वता एवं अडिग विश्वास की जरूरत होती है और ये दोनों भाव हमारे भीतर यूँ ही प्रवेश नहीं करते,उसके लिए हमें कड़ी तपस्या और अपनी इन्द्रियों को वश में करना आना चाहिए.....
क्या इस कहानी का नायक अपनी इन्द्रियों को वश में करके कड़ी तपस्या करने के बाद सन्यासी बन बन पाता है या नहीं आइए देखते हैं....
तो कहानी शुरू करते हैं....
हमारी कहानी शुरू होती है १९४० के बनारस शहर से,जहाँ रहता है एक परिवार और उस परिवार के मुखिया हैं ठाकुर शिवनन्दन सिंह,वे बड़े ही सख्त मिज़ाज के इन्सान हैं,परिवार के हर एक सदस्य की उनके सामने बोलती बंद हो जाती है,उनके सामने अगर कोई बोल पाता है तो वो है उनका सबसे छोटा बेटा जयन्तराज,वो बहुत ही मुँहफट है इसलिए शिवनन्दन जी उसे बिलकुल भी पसंद नहीं करते,जयन्तराज बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी का छात्र है, उसका बस एक ही सपना है कि जब वो आयुर्वेदिक चिकित्सक बन जाएगा तो किसी गाँव में जाकर रहेगा और वहाँ के लोगों का मुफ्त इलाज किया करेगा....
लेकिन जयन्त का ये रवैया उसके पिता शिवनन्दन सिंह को बिलकुल भी पसन्द नहीं है,उन्हें जयन्त की निर्भयता और हाजिरजवाबी कभी कभी परेशान कर देती है,ऐसा नहीं है कि शिवनन्दन सिंह जयन्तराज को प्यार नहीं करते,बल्कि कहा जाएँ तो अपने सारे बच्चों में से वे सबसे ज्यादा जयन्तराज को ही प्यार करते हैं, क्योंकि जयन्तराज में उन्हें कहीं ना कहीं अपनी झलक दिखाई देती है,वो इसलिए कि जवानी के दिनों में वे भी ऐसे ही हुआ करते थे,लोगों की मदद करने वाले,निर्भय और हाजिरजवाब.....
लेकिन फिर वक्त ने करवट ली और उनका जीवन बदल गया,उनकी आशाएँ और इच्छाएंँ उनके मन के किसी कोने में दबीं रह गईं,वे जिन्दगी को जिस नजरिए से देखते थे तो उस नजरिए का रुख ही बदल गया और ये सब हुआ उनके पिता की वजह से,कहा जाएँ उन्होंने शिवनन्दन जी के जीवन का प्रवाह किसी ओर दिशा में मोड़ दिया,शिवनन्दन जी जैसी जिन्दगी जीना चाहते थे वैसी जिन्दगी वे कभी जी ही नहीं पाएँ और फिर पिता की बात मानकर उन्होंने अपनी जिन्दगी से समझौता कर लिया,जिम्मेदारियों के बोझ तले दबकर रह गई उनकी ख्वाहिशें,अधूरी ख्वाहिशों और अपने मनमुताबिक जिन्दगी ना जी पाने कारण वे सख्त होते चले गए और उनका सख्तपना वैसे का वैसा अब भी बरकरार है.....
उनकी कपड़ो की मिले हैं,बरतनों की फैक्ट्रियाँ हैं,जिन्हें उनके दोनों बड़े बेटे देवराज और प्रयागराज सम्भालते हैं,गाँव में दादा परदादाओं की जमीनें और बहुत आलीशान खूबसूरत हवेली भी है,जहाँ शिवनन्दन सिंह जी कभी कभी अपने परिवार के साथ छुट्टियांँ मनाने जाते हैं,उनकी दोनों बहूएँ भी आ चुकी हैं,बड़ी का नाम सुरबाला और छोटी का नाम गोपाली है,दोनों बहूएँ वे बहुत ही गरीब घरों से लाएँ हैं,उनका मानना है कि गरीब घर की लड़कियाँ दबी रहतीं हैं,ऊँची आवाज़ में बात नहीं करतीं,बड़ो का मान सम्मान और आदर भी करतीं हैं और सबसे बड़ी बात घर के कामों में भी निपुण होतीं हैं,उनकी एक ही बेटी है जो सभी भाइयों में सबसे छोटी है और उसका नाम सुहासिनी है,घर की मालकिन यानि की शिवनन्दन जी की पत्नी,जो सिर्फ़ कहने के लिए ही घर की मालकिन हैं,बाक़ी घर पर राज तो शिवनन्दन जी का ही चलता है,नलिनी बेचारी तो अपने पति शिवनन्दन जी के नक्श-ए-कदम पर चलती है और कभी उफ़ भी नहीं करती......
उसकी आँखों में सबके लिए ममता और स्नेह दिखाई देता है,वो दोनों बहूओं की कही बातों को भी कभी भी अपने दिल से नहीं लगाती,बस सबकी सुनती है और जब कभी उसका मन भर जाता है तो अपने छोटे बेटे जयन्तराज से अपने मन की बातें कर लेती है,लेकिन जयन्त को अपनी माँ का ये भोलापन फूटी आँख भी नहीं सुहाता,वो चाहता है कि उसकी माँ उसकी ही तरह विद्रोही और अपने अधिकार माँगने वाली बन जाएँ ,जो शायद नलिनी के लिए इस जन्म में तो मुमकिन ही नहीं है,उसके लिए पति की आज्ञा ही सर्वोपरि है,वो उनके विरुद्ध कभी भी नहीं जाना चाहती और शायद उसने अपने चारों ओर एक दायरा खींच लिया है,जिसके बाहर वो कभी भी नहीं निकलती,मूक बछिया सी वो उसी खूँटे से बँधी रहना चाहती है जो खूँटा शिवनन्दन जी ने उसके लिए गाड़कर रखा है.....
सुबह का वक्त.....
सभी आकर नाश्ते की टेबल पर नाश्ता करने के लिए इकट्ठे हुए हैं,दोनों बहूएँ सुरबाला और गोपाली रसोईघर में गरमागरम नाश्ता बना रहीं हैं और नलिनी सभी को नाश्ता परोस रही है और तभी नाश्ते की टेबल पर जयन्त आकर बैठ गया और जब उसने अपनी माँ नलिनी को नाश्ता परोसते हुए देखा तो वो उनसे बोला....
"माँ! घर में इतने नौकर हैं,तो तुम क्यों नाश्ता परोसती हो"
"हमारे घर में हमेशा ऐसा ही होता आया है और ऐसा ही होता रहेगा",शिवनन्दन जी बोले....
"लेकिन क्यों? क्या माँ को अधिकार नहीं है हम सभी के साथ बैठकर नाश्ता करने का",जयन्तराज बोला....
"नहीं! हमारे घर की स्त्रियाँ पुरूषों के खाने के बाद ही खातीं हैं",शिवनन्दन सिंह बोले....
"लेकिन क्यों? मैं पूछता हूँ कि ऐसे नियम आखिर बनाएँ किसने,हम पुरूषों ने ही ना! हमारा समाज हमेशा पित्रसत्तात्मक रहा है और हम अब भी उन्हीं रुढ़िवादी नियमों को मानते चले आ रहे हैं,लेकिन अब इसमें सुधार होना चाहिए,आखिर स्त्रियों को उनके अधिकार कब मिलेगें",जयन्तराज बोला....
"तो उठा लो पताका और पहरा दो सारी दुनिया में,सबसे ये भी कहते फिरो कि अब से इस दुनिया पर स्त्रियों का शासन चलेगा",शिवनन्दन जी बोले...
"मेरा वश चले तो मैं यही करने लग जाऊँ ,लेकिन क्या करूँ मजबूर हूँ",जयन्त बोला....
"ओहो....अब तुम समाज और उसके नियम बदलोगे",शिवनन्दन जी बोले....
"हाँ! देखना एक ना एक दिन जरूर बदलकर रहूँगा इस समाज और उसके नियमों को"जयन्त बोला...
"तू कभी कोई ढंग की बात नहीं कर सकता क्या?"बड़े भाई देवराज ने कहा....
"बड़े भइया! मैं हमेशा ढंग की बात ही करता हूँ लेकिन शायद बाबूजी को मेरी बात समझने में गलती होती है",जयन्त बोला....
"बतमीज! ये कैंसी बातें करता है",मँझला भाई प्रयागराज बोला....
"हाँ! मैं बतमीज हूँ,आप दोनों की तरह समझदार नहीं हूँ,तभी तो मेरी बातें हमेशा बेतुकी होतीं हैं"
और ऐसा कहकर जयन्त टेबल से उठकर अपने कमरे में चला गया,उसका जाना नलिनी को तनिक ना भाया ,लेकिन वो अपने पति के सामने कुछ भी ना बोल सकी बस मन मसोसकर रह गई.....
अकसर ऐसा ही होता है,सुबह नाश्ते की टेबल या रात के खाने की टेबल पर,जयन्त और शिवनन्दन जी की किसी ना किसी बात पर बहस हो जाती है और जयन्त अकसर भूखा ही उठकर चला जाता है, फिर नलिनी अकसर जयन्त के कमरे में खाना लेकर पहुँचती है और उसे समझा बुझाकर खाना खिला देती है,लेकिन आज ऐसा ना हो सका,जब तक नलिनी जयन्त के कमरें में नाश्ता लेकर पहुँची तो तब तक वो अपनी साइकिल से काँलेज के निकल चुका था.....
और वो नाश्ते की ट्रे वैसी की वैसी वापस लेकर लौट आई....
क्रमशः....
सरोज वर्मा....