Shrimad Bhagwat Geeta Meri Samaj me in Hindi Spiritual Stories by Ashish Kumar Trivedi books and stories PDF | श्रीमद्भगवद्गीता मेरी समझ में - अध्याय 14

Featured Books
Categories
Share

श्रीमद्भगवद्गीता मेरी समझ में - अध्याय 14


अध्याय 14

गुण त्रय विभाग योग


पिछले अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने बताया था कि क्षेत्र अर्थात शरीर प्रकृति से उत्पन्न है। जबकि क्षेत्रज्ञ आत्मा ईश्वर का अंश है। प्रकृति से उत्पन्न होने के कारण शरीर उसके गुणों से प्रभावित होता है। जिसके कारण धीरे धीरे दुर्बल होकर उसका अंत हो जाता है। जबकि आत्मा ईश्वर का अंश होने के कारण अविनाशी है। प्रस्तुत अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने प्रकृति के तीनों गुणों के बारे में बताया है।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि अब मैं तुम्हें वह ज्ञान दूँगा जो परम उपयोगी है। जो इस ज्ञान को आत्मसात करते हैं वह मेरी शरण में आते हैं। वो सृष्टि के समय न तो पुनः जन्म लेंगे और न ही प्रलय के समय उनका विनाश होगा।
हे भरतवंशी अर्जुन ये जड़ प्रकृति गर्भ के समान है। मैं परम चेतना इसके भीतर बीज रोपित करता हूँ। जड़ और चेतन के संयोग से सृष्टि का निर्माण होता है। इस प्रकार हे कौंतेय प्रकृति सभी योनियों में जन्म लेने वाले प्राणियों की माता है और मैं सभी का बीज प्रदान करने वाला पिता हूँ।
प्रकृति सत्व, रजस और तमस तीन गुणों से निर्मित है। ये गुण अविनाशी आत्मा को नश्वर शरीर के बंधन में डालते हैं।
सतगुण अच्छाई का गुण है। शुद्ध होने के कारण ये प्रकाश प्रदान करने वाला और पुण्य कर्मों से युक्त है। यह आत्मा में सुख और ज्ञान के भावों के प्रति आसक्ति उत्पन्न कर उसे बंधन में डालता है।
रजोगुण की प्रकृति मोह है। इसके प्रभाव में मनुष्य सांसारिक आकांक्षाओं और आकर्षणों के प्रति आकर्षित होता है। अपने कर्मों के प्रति आसक्ति के माध्यम से आत्मा को कर्म के प्रतिफलों में बांधता है।
अज्ञानता के कारण तमोगुण उत्पन्न होता है। ये मनुष्य को मोह माया में फंसाता है। ये जीवों को असावधानी, आलस्य और निद्रा द्वारा भ्रमित करता है।
हे अर्जुन सतोगुण मनुष्य को सांसारिक सुखों में बाँधता है। रजोगुण मनुष्य को सकाम कर्म में बाँधता है और तमोगुण मनुष्य के ज्ञान को ढंक कर प्रमाद में बाँधता है।
ये तीनों गुण मनुष्य को अपने बंधन में बांधकर रखते हैं। इनकी मात्रा और उसका प्रभाव अलग अलग हो सकता है। कभी सतोगुण प्रभावशाली रहता है। तब रजोगुण और तमोगुण का प्रभाव कम हो जाता है। कभी महत्वाकांक्षा के प्रभाव में रजोगुण हावी हो जाता है। जब अज्ञानता और मोह अधिक प्रभावशाली होते हैं तब तमोगुण की प्रमुखता होती है।
जिस समय नौ द्वारों (दो आँखे, दो कान, दो नथुने, मुख, गुदा और उपस्थ) वाले शरीर रूपी महल में ज्ञान का प्रकाश उत्पन्न होता है, उस समय सतोगुण की प्रधानता होती है।
रजोगुण लोभ को जन्म देता है। मनुष्य अपने कर्म द्वारा इच्छित वस्तु को पाने का प्रयास करता है। मन की चंचलता के कारण विषय भोगों को भोगने की अनियन्त्रित इच्छा बढ़ने लगती है।
अपने नियत कर्मों को न करने की प्रवृत्ति, पागलपन की अवस्था और मोह के कारण न करने योग्य कार्य करने की प्रवृत्ति बढ़ने पर तमोगुण प्रभावी होता है।
सतोगुण के प्रभाव में मृत्यु को प्राप्त होने वाला स्वर्ग जाता है। रजोगुण की वृद्धि होने पर मृत्यु को प्राप्त होने वाला सकाम कर्म करने वाले मनुष्यों में जन्म लेता है। तमोगुण के प्रभाव में मृत्यु को प्राप्त मनुष्य पशु-पक्षियों आदि निम्न योनियों में जन्म लेता है।
तीनों गुणों के प्रभाव में किए गए कर्मों के फल भी अलग अलग होते हैं। सतोगुण में किए गए कर्म का फल सुख और ज्ञान युक्त निर्मल होता है। इससे ज्ञान मिलता है। रजोगुण में किए गए कर्म का फल दुख देने वाला होता है क्योंकि ये लोभ को जन्म देता है। तमोगुण में किए गए कर्म से प्रमाद और मोह बढ़ता है। इसका फल अज्ञान कहा जाता है।
जब कोई मनुष्य ये जान लेता है कि समस्त कर्म प्रकृति के तीन गुणों से प्रभावित हैं प्रकृति ही कर्ता है। उसके भीतर की आत्मा इन कर्मों से अप्रभावित सिर्फ एक दृष्टा है तो ऐसा मनुष्य तीनों गुणों से ऊपर उठकर जन्म, मृत्यु, बुढ़ापे तथा सभी प्रकार के कष्टों से मुक्त होकर सद्गति प्राप्त करता है।

भगवान से तीनों गुणों के बारे में जानने के बाद अर्जुन ने कहा कि हे प्रभु जो व्यक्ति तीनों गुणों से ऊपर उठ जाता है उसे कैसे पहचाना जा सकता है? उसके क्या लक्षण होते हैं? तीनों गुणों से ऊपर किस प्रकार उठा जा सकता है?
श्री भगवान ने अर्जुन की जिज्ञासा शांत करते हुए कहा कि जो मनुष्य ईश्वरीय ज्ञान रूपी प्रकाश सतोगुण, कर्म करने में आसक्ति रजोगुण तथा मोह रूपी अज्ञान तमोगुण के बढने पर भी अप्रभावित रहता है। जो उनसे घृणा नहीं करता है तथा समान भाव में स्थित होकर न तो उनमें प्रवृत ही होता है और न ही उनसे निवृत होने की इच्छा ही करता है। उदासीन भाव में स्थित रहकर किसी भी गुण के प्रभाव से विचलित नही होता है।
जो आत्म-भाव में स्थित रहते हुए सुख और दुख में समान रहता है। मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण को एक समान समझता है। जिसके लिए न तो कोई प्रिय होता है और न ही अप्रिय होता है तथा जो निंदा और स्तुति में अपना धीरज नहीं खोता है। वह तीनों गुणों से परे होता है।
मान और अपमान को समान भाव से लेने वाला, मित्र और शत्रु के पक्ष में समान भाव से रहने वाला, तथा जिसमें सभी कर्मों के करते हुए भी कर्तापन का भाव नही होता है, ऎसे मनुष्य को प्रकृति के गुणों से अतीत कहा जाता है।
जो मनुष्य हर परिस्थिति में बिना विचलित हुए अनन्य भाव से मेरी भक्ति में स्थिर रहता है वह भक्त प्रकृति के तीनों गुणों को अति शीघ्र पार करके ब्रह्म पद पर स्थित हो जाता है।
उस अविनाशी ब्रह्म पद का मैं ही अमृत स्वरूप, शाश्वत स्वरूप, धर्म स्वरूप और परम-आनन्द स्वरूप एकमात्र आश्रय हूँ।


अध्याय की विवेचना

भगवान ने इस सृष्टि की तुलना उस गर्भ से की है जिससे सभी प्राणियों का जन्म होता है। लेकिन प्रकृति तो जड़ है। जड़ से जीवन का आरंभ कैसे हो सकता है? भगवान श्रीकृष्ण जो परम चेतना हैं उन्होंने कहा कि प्रकृति रूपी गर्भ में जीवन के बीज को मैं स्थापित करता हूँ। मैं सभी प्राणियों का पिता हूँ।
सभी जीवधारी ईश्वर की संतानें हैं। हमारा लक्ष्य अपने पिता का सानिध्य प्राप्त करना है। पर हम प्रकृति के गर्भ से जन्म लेते हैं जिसके कारण उसके गुणों के प्रभाव में आ जाते हैं। प्रकृति के गुण हमें बांधने का काम करते हैं।
प्रकृति के तीन प्रमुख गुण हैं जिन्हें सत्व, रजस एवं तमस कहा जाता है। हर जीव इन गुणों से प्रभावित होता है। उसके भीतर जिस गुण की प्रधानता होती है उसके अनुसार ही कर्म करता है।
जो व्यक्ति उत्तम विचारों के होते हैं। जिनके भीतर ज्ञान अर्जन की पिपासा होती है वो सतगुण से प्रभावित होते हैं। वह समाज की भलाई हेतु कार्य करते हैं। सतगुण से प्रभावित व्यक्ति के कर्म शुभ फल प्रदान करने वाले होते हैं। मृत्यु के बाद सतोगुण से प्रभावित व्यक्ति स्वर्ग जाता है।
साधु संत, समाज सुधारक एवं दूसरों का हित चाहने वाले सतोगुण के प्रभाव में होते हैं। ऐसे लोग सदैव समाज और धर्म की भलाई के काम करते हैं। उनका आचरण निर्मल होता है। दूसरों के सुख में सुखी होते हैं। वंचित और दुखी लोगों के कष्ट दूर करने का प्रयास करते हैं।
बहुत से मनुष्य ऐसे होते हैं जिनमें दुनिया को जीत लेने की इच्छा होती है। ऐसे लोग अपने पुरुषार्थ के दम पर दुनिया के सभी सुख और ऐश्वर्य को पाने की क्षमता रखते हैं। उनके भीतर कठिन परिश्रम करने व कठिनाइयों से लड़ने का अदम्य साहस होता है। ऐसे लोग रजोगुण के प्रभाव में होते हैं। अपने दृढ़ संकल्प से असंभव को भी संभव कर दिखाते हैं। पर ऐसे मनुष्य अपने कर्म एवं उसके फल के प्रति आसक्त होते हैं। पृथ्वी पर सुखों का भोग करते हैं। मरने के बाद उच्च लोकों में जाते हैं।
जब मनुष्य आलस्य के चलते अपने नियत कर्म करने से भी जी चुराता है। जिसे अकर्मण्यता प्रिय होती है और अपनी और समाज की स्थिति से अनभिज्ञ रहता है। ऐसा मनुष्य तमोगुण के प्रभाव में होता है। तमोगुणी व्यक्ति जिस हाल में है उसी में रहता है। चाहे वो कितना भी बुरा क्यों न हो उससे उबरने का प्रयास नहीं करता। वह अज्ञानता के अंधेरे में सुख प्राप्त करता है। प्रमाद की स्थिति में सही गलत का फैसला नहीं कर पाता है। वह मोह माया से लिप्त रहता है। तमोगुण के प्रभाव में किए गए कर्म का फल अज्ञानता ही होता है। ऐसे मनुष्य निम्न योनियों में जन्म लेते हैं।
ऐसा नहीं है कि मनुष्य सदा एक ही गुण के प्रभाव में रहे। ऐसा हो सकता है कि सतगुणी व्यक्ति पर रजस या तमस प्रभावी हो जाए। इसी प्रकार रजोगुण से प्रभावित व्यक्ति सतोगुण या तमोगुण के प्रभाव में आ जाए। मनुष्य पर जो भी गुण प्रभावी होगा वह उसके अनुरूप ही कर्म करता है।
साधारण मनुष्य प्रकृति के तीन गुणों के प्रभाव में रहता है। पर कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो इन तीनों गुणों से प्रभावित नहीं होते हैं। ऐसे ज्ञानी व्यक्ति हर स्थिति में समभाव रखते हैं। शत्रु और मित्र का भेद नहीं करते हैं। उनके लिए प्रिय अप्रिय का भेद नहीं होता है। मिट्टी और सोने को एक समान समझते हैं। वो न तो सुख पाकर उत्साहित होते हैं और न ही दुखों से विचलित होते हैं। हानि लाभ, मान अपमान की परवाह किए बिना सदैव ईश्वर के चरणों में अपना ध्यान लगाते हैं। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ऐसे मनुष्य मुझमें आश्रय प्राप्त करते हैं।


हरि ॐ तत् सत्