27
“गुल, आज मैं तुम्हें मंदिर ले चलता हूँ। तुम चलोगी मेरे साथ?”
“क्या तुम मुझे उस मंदिर ले चलोगे?” गुल ने दूर कृष्ण के मंदिर की तरफ़ संकेत करते हुए पूछा।
“मुझे उस मंदिर ले चलो। जब से उस मंदिर को देखा है तब से मेरा मन कर रहा है उसे देखने को। चलो चलें?”
“गुल, चलते हैं। किंतु उस मंदिर नहीं, हम दूसरे मंदिर जा रहे हैं।”
“दूसरा मंदिर? किस मंदिर की बात कर रहे हो।”
“तुम चलो तो मेरे साथ। मैं तुम्हें एक ऐसे मंदिर में ले चलता हूँ जो समुद्र के भीतर है।”
“किंतु मुझे तो कृष्ण का वही मंदिर देखना है।” गुल ने पुन: उस भव्य मंदिर की तरफ़ संकेत किया।
“गुल, वह भगवान द्वारिकाधीश का मंदिर है, जो द्वारका नगरी में है। तुम्हें ज्ञात है कि हम समुद्र तट पर हैं, जो मंदिर से दूर है। अभी वहाँ नहीं जा सकते।”
“तो कब जा सकते हैं? आज नहीं तो कल जा सकते हैं? तुम मुझे वहाँ ले चलोगे केशव?”
“उस द्वारकाधिश के मंदिर जाने का मेरा भी मन है। किंतु ना जाने क्यूँ कोई मुझे रोक रहा है।”
“क्या गुरुकुल तुम्हें रोक रहा है? अथवा कुलपति जी रोक रहे हैं?”
“गुरुकुल के सभी सहपाठी वहाँ जाते हैं। कुलपति जी भी मुझे वहाँ जाने को प्रेरित कर रहे हैं।”
“तो समस्या क्या है? अन्य कौन रोक रहा है तुम्हें वहाँ जाने से?”
“मेरा मन ही नहीं होता है उस द्वारिकाधीश का दर्शन करने को। कोई है जो मुझे रोक रहा है।”
“कौन है वह?”
“स्वयं भगवान द्वारिकाधीश। यह कृष्ण, यह वासुदेव, यह मुरलीधर स्वयं मुझे रोक रहा है, गुल।”
“केशव, तुम मेरा उपहास कर रहे हो?”
“ऐसा तुम्हें क्यूँ लग रहा है?”
“जिसे तुम ईश्वर कहते हो, सारा विश्व उसे भगवान मान्यता है, जो मंदिर में मूर्ति बन खड़ा है वह कृष्ण स्वयं तुम्हें उसके दर्शन के लिए आने से रोक रहा है? यह बात उपहास नहीं तो और क्या है? क्या कोई ईश्वर किसी को रोकता है कभी? क्या कोई मूरत कभी ऐसा कर सकती है? केशव, तुम उपहास करना छोड़ दो और मुझे मंदिर ले चलो अथवा कह दो कि तुम मुझे वहाँ नहीं ले जाना चाहते हो।” गुल ने अपनी अप्रसन्नता प्रकट की, क्रोध भी।
“तुम्हारा क्रोध, तुम्हारी अप्रसन्नता उचित है गुल। किंतु मैं सत्य कह रहा हूँ।”
“तुम्हारा नाम केशव ही है ना?”
“मेरे नाम पर संदेह?”
“कृष्ण के अनेक नाम है। उसे श्याम भी कहते हैं। उसे केशव भी कहते हैं।”
“ओह, यह तो मैं भूल ही गया था। केशव भी कृष्ण का ही नाम है।”
“सुना हैं कृष्ण बड़ा ही चालाक था। कहीं कहीं तो वह कपट भी कर लेता था। तुम भी तो कहीं ...।”
“नहीं गुल। मैं कोई कपट नहीं कर रहा। कृष्ण का व्यक्तित्व अत्यंत विशाल है। उसे केवल कपटी कहना ही उचित नहीं है।”
“कृष्ण का चरित्र तुम्हें कितना ज्ञात है, केशव? मुझे उसके चरित्र के विषय में कहो। मुझे उसका चरित्र आकर्षित कर रहा है।”
“कदाचित अंश मात्र भी नहीं जान सका हूँ उस महानायक के चरित्र को। वह विराट है, मैं वामन हूँ। वह व्यापक है, मैं पामर। उसका चरित्र मुझे भी आकर्षित कर रहा है, वर्षों से। मैं वर्षों से इस चरित्र का अध्ययन करने का यत्न कर रहा हूँ किंतु विफल ही रहा हूँ। जब तक मैं उस चरित्र से पूर्ण रूप से परिचित नहीं हो जाता, मैं उस मंदिर में नहीं जा सकता।”
“अर्थ तो यही निकलता है कि तुमने कृष्ण को पढ़ा है, समझा भी है। हो सकता है तुम्हारा यह यत्न अपूर्ण हो। किंतु कुछ तो मुझसे अधिक ज्ञान रखते हो तुम कृष्ण के विषय में।”
“गुल, अपूर्ण ज्ञान तो अज्ञान से भी अधिक भयावह होता है। वह हमें मार्ग से भटका देता है।”
“तो पूर्ण ज्ञान किससे मिलेगा? मुझे भी इस पूर्ण ज्ञान में रुचि हो रही है। क्या गुरुजी हमें यह ज्ञान नहीं दे सकते?”
“मैंने यह प्रयास भी कर देख लिया। मैंने गुरुजी से यही आग्रह किया था।”
“तो उन्होंने क्या कहा?”
“जब मैंने उसे ऐसा आग्रह किया तो वह कुछ नहीं बोले। लम्बे समय तक मौन हो गए। मैं उनके उत्तर की प्रतीक्षा करता रहा किन्तु वह मौन ही रहे। किसी गहन विचार में डूब गए थे वह। मैंने भी मन बना लिया था कि जब तक वह हां नहीं कहते मैं भी वहीं खड़ा रहूँगा, प्रतीक्षा करता रहूँगा।”
“तो क्या वह मान गए? वह क्या बोले?”
“लम्बे समय पश्चात जब उसकी विचार यात्रा सम्पन्न हुई तो उसने अपने नेत्र खोले। मुझे अपने सम्मुख पाते ही वह चकित हो गए। मेरे मुख पर वही प्रश्न था जिसका वह उत्तर नहीं दे रहे थे।”
“उसने क्या कहा? क्या किया?”
“वह बोले –
‘वत्स, जिस ज्ञान को मैंने प्राप्त नहीं किया उसे मैं नहीं दे सकता। तुम्हें स्वयं ही उसे पाना होगा।’
इतना कहते हुए वह उठ कर चले गए। मैं वहीं खड़ा रहा, सोचता रहा। जब भोजन का समय हुआ तो एक सहपाठी मुझे भोजन कक्ष ले गया।”
“तो तुमने क्या किया?”
“तब से मैं स्वयं ही उस ज्ञान के मार्ग पर चलने का अभ्यास कर रहा हूँ।”
“तो क्या तुम मुझे भी उस मार्ग पर अपने साथ चलने की अनुमति देते हो?”
“क्या तुम्हें भी कृष्ण के चरित्र में रुचि है?”
“हमारे मदरसा में अन्य धर्म की बातें नहीं बताई जाती है, ना सिखाई जाती है। किंतु जब से मुझे उस मंदिर का आकर्षण हुआ है तब से मुझे उस भगवान ने भी आकर्षित किया है। एक दिवस मैंने तात को भी पूछा। उसने मुझे गुरुकुल से एक पुस्तक लाकर दिया। उसमें कृष्ण का बाल चरित्र है। मैं उसे पढ़ती गई, मेरी रुचि बढ़ती गई। यह रुचि अब तीव्र हो गई है। क्या तुम मेरी सहायता करोगे?”
“सहायता तो तुम्हें स्वयं करनी होगी। किंतु हम इस मार्ग पर साथ साथ चल सकते हैं।”
“कितनी दूर तक? क्या हमें हमारा लक्ष्य मिलेगा?”
“दोनों प्रश्नों के उतर से मैं अनभिज्ञ हूँ।”
मौन हो गया केशव। समुद्र की ध्वनि को सुनता रहा। गुल केशव के मौन भंग की प्रतीक्षा करने लगी।
“तो हम मंदिर चलें?” केशव ने मौन भंग किया। वह चलने लगा।
“मंदिर तो नगर की तरफ़ है, तुम किस दिशा में जा रहे हो?”
केशव चलता रहा, गुल उसके पीछे चलती रही। केशव रुक गया। गुल भी।
केशव ने स्मित के साथ कहा,” गुल, समुद्र के भीतर उस मंदिर को देखो।” केशव ने हाथ से मंदिर की दिशा में संकेत किया। गुल ने उसे देखा।
समुद्र तट से, समुद्र के भीतर, तीन सौ मीटर दूर एक मंदिर दिखाई दिया। एक श्वेत धजा समुद्र की पवन से मंद मंद लहरा रही थी। तट तथा मंदिर के मध्य समुद्र का पानी था।
“समुद्र के भीतर मंदिर! यह तो अद्भुत है। किसका मंदिर है यह? क्या यह भी कृष्ण का मंदिर है?”
“नहीं, यह महादेव का मंदिर है। भगवान शिव का मंदिर है।”
“यहाँ तो पानी है। उस मंदिर तक इस समुद्र को पार कर कैसे जाएँगे?”
“तुम उस मंदिर में जाना चाहती हो?”
“अवश्य। किंतु कैसे जाऊँगी? क्या कोई अन्य मार्ग है? मुझे उस मंदिर में ले चलो केशव।”
“अन्य कोई मार्ग तो नहीं है। यदि पानी के मार्ग को पार करने का साहस हो तो हम मंदिर तक जा सकते हैं।”
“मुझे भय लगता है।”
“समुद्र की बेटी को समुद्र से भय कैसा?”
“समुद्र की बेटी? मैं?”
“जिसका जन्म समुद्र के तट पर हुआ हो, जिसका बालपन इसी तट पर बिता हो, जिसका तारुण्य समुद्र की तरंगों के साथ व्यतीत हो रहा हो, जिसके यौवन की प्रतीक्षा स्वयं यह सागर कर रहा हो, उसे समुद्र की बेटी ही कहना उचित होगा ना?”
“इस दृष्टि से तो मैं समुद्र की बेटी ही हूँ।” गुल के मुख पर आत्म विश्वास की रेखाएँ प्रकट हो गई।
“मैं साहस रखती हूँ इस समुद्र को पार करने का।”
दोनों उतर पड़े समुद्र के भीतर। तट के समीप पानी गहरा न था। समुद्र की लहरें तट पर आते आते मंद हो जाती थी। दोनों उसे पार करते आगे बढ़े। धीरे धीरे समुद्र की गहराई बढ़ने लगी। लहरों का बल बढ़ने लगा। दोनों स्वयं को सम्भालते हुए आगे बढ़ने लगे।
दोनों मध्य से भी अधिक मार्ग पार कर चुके थे। पानी कटी से ऊपर आ गया था। एक एक चरण सम्भालकर चल रहे थे। समुद्र की तरंग आती थी, संतुलन पर प्रहार करती थी। प्रयत्न से दोनों संतुलन बनाए रखते थे, आगे बढ़ते रहते थे। केशव आगे था, गुल पीछे।
एक बड़ी तीव्र तरंग आयी। केशव को असंतुलित कर गई। वह गिर गया। तरंग के साथ तट की तरफ़ प्रवाहित होने लगा। केशव तथा तट के बीच गुल थी। उसने तट की तरफ़ बहते केशव के लहराते उपवस्त्र को पकड़ लिया। केशव की गति रुक गई। वह सम्भल गया, उठा। साहस जुटाया। चल पड़ा मंदिर की तरफ़। गुल भी।
मंदिर के समीप एक बड़ी शिला थी। दोनों वहाँ तक आ गए। दोनों ने शिला को पकड़ लिया। कुछ समय तक दोनों वैसे ही खड़े रहे। समुद्र की तरंगें आती थी, दोनों पर प्रहार करती थी। दोनों उससे बचते थे। तरंगें परास्त होकर तट की तरफ़ चली जाती थी। गुल ने केशव की तरफ़ देखा। केशव ने उसके मुख मण्डल पर जन्मे प्रश्नों को पढ़ लिया।
“कुछ समय तक हमें ऐसे ही रहना है। मैं इस शिला पर चढ़ने का प्रयास करता हूँ। तुम इस शिला को पकड़े रहना।”
केशव ने शिला का निरीक्षण किया। एक तरफ़ से प्रयास करते हुए वह शिला पर चढ़ गया। उसने गुल को हाथ दिया। गुल भी शिला पर आ गई।
“यह स्थान सुरक्षित है।”
“किंतु मंदिर कैसे जाएँगे?” गुल ने समुद्र की जलराशि को देखते हुए कहा।
“गुल, पीछे देखो। हम मंदिर तक आ गए हैं।”
गुल ने पीछे देखा। शिला मंदिर से जुड़ी हुई थी। सम्मुख मंदिर था।
“ओह। हम मंदिर आ गए।“ गुल के मुख पर एक नूतन आभा थी। किसी लक्ष्य की प्राप्ति की प्रसन्नता थी, विजय का उल्लास था।
“इन शिलाओं के मार्ग पर कुछ चरण चलते ही भगवान शिव के दर्शन हो जाएंगे। मंदिर की तरफ़ चलें?” केशव ने गुल से कहा जो किसी अन्य विचारों में थी।
गुल समुद्र को देख रही थी।
‘इतना विशाल समुद्र, इतनी अथाह जल राशि। कभी ऐसा नहीं देखा। यह तो मेरे लिए अज्ञात ही था। दूर दूर तक जल के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।’
वह समुद्र की तरंगों को देखती रही। वह अनिमेष दृष्टि से देखती रही। केशव ने उसे देखा। गुल की तन्मयता को देखता रहा, अनुभव करता रहा। गुल के मुखमंडल पर उठते भावों को वह निहारता रहा। उन भावों में एक अदम्य मुग्धता थी, अदम्य विस्मय था, कौतुक था, कुतूहल भी था। भावों का वह मिश्रण अद्भुत था, अनन्य था, अवर्णनीय था, असीमित था।