pathreele kanteele raste in Hindi Fiction Stories by Sneh Goswami books and stories PDF | पथरीले कंटीले रास्ते - 16

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पथरीले कंटीले रास्ते - 16

 

पथरीले कंटीले रास्ते 

 

16

 

खाने में आज कढी चावल बने थे । सबको चावल के साथ तीन तीन रोटी मिली । बाकी कैदी बाहर को चले तो वह भी रोटी डलवा कर बाहर पेङ के नीचे आ गया । पेङ की पत्तियां और डालियाँ थोङी थोङी देर में हिलती तो हवा का झोंका बदन को छू जाता । उसने खाना शुरु किया ही था कि प्लास्टिक का चम्मच पहले ग्रास में ही टूट कर दो टुकङे हो गया । वह बेबस सा इधर उधर देखने लगा । आसपास कई कैदी हाथों से खा रहे हैं । उंगलियाँ चाट रहे हैं । उसे हाथ से खाने का अभ्यास नहीं है । उसने अपने सारे चावल साथ बैठे कैदी को दे दिये । कैदी प्रसन्न हो गया । आज उसे कैंटीन से कुछ खरीद कर नहीं खाना पङेगा । उसने आभार भरी नजरों से रविंद्र को देखा -
तुम चावल नहीं खाते
खा लेता हूँ पर चम्मच के बिना नहीं । यहाँ स्टील के चम्मच नहीं मिलते क्या ?
उसने सोचा कि इस बार पापा मुलाकात के लिए आए तो बाकी जरुरत के सामान के साथ दो चम्मच जरूर मंगवा लेगा फिर उसे खाना खाने में परेशानी नहीं होगी । अभी वह यह सब सोच ही रहा था कि कैदी ने अपनी छोटी छोटी आँखों से उसका चेहरा देखा और लापरवाही से कहा – पहले कभी मिलते होंगे । अब नहीं मिलते । सुना है, कैदी उन्हें घिसघिसा कर चाकू से भी तीखा कर लेते थे और जब कहीं लङाई होती थी तो सामने वाले के  पेट में घोंप देते थे ।
ऐसा ? चम्मच का भी हथियार बन सकता है ? ऐसा कैसे हो सकता है ? 
पर उस आदमी ने इस बात का कोई उत्तर नहीं दिया तो वह चुपचाप खाने में व्यस्त हो गया । खाते खाते सहसा उसे याद आया – तूने अपने सारे चावल मुझे दे दिये , रोटी लेगा क्या ? 
नहीं मेरे लिए इतनी रोटी काफी हैं ।
वह संतुष्ट हो गया और फिर से चटखारे लेकर खाने लगा ।
रोटी खत्म करके उन्होंने झाङू लेकर आँगन बुहारना शुरु किया । कुछ लोग नल चला रहे थे । कुछ लोग पानी छिङकने लगे । करीब दो ढाई घंटे की मेहनत के बाद आंगन साफ हो गया ।
कुछ लोग रसोई की साफ सफाई पर लगे थे । जबकि कुछ लोग बरतन साफ कर रहे थे ।
काम खत्म होते होते साढे चार बज गये थे । वार्डन ने उन सब का काम देखा ।
अब खेलना चाहोगे ?

उसने एक कैदी लङके को फुटबाल पकङा दिया । फुटबाल मिलते ही सब लोग जोश में आ गये । पाली बांध कर खेलने लगे । जो नहीं खेल रहे थे , वे खिलाङियों का हौंसला बढाने लगे । इस बीच समय कैसा बीता , पता ही नहीं चला । पता चला तब जब साढे पाँच बजे का घंटा बजने लगा । लोग खेल बंद करना नहीं चाहते थे पर नियम तो नियम है न । और अगर मनमर्जी करने की आजादी हो तो जेल क्या और जेल की जिंदगी क्या । 
सो मन मार कर उन्होंने गेंद वापस कर दी और हाजरी के लिए चल दिए ।
आसमान में लाली उतर आई थी । सूरज डूबने को हो आया । तो आज का एक और दिन बीत गया । दिन के ठीक ठाक बीत जाने का सुकून होना चाहिए था पर मन में एक डर उभरकर आ समाया है । नींद न आने का डर । करवट बदलते हुए बेचैनी में रात गुजरने का डर । उमङ उमङ कर आते यादों के काफिले का डर । एक और उदासियों से भरी सवेर के होने का डर । सूरज की बीमारशुदा पीली धूप की आमद का डर । रात होने में भी अभी काफी देर है । फिलहाल तो शाम ढलने वाली है । थोङी देर में रात की रोटी बँटने लगेगी । रोटी पूरी तरह से खाई जाए या न । घंटी बजते ही उसके बाद उसे अपनी बैरक में बंद हो जाना होगा । काली अंधेरी रात को साये उस पर अभी से हावी होने लगे हैं । जानें कौन शाम की देहरी पर उदास शामें छोङ जाता है । ऐसा लगता है , जैसे किसी ने वक्त को गहरे काले रंग की चादर ओढा दी हो । सब कुछ जैसे ठहर गया है । यह डर ,यह उदासी उसके जहन से कैसे जाएगी , कब जाएगी । यतन करता है कि इस डर से , इस उदासी से निजात पा सके । बाकी लोगों की तरह बेफिक्र हो कर रह सके । न भी हो सके , कम से कम बेफिक्र दिख ही सके पर वह बार बार नाकाम हो जाता है । उसे दिन में मिला वह झपटमार याद आया । कितनी निश्चिंतता से दोबारा जेल में आने की बात कर रहा था । जैसे जेल न हुई , उसकी ननिहाल हो गयी । जहाँ का हलवा पूरी खाने आना जरूरी हो ।

घंटी बजते ही वह अपनी जेल की कोठरी में जाकर चहलकदमी करने लगा । जब चलते चलते थक गया तो चबूतरे पर लेट गया । नींद तो इसनी जलदी कैसे आती । वह करवट बदलता रहा । 
करवटें बदल बदल कर जब थक गया तो उसने अपना ध्यान सुबह देखी फूलों की क्यारियों में केंद्रित करने की कोशिश की । वह उन गेंदे के फूलों के रूप रंग को याद करने की कोशिश करने लगा कि अचानक फूलों में से झांकती गुणगीत की चमकीली , चंचल आँखें दिखाई देने लगी । उसकी आँखों में आमंत्रण वाली शरारत भरी थी । बिल्कुल वैसी जैसी उसके चेहरे पर तब उभरती जब वह सहेलियों के साथ कालेज के गेट से बाहर निकलती और उसे मोङ पर खङा देख मुस्करा कर आगे बढ जाती थी । बिना कुछ बोले सब कुछ कह जाने वाली आँखें घूम घूम कर से ही देखा करती और वह निहाल हो जाता । बेख्याली में ही उसने उसे छूने के लिए हाथ बढा दिया । उसका बढा हुआ हाथ दीवार से जा टकराया था । एक दर्द की लहर उसकी उँगलियों से होती हुई कंधे तक चली गयी । वह बिलबिला गया । शायद थोङी देर के लिए वह नींद की झपकी लेने लगा था और सपने देखने लगा था । ये सपने इतने जालिंम क्यों होते हैं ?