Toronto (Canada) Travelogue - 9 in Hindi Travel stories by Manoj kumar shukla books and stories PDF | टोरंटो (कनाडा) यात्रा संस्मरण - 9

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टोरंटो (कनाडा) यात्रा संस्मरण - 9

पार्किंग पेड मशीनें


जहाँ पार्किंग की व्यवस्था है, वहाँ सड़क के किनारे ही अनेक पार्किंग पेड मशीनें कारपोरेशन की लगी रहतीं हैं। कार चालक उसमें नियमानुसार राशि डालते हैं और कूपन लेकर कार में अंदर पारदर्शी काँच के पास रख देते हैं। यह व्यवस्था प्रायः सभी सड़कों में भी लागू हैं। इसके लिए कोई कर्मचारी नहीं रखा जाता, न ही कोई वाहन स्टैंड की ठेकदारी व्यवस्था होती है। वाहन मालिकों से सीधे पार्किंग पेड मशीन के माध्यम से कारपोरेशन को आय हो जाती है। जुर्माने की रकम ज्यादा होने से सभी दिशा निर्देशों का पालन करते हैं। यहाँ की पुलिस चुस्त-दुरूस्त, फुर्तीले, ईमानदार और कानून के बड़े हिमायती वाले रहते हैं,सभी उनसे डरते हैं इसलिए लोग सरकारी कानूनों एवं नियमों का स्वतः ही पालन करते हैं।

साईकिलें रखना या चलाना यहाँ गुरबत की निशानी नहीं मानी जाती। मैंने देखा कि कुछ कार मालिक कार के पीछे साईकिल को हुक में फँसा कर लेकर चलते हैं। उपयुक्त स्थानों पर वे कार को पार्किंग में खड़ी करके साईकिल भी चलाते दिखे। साईकिल सुविधा और आने जाने का सुगम साधन है। अमीर गरीब सभी उसका उपयोग करते हैं। बसों और ट्रेनों के अंदर लोगों को साईकिल ले जाते देखा है। साईकिल वालों को चलने के लिए हर सड़कों में अलग से पथ बनाया गया है। जो कि सुरक्षित एवं निर्धारित जगह है। फुटपाथों के किनारों एवं पार्कों में साईकिल सुरक्षा के लिए गोलचक्रनुमा लोहे के पाईप से बने सुंदर साईकिल स्टैंड अक्सर दिखते हैं, जिनमें वे अपनी साईकिलों को लाक करके सुरक्षित रख सकते हैं। इसके लिए उन्हें कोई शुल्क नहीं चुकाना पड़ता है। साईकिलें नगर निगम द्वारा किरायेपर उपलब्ध दिखीं। मशीनों में शुल्क अदा कीजिए फिर आप उसका उपयोग कर सकते हैं। काम हो जाने के बाद किसी अन्य जगह में भी जमा कर सकते हैं।


सुरक्षित फुटपाथ

फुटपाथों पर लोगों का पूर्णतः सुरक्षित और बेफिक्री से आना जाना चलता रहता है। हर गली कूचे में सड़कों के दोनों ओर फुटपाथ अवश्य बने हुए हैं। इस पर लोग अपने छोटे बच्चों की चार पहियों वाली ट्राली एवं सामान लाने ले जाने के लिए दो पहियों की हाथ ट्रालियों का उपयोग करते नजर आते हैं। इसके लिए हर क्रासिंग पर फुटपाथों को इस तरह बनाया जाता है कि वे अपनी ट्रालियों को आसानी से चढ़ा व चला सकें। वृद्धजन या दिव्यांग बेटरी व्हील चेयर पर इन फुटपाथों पर आते जाते अक्सर दिखते नजर आते हैं। ट्रैफिक नियमों का पालन लोग स्वतः करते हैं। मुझे ट्रैफिक के सिपाही इक्कें दुक्के ही कहीं नजर आये। जो सीटी बजाते हुए लोगों को ट्रैफिक नियमों का पालन करने को विवश कर रहे हों। दूसरी सबसे विचित्र बात यह लगी कि दो पहिया,चार पहिया मालिकों के हार्न का शोरगुल भी व्यस्त सड़कों, बाजारों में भी सुनाई नहीं दिया। केवल दमकल, पुलिस या एम्बुलेंस की गाड़ियाँ अपने सायरन बजाते हुए जरूर दिखीं। जब ये निकलती हैं, तो आने जाने वाली सभी दिशाओं की गाड़ियाँ स्वतः रुक कर इनको पहले निकल जाने देतीं हैं। अगर आप पैदल सड़क क्रास कर रहे हैं और वहाँ सिगनल की व्यवस्था नहीं है, तो कार चालक आपके लिए गाड़ी स्वयं ही रोक देगा। जब तक आप सड़क पार नहीं कर लेते वह आगे नहीं बढ़ता। कई बार मेरे साथ पहिले आप, पहिले आप की स्थिति बनते दिखी है।नेशनल हाईवे में तीव्र गति से भागते वाहनों को देखा तो दुसरी ओर समानान्तर में उन पथों को भी देखा जो पैदल आने जाने के लिये भी बनाए गए थे।

ब्राम्टन के बारे में मैंने सुन रखा था कि यह हमारे भारतीयों का एक मिनी भारत है। जिसे देखने की मुझे बड़ी उत्सुकता थी। डा. विजय तिवारी किशलय जी ने टोरेन्टो शहर के कुछ मुझे मोबाइल नम्बर नोट करवाए थे। यहाँ आकर मैंने उन महानुभावों से फोन पर बातचीत की। उनसे मिलने की भी इच्छा जाहिर की थी। तो उन्होंने वेलकम किया और मुझे अपने घर के पते नोट करवाये। उन पतों के बारे में जब बेटे से जानकारी ली तो मालूम पड़ा। सभी पते हमारे निवास से ट्रेन से डेढ़ से दो घंटे की दूरी पर हैं। जिसमें मैंने तो उनसे मिलने की उम्मीद ही छोड़ दी थी। यहाँ पर रेल और बस का सफर बहुत ही अच्छा सुगम है। पर जब तक आपको सही जानकारी न हो, तो आपको यह सफर मुश्किल में भी डाल सकता हैसच बात यह है कि मैं गुमशुदा की तलाश में अपना नाम नहीं लिखवाना चाहता था। इससे मेरे बेटे की परेशानी बढ़ सकती थी।

‘‘विश्व हिन्दी संस्थान’’

डा. विजय तिवारी जी ने आते समय प्रोफेसर सरन घई जी का फोन नम्बर दिया था, उनकी संस्था ‘‘विश्व हिन्दी संस्थान’’ संस्था के द्वारा यहाँ 28 जून को कवि सम्मेलन की जानकारी मुझे थी। मैंने ई मेल भेजकर टोरेन्टो में अपनी उपस्थिति की जानकारी दी तो उन्होंने खुशी जाहिर की, सहर्ष ही उनका आमंत्रण ई मेल से मुझे मिल गया था। यह मेरे जैसे व्यक्ति के लिए कनाडा के टोरेन्टो शहर में हिन्दी कवि सम्मेलन में जाना एक तीर्थ स्थल में जाने के समान था। जहाँ एक ओर विदशों में बसे हमारे हिन्दी साहित्यकारों से मन में एक मुलाकात की जिज्ञासा थी, वहीं दूसरी ओर एक प्रकार से उनके साहित्य से हमें वाकिफ होना था। वे क्या लिखते हैं, क्या सोचते हैं। वे सब यहाँ वर्षों से इसकी माटी में रचे बसे थे। वे भारत के बारे अब क्या सोचते हैं। क्या उनकी संस्कृति में अब भी भारतीय संस्कृति रची बसी है। वे यहाँ पर कैसा महसूस करते हैं। यहाँ बसने से घर परिवार के रहन -सहन में क्या बदलाव आया है। वे क्या पहिनते हैं, क्या खाते पीते हैं। ढेर सारे प्रश्नों के जवाब की चाहत मन में दबी हुई थी।


मैं एक विजीटर के रूप में अपने बेटे के पास पाँच माह के लिए आया जरूर था। पिता के नाते मुझे बेटे-बहू और नवजात नाती से मिलने की चाहत तो थी ही दूसरी ओर एक साहित्यकार होने के नाते हमारे मन में सबसे बड़ी जो चाहत थी, वह यहाँ के साहित्यकारों से मिलना और यहाँ पर उनकी सभ्यता संस्कृति को नजदीक से देखना भी प्रमुख था। अपनी यात्रा के पूर्व मेरे मन में इन ढेर सारे सवालों के जवाब ढूढ़ने की तीव्र लालसा थी।

भारत आने के पूर्व हमारे देश के प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी के विदेशी यात्राओं में टोरेन्टो शहर का नाम भी शामिल था। जिस वजह से हमारे देश के टीवी चैनलों ने अपने अपने ढंग से जानकारियाँ देश के सामने परोस रहे थे। मैं उनको बड़े ध्यान से सुनता और देखता था। चाहे वह अमेरिका हो या कनाडा, सभी देशों से एक लगाव सा जुड़ गया था। मैं जीवन में कहीं गया तो नहीं, पर मुझे ऐसा लगता कि मैं जैसे यहाँ घूम के आ गया हूँ। यह वर्तमान में मोदी जी की विदेश यात्रा और टेलीविजन की नई टेकनिक द्वारा संभव हो सका है। हम घर बैठे सारे विश्व की संस्कृति का दर्शन कर सके। वहाँ की सभ्यता संस्कृतियों से मीडिया भाइयों ने काफी कुछ रूबरू करवा दिया था।

जब अचानक यहाँ आने का संयोग बना तो फिर जबलपुर से ही मन में संकल्पित भाव बना लिया था कि कम से कम यहाँ के साहित्यकारों से मिलने का जब भी सुखद संयोग हमें मिलेगा। उसे मैं हर हालत में नहीं चूकूँगा। दूसरी बात यह थी कि टोरेन्टो के ब्राम्टन में उस, मिनी भारत को देखने का एक अवसर जो हमें मिलने जा रहा था। मैं यह सोच कर ही बड़ा रोमांचित हो रहा था।

मैं मध्यम श्रेणी का हिन्दी मीडियम से पढ़ने वाला एक विद्यार्थी रहा हूँ । सन् 1967 में मैट्रिक पढ़ते समय ‘अंग्रेजी विरोधी’ आंदोलन के समय मेरी पढ़ाई हुई थी। तो उस समय के वातावरण का आप सहजता से अंदाजा लगा सकते हैं। टूटी फूटी अंग्रेजी से बैंक में सारी उम्र भारत में नौकरी कर ली थी। रिटायर भी हो गया था। मध्यम श्रेणी के अभावग्रस्त परिवेष में पढ़ा लिखा, मेरे जैसे व्यक्ति के लिए, वह भी कनाडा में अकेले घूमना, बगैर भूगोलिक जानकारी के लगभग असम्भव ही था। इसलिए मुझे बगैर वैशाखी के दूर आना जाना मुश्किल लग रहा था। प्रतिदिन चार- पाँच कलोमीटर आसपास के क्षेत्रों में तो अकेले ही घूमने की कोशिश कर रहा था पर दूर घूमने जाना मेरे बस की बात नहीं थी। यहाँ पर मेरी बैशाखी के रूप में तो गौरव ही था। प्रोफेसर सरन घई जी के जन्म दिन एवं रिटायरमेंट पर आयोजित कार्यक्रम के दिन संयोग से रविवार था और बेटे के आफिस की छुट्टी शनिवार और रविवार की रहती है। पर वह मेरे साथ चलने के लिए तैयार हो तब बात बने। मैंने आशा और विश्वास के साथ अपने टोरेन्टों पहुँचते ही बेटे को फुसलाना शुरू कर दिया था। उसको भी शायद मेरे ऊपर दया आ गयी, अंततः सहमति बनी।

आजकल लोग पता नहीं क्यों साहित्य से कटने से लगे हैं। मैं अभी तक यह बात नहीं समझ पाया, लगता है समाज में चुटकुले बाजों ने अपने चुटकुलों के माध्यम से कुछ अलग ही धारणा साहित्यकार और कवियों के बारे में बना दी है। हो सकता है कुछ निरुउद्देश्य लिखार टाईप के कवियों के कारण यह स्थिति निर्मित हुयी हो। खैर अपने जाॅब में व्यस्त बेटे ने पिता की अभिलाषा को पूर्ण करने का संकल्प तो ले लिया था। लेकिन मेरा वहाँ समय कैसे गुजरेगा ? एक प्रश्न मेरी ओर उछाल ही दिया। मैंने कहा भाई साहब, चलिए तो सही। आप जब कहेंगेे वहाँ से हम धीरे से खिसक लेगें। उसे मेरी यह बात उचित लगी। मैंने दबी जबान में पूँछा वहाँ आने-जाने का कितना खर्च होगा। हर भारतीय शायद मेरी तरह से ही सोचता है। वह मेरे ऊपर मुस्करा उठा और बोला यह सब छोड़िए। आप तो फोन करके उनको अपने आने का समाचार भर दे दीजिए।


प्रोफेसर सरन घई जी का पैसठवां जन्म दिवस पर काव्यगोष्ठी

जब दोबारा फोन करके प्रोफेसर सरन घई जी को पहुँचने की खबर दी तो बहुत ही खुश हुए। उन्होंने स्थान परिवर्तन की सूचना ई मेल से देने का आश्वासन दिया। ई मेल से ज्ञात हुआ कि यह कार्यक्रम उन्होंने अपने पैसठवें जन्म दिवस एवं रिटायरमेंट पर रखा था। स्वाभाविक है उनके सभी स्नेही मित्र, परिजन आदि होंगे। इसीलिए शायद कार्यक्रम में काफी लोगों की वजह से घर की जगह एक सिद्धि विनायक मंदिर के नीचे हाल में सुनिश्चित किया था। उन्होंने यह भी खुश खबरी दी कि यह स्थान उनके घर से दूर है, पर आपके आने के लिए लगभग सीधा रहेगा। ट्रेन के बाद एक बस पकड़िए आधा घंटे के बाद, कुछ पैदल चलकर आप कार्यक्रम स्थल तक आ सकते हैं।

कार्यक्रम के लिए अभी 4 दिन शेष थे। बेटे ने कम्प्यूटर में टोरेन्टो शहर का नक्शा देखा। उसमें आप घर से किस साधन से और किस दिशा में निकलेंगे। किस ट्रेन में बैठेगें, कहाँ उतरेगें फिर वहाँ बस कहाँ से मिलेगी, पैदल कितना-किस दिशा में चलना है आदि सभी जानकारी अपने मोबाईल से ली। मैं तो हैरान हो गया कि उसमें एक एक मिनिट का केलुकेशन दिखा रहा था। उसमें पैदल रेल बस का पूरा खाका खींच कर बताया गया था। कार्यक्रम बना सुबह 11 बजे निकलने का ताकि दोपहर 1 बजे के पूर्व वहाँ पहुँचा जा सके। उसने आगामी दिनों के मौसम की जानकारी ली तो बतलाया पापाजी, शनिवार को तो मौसम भारी बारिश वाला बतला रहा है। उससे कुछ कम बारिश रविवार को है, पर होगी अवश्य। यहाँ बारिश में निकलना संभव नहीं होगा।


मैंने हँस कर कहा कि मेरे यहाँ भी मौसम विभाग अपनी जानकारी देता है। जिस दिन भारी बारिश की घोषणा होगी उस दिन पानी तो गिरता ही नहीं, सूखा ही रहता है। और जिस दिन आज आसमान खुला रहेगा कहा जाता है, उस दिन झमाझम बारिश होती है। मौसम विभाग कुछ भी कहता रहता है। वह हँसने लगा, इसके आगे बोला कुछ नहीं। मुझे लगा यह मुझे हतोत्साहित कर रहा है। मैंने कहा चलो उस समय देखा जाएगा। पर दूसरे दिन शनिवार की बारिश के साथ तेज हवा को देखा तो उसकी बात में भी दम नजर आ रहा था।


जिसे देख मुझे मेरे बचपन के बारिश के दिनों की याद आने लगी। जब सावन-भादों तेजी से बारिश होती थी। मैनें उससे कहा छाता लेकर चलेंगे दरवाजे के सामने ही तो बस स्टाप है, सीधे बस में बैठना है और बस भी रेलवे के पोर्च में ही खड़ी करती है। वहाँ जाकर ज्यादा होगा तो घई साहब से गाड़ी मंगवा लेंगे जहाँ से पैदल चलना था। मैं हारने के मूड में बिल्कुल भी नहीं था। मैंने कहा कि बेटे मेरा मानना है कि ‘जहाँ चाह है, वहाँ राह है’ ईश्वर अवश्य कोई रास्ता निकालेगा।

शनिवार की बारिश देख कर मन निराश हो गया था। रविवार की सुबह भी लक्षण ठीक नजर नहीं आ रहे थे। किन्तु ‘जहाँ चाह है, वहाँ राह है’ के कहावत को मन में बिठा लिया था। अब कदम पीछे हटाने का सवाल ही नहीं उठता था। घर से एक छाता और फुल जैकेट से लैस हो कर निकल ही पड़े।

बेटे ने घर से निकलने के पूर्व बस स्टाप पर बस आने का समय देखा तो बतलाया कि दो मिनिट में बस आने वाली है। देखा तो सचमुच दो मिनिट के बाद ही बस आ गयी। बस स्टाप काँच का पूर्णतः बना था। बस आयी देखकर दंग रह गया। पास खड़े एक वृद्ध महाशय के लिए चढ़ने के लिए बस का पायदान फुटपाथ पर आकर तुरंत सट गया था। जिससे वह बगैर किसी सहारे के आसानी से बस में चढ़ गये। एक बच्चा ट्राली को लिए महिला आयी, वह भी उस ट्राली समेत उस पर सवार हो गयी।


हम लोग भी खाली सीट पर बैठ गये। बस में कोई कंडक्ट्रर नहीं था। बस ड्राइवर अपनी सीट पर बैठा था, वही टिकिट दे रहा था। कई यात्रियों के पास बने थे, वे ड्राइवर के पास लगी मशीन में अपना कार्ड खुद स्केन करते और सीट में जाकर बैठ जाते। बगैर टिकिट के कोई यात्री नहीं था। ना ही धक्कम धक्का, न ही लेट लतीफ। बेटे ने बतलाया कि यह लोकल रेल विभाग से जुड़ी बस सेवा है। इस रेल सेवा को ‘सबवे’ भी कहते हैं। पूरे शहर के कोनों को जोड़ती है। यह टोरेन्टो शहर में चलती है। इसे यहाँ टोरेन्टो ट्रांजिस्ट कमीशन या शार्ट में ‘टीटीसी’ कहते हैं। जिसका काम यात्रियों को गंतव्य स्थान तक पहुँचाने के साथ ही नजदीक लोकल-रेलवे प्लेटफार्म तक पहुँचाना होता है। आप एक बार कहीं से भी टिकिट लेकर बस या रेल दोनों से एक ही दिशा में सफर कर सकते हैं।

लोकल रेलवे स्टेशन पर जाकर देखता हूँ कि गेट पर एक किनारे एक काँच के केबिन के अंदर दो स्टाफ बैठा है, एक टिकिट दे रहा और दूसरा केवल नजर रख रहा है। उसके सामने रखे बाक्स में सफर करने वाले यात्री अपनी टिकिट डालकर प्लेटफार्म की ओर बढ़ जाते हैं फिर अंदर जाकर यात्री प्लेटफार्म में अपनी ट्रेन की प्रतीक्षा करता है। घनी आबादी वाले शहर में जमीन के अंदर से ट्रेनें धड़ाधड़ दौड़ती हैं । देखने में रेल की पातें तो हमारे भारतीय रेलों के समान है। अंतर यह है कि पटरियों के इर्द गिर्द इतनी साफ सफाई है कि एक कागज का टुकड़ा भी नजर नहीं आता। न मल मूत्र विसर्जन की बास। प्लेट फार्म का तो कहना ही क्या। समय होते ही ट्रेन आ जाती है। चमचमाती धड़धड़ाती, खुलजा सिमसिम की तर्ज पर अपने आप दरवाजा खुलता और बंद होता है। लोग अंदर जाते हैं, बाहर निकलते हैं। कोई धक्का मुक्की नहीं, सब शांति से चढ़ते और उतरते हैं।


ट्रेन के अंदर साफ सुथरी चमचमाती कुर्सियाँ, फर्श और उसकी दीवारें। कैसे सम्भव होता होगा। कोई बाथरूम नहीं कोई लेट्रिन नहीं, पाँतों के इर्द गिर्द कोई गंदगी नहीं। बाथरूम की व्यवस्था कुछ चुनी हुई स्टेशनों में ही की गई है। गाड़ी यात्रियों के लिए रुकती और आगे बढ़ जाती है, एंजिन का और यात्रियों का काई शोर शराबा नहीं। दरवाजा बंद होता और फिर अपनी मंजिल की ओर बढ़ जाती। बड़ा अद्भुत लगा। स्वर्गीय आनंद की अनुभूति हुयी। हलाकि भारत में भी इसी तरह से देहली में मेट्रो लोकल ट्रेनें चल रही हैं पर यहाँ और वहाँ कुछ तो अंतर स्पष्ट दिखाई्र दे रहा था।

हमारा स्टेशन मिसिसौगा आ चुका था। हम लोग प्लेटफार्म से निकलकर बाहर सड़क पर आए, देखा मौसम की बूँदा-बाँदी चल रही थी। एक ही छोटे छाते में गौरव के साथ बारिश से बचता हुआ बस स्टाफ पहुँचा। वहाँ बस से कोथरारोड फिर डन्टास स्ट्रीट से हेन्सल सर्किल के लिए रवाना हुआ। आधा घंटे बाद उतरने के बाद लगभग दो फर्लांग पैदल चले बारिश लगभग रुक गयी थी। ‘‘जहाँ चाह, वहाँ राह है’’ कहावत सफल होती दिख रही थी, मंजिल तक पहुँच चुके थे।


सिद्धी विनायक मंदिर में यह कार्यक्रम था। वहाँ हम लोग निर्धारित अवधि से पन्द्रह मिनिट पूर्व ही पहुँच चुके थे। कार्यक्र्रम स्थल के बाहर व्यवस्थापकों की दो गाड़ियाँ ही नजर आयीं। हम दोनों आसपास आधा घंटे घूमने के बाद पुनः आए तो देखा बाहर गाड़ियों की कतारें लग गयीं थीं। समय की पाबंदी यहाँ देखने को मिली। आमंत्रित सभी लोग प्रायःआ गये थे। यह मंदिर दो मंजिला था ऊपर के तल में भव्य मंदिर था और नीचे तल में कार्यक्रम रखा गया था। हम दोनों कार्यक्रम चालू होने की हड़बड़ाहट में सीधे नीचे तल में चले गये जहाँ काफी लोग आ चुके थे।

भीड़ में घिरे सामने श्री सरन घई जी नजर आये,फ्रेंच कट सफेद डाढ़ी,लम्बी शेरवानी, चूड़ीदार पैजामा के साथ ही गले में मफलर पड़ा था। फेस बुक की फोटो ने एक दूसरे को पहिचाना। गले लगाकर स्वागत हुआ। अब हमारे सामने कनाडा में एक लघु भारत दिखाई दे रहा था। कोई पंजाब, यूपी, राजस्थान, हरियाणा, चंडीगढ़, गुजरात, बिहार, दक्षिण भारत, देहली आदि विभिन्न प्रान्तों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। विभिन्न भाषा भाषी होते हुए भी यहाँ सभी की हिन्दी भाषा ही थी। एक दूसरे से नमस्कार का चमत्कार चल रहा था। हलो हाय पूर्ण रूप से गायब था। सभी में कोई भाषाई मतभेद नहीं दिखाई दे रहा था। सभी खुलकर एक दूसरे से मिल रहे थे। नई पीढ़ी देखने में अंग्रेज जैसे लग रहे थे, पर जब उनकी जबान से शुद्ध हिन्दी के बोल फूटते तो अपना पन का सुखद आश्चर्य होता। सभी के मुख से ‘‘हिन्दी हैं हम वतन हैं, हिन्दुस्ताँ हमारा’’ का स्वर मानों गूँजता सुनाई पड़ रहा था। लगता था टोरन्टो में आज गाँधी का सच्चा भारत इकट्ठा हो गया है।

तभी माईक पर कार्यक्रम प्रारम्भ होने के पूर्व सभी लोगों को भोजन करने के लिए आमंत्रित किया गया। सभी एक लाईन में लग कर अपनी अपनी प्लेटों को लेकर खाने के व्यंजन परोसने लगे। खाने के व्यंजनों में वही हमारे भारतीय शाकाहारी व्यंजनों की बहार थी। केवल सलाद कुछ अलग हटकर दिखाई दे रही थी। भोजन के उपरान्त कार्यक्रम की शुरुआत हुई। मुंबई फिल्म नगरी से श्री संदीप नागपाल जी आए हुये थे। चूँकि उन्हें मंबई के लिए निकलना था, स्वागत सत्कार के बाद उन्हीं से कार्यक्रम की शुरुआत हुई।


कार्यक्रम में स्थानीय कवियों को सुनने की हमारी इच्छा पूरी हुई। उनकी रचनाओं में वही भारतीयता की सुगंध, सुख दुख , हमारी भारतीय संवेदनाएँ उभर कर आ रहीं थीं। अतिथि कवि होने से मुझे बड़े ही सम्मान से मंच पर आमंत्रित किया गया। करतल ध्वनि से सभी ने स्वागत किया और हमारे मुक्तक एवं दोहों को बड़े मनोयोग से सुना। मैं सरन जी के जन्म दिन व रिटायरमेन्ट पर लिखा एक काव्य अभिनंदन पत्र ले गया था उसे पढ़ा और उनको भेंट किया।