Circus - 15 in Hindi Moral Stories by Madhavi Marathe books and stories PDF | सर्कस - 15

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सर्कस - 15

 

                                                                                   सर्कस : १५

 

       सुबह जलदी निंद खुल गई, अपना सब काम खतम करके पढाई करने बैठ गया। अल्मोडा पहुँचने के बाद केवल एक दिन का ही फासला था की इम्तहान शुरू हो रहे थे। पाँच दिन में इम्तहान खतम। मेरी पढाई पूरी होते-होते, लोग उठते गए। हमारे कंपू के साथ नाश्ता किया, फिर अरुणसर के ऑफिस में चला गया। मेरा खुषी से उछलता चेहरा देखकर वो भी खुश हो गए। फिर पिछले महिने के काम के उपर हमने चर्चा की। सकारात्मक ओैर नकारात्मक बाजूओं के बारे में, मैं अपने नोटबुक में सब कुछ दर्ज कर लेता था, वही सब उनको दिखा दिया, फिर उसीके आधार से ओैर क्या, कहाँ अच्छा कर सकते है ? कहाँ बदलाव लाया जा सकता है उसी विषय पर हमारी चर्चा होती रही।

    अरुणसर ने कहा “ अब तुम जब छुट्टीयों से वापिस आओगे तभी तुम्हारे विभाग के बारे में बात करेंगे। कल कितने बजे की गाडी है तुम्हारी ?”

    “ पाँच बजे की है। जॉनभाई स्टेशन पर पहुँचानेवाले है। धीरज भी साथ आनेवाला है।”

    “ बहुत बढिया। अच्छेसे जाना। सामान पर ध्यान रखना। इम्तहान में जी लगाकर सब पेपर्स ठीक से देना। घर के सभी लोगों को मेरा नमस्ते बोलना।” इतना कहकर उन्होंने  एक एनव्हलप दिया, खोलकर देखा तो उसमें पाँच हजार रुपये थे।

    “ यह किस लिए सर, मेरे पास पैसे है।”

    “ अरे यह तो दिवाली बोनस है, सबको मिलता है। हकदार हो तुम सब इसके। कितनी मेहनत करते हो।”

    “ सर, मैने भी आपके लिए एक भेटवस्तू लायी है।” संगेमरमर की सरस्वती की सुंदर मुर्ती मैने अरुणसरजी को दी। अप्रतिम कलाकारी, मनमोहक शांत भाववाली वह मुर्ती अरुणसरजी के दिल को बहोत भा गई। बडी प्रसन्नता से उन्होंने मेरी भेट स्वीकार की ओैर कहा “ बहुत ही सुंदर है यह मुर्ती। यही ऑफिस में ही रख देता हूँ। आते-जाते सबको दिख जाएगी ओैर मन प्रसन्न हो जाएगा।” फिर सरजी से बाय करते मैं ऑफिस से बाहर आ गया। बाद में उनसे मुलाकात होगी की नही इसकी गॅरंटी नही थी। दिनभर सब से मिलकर दिवाली की शुभकामनाए दी ओैर बाय किया। शरदचाचाजी ने दो-तीन पते देकर रखे थे, उनकी संस्था के मार्फत किसी परिवार की खोज शुरू थी। गोदाक्का ने माँ के लिए आम का आचार ओैर सफर में खाने के लिए लड्डू-फरसाण दिया था। हर कोई जलदी आना, पेपर्स अच्छे से लिखना ऐसे कह रहा था। उनके अपनेपन से मेरा भी दिल भर आने लगा। एक बडे परिवार को छोडकर मेरे जनम के रिश्तेदार के यहाँ मैं जा रहा था। दिन कहाँ गुजर गया कुछ पता ही नही चला। कल की सब तैयारी पहले से ही कर के रखी थी।

      सुबह तीन बजे ही उठ गया। तैयार होकर चार बजे ही हम निकल गए, गाडी पांच बजे की थी, लेकिन सुबह तो रास्ता खाली ही मिलेगा तो आराम से पहुँच जाएँगे ऐसा जॉनभाई ने कहा। गोदाक्का ने साडे चार बजे ही नाश्ता तैयार रखा था। सुबह-सुबह खाना गले के नीचे नही उतर रहा था लेकिन जबरदस्ती थोडा खाना खा ही लिया, तब तक धीरज ओैर जॉनभाई ने चाय पीकर मेरा सामान गाडी में रखवा दिया। चारों तरफ शांती फैली हुई थी। दिनभर काम करके थके-हारे लोग गहरी निंद सो रहे थे। हम निकल पडे, शांत रास्ते से जॉनभाई सुसाट गाडी हाकने लगे। कोई बात करने के मुड में नही था। इस पहाटबेला में कुछ अलग ही माहोल होता है। स्टेशन पास आने लगा वैसे लोग दिखाई देने लगे। मेरा सामान उतारने तक जॉनभाई प्लॅटफॉर्म के दो तिकीटस् लेकर आ गए ओैर गाडी कौनसे प्लॅटफॉर्म पर लग रही है यह देखकर वहाँ जा पहुँचे। गाडी आते ही भागा-दौडी, डिब्बा ढुंढना, सामान जगह पर रखना, इतने में गाडी ने हॉर्न भी दे दिया। हाथ हिलाते-हिलाते वह दोनो आँखों से ओझल हो गए। अब सब स्थिर-स्थावर होकर टेंशन खतम हो गया। दिनभर खाना-पीना, गपशप, सोना चलता रहा। दिल्ली से काठगोदाम फिर अल्मोडा का पहाडी रास्ता।

     जैसे-जैसे काठगोदाम पास आने लगा वैसे-वैसे मन अधीर होने लगा। पिताजी तो दिल्ली में ही मुझे लेने के लिए आने के लिए कह रहे थे लेकिन मैने ही मना कर दी। अब दुनिया का अनुभव लिया हुआ उमदा जवान था मैं। खुद के बलबुते पर खडा होना चाहता था। चौडे घनगंभीर पहाड, उनके बीच से निकलने वाले मोड, दोनों तरफ देवदार पेड की भव्यता, ठंड शुरू होने के कारण बीच-बीच में दिखने वाले रंगबिरंगी स्वेटर पहने हुए लोग, बच्चे, आल्हाददायक हवा सब कैसे रोम-रोम में बस रहा था। अपने बचपन के दिन को मन में पुकारने लगा। गाँव, गली करते-करते टॅक्सी घर के सामने खडी रही। मेरे आने के रास्ते पर शायद सब नजर लगाकर बैठे थे जैसे ही टॅक्सी रुकने की आवाज आ गई, वैसे सब घर के आँगन में इकठ्ठा हो गए। यह देखकर कितना अच्छा लगा, घर आकर अपने प्यारभरे परिवार की ममता अनुभव करते मन शांत हो गया। बिना कुछ बात करे बस सामनेवाले के शब्द सुनता रहूँ ऐसे ही लग रहा था, लेकिन उनका भी दिल चाहता होगा मेरी बाते सुनने को इस विचार से झटसे दादा-दादी, माँ-पिताजी, बडे लोगों के पैर छुने लगा ओैर उनकी गोद में खो गया, भाई-बहन के प्यार में खिलता रहा। फिर शुरू हो गई एक-एक सवाल की फेर, तो माँ बीच में मेरे हाथ चाय का कप देते हुए बोली “ अरे, इतना लंबा सफर करते हुए आया है वह, थोडा आराम तो करने दो। पहले नहा ले फिर खाना खाते गपशप करना।” भाई ने मेरा सामान मेरे कमरे में रख दिया, चाय पीकर मैं अपने कमरे के तरफ बढा।

       वहाँ जाकर अपने अंदर के किसी कोने में आने की भावना महसुस करने लगा। माँ ने मेरा कमर जैसे के वैसा ही रखा था। शोकेस में रखी किताबे, कपडे, मेडल्स, फोटोज, सब जैसा छोडकर गया था वैसा ही मैने अभी पाया। एसे लगा मैं कभी यहाँ से गया ही नही। बीच में जो काल बीत गया वह शायद सपना होगा। बडे प्यार से पुरे कमरे में घुमने लगा। माँ कब पीछे आकर खडी हो गई पता ही नही चला। उसका प्यारभरा हाथ मेरे बालों में फेरा तब वर्तमान में आ गया। “ श्रवण, बहुत याद आती है तुम्हारी। तुम्हे भी आती होगी ना ?”

   “ हा माँ, बहुत याद आती थी तुम्हारी, कभी-कभी तो रोना भी आता था। मेरी वह अवस्था शरदचाची, धीरज, गोदाक्का सब जान जाते है फिर मुझे उसमें से निकालकर हँसाने का, रिझाने का प्रयास करते। बहुत बडा परिवार मिला है वहाँ, लेकिन वहाँ रहता हूँ वह तुम्हारे प्यार के सहारे।” माँ की गोद में सर रखकर बाते करता रहा।

     “ अच्छा, अच्छा चल अब जलदी, सब तुम्हारी राह देख रहे है। प्यार करनेवाले लोग मिल जाए यह बहुत नसीबवालों के नसीब में होता है। तुम्हारे जैसा लडका हमे मिला है इसपर हम भी गर्व महसुस करते है।”

     “ माँ, तुम्हारे लिए गोदाक्का ने आचार ओैर शरदचाची ने बर्फी भेजी है।” बॅग में से सामान निकालकर मैने माँ को दे दिया। माँ को बहुत अच्छा लगा, कौन कहाँ के जग में रहनेवाले लोग लेकिन कैसे ऋणबंधन जुड जाते है। सामान लेकर माँ बाहर चली गई, मैं नहा-धोके तरोताजा हो गया। सबके लिए जो भेटवस्तू लायी थी वह बॅग लेकर हॉल में आ गया। डाइनिंग टेबल पर मेरा मनपसंद मेनू तैयार था। आलू पराठे, दही, चटणी, गाजर का हलवा गपशप करते-करते भरपेट खाना खाया। सर्कस के विश्वजगत के किस्से कहानियाँ, मेरे काम के बारें में, प्राणी जगत, शेर को हाथ लगाता है इस बात पर तो सब हैरान, भयमिश्रित अचंबित हो गए। सर्कस जगत से घुल-मिल गया हूँ इस बात का सबको संतोष हो गया।

    पिताजी ने कहा “ श्रवण, अब गपशप बस हो गई। थोडा आराम कर ओैर उसके बाद अपनी पढाई शुरू कर। कल से इम्तहान है ना तुम्हारे। पेपर्स में कुछ लिख तो सकोगे ना?”

फिर मैने उनको नेनेचाचाजी के बारे में बता दिया वैसे तो खत में भी लिखा था फिर भी उन्हे आशंका थी, अब तसल्ली हो गई। सब भाई-बहनों के भी इम्तहान शुरू थे तो वह भी पढाई में लग गए। मैं अपने कमरे में आया ओैर थोडी देर आराम करने के बाद पढाई करने बैठ गया।

     पढाई, खाना-पीना, थोडी बहुत गपशप, इम्तहान इन में पाँच दिन कैसे गुजर गए पता ही नही चला। इम्तहान खतम होने के बाद दिवाली की तैयारी, खरीदारी, पटाखे, नये कपडे, मिठाईयाँ, मित्रों-रिश्तेदारों से मुलाकात, इन सब में दिवाली कब खतम हुई पता ही नही चला। फिर जाने का दिन नजदिक आने लगा, वैसे घर का माहोल बदलने लगा। मुझे भी थोडा असहज महसुस हो रहा था। माँ के साथ रात-रात भर गप्पे लडाना शुरू था। सर्कस के माहोल में सब आलबेल है यह उसे ध्यान में आ गया तो मन से वह स्थिर हो गई ओैर मेरे साथ जो भी देना था उसकी तयारी करने लगी। पिताजी, दादाजी ने जब अरुणसर से बात की तब मैने भी उनसे बात की, हमारे बातचीत से कितना अच्छा रिश्ता हम दोनों का है यह बात पिताजी-दादाजी के ध्यान में आ गई। अरुणसर हसते हुए बोल रहे थे “ श्रवण, वापिस तो आ रहा है ना?”

   “ आऊँ की नही, आप ही बता दो।” मैंने भी हँसते हुए कहा।

   “ अरे बाबा, जलदी आजा। सब तुम्हारी राह देख रहे है। तुम्हे याद कर रहे है।”

 यह सुनकर मेरा मन भी भर आया। “ चाचाजी, सबको कहना मैं भी उन्हे याद कर रहा हूँ। जलदी ही आता हूँ।” यह सुनकर दादाजी-पिताजी हक्का-बक्का रह गए। दादाजी ने मुझे कलेजे से लगाया ओैर कहा “ अच्छे से रहना मेरे बेटे। जीवन में सफल होना। सब से प्यार करते रहना, कोई छोटा या बडा नही होता।” कुछ क्षण उनके गोद में सर रखकर मैने असीम प्यार पाया। उन्ही के संस्कार थे जो जीवन का मुल्य जान सके।

    फिर से सफर की तयारी शुरू हो गई। माँ ने सर्कस के सब लोगों के लिए मिठाई की टोकरी दी। पिताजी का दिल्ली में कुछ काम था तो वह भी साथ आनेवाले थे। जाने का दिन आंखिर आ ही गया, लेकिन पिछले वक्त सब लोगों को जैसा तनाव महसुस हुआ वैसा माहोल अब नही था। मैं ऐसे ही आते-जाते रहनेवाला हूँ यह तो सबने ओैर मैने भी मन से स्वीकार किया था। दुवाओं का भंडार लेकर चल दिया। रास्ते में पिताजी से खुब बातें हो गई। दिल्ली पहुँचते तो विनीत, राधा, चाचा-चाचाजी के साथ बहोत ही अच्छा समय गुजारा। राधा को देखकर तो कुछ अलग माहोल ही मेरे भोवताल मँडराने लगा। शायद उसकी भी वही हालत थी। वैसे देखा जाय तो सिर्फ छे महिने पहले ही हम मिले थे, लेकिन अब वो ओैर ही हँसीन लग रही थी। जब मुझसे बात करती थी तब नजर चुराकर बात करती, हम दोनों की नजर गलती से मिल गई तो पुरे बदन में अजीब लहरों का सागर उमडने लगता। इस बार राधा से बात करते हुए यह रिश्ता पक्का करने का इरादा कर लिया था। जीवनभर के मिठे बंधन का वादा करना था। पिताजी ने सबके साथ एक दिन खुब मजे में गुजारा फिर अपना काम खतम करते वह अल्मोडा वापिस चले गए। दो दिन के बाद मैं भी निकलनेवाला था। रात को खाना खाने के बाद घुमने निकलने का रिवाज हमने कायम रखा था। चाचाजी अपने कुछ अनुभवों के बारे में बताते फिर उसी विषय पर या हम लोगों के अनुभवों के आधार पर चर्चा शुरू रहती थी।

      कल निकलने का दिन आ गया। विनीत को बताया आज राधा से मैं अपने मन की बात बतानेवाला हूँ। विनीत हँसने लगा मुझे शुभकामना देते हुए वह चल दिया। दिन कैसे तो खतम हुआ, शाम को मैं, विनीत, राधा को बाजार जाने का बहाना करते हुए बाहर ले गया। थोडी दूर जाते ही विनीत, कही काम के लिए दुसरी जगह जाना है ऐसे कहते हुए निकल गया। थोडी बहुत खरीदारी करने के बाद हम दोनों एक बगीचे में जा बैठे। कुछ देर बाद अपने आप पर काबू रखते हुए मैने राधा से कहा “ राधा, हम दोनों के बीच में प्यार का रिश्ता बन गया है यह बात तो अब हमे मान लेनी चाहिए। मैं तुमसे प्यार करता हूँ, लेकिन तुम्हारे मन में कुछ अलग बात है तो तुम भी बोल सकती हो, क्युंकी मैंने तो ऐसा भटकने वाला रास्ता चुन लिया है। तुम्हे स्थिर जीवन तो नही दे सकता। संकटों से भरा भी मेरा जीवन है। आर्थिक, मानसिक, शारीरिक यह खतरे तो सब के जीवन में आते है लेकिन हमारी दुनिया ओैर जादा खतरों से भरी है। अपना नाता आगे लेकर चलना है तो पुरे होश-हवास में वास्तविकता का विचार करते हुए, बाद में तुम्हारा निर्णय बता दिया तो भी चलेगा।”  

     मन के भाव एकदम से खूल गए तो राधा लज्जा के मारे शरमा गई लेकिन अपने भावनाओं पे काबू पाकर वह बोली “ श्रवण, यह तो सच है, लेकिन मैं भी तुमसे प्रेम करती हूँ तो आगे की जो भी स्थिती रहेगी वह स्विकार करना मुझे मंजुर है। स्थैर्य के बारे में भी मेरे मन में विचार चलते रहे। मगर यह तो जरूरी नही की किसी बसे-बसाए घर में कभी कोई समस्या उत्पन्न ही नही होगी। जीवन है तो कही कुछ उपर-नीचे तो होता रहेगा। स्थितीयों से लढ्ना ही पडेगा। तुम्हारा व्यवसाय अस्थिरता का है इसलिए मैने तय किया है की बँक में नोकरी करुंगी. इससे एक आय नियमित रुप से चलती रहेगी तो तुम्हारे व्यवसाय की आर्थिक कमी महसुस नही होगी। अपने परिवार की देखभाल मैं आराम से कर सकुंगी ओैर तुम्हे भी किसी बात की चिंता नही रहेगी।”

    “ राधा, तुमने तो बहुत आगे के बारे में सोच लिया है।” मेरी बात सुनकर राधा शर्म से पानी-पानी हो गई। उसका हाथ, हाथ में लेकर मैने कहा “ राधा, सर्कस में एक से बढकर एक सुंदर लडकिया है। सबसे भाई-बहन का नाम देकर हँसते-खेलते जीवन वहाँ बिताता हूँ। यह एक पवित्र नाता है। तुम्हारे जीवन में कभी कोई आए तो किसी को तोडना मत। रिश्तों की डोर में बांध देना। अभी अपने बारे में सिर्फ विनीत जानता है। तुम्हारी पढाई होने के बाद परिवारवालों से बात करेंगे तब तक मैं भी कमाने लगुंगा।” एक अनोखी उर्जा का अनुभव करते हम कितनी देर वहाँ बैठे रहे। शाम गहरी होने लगी वैसे राधा उठ गई तो मुझे भी उस स्थिती से मजबुरन बाहर आना पडा। घर के रास्ते के एक गली में विनीत हमारी राह देख रहा था। हम दोनों को देखकर वह सब समझ गया। फिर हमे चिढाने लगा तो तीनों हँसने लगे। गपशप करते घर के अंदर प्रवेश किया तो कोई अलग बात किसी को महसुस नही हुई।

     दुसरे दिन सुबह की गाडी थी तो रात को ही सब सामान पॅक कर के रख दिया। चाची ने इतना खाने का सामान दिया था की यह तो अच्छा हुआ विनीत स्टेशन पर छोडने के लिए था ओैर जबलपूर में जॉनभाई उतारने के लिए आनेवाले थे। बहुत ही अच्छे लोग मेरे इर्द-गिर्द रखने के लिए मैने भगवान को धन्यवाद दिया। अरुणसर का रात को फोन आकर गया था। थोडी बहुत बातचीत के बाद सब सोने के लिए चले गए। कमरे में मुझे तो निंद ही नही आ रही थी। कुछ मिठी संवेदना सारे शरीर में, वातावरण मैं फैली हुई अनुभव कर रहा था। वहाँ राधा का भी वही हाल होगा यह मैं जान रहा था। फिर उस भावना को हटाकर सर्कस के आगे के बारे में सोचने लगा। थोडी ही देर में सो गया।

    सुबह चाचाजी के आवाज से निंद खुल गई। चाची, राधा रसोईघर में नाश्ते का इंतजाम कर रही थी, मै जलदी तैयारी में लग गया। मेरा नाश्ता होने तक चाचाजी ओैर विनीत ने सामान कार में रखवा दिया। विनीत कार चलाने बैठ गया, सबका आशिर्वाद लेकर मैं बैठ गया। कुछ दुरी पर विनीत ने कार रोक दी “ क्या हुआ? कुछ भुल गया क्या?”

   “ अरे यार तू उतर जा, पिछे बैठ।” विनीत ने कहा तो उसके पीठ पर एक चपत मार कर मैने कहा “ मन की बात अच्छे से जानता है हा तू विनीत।” स्टेशन आने तक हम दोनों पिछे एक-दुसरे का सहवास अनुभव करते रहे। वहाँ पहुँचने के बाद भागा-दौडी हुई। गाडी स्टेशन पर लग चुकी थी। सीट नंबर ढुंढकर सामान जगह पर लगाते-लगाते गाडी छूटने का हॉर्न हुआ। उतनी हडबडी में एक-दुसरे से विदाई ली। खत भेजने के वादे हुए, ओैर गाडी निकल गई। दिवाली की परिपूर्णता हो गई। अब दुनिया का सामना करने राधा भी मेरे साथ थी। बहुत बडी ताकत पिछे खडी है ऐसा आभास होने लगा। गाडी जबलपूर के मार्ग की तरफ दौड रही थी ओैर मन राधा की तरफ। विचारों में आँख लग गई।

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