वैदेही ने लीजा और मार्क की उत्सुकता देखते हुए उनसे कहा, "तुम दोनों पहले शांति से बैठ जाओ, फिर मैं तुम्हें सारी बात बताती हूँ।"
"लो बैठ गये, अब जल्दी बोलो ड्रामा क्वीन।" लीजा और मार्क लगभग एक साथ बोलें तब वैदेही ने उन्हें अपने और राघव के बचपन की बात से लेकर उससे बिछड़ने और अब अपराजिता निकेतन के वर्षगाँठ की एडवरटाइजमेंट में देखे गये वैदेही गेमिंग वर्ल्ड की सारी कहानी कह सुनायी।"
"तो इसका मतलब ये है कि अब हम फाइनली अपने सपनों के देश भारत जा रहे हैं, और द ग्रेट राघव से भी मिल रहे हैं जिसका नाम तुमने अभी-अभी कुछ दिन पहले ओपेरा हाउस में लिया था।" मार्क ने उत्साह से कहा तो लीजा भी चहकते हुए बोली, "तुम्हें तो पता है वैदेही मुझे बाँसुरी की धुन कितनी पसंद है। अब मैं मिस्टर राघव से बाँसुरी की वो धुन सुनूँगी जिस पर तुम बचपन में नृत्य किया करती थी।"
"हैलो-हैलो लीजा मैडम, राघव सिर्फ मेरे लिए बाँसुरी बजाता है समझी।"
वैदेही को यूँ चिढ़ते हुए देखकर लीजा उसके गले में बाँहे डालकर खिलखिलाते हुए बोली, "ओ माय डियर वैदेही, पता है वर्षों से मैंने तुम्हारे चेहरे पर बस नपी-तुली मुस्कान के साथ एक अजीब सा सूनापन देखा है लेकिन आज तुम्हारे चेहरे पर जो ख़ुशी, जो ईर्ष्या झलक रही है न उफ़्फ़...
वो क्या कहते हैं तुम्हारे भारत में कि कहीं तुम्हें नज़र न लग जाये।"
"आज पहली बार लीजा ने पते की बात की है।" मार्क ने भी हँसते हुए कहा और इससे पहले कि लीजा उसके इस चुटकुले पर कोई प्रतिक्रिया देती वो शारदा जी से आगे के कार्यक्रमों पर विचार-विमर्श करने उनके पास चला गया।
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अपराजिता निकेतन के परिसर में आज काफी गहमागहमी का माहौल था।
अगले दिन ये आश्रम अपनी पैंतीसवी वर्षगाँठ मनाने जा रहा था और इसी सिलसिले में पांडेय की पूरी टीम के साथ तारा और हर्षित भी यहाँ मौजूद थे।
जिस दिन से तारा ने वर्षगाँठ के जश्न से संबंधित एडवरटाइजमेंट स्पॉन्सर्ड करवाया था उस दिन से वो सुबह-दोपहर-शाम और रात में सोने से पहले भी बड़ी उम्मीद से दिव्या जी को फ़ोन करके उनसे पूछती थी कि क्या वैदेही या उसकी माँ ने उनसे संपर्क किया लेकिन हर बार दिव्या जी की 'न' सुनते ही उसकी उम्मीदें धराशायी हो जाती थीं।
अब, जब इस जश्न में मात्र एक दिन बचा हुआ था तब तारा की बेचैनी अपने उफ़ान पर थी।
अपनी ही सोच में गुम वो परिसर के प्रवेश-द्वार के पास चहलकदमी कर रही थी कि अचानक सामने से आती हुई एक लड़की जो उसकी हमउम्र ही थी उससे टकराकर गिरते-गिरते बची।
स्वयं के साथ-साथ उस लड़की को भी सँभालते हुए तारा ने कहा, "आई एम रियली वेरी सॉरी, पता नहीं मेरा ध्यान कहाँ था।"
"कोई बात नहीं। क्या आप मुझे बता सकती हैं कि दिव्या मौसी मुझे कहाँ मिलेंगी? उनके दफ़्तर में या स्कूल में?"
उस लड़की के पूछने पर तारा ने कहा, "मौसी तो दफ़्तर में ही होंगी। आइये मैं आपको उनके पास ले चलती हूँ।"
"जी, धन्यवाद। मैं चली जाऊँगी। मुझे पता है उनका दफ़्तर कहाँ है।"
"अच्छा, वैसे क्या मैं आपका नाम जान सकती हूँ?"
तारा ने उत्सुकता से पूछा तो उस लड़की ने अपना हाथ आगे बढ़ाते हुए कहा, "मैं वैदेही और आप?"
"क्या कहा आपने? फिर से कहिये।" तारा यकायक हड़बड़ाकर बोली तो वैदेही ने फिर से अपना नाम दोहराते हुए कहा, "बात क्या है? मेरा नाम कोई अजूबा तो नहीं है कि आप ऐसे चौंक पड़ी।"
"वैदेही... वैदेही... तुम सचमुच वैदेही हो न? हमारी वैदेही? देखो मुझसे झूठ मत बोलना। मैं अभी कोई मज़ाक नहीं सह पाऊँगी।" कहते-कहते तारा की आवाज काँपने लगी तो वैदेही ने आश्चर्य से उसकी तरफ देखते हुए कहा, "हाँ मैं वैदेही ही हूँ लेकिन आपकी वैदेही का अर्थ मैं नहीं समझी।"
"तुम मेरे साथ चलो, मैं तुम्हें सब कुछ समझाती हूँ।" तारा वैदेही का हाथ थामकर उसे दिव्या जी के दफ़्तर की तरफ ले जाते हुए बोली तो वैदेही भी ख़ामोशी से उसके साथ चल पड़ी।
दफ़्तर के दरवाजे पर पहुँचकर तारा ने दिव्या जी को आवाज़ देते हुए कहा, "मौसी, नज़र उठाकर इधर तो देखिये मेरे साथ कौन खड़ा है।"
दिव्या जी ने तारा के साथ खड़ी वैदेही को देखा और फिर उन्होंने तारा से कहा, "ये कौन है बेटा? तुम्हारी बहन है या सहेली?"
"क्या मौसी, आप तो मुझे भूल ही गयीं।" दिव्या जी के पैर छूते हुए वैदेही ने रुआँसी आवाज़ में कहा लेकिन तब भी दिव्या जी उसे पहचान नहीं पायीं।
तारा ने जैसे ही वैदेही का परिचय दिया दिव्या जी भी हक्की-बक्की सी एकटक उसके चेहरे को देखते हुए बोलीं, "अरे वैदेही, हमारी वैदेही। देखो तो जब मैंने तुम्हें यहाँ से विदा किया था तब कैसी थी तुम छुटकी सी, मेरी छुई-मुई बिटिया और अब इतनी सयानी होकर लौटी हो।
फिर भला मैं कैसे पहचान पाती तुम्हें। ऊपर से अब इन आँखों की रोशनी भी पहले जैसी नहीं रही।"
"कोई बात नहीं मौसी लेकिन मेरा राघव तो मुझे पहचान लेगा न?" वैदेही ने व्यग्रता से पूछा तो तारा बोली, "कैसे नहीं पहचानेगा वो तुम्हें जबकि वो दिन-रात बस तुम्हें ही याद करता है।"
"अच्छा...पर आप कौन हैं और आप राघव के साथ-साथ मुझे कैसे जानती हैं?" वैदेही के चेहरे पर उलझन देखकर तारा ने उसे अपनी और राघव की दोस्ती, उनकी पढ़ाई के साथ-साथ साझी कम्पनी के विषय में सब कुछ बताया।
वैदेही को कोई गलतफ़हमी न हो जाये इसलिए तारा ने उसे अपने और यश के रिश्ते के विषय में भी बताते हुए जब होली के दिन राघव के साथ घटी हुई घटना और राघव के मुँह से वैदेही के लिए सुनी हुई बातें बतायीं तब वैदेही की आँखों में आँसू भर आये।
इन आँसूओं को पोंछते हुए तारा ने कहा, "कितनी प्यारी हो तुम और उतनी ही प्यारी हैं तुम्हारी आँखें जिनमें आँसू बिल्कुल अच्छे नहीं लगते।
चलो मैं तुम्हें राघव के पास लेकर चलती हूँ।वो तो तुम्हें देखते ही बाँवरा हो जायेगा।"
हामी भरते हुए अभी वैदेही ने अपने कदम आगे बढ़ाये ही थे कि सहसा उसके कानों में शारदा जी की चेतावनी और उनके दु:खद अतीत की कहानी गूँजने लगी।
उसने तारा को रोकते हुए कहा, "तारा, मैं सोच रही थी कि आज राघव से मिलने की जगह कल वर्षगाँठ के कार्यक्रम के दौरान मंच पर अपनी नृत्य प्रस्तुति से मैं राघव को सरप्राइज़ दूँ।
कितना मज़ा आयेगा न जब वो अचानक मुझे अपनी आँखों के सामने देखेगा।
मैं उसकी बाँसुरी भी अपने साथ लायी हूँ।
हो सकता है बचपन की तरह कल एक बार फिर हम अपने कॉर्डिनेशन से जश्न में चार चाँद लगा दें।"
"नृत्य? लेकिन राघव को तो...।" तारा ने जल्दी से अपनी ये बात अधूरी छोड़ दी और फिर उसने कहा, "अच्छा, हाँ ये भी ठीक है। पर ये तो बताओ तुम कहाँ ठहरी हो?"
"कहाँ क्या? मेरी बेटी यहीं मेरे पास रहेगी।" दिव्या जी ने अपनी प्रसन्नता ज़ाहिर करते हुए कहा तो वैदेही बोली, "नहीं मौसी, दरअसल मेरे साथ मेरी असिस्टेंट लीजा और मैनेज़र मार्क भी भारत आये हैं।
यहाँ मेरे कुछ स्टेज शोज़ भी हैं और अब तो शायद मैं हमेशा के लिए अपने बनारस में ही रहूँगी तो माँ ने मेरे लीजा और मार्क के लिए यहीं शिवाला में फ्लैट का इंतज़ाम कर दिया है।"
"अच्छा चलो, बहुत अच्छी बात है लेकिन एक बात सुन लो बेटा, तुम्हें रोज़ दिन में एक बार तो मुझसे मिलने आना ही पड़ेगा।" दिव्या जी ने लाड़ से कहा तो वैदेही भी बचपन की तरह उनके गले लगते हुए बोली, "बिल्कुल मौसी, ये भी कोई कहने की बात है।
आज थोड़ी देर आराम करके मैं कल के कार्यक्रम की रिहर्सल कर लेती हूँ। फिर कल सुबह ही सुबह मैं लीजा और मार्क के साथ यहाँ आपको परेशान करने चली आऊँगी।"
"पगली कहीं की। भला अपने बच्चों से कौन माँ परेशान होती है?" दिव्या जी ने स्नेह से वैदेही के गाल थपथपाते हुए कहा तो वैदेही ने अब उनसे जाने की इज़ाज़त माँगी।
दफ़्तर से बाहर आने के बाद वैदेही ने तारा से कहा, "तुम मुझसे नाराज़ तो नहीं हो गयी न कि मैंने तुम्हारी बात नहीं मानी?"
"अरे बिल्कुल भी नहीं। राघव के साथ तुम्हें अपना रिश्ता कैसे निभाना है ये तुम्हारा पर्सनल मैटर है वैदेही। इसमें मेरी नाराज़गी की बात कहाँ से आ गयी?"
तारा ने उसे आश्वस्त करते हुए कहा तो वैदेही बोली, "तुम मेरे साथ मेरे फ्लैट पर चलोगी? भारत में तुम मेरी पहली दोस्त हो और ये दोस्ती अब ज़िन्दगी भर चलेगी तो अच्छा होगा न कि अगर तुम्हारे पास मेरा पता हो।"
"बिल्कुल। उधर ही से फिर मैं अपने दफ़्तर भी चली जाऊँगी और शाम में तुम मेरे साथ मेरे घर चलना।
वहाँ भी सब तुमसे मिलकर बहुत ख़ुश होंगे।" तारा ने मुस्कुराकर कहा तो वैदेही ने भी स्निग्ध मुस्कान के साथ उसका हाथ थाम लिया।
क्रमश: