Fagun ke Mausam - 15 in Hindi Fiction Stories by शिखा श्रीवास्तव books and stories PDF | फागुन के मौसम - भाग 15

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फागुन के मौसम - भाग 15

वैदेही उसी समय उठी और शारदा जी के पास जाकर उसने उन्हें अपराजिता निकेतन का एडवरटाइजमेंट दिखाते हुए कहा, "माँ देखिये, मेरा राघव मुझे नहीं भूला है। उसने अपनी कंपनी का नाम भी मेरे नाम पर रखा है।"

शारदा जी ने भी हैरत से इस एडवरटाइजेंट को पढ़ा और फिर उन्होंने वैदेही की तरफ देखा जिसका चेहरा देखकर ऐसा लग रहा था मानों उसका वश चले तो वो अभी उड़ते हुए बनारस पहुँच जायेगी।

"तो अब तुम क्या चाहती हो वैदेही?" शारदा जी ने गंभीरता से पूछा तो वैदेही ने कहा, "क्या अब भी मुझे बोलकर बताना पड़ेगा माँ?"

"हम्म... तुम बहुत नादान हो बेटा और मैं नहीं चाहती हूँ कि तुम्हारी ये मासूमियत एक दिन तुम्हारे पैरों की ऐसी बेड़ी बन जाये कि तुम उसमें जकड़कर हमेशा के लिए अपनी आज तक की तपस्या का फल खो दो।"

"मैं कुछ समझी नहीं माँ। मेरे पैरों में बेड़ी कौन डालेगा भला?" वैदेही ने असमंजस से कहा तो शारदा जी बोलीं, "ये राघव... जो अभी तो तुमसे प्यार करने का दंभ भर रहा है लेकिन जब तुम उसे मिल जाओगी तब यही राघव अपना पुरूषत्व दिखाते हुए तुम पर हावी हो जायेगा, तुमसे ये उम्मीद करेगा कि तुम वही करो जो वो चाहता है, वो भले ही तुम्हारे लिए अपना काम न छोड़े, अपने कैरियर से समझौता न करे लेकिन तुमसे वो सारे समझौते करवायेगा, कभी प्रेम, कभी परिवार तो कभी समाज के नाम पर।
हो सकता है अब उसे तुम्हारा यूँ मंचों पर नृत्य करना भी अच्छा न लगे।
और तब अगर तुमने उसकी बात मानने से इंकार कर दिया तो तुम्हारे साथ भी वही होगा जो मेरे साथ हुआ।
अपमानित करके निकाल दी जाओगी तुम उसके घर से, उसकी ज़िन्दगी से।"

"नहीं माँ, ऐसा कभी नहीं हो सकता। मेरा राघव जो इतने वर्षों के बाद भी मुझे नहीं भूला वो...वो मेरे साथ ऐसा कभी नहीं कर सकता है।"

"ठीक है, अगर उस पर तुम्हारा विश्वास इतना ही पक्का है तो अब मैं तुम्हें नहीं रोकूँगी। तुम लीजा और मार्क के साथ भारत जाओ। मैं मार्क से कह देती हूँ भारत से तुम्हारे लिए जितने भी ऑफर्स आये हैं उन्हें स्वीकार कर ले ताकि तुम पर्सनल लाइफ के साथ-साथ प्रोफेशनल लाइफ में भी आगे बढ़ती रहो।

और हाँ, एक बात हमेशा याद रखना कि तुम इस दुनिया में अकेली नहीं हो। तुम्हारी ये माँ जब तक ज़िंदा है तुम्हें किसी भी परिस्थिति में, किसी से भी घबराने की ज़रूरत नहीं है।
अगर कभी भी तुम्हें ऐसा लगे कि तुम्हें वापस अपनी इस दुनिया में लौट आना चाहिए तो तुम बेझिझक लौट आना बेटा।
मैं हमेशा तुम्हें यहीं तुम्हारा इंतज़ार करते हुए मिलूँगी।"

"पर क्यों माँ? आपको मेरा इंतज़ार करने की क्या ज़रूरत है? आप भी मेरे साथ भारत चलिये न प्लीज़।
अगर एक बेटा अपनी माँ के साथ रह सकता है तो एक बेटी भी अपनी माँ के साथ रह सकती है, उनकी देखभाल कर सकती है।"

"नहीं बेटा, अभी तक मेरे मन के वो घाव भरे नहीं हैं जो मुझे उस शहर में मिले थे।
इसलिए फ़िलहाल मेरा दिल मुझे वहाँ जाने की इज़ाज़त नहीं देता।"

"माँ मैंने आज तक आपसे कुछ नहीं पूछा लेकिन आज आपको मुझे बताना ही होगा कि आख़िर आपके साथ ऐसा क्या हुआ था जिसने आपको अपने ही देश से मुँह मोड़ने पर विवश कर दिया? प्लीज़ माँ बताइये मुझे।"

"अच्छा ठीक है, सुनो।" कहते हुए शारदा जी ने अपनी आँखें बंद कर लीं मानों बंद आँखों से वो अपने गुज़र चुके अतीत को साक्षात देख रही हों।

"ये बात तब की है जब मेरे विवाह को छः महीने ही हुए थे।
शुरू-शुरू में तो नये-नये विवाह और घर-गृहस्थी के उमंग में मानों मैं अपने आप को भूल ही गयी थी लेकिन फिर धीरे-धीरे मुझे मेरा छोटा सा सपना बेचैन करने लगा, जो बस इतना ही था कि मैं एक दिन प्रख्यात कत्थक नृत्यांगना बनूँ।

एक दोपहर जब मेरे सास-ससुर खाना खाकर पड़ोस में चले गयें तब मैंने अपने बक्से में सहेजकर रखे गये घुंघरू निकाले और उन्हें पैरों में बाँधने के बाद मैंने धीमी आवाज़ में संगीत बजाकर नृत्य करना आरंभ किया।
कुछ ही मिनटों में मैं अपने नृत्य में इस कदर डूब गयी कि मुझे आस-पास का कुछ भी होश नहीं रहा।

अचानक मेरे पति की तेज़ आवाज़ से मेरी तंद्रा भंग हुई जो मुझ पर चिल्लाते हुए कह रहे थे कि मेरी नाक के नीचे ये क्या नौटंकी चल रही है इस घर में।

उनका ये रूप देखकर मैं एकबारगी सहम सी गयी।
फिर मैंने तुरंत अपने घुंघरू खोलकर रख दिये और सोचा जब उनका गुस्सा ठंडा हो जायेगा तब मैं उन्हें बताऊँगी कि नृत्य सिर्फ मेरे लिए समय काटने का साधन नहीं है बल्कि मेरा पैशन है।

धीरे-धीरे करके एक वर्ष बीत गया लेकिन नृत्य के प्रति उनकी मानसिकता नहीं बदली।
उनका ये रुख देखकर मैंने सोचा मैं ही अपना मन मार लेती हूँ।
अब कभी अकेले में भी मुझे अपने घुंघरुओं को स्पर्श करने का साहस नहीं होता था।

फिर एक दिन मेरी ननद के ससुराल से एक विवाह कार्यक्रम का बुलावा आया।
वहाँ विशेष रूप से महिला संगीत का भी आयोजन किया गया था।

नृत्य-संगीत के इस माहौल में मैं स्वयं को रोक नहीं पायी और मैं भी मंच पर पहुँच गयी।

अभी मेरे कदमों ने थिरकना शुरू ही किया था और मैंने अरसे के बाद थोड़ा सुकून अनुभव किया ही था कि तभी मेरे पति वहाँ पहुँच गयें जिन्हें किसी ने मेरे नृत्य की खबर दे दी थी।

उन्होंने सबके बीच में मुझे अपमानित करते हुए कहा कि शायद मेरी रगों में किसी तवायफ का खून दौड़ रहा है तभी मुझे अपनी घर-गृहस्थी से ज़्यादा घुंघरुओं का मोह है।

उन्होंने मुझ पर, मेरे मायके वालों पर अनगिनत लांछन लगायें और उनके परिवार में से किसी ने उन्हें चुप करवाना ज़रूरी नहीं समझा।

जब तक मैं सुन सकती थी सुनती रही, फिर पलटकर शब्दों के रूप में उत्तर देने की जगह मैंने कमरे में जाकर अपना बैग उठाया और उसी समय वहाँ से निकल गयी।

जिस घर के एक भी सदस्य को मेरे मान-सम्मान की परवाह नहीं थी वहाँ रहना अब मेरे लिए असंभव था।

जब मैं अपने मायके पहुँची तब मेरे माँ-पापा और भाई-भाभी को लगा कि झगड़े तो हर पति-पत्नी में होते ही हैं, तो कुछ दिन में जब मेरा और मेरे पति दोनों का गुस्सा शांत हो जायेगा तब मैं वापस अपने ससुराल चली जाऊँगी लेकिन जब मैंने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि अब मैं वापस उस घर में कभी नहीं जाऊँगी तब उन सबका माथा ठनक गया।

मेरे पापा ने जब मेरे पति से बात की तब मेरे पति ने उनके सामने ये शर्त रखी कि मुझे मोहल्ले के बीच में अपने घुंघरू तोड़ने होंगे और उन्हें नाले के पानी में फेंकना होगा।

जिस घुंघरू की मैं पूजा करती थी उसका ये अपमान मैं कैसे सह सकती थी।

अब मैं अच्छी तरह ये समझ चुकी थी कि मेरे मायके वाले भी मेरा साथ नहीं देंगे।
तब मैंने उनसे बस कुछ दिनों की मोहलत माँगी और मैंने उसी नृत्य संस्थान में संपर्क किया जहाँ कभी मैंने नृत्य की दीक्षा ली थी।

मेरी गुरु माँ मुझसे बहुत स्नेह करती थीं, उन्होंने तत्काल मुझे संस्थान में नौकरी दे दी और मुझे एक महीने का वेतन भी एडवांस में दिलवा दिया ताकि मैं अपने रहने के लिए किसी जगह का इंतज़ाम कर सकूँ।

मैंने अपने लिए किराये का एक छोटा सा घर ढूँढ़ा और फिर अपना मायका छोड़ दिया।
कुछ दिनों के बाद जब मेरा तलाक़ हो गया तब मैंने स्वयं को पूरी तरह नृत्य के लिए समर्पित कर दिया।

धीरे-धीरे मुझे कई स्टेज शोज के भी ऑफर मिलने लगें जिससे मेरी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हो गयी।

फिर तुम मेरी ज़िन्दगी में आयी मेरी सबसे होनहार शिष्या बनकर।
धीरे-धीरे तुमसे मेरा लगाव बढ़ता गया। इसी दौरान मुझे सिडनी के एशियन डांस एकेडमी से नृत्य सिखाने का ऑफर मिला जो मेरे लिए बहुत बड़ी उपलब्धि थी।
और तभी मुझे पता चला कि तुम्हारी माँ का देहांत हो चुका है।

तुमसे दूर जाने के ख़्याल से मैं पहले ही परेशान थी, इसलिए मैंने सोचा कि क्यों न मैं तुम्हें गोद लेकर अपने साथ ले जाऊँ।
इससे हम दोनों एक-दूसरे का दु:ख और एक-दूसरे के जीवन का खालीपन बाँट सकेंगे।
बस आगे तो तुम सब जानती ही हो।"

अपनी पूरी कहानी सुनाकर जब शारदा जी चुप हुईं तब उन्होंने देखा वैदेही की आँखों से आँसू बह रहे थे।

उसके आँसू पोंछते हुए शारदा जी ने आगे कहा, "मत रो बेटा। गलती शायद मुझसे भी हुई है कि मैंने अपने जीवन के कड़वे अनुभव पूर्वाग्रह के रूप में तुम पर थोप दिये।
तुम भारत जाओ, राघव से मिलो। मैं प्रार्थना करूँगी कि वो बिल्कुल वैसा ही हो जैसा तुमने अपने ख़्यालों में उसके विषय में सोच रखा है।"

"पर माँ आपको अकेले छोड़कर जाने के लिए मेरा दिल नहीं मानता।
मुझे आप और राघव एक साथ क्यों नहीं मिल सकते?"

"हो सकता है एक दिन ऐसा आये जब तुम्हारी ये इच्छा पूरी हो जाये बेटा लेकिन अभी तो तुम्हें अकेले ही भारत जाना होगा।
तुम मेरी चिंता मत करो।
वैसे भी मोबाइल फ़ोन के ज़माने में अब किसी भी दूरी का अर्थ ही क्या रह गया है?"

हामी भरते हुए वैदेही अपने कमरे की तरफ बढ़ गयी जहाँ लीजा और मार्क बेचैनी से चहलकदमी करते हुए उसी का इंतज़ार कर रहे थे।
क्रमश: